कहानी: बहन जी
भाई-बहन का रिश्ता एक पवित्र रिश्ता होता है. मां-बाप के दुनिया से जाने के बाद भी उनके दिए ये रिश्ते साथ रहते हैं. ख़ून और रेशम की डोर से बंधे इन रिश्तों की मौत भी ख़ुद की मौत के साथ होती है. लेकिन पता नहीं क्यों ये रक्षाबंधन हर साल मेरे ख़ून में उबाल लेकर आता है. सारा बचपन रेशम को बांध नया ब्रश ले राखी बनाने में गुज़ारा. रेशम की लड़ को ब्रश से तराश उस पर रंग-बिरंगे सितारे और चमकी चिपका भाइयों की कलाई पर बांधा. कहीं से कोई लालच ना था कि कुछ मिल जाए या भाई कुछ दें. वो तो अम्मा ही हाथ में दो रुपए धर देती थीं. बचपन में भाई ना केवल मेरे भाई बल्कि मेरे परम मित्र भी थे. सो राखी का त्यौहार हमारी दोस्ती को और मज़बूत करता था. रिश्ते के भी कई कज़िन थे, अम्मा कहतीं,‘सगे भाई तो हैं ही घर पर फिर कहां ज़रूरत है भाई ढूंढ़ने की.’ सबका ज़िंदगी को लेकर अपना-अपना फ़लसफ़ा रहता है.
अम्मा की ही सोच ज़िंदगी में घर कर गई. भाइयों के साथ ही खेल-कूद बड़ी हुई तो मुझमें लड़की जैसी ना तो नज़ाकत थी और न ही स्वभाव ही लड़कियों-सा था. एक चलती ज़ुबान में मुझे टॉमबॉय कहा जा सकता था. नैन नक़्श तो अच्छे थे सो बड़े होने पर उन्हीं लड़कों से खेलते वक़्त कभी-कभी शरीर में सुरसरी, कभी एक अजीब-सी फ़ीलिंग हो जाती थी. अब अपने बच्चों को गुड-टच बैडटच सिखाते हैं, उन दिनों किसी ने सिखाया नहीं था इसलिए हर बैड टच को अपने मन का वहम सोच दिल से निकाल फेंका. पर दिल तो दिल है, वो भी एक लड़की का सो धड़का ज़रूर, पर जिसके लिए धड़का उसी ने अपना प्रेम पत्र मेरे द्वारा ही अपनी धड़कन को भिजवाया. हाथ में लिफ़ाफ़ा पकड़े धीरे से बुदबुदाते हुए पास बुलाया,‘गुड्डी ज़रा इधर तो आओ, चुपचाप.’ ये गुड्डी भी चुपचाप लम्बी-लम्बी सांसें और धड़कते दिल के साथ जा पहुंची. लगा भगवान ने उनके दिल की सुन ली और ये लिफ़ाफ़ा इस गुड्डी के लिए ही है.
उसने ताना मारा ‘ये क्या हुआ तुम्हें? थोड़ी देर रुको, आराम से सांस लो. सुनो ये बहुत ही नाज़ुक काम है, केवल तुम ही कर सकती हो. मेरा ये पैग़ाम मंजू तक पहुंचा देना. मुझे बहुत अच्छी लगती है. प्लीज़, प्लीज़ कर दो.’ चिट्ठी के साथ एक चॉकलेट भी दी. दिल का स्वाद बड़ा बदमज़ा-सा हो गया, आंख में आंसू आ गए. अंदर एक गंदी-सी सोच ने जन्म लिया कि अगर तुम मेरे नहीं तो मंजू का भी नहीं होने देंगे. सीधे मंजू के घर पहुंच मंजू की अम्मा चौबे आंटी के सामने ही मंजू को लिफ़ाफ़ा दिया. आंटी ने मंजू के हाथ से लिफ़ाफ़ा लेकर थोड़ा-सा पढ़ कर फाड़ दिया. उसके बाद मंजू की दे पिटाई, दे पिटाई और हमारी अच्छाई की सराहना,‘देखो गुड्डी को कितना अच्छा पढ़ती है, सुंदर है पर क्या मजाल कोई उसे चिट्ठी उसके लिए दे. तुम ही ज़रूर ताका-झांकी करती होगी.
वो तो भला हो गुड्डी का जो हमारे सामने ही चिट्ठी दी नहीं तो पता नई का होतो.’ हमने भी भोलेपन का जामा ओढ़कर कहा,‘आंटी मुझे कुछ नहीं मालूम, उसने हमें दिया और कहा मंजू को दे दो.’ हमारा चेहरा और इमेज दोनों ही ऐसी थी कि आसानी से विश्वास कर लिया गया. उसके बाद मंजू के घर पर एक बैठक हुई, मंजू के पापा, भाईयों और उन महाशय की जिनके लिए हमारा दिल धड़का था. दोनों परिवार की मौजूदगी में मंजू ने उन महाशय को राखी बांधी और चौबे परिवार में अचानक बिना मुहूर्त और राखी त्यौहार के रक्षाबंधन मनाया गया. अभी भी दो दिलों को तोड़ने की कसक चुभती है, पर क्या करते हमारे दिल को उस समय शांति मिली. लेकिन एक अच्छी बात हुई किसी ने फिर हमें डाकिया नहीं बनाया. और ये भी पता चला की रक्षाबंधन कभी भी मनाया जा सकता है सिर्फ़ राखी की ज़रूरत होती है.
थोड़ी बड़ी हो जब कॉलेज पहुंची तो दिल में फिर हुक-सी उठी कि यहां तो हमारे अरमानों को पूरा होने से कोई नहीं रोक सकता. कॉलेज एक तो दूसरे शहर में था, दूसरे यहां कोई पुरानी पहचान ही बाक़ी नहीं थी. कक्षा में चालीस लड़के और चार लड़कियां थीं. इंजीनियरिंग वैसे भी कम लड़कियां पढ़ती थीं. मन में आशा ही नहीं पक्का विश्वास था कि यहां ज़रूर हम किसी ना किसी की धड़कन बनेंगे. लेकिन फिर क़िस्मत की मार, पूरी क्लास मीता पर मरने लगी, जिसे भगवान ने फ़ुरसत से बनाया था. हमारा गणित बहुत पक्का था इससे लड़के भी कभी-कभी हमारी मदद लेते थे. फिर क़िस्मत ने हमें उनका दोस्त बना दिया. प्यार तो बहुत करते थे पर भाइयों की बहन बनाकर. सीनियर बैच में एक लड़का था जो हमारी पुरानी धड़कन को जानता था और उसे मंजू तक पत्र पहुंचाने वाला वाक़या भी मालूम था. उन दिनों रैगिंग भी बहुत हुआ करती थी. उसने हमें क्लास में जाने से रोक लिया और बाहर थोड़ी दूर ले जाकर अपने दोस्त का दिल तोड़ने का बदला उस दिन लिया. उसने अपनी जेब से क़रीब दस राखियां निकालीं और हमसे दस सीनियर लड़कों के हाथों में बंधवाई. सारे लड़के कोरस में गाने लगे ‘फूलों का तारों का सबका कहना है, एक हज़ारों में हमारी गुड्डी बहना है...’
हमें तो जैसे काटो तो ख़ून नहीं. उस दिन हम हम ना रहे और मैं बन गए. वापस क्लास में आकर भी मैं सुबकती रही, बाक़ी तीन लड़कियों को तो इल्म भी नहीं था कि मेरे साथ क्या घटा है और ना ही मेरी बताने की हिम्मत थी. दूसरे दिन ये बात पूरे कॉलेज में फैल गई और लोग मुझे देखकर बातें करने लगे. दिखने और पढ़ने दोनों में ही मैं बहुत अच्छी थी, इससे ना केवल लड़कियां बल्कि लड़के भी हैरान हो गए. दिल इतना आहत हुआ था कि इसकी शिकायत ख़ुद से भी नहीं करना चाहती थी. ‘बहनजी ज़िंदाबाद’ के पोस्टर सारे कॉलेज और कॉमन रूम में चिपक गए. अब तो सच में भी कोई रिश्ते का भाई बहनजी कह पुकारता था तो मैं ग़ुस्से से लाल हो जाती थी. सगे भाइयों को भी राखी भेजना बंद कर दिया. अम्मा अपनी तरफ़ से ही उन्हें राखी भेज देतीं और कह देतीं,‘गुड्डी घर पर रख गई थी. बड़ी आलसी है. मुझे भेजने को कह गई है.’ मेरे मन की व्यथा मेरे सिवाय कोई नहीं समझता था, ना समझ सकता था.
घूरे के भी दिन फिरते हैं. अंग्रेज़ी में एक कहावत है ‘एवरी डॉग हैज़ ए डे’ की तरह भगवान को मुझ पर दया आई और उसने मुझ बहनजी पर दया की. मेरी आंखों की भिड़ंत दो जोड़ी आंखों से होने लगी. पहले तो ये मन का भ्रम लगा, लेकिन जब ऐसा बार-बार होने लगा और मुझे भी अच्छा लगने लगा. ये सिलसिला महीनों चला, चूंकि वो आंखें मेरी ही क्लास में तो थीं ज़रूर लेकिन प्रैक्टिकल बैच अलग-अलग थे. इससे मैं ना तो उन आंखों के मालिक का नाम धर्म और रंग जानती थी और ना जानना चाहती थी. मुझ पर तो बस अर्जुन की तरह ख़ुमारी चढ़ी थी. उन आंखों से लड़ती तो मेरी आंखें थीं, लेकिन सिहरन पूरे बदन में होती थी. सारी रात बिस्तर पर करवटें बदलती रहती थी. सचमुच प्यार ख़ामोश कितना अच्छा और सच्चा होता है. सारी परेशानी तो तब होती है, जब ख़ामोशी टूटती है, सो इस ख़ामोशी का टूटना भी दिल में बड़ा दर्द ले आया था. ये उन दिनों की बात है, जब कान्यकुब्ज तिवारी जी की बेटी का विवाह सरयूपारी पाण्डेय जी के बेटे से तक होना सम्भव नहीं था. उन्हें भी घर से भागना पड़ता था और यहां तो मैं जिससे आंखें लड़ा रही थी, वो नमाज़ पढ़ने वाला था. इसका शक तब हुआ, जब वो शुक्रवार की हर दोपहर को क़रीब-क़रीब ग़ायब ही रहता था. और तो और इसकी पुष्टि एक दिन हुई जब मेरे कानों ने उसे अपने एक दोस्त को कहते सुना,‘नमाज़ पढ़ के आता हूं.’
डर के मारे घिग्गी बंध गई. सपना देखने लगी कि मेरा कॉलेज छुड़वा दिया गया और मैं बाबूजी से लड़ रही हूं,‘ना मैं नहीं छोड़ूंगी कॉलेज, आप मेरे भाग्य विधाता नहीं हैं. मैं नहीं मानती धर्म जाति, ये तो इंसानों की बनाई हुई बेड़ियां हैं. बड़ी मुश्क़िल से तो बहन जी का लेबल हटा है. आप समझ नहीं सकते मुझे कितना आत्मविश्वास उन आंखों ने दिया है. अब मैं उस दुनिया में जाना छोड़ दूं, नहीं मैं इतनी कमज़ोर नहीं.’ ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही थी कि रूममेट ने झझकोर कर उठाया. वो भी चिल्लाई,‘व्हॉट हैपेन्ड? व्हाई आर यू शाउटिंग लाइक दिस?’ मैं शर्म से लाल कहीं भांडा ना फूट जाए, क्योंकि आंखों की कारस्तानी केवल मुझे ही मालूम थी. ‘नथिंग नथिंग इट वॉज़ अ बैड ड्रीम,’ उससे कहा. बात आई गई हो गई.
सप्ताहांत में घर जा धीरे से अम्मा से कहा,‘अम्मा हमारे कॉलेज में एक ब्राह्मण लड़की का एक मुसलमान से अफ़ेयर चल रहा है.’ अम्मा तो ‘राम राम’ कह पूरे घर में गंगा जल छिड़कने लगीं. ‘तू तो दूर ही रहियो ऐसी लड़की से, बेचारे मां-बाप पढ़ाते-लिखाते हैं लड़कियों को ये दिन देखने के लिए. हमारा ज़माना ही अच्छा था, घर के अंदर बंद रहो कोई चक्कर नहीं.’ अम्मा दूर से ही चिल्लाईं. अब क्या किया जाए पहली बार किसी ने मन के तारों को छेड़ा था. आंखों से उठती हुई लहर पूरे बदन में समाती थी, जब भी मेरी आंखें उन आंखों से मिलती थीं. इस अनुभूति को किसी से कहने में भी डर लगता था, क्योंकि उस ज़माने में कई लवस्टोरीज़ ख़ुद ही अनकही दम तोड़ देती थीं.
कुछ दिनों तक तो रात क्या दिन में उठते-बैठते सपने देखती. और तो और ये सपने धारावाहिक की तरह सताते. लगता ये दुनिया छोड़ उन महाशय को ले कहीं उड़न छू हो जाऊं. ज़िंदगी इसी कशमकश में गुज़र रही थी कि घर में मेरी शादी की बातें चलने लगीं, जिसका कारण भी मैं ही थी. मैंने ही तो अम्मा से अपनी काल्पनिक ब्राह्मण सहेली और उसके मुसलमान आशिक़ का ज़िक्र किया था, अब भोगना भी मुझे ही था.
किसी तरह साहस जुटा कर बचपन की एक दोस्त जिसका नाम फ़ातिमा था, का दरवाज़ा खटखटाया. दोस्ती करने के बहाने एक संडे उसके घर गई. बाप रे, घर के अंदर से आती मांस की ख़ुशबू, पर मेरे लिए तो वो बदबू थी, से सर चकराने लगा. मुझे देख वो भी आश्चर्य में आ गई. अंदर से नक़ाब पहनी उसकी भाभी आई, जिसने हाथों में भी काले दस्ताने पहने थे. फ़ातिमा एक तामचीनी की सफ़ेद प्लेट जिमें कटे हुए कुछ फल लेकर आई. मेरे माथे पर पसीने की बूंदें छलकने लगी. फ़ातिमा तो मुझे देख बड़ी प्रसन्न थी और उसने कहा,‘पहले ये फ्रूट्स खा ले फिर आज खाना खा के ही जाना. अम्मी सालन बड़े मज़े का बनाती हैं.’ मैंने किसी तरह कटे हुए फल के एक दो टुकड़े खाए और किसी तरह बहाना बना घर की तरफ़ सरपट दौड़ी आई. मैंने पूरी रात ख़ुद को सपने में एक काले बुर्क़े और हाथ में तामचीनी की प्लेट में मुर्ग़े की टांग खाते देखा. अपने ऐसे भविष्य की तो कभी कल्पना ही नहीं की थी. पूरी रात पसीने-पसीने होती रही और इसी उधेड़बुन में वीकएंड ख़त्म हो गया और मैं फिर वापस कॉलेज और हॉस्टल की दुनिया में चली गई.
प्यार की ख़ुमारी अभी उतरी कहां थी, धारावाहिक की तरह सपने अभी भी रातों के साथी थे. सपनों ने अब नई करवट ले ली. जिसमें मैं एक छोटी-सी चिड़िया और वो एक चिड़ा था. मैं कहती,‘चलो नीड़ बनाएं.’ चिड़ा जवाब देता,‘कैसे? पहले मेरे साथ तो आ.’ मैं कहती,‘शुरुआत तो कर पहले, मैं आ जाऊंगी.’ वो कहता,‘अकेले नहीं बन सकता मेरा काम तो सिर्फ़ तिनके लाना है, सहेजना और तरीक़े से ज़माना तो तुम्हारा काम है.’
मैं कहती,‘डर लगता है ज़माने से हिम्मत जुटाती हूं.’
सपने में भी मैं हिम्मत ना जुटा पाई. जब घोसला ही नहीं बनाया तो अंडे कहां से देते. जब कभी सपने में हिम्मत जुटाती तो कभी अम्मा तो कभी पापा को एक पेड़ से गले में फंदा डाले पाती. अम्मा के एक दूर के भाई की बेटी डॉक्टर बनी और अपने ही एक मुसलमान सहपाठी डॉक्टर से भाग कर शादी कर ली. ख़बर पाते ही मामा जी को दिल का दौरा आया और अस्पताल पहुंचने के पहले ही वो चल बसे. मैं तो अब इतना डर गई जल्द ही अपने ज़ेहन से बुर्क़ा, मुर्गा और चिड़ा-चिड़ी का सपना उतार फेंका. लेकिन अब तक उन महाशय के सपने में शायद मैं भी आने लगी थी. उन्होंने अपने एक मित्र के ज़रिए अपना पैग़ाम मुझ तक पहुंचाया. मैं तो साफ़ मुकर गई और बड़े आदर्श की बातें की. फिर क्या था पुनः मूषको भव की तरह पूरे क्लास की बहन जी बन गई. उसका चेहरा कुछ दिनों तक उतरा रहा फिर उसने भी भाइयों का गैंग जॉइन कर लिया. कहते हैं ना कि प्यार में हारा हुआ आशिक़ कुछ भी कर सकता है, बस फिर क्या था, उसने भी अपने पैंतरे दिखाने शुरू कर दिए. राखी पर एक बड़ा राखियों से भरा पार्सल घर पर आया, जिस पर लिखा था,‘प्यारी बहना के लिए-भाइयों की ओर से सप्रेम भेंट.’ घर पर भी मुझे बहनजी कहने लगे. अब भी रक्षाबंधन मेरे घावों को हरा कर देता है. पति और बच्चे मुझसे जी जान से ज़्यादा प्यार करते हैं, लेकिन वे भी अब तक नहीं समझ पाए हैं कि रक्षाबंधन से मुझे इतनी चिढ़ क्यों है.
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