कहानी: एक अजनबी

एमबीए करने के बाद नौकरी के लिए पहला इंटरव्यू और वह भी मुंबई की एक मल्टीनैशनल कंपनी में. मन बहुत उत्साहित था. यूं कि मानो कंपनी को मेरा ही इंतज़ार था. इंटरव्यू दिया नहीं कि नौकरी पक्की. मम्मी चाहती थीं कि पापा मेरे साथ जाएं, लेकिन पापा ने हौसला बढ़ाया,‘‘स्वाति, तुम अकेले ही जाओ. इससे तुम्हरा कॉन्फ़िडेंस बढ़ेगा. दिल्ली-मुंबई राजधानी एक्स्प्रेस में खाते-पीते सफ़र कब गुज़र जाता है, पता भी नहीं चलता.’’

मैंने पापा की बात मान ली. पापा छोड़ने आए थे स्टेशन पर. ट्रेन चल पड़ी. मैंने आसपास बैठे यात्रियों पर निगाह दौड़ाई. सामने की बर्थ पर एक नवविवाहित जोड़ा बैठा था जो अपनी ही मस्ती में खोया हुआ था. दो अन्य यात्री राजनीति की चर्चा में मशगूल  थे. तभी मेरी निगाह सामने ऊपर की बर्थ पर लेटे व्यक्ति पर पड़ी, जो एकटक मेरी ओर ही देख रहे थे. पहली नज़र में वह मुझे पढ़े-लिखे बेहद संभ्रांत दिखाई दिए. फिर मैं खिड़की में से भागते पेड़ों और खेत खलिहानों को निहारने लगी. तभी शाम की चाय आ गई. चाय पीते हुए दोबारा मेरी नज़र ऊपर गई तब भी वह महाशय मुझे ही निहार रहे थे. मुझसे निगाह मिलते ही वह दूसरी ओर देखने लगे. हो सकता है, मुझपर उनकी निगाह पड़ना इत्तफ़ाक़ हो. चाय ख़त्म करके मैं मैगज़ीन देखने लगी. जब भी मेरी नज़र ऊपर उठती, मैं पाती कि वो मेरी ओर ही देख रहे हैं. अब तो मुझे क्रोध भी आने लगा और घबराहट भी होने लगी. 


आख़िर यह व्यक्ति मुझे इस तरह क्यों घूर रहा है? कहीं उसका कोई ग़लत इरादा तो नहीं है? मुंबई...इतना बड़ा शहर और मेरे लिए बिल्कुल अनजान, कहीं इसने मेरा पीछा किया तो? अब मुझे यूं अकेले मुंबई आने पर पछतावा हो रहा था. डिनर के बाद मैं लेट गई और कंबल से मुंह ढंककर सोने का प्रयास करने लगी. पर मुझे रातभर ठीक से नींद नहीं आई. जब भी आंख लगती, बुरे सपने दिखाई देते और मैं चौंककर उठ बैठती. सुबह उठी तो सिर भारी था. ऊपर नज़र डाली तो वह सज्जन आराम से सोए हुए थे. मैंने अपना हैंडबैग उठाया और फ्रेश होने चल दी. बर्थ पर लौटी तो नाश्ता सर्व किया जा रहा था. अब तक वह भी जाग गए थे और फ़ोन पर किसी से बात कर रहे थे. ठीक नौ बजे हम मुंबई सेंट्रल पहुंचे. 

अपना हैंड बैग कंधे पर डाले मैं स्टेशन पर उतरी और आगे बढ़ने लगी. बीच-बीच में मुड़कर पीछे भी देखती जा रही थी कि कहीं वह मेरा पीछा तो नहीं कर रहा. मैंने पापा को अपने पहुंचने की सूचना दी और मोबाइल को बैग में रखते समय अचानक मैं सन्न रह गई. मेरा छोटा पर्स, जिसमें रुपए और एटीएम कार्ड थे, बैग में कहीं नज़र नहीं आ रहा था. मेरा दिल धक्क रह गया. घबराई-सी मैं उल्टे पांव ट्रेन के अपने कम्पार्टमेंट की ओर दौड़ी. बर्थ पर और टॉयलेट में सभी जगह देखकर जब मैं मायूस-सी उतरी तो पीछे से आवाज़ आई,‘‘क्या यह पर्स तुम्हारा है?’’ मैं मुड़ी. सामने वही श़ख्स मेरा पर्स लिए खड़ा था.


‘‘जब तुमने कंबल उठाया, तब यह नीचे गिर गया होगा. जब मैंने इसे देखा, तब तक तुम जा चुकी थीं,’’ पर्स मुझे थमाते हुए उसने कहा,‘‘चेक कर लो, सब चीज़ें हैं ना?’’

मैंने पर्स खोला. अपनी चीज़ें सही-सलामत देखकर राहत की सांस ली. धन्यवाद कहकर मैं आगे बढ़ गई. दोपहर में इंटरव्यू दिया और अगले दिन वापस दिल्ली लौट आई. वापसी के समय भी मन में भय-सा बना रहा कि कहीं वह व्यक्ति फिर न मिल जाए.

घर आकर पूरी घटना मां-पापा को बताई तो पापा बोले,‘‘वह तुम्हें ग़लत नज़रों से नहीं देख रहा होगा अन्यथा तुम्हारा पर्स क्यों लौटाता?’’

‘‘लेकिन पापा...’’


‘‘अरे छोड़ो भी,’’ पापा ने मेरी बात को ख़ास अहमियत नहीं दी.

मुंबई की वह नौकरी तो मुझे नहीं मिली, पर दिल्ली में एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई. धीरे-धीरे मेरा जीवन व्यवस्थित हो गया. एक दिन ऑफ़िस से लौटने पर मां ने बताया कि हमारे सामनेवाले घर में कोई रहने आ गया है.

‘‘कौन है वह?’’ उत्सुक होकर मैंने पूछा.

‘‘अरे अभी मैं उनसे मिली कहां हूं? अभी तो केवल उन्हें आते देखा है. पर जो भी हो, कम से कम हमें कंपनी मिल जाएगी,’’ मम्मी ने प्रसन्नता से कहा.

उस दिन सुबह जॉगिंग करके ज्यों ही घर जाने के लिए मुड़ी, अचानक अपने सामने उसी श़ख्स को देखकर मैं बुरी तरह चौंक गई. मुझपर एक भरपूर नज़र डालता हुआ वह पास से गुज़र गया. मेरे शरीर में भय की एक लहर-सी दौड़ गई. तेज़-तेज़ क़दम बढ़ाती मैं घर की ओर बढ़ी. मम्मी गेट पर ही मिल गईं.


‘‘क्या हुआ स्वाति?’’ मुझे घबराया हुआ देखकर उन्होंने पूछा.

‘‘मां, अभी पार्क में फिर मैंने उसे देखा.’’

‘‘किसे?’’

‘‘वही जो मुझे ट्रेन में मिला था,’’ यह कहते कहते सामने की ओर मेरी नज़र गई तो देखा कि वही श़ख्स सामनेवाले घर का गेट खोलकर अपने घर जा रहा था. आश्चर्यमिश्रित स्वर में मैंने कहा,‘‘मम्मी, यही है वह. इसने घर भी हमारे घर के सामने ले लिया. कुछ गड़बड़ है मां, मुझे तो इसका इरादा कुछ ठीक नहीं लगता.’’

‘‘तुम भी स्वाति बेकार ही घबरा रही हो? यह महज़ इत्तफ़ाक है कि पहले वो तुम्हें ट्रेन में मिला और अब उसने यहां घर ले लिया.’’


‘‘नहीं मम्मी. मेरा सिक्स्थ सेंस मुझे आगाह कर रहा है कि ये ज़रूर हमें कोई नुक़सान पहुंचाएगा.’’

‘‘बेकार के वहम मत पालो,’’ कहती हुई मम्मी अंदर चली गईं.

दो-तीन दिन बाद घर पहुंची तो देखा ड्रॉइंगरूम में पापा-मम्मी उसी व्यक्ति से घुलमिल कर बात कर रहे हैं. चाय-समोसे खाए जा रहे हैं. यह देखकर मुझे बहुत ग़ुस्सा आया. मुझे देखते ही पापा बोले,‘‘आओ स्वाति, दिवाकर जी से मिलो. ये हमारे नए पड़ोसी हैं.’’

मैंने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और तेज़ी से अंदर चली गई. जाते-जाते मैंने सुना वे कह रहे थे,‘‘स्वाति से मैं मिल चुका हूं. कुछ दिन पहले मुंबई जाते हुए राजधानी एक्स्प्रेस में हम एक ही कम्पार्टमेंट में थे.’’


उनके जाने के बाद पापा नाराज़ होते हुए अंदर आए और बोले,‘‘स्वाति ये कौन-सा तरीक़ा है? मैं उनसे तुम्हारा परिचय करवा रहा था और तुम बिना कुछ बोले अंदर चली गईं.’’

‘‘पापा आप समझते क्यों नहीं? मुझे इस आदमी की नीयत पर शक़ है.’’

‘‘कम ऑन स्वाति, तुम पढ़ी-लिखी हो. किसी को जांचे-परखे बिना कोई लांछन लगाना ठीक नहीं है. मैच्योर बनो.’’


पापा चले गए और मैं सोचने लगी कि आजकल आए दिन किडनैपिंग और रेप केस अख़बारों की सुर्ख़ियां बनते हैं यह सब जानते हुए भी पापा क्यों ऐसे शख़्स को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसकी नीयत पहले ही ख़राब नज़र आ रही है.
अगले दिन संडे था. पापा की डांट से मूड यूं भी ख़राब था और सिर भारी हो रहा था. सुबह-सुबह मेरी दोस्त नीतू घर पर आई तो मम्मी ने कहा,‘‘स्वाति तुम और नीतू शॉपिंग कर आओ. तुम्हारा मन भी बदल जाएगा.’’

शॉपिंग के बाद जब हम लंच के लिए एक रेस्तरां में पहुंचे. गपशप करते खाना खा ही रहे थे कि मेरी नज़र सामनेवाली टेबल पर पड़ी. वहां दिवाकर दो और लोगों के साथ बैठे थे. उनकी नज़र मुझपर ही थी. मेरा जी धक-धक करने लगा. तो क्या यह आदमी मेरा पीछा कर रहा है? हो न हो इसके दोनों साथी भी इससे मिले हुए होंगे. जैसे-तैसे मैंने खाना ख़त्म किया और नीतू से कहा,‘‘चल जल्दी. सिरदर्द तेज़ हो गया है.’’ अब तो मेरे मन में हर समय दिवाकर का भय समाया रहने लगा. कहीं आने-जाने में घबराई-घबराई सी रहती. पर ऑफ़िस तो जाना ही था. एक दिन दोपहर में ऑफ़िस में थी. मैनेजर का बुलावा आया. जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला, तेज़-तेज़ क़दमों से चले आ रहे एक श़ख्स से मैं टकराते-टकराते बची. मेरे हाथ से मोबाइल गिर पड़ा.

‘‘आई एम सॉरी,’’ एक आवाज़ आई.


मैंने सिर उठाकर देखा. सामने दिवाकर था. भय की एक तीखी लहर मेरे शरीर में दौड़ गई. इससे पहले कि मैं कुछ कह पाती, वो लिफ़्ट की ओर निकल गया. मेरी तो जैसे सारी शक्ति ही चुक गई थी. आख़िर चाहता क्या है ये इंसान? आज मेरे ऑफ़िस तक भी पहुंच गया. इस घटना के बाद ऑफ़िस में वक़्त काटना बहुत मुश्क़िल लगने लगा. शाम को मम्मी को ये बात बताई तो वह थोड़ा गंभीर हो गईं, बोलीं,‘‘तुम शायद ठीक कह रही हो. किसी इंसान का एक या दो बार कहीं टकराना इत्तफ़ाक़ हो सकता है, पर बार-बार नहीं. तुम थोड़ा सतर्क रहना. मैं तुम्हारे पापा से इस बारे में बात करूंगी.’’

अगले दिन मैं ऑफ़िस के लिए थोड़ा जल्दी निकल गई. लगभग 11 बजे मम्मी का फ़ोन आया. घबराई हुई आवाज़ में उन्होंने कहा,‘‘स्वाति, जल्दी से सिटी हॉस्पिटल में आ जाओ. पापा को हार्ट अटैक आया है.’’

ऑफ़िस से तुरंत निकलते हुए मैंने सोचा मम्मी हॉस्पिटल में अकेली होंगी और मुझे पहुंचने में कम से कम एक घंटे का समय लगेगा तो क्यों न चाचा को फ़ोन कर दूं. उनका ऑफ़िस सिटी हॉस्पिटल के नज़दीक है. मैंने आदित्य चाचा को फ़ोन लगाकर स्थिति से अवगत कराया तो वे बोले,‘‘स्वाति, इस समय तो मैं नहीं निकल पाऊंगा. एक ज़रूरी मीटिंग में हूं और कल सुबह चार बजे तुम्हारी चाची के साथ मनाली जा रहा हूं.’’


उनकी बात सुनकर मैं सन्न रह गई. जिसका सगा बड़ा भाई ज़िंदगी और मौत की जंग लड़ रहा है, वह इतना हृदयहीन कैसे हो सकता है? पापा ने हमेशा उनकी मदद की, लेकिन...यह सोचते-सोचते मेरी आंखों में आंसू आ गए. मैंने टैक्सी ली और हॉस्पिटल पहुंच गई.

आईसीयू के बाहर मम्मी ने मुझे देखा तो सिसकने लगीं. मैंने उन्हें कसकर थाम लिया. तभी डॉक्टर बाहर निकले तो मैं उनकी ओर लपकी.

‘‘डॉक्टर, कैसे हैं पापा?’’

‘‘अच्छा हुआ कि आप लोग उन्हें समय पर ले आए. अब वे बेहतर हैं,’’ यह कहकर उन्होंने नर्सों को कुछ निर्देश दिए और चले गए.

मैं मम्मी के पास बैठी तो उन्होंने बताया,‘‘नाश्ता कर के ऑफ़िस जाने के लिए पापा गैरेज से कार निकाल ही रहे थे कि उन्हें घबराहट हुई और वे वहीं गिर गए. दिवाकर भाईसाहब अपने गेट पर खड़े थे. उन्होंने देखा तो वो तुरंत दौड़कर आए. कुछ और लोगों की मदद से तुरंत पापा को कार में लिटाया और मुझे साथ लेकर हॉस्पिटल ले आए. स्वाति मैं तो इतना घबराई हुई थी कि पैसे भी साथ नहीं लाई थी. सब दिवाकर भाईसाहब ही ख़र्च कर रहे हैं...’’

अभी मम्मी की बाते ख़त्म भी नहीं हुई थी कि सामने से दिवाकर जी दवाइयां लेकर आते दिखाई दिए. मैंने आंसू पोंछे और पहली बार उन्हें नमस्ते किया.


वो बोले,‘‘घबराओ नहीं बेटा. अब पापा ठीक हैं. शुक्र है कि मैं दरवाज़े पर खड़ा था और उन्हें गिरते देख लिया, वरना न जाने क्या होता...’’

मेरे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई. मैंने ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दिया, जिसने मेरे पिता के प्राणों की रक्षा की. मैं मन ही मन बहुत शर्मिंदा थी अपने सिक्स्थ सेंस पर. जिन चाचा को जीवनभर अपना माना वो वक़्त पर काम नहीं आए और जिस इंसान को संदेह की दृष्टि से देखा, वही आड़े वक़्त पर काम आया.

पापा आठ दिन हॉस्पिटल में रहे और इस पूरे समय दिवाकर जी हमारे साथ रहे. जिस तरह उन्होंने पापा की देखभाल की, हमें संभाला उससे मेरे मन में उनके लिए सम्मान बहुत बढ़ गया था. अब पापा घर आ गए थे. एक दिन दिवाकर जी उनसे मिलने आए तो बातों-बातों में मैंने उनसे पूछा,‘‘अंकल आप उस दिन मेरे ऑफ़िस क्यों आए थे?’’

‘‘तुम्हारा मैनेजर रवि मेरा कॉलेज का दोस्त है. उसने बुलाया था, सो उससे मिलने चला आया था.’’


‘‘पर तुम मुझे देखकर बहुत घबरा गई थीं ना?’’ जब उन्होंने प्रति-प्रश्न किया तो मेरे पास सच को स्वीकारने के अलावा कोई चारा भी नहीं था.

‘‘सच कहूं अंकल तो मैं शुरुआत से ही आपको ग़लत समझती थी. जिस तरह आप ट्रेन में मुझे मिले और आपने...’’

‍‘‘क्या कह रही हो स्वाति?’’ मम्मी ने मुझे बीच में टोका.

‘‘कहने दीजिए भाभी. हमें बच्चों में इतनी हिम्मत भर देनी चाहिए कि वे अपने मन की बात हमसे कह सकें. मैं भी तो इस बात को महसूस कर रहा था कि यह मुझे ग़लत समझ रही है. पर इसमें स्वाति का कोई दोष नहीं है. उसकी जगह कोई और लड़की होती तो वह भी यही समझती. पर मैं भी क्या करता...’’ दो पल ख़ामोश रहकर उन्होंने बोलना शुरू किया,‘‘पहली बार तुम्हें ट्रेन में देखा तो अचानक अपनी बेटी की याद आ गई. मैं सोचने लगा यदि आज मेरी बेटी जीवित होती तो बिल्कुल तुम्हारी उम्र की होती. तुम्हारी शक्ल भी उससे मिलती-जुलती है. इसलिए न चाहते हुए भी बार-बार मेरी नज़रें तुम्हारी ओर उठ रही थीं. वर्षों बाद अपनी बेटी की झलक देखने मिल रही थी, मैं भला ख़ुद को कैसे रोक पाता?’’


‘‘क्या हुआ आपकी बेटी को?’’ मैं इस बारे में और जानने को उतावली थी.

‘‘आज से आठ बरस पहले मैं गोविंदपुरी में अपनी पत्नी और बेटी पारुल के साथ रहता था. मेरी बेटी सामने के पार्क में रोज़ाना खेलने जाती थी. एक शाम वह घर नहीं लौटी. किसी ने उसका अपहरण कर लिया. हमने और पुलिस ने भी उसे ढूंढ़ने की बहुत कोशिश की...पर...पंद्रह दिन बाद उसकी...’’ यह कहते-कहते दिवाकर अंकल की आवाज़ भर्रा गई और आंखें भर आईं.

‘‘धीरज रखो दोस्त,’’ पापा ने यह कहते हुए उनके हाथ थाम लिए.

कुछ पलों में ख़ुद को संयत करने उन्होंने बताया,‘‘मेरी पत्नी इस दुख को झेल नहीं पाई. कुछ ही महीनों में वह भी चल बसी.’’

उनकी दास्तां सुनकर हम सब स्तब्ध और ख़ामोश थे. वे भी कहीं खो से गए थे. कभी-कभी इंसान न जाने क्या-क्या सोच लेता है, पर वास्तविकता उससे कितनी अलग होती है. मैं सोच रही थी.


‘‘तुमने इस बारे में हमें कभी कुछ बताया ही नहीं,’’ पापा ने कहा.

‘‘सोचता तो रहा कि बताऊंगा, ताकि स्वाति के मन की ग़लतफ़हमी दूर कर सकूं. बस, मौक़ा ही नहीं मिला.’’

‘‘भाईसाहब, स्वाति आज से आपकी ही बेटी है,’’ मम्मी ने कहा.

‘‘हां अंकल आप मुझे ही अपनी पारुल समझिए,’’ मैंने कहा.


दिवाकर अंकल की आंखों से आंसू बह निकले, पर मुझे लगा कि ये आंसू दुख के नहीं, बल्कि ख़ुशी के थे. मैं सोच रही थी कि ज़िंदगी कभी-कभी हमसे कितना कुछ ले लेती है, कितने ज़़ख्म दे जाती है, पर समय अपने तरीक़े से उन ज़ख्मों को भर देता है. कई बार अकल्पनीय रूप से हमारे दुखों का निदान कर देता है. मेरा, मां-पापा और दिवाकर अंकल का मिलना भी तो समय की इस प्रक्रिया का हिस्सा है...

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