कहानी: धागों के रिश्ते

अरे कब तक वे यूं ही बैठे रहेंगे? माना उनकी नौकरी चली गई है, पर इस बात को चार महीने हो चुके हैं और तब से अब तक कोई प्रयास भी तो नहीं किया उन्होंने दूसरी नौकरी ढूंढ़ने का...’’ उसे सामने देख कर बीच में ही चुप हो गईं जेठानी जी. उसने चुपचाप ट्रे में रखे चाय के दो कप उनके आगे रख दिए और बिना कुछ कहे वापस किचन की ओर चल दी.

उसके मन का द्वंद्व और गहराता जा रहा था. सच ही तो कह रही हैं जेठानी जी. हम संयुक्त परिवार में रहते हैं और उनके तो दो बच्चे भी हैं. बच्चों के स्कूल की फ़ीस भी कितनी ज़्यादा है और आजकल खाने-पीने के सामान की क़ीमतें भी तो आसमान छू रही हैं. थोड़ा सहयोग तो हमें भी करना ही चाहिए... यह भी सच है कि नौकरी छूटने के बाद से अमित गुमसुम बैठे रहते हैं, अच्छे से बात तक नहीं करते और दूसरी नौकरी की तलाश उन्होंने शुरू की है या नहीं ये तो मुझे भी नहीं पता. हां, पेपर पढ़ने और इंटरनेट सर्फ़ करने में समय ज़रूर बीतता है उनका.

‘‘अमित को चाय दी कि नहीं...? और पापाजी भी घूम कर लौट आए हैं...उन्हें भी चाय दे दो जल्दी,’’ किचन में घुसने से पहले ही सासू मां का फ़रमान आ गया.

झटपट हाथ चलने लगे उसके अभी तो नाश्ता बनाना है और दीपक, दिव्या, जेठजी और पापा के टिफ़न भी. उसकी शादी को छह महीने ही तो हुए हैं अभी, जब से शादी होकर आई है सुबह के काम की ज़िम्मेदारी उसी ने संभाल रखी है. जेठानी जी हमेशा कहती हैं,‘‘जब से तुम आई हो नंदिनी, सुबह की नींद का सुख ले पा रही हूं...वरना सुबह से जुट जाना पड़ता है किचन के कामों में.’’

कोई परेशानी नहीं है उसे यहां, क्योंकि सासू मां ने सारे काम उसके और जेठानी जी के बीच बांट रखे हैं. सुबह का चाय-नाश्ता और बच्चों का टिफ़न वह बनाती है तो दोपहर का खाना जेठानी जी. शाम का खाना जेठानी जी या फिर सासू मां ही बनाती हैं. शाम को वो दिव्या, दीपक का होमवर्क करवाती है और उन्हें पढ़ा देती है. बाक़ी कामों के लिए मेड तो है ही.

किचन का काम निपटा कर चाय का कप लिए वह अपने कमरे में पहुंची और अमित को थमाते हुए बोली,‘‘आप दूसरी नौकरी की तलाश क्यों नहीं करते?’’

कुछ देर तक उसकी ओर एकटक देखते रहे अमित, फिर बोले,‘‘अख़बार है ना मेरे हाथ में...? नौकरी की ही तलाश कर रहा हूं. जिस पद से निकाला गया हूं, उससे नीचे तो काम नहीं कर सकता और इसकी चिंता मुझे तुमसे कहीं ज़्यादा है...समझीं?’’

हमेशा प्यार से बात करने वाले अमित नौकरी जाने के बाद से उससे ज़्यादा बात ही नहीं करते थे. वो समझती थी कि उन्हें तनाव है इसलिए इन चार महीनों में उसने इस बारे में कभी कुछ नहीं कहा था अमित से, लेकिन पहली बार ये कहने पर इतनी तीखी सी प्रतिक्रिया मिलेगी ये तो सोचा भी नहीं था उसने. आंखों में आते आंसू उमड़ कर गिर पड़ते इससे पहले ही उसने स्नान करने के लिए बाथरूम का रुख़ कर लिया. जी भर के रोई पहले वहां. बाहर आ कर कपड़े सुखाने के बहाने गैलरी में चली आई और वहां लगे झूले पर बैठी-बैठी पुरानी बातों और यादों में खो गई.

‘‘हां, देखो देखो नंदिनी दीदी कितना मुस्कुरा रही है...हमेशा से दिल्ली कितना पसंद है इन्हें और हमारे होने वाले जीजाजी तो दिल्ली के ही हैं, अब तो वहीं रहेंगी,’’ छोटे भाई नमित ने चुहलबाज़ी करते हुए कहा.

चचेरी बहन संगीता ने सुर में सुर मिलाते हुए कहा,‘‘हां भई, हम ग्वालियर के लोगों को तो अब दीदी गांववाले कह कर बुलाएंगी.’’

‘‘अरे, चुप करो तुम लोग...अब शादी हो रही है तो दिल्ली तो जाएगी ही ना...? पूरी ज़िंदगी ग्वालियर में बिताई है पढ़ाई भी यहीं से की है तो क्या उसे यहां की याद नहीं आएगी? क्यों उसे छेड़ रहे हो,’’ ये उसकी मां थीं.

इन बातों के मज़े लेते हुए वो अपनी मां से लिपट गई. ‘‘चल बेटा! तू अपना सामान पैक कर ले...अब दस ही दिन तो रह गए हैं शादी में...’’

कितना उत्साहित थे सब उसकी शादी में. पापा तो ताऊजी, चाचाजी और सभी को अमित के बारे में बताते नहीं थक रहे थे. ‘‘अरे, भाईसाहब! बहुत अच्छा लड़का है, शालीन और सभ्य परिवार है. एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी के बिज़नेस डेवलपमेंट विभाग में मैनेजर है. छह लाख सालाना तऩख्वाह है...ख़ुश रहेगी अपनी नंदिनी.’’

‘‘बिज़नेस डेवलपमेंट विभाग क्या होता है?’’ ताऊजी ने पूछा तो तपाक से चाचाजी का जवाब आया,‘‘अरे भाई साहब, जिसे पहले मार्केटिंग विभाग कहते थे, उसी को अब बिज़नेस डेवलपमेंट कहते हैं.’’

ख़ुश तो रही भी वो चार महीनों तक फिर अचानक आए मंदी के दौर में अमित की नौकरी चली गई. मंदी के दौरान कर्मचारियों की संख्या कम करने के लिए उनकी कंपनी ने उन लोगों को निकालने का फ़ैसला लिया, जिन्हें काम करते हुए एक साल से कम समय हुआ हो. अमित ने ये कंपनी नौ महीने पहले ही ज्वॉइन की थी अत: उनका नाम भी निकाले जाने वालों की लिस्ट में था.

‘‘नंदिनी...नंदिनी! मां तुम्हें नाश्ते के लिए बुला रही हैं,’’ अमित ने गैलरी में झांकते हुए कहा.

वो चुपचाप उठ कर डायनिंग रूम की ओर चल दी. उसकी शादी से आज तक पहले बच्चे, फिर पापा, जेठजी और अमित नाश्ता करते हैं. इन सब के स्कूल और ऑफ़िस जाने के बाद मां, वो और जेठानी जी साथ ही नाश्ता करते हैं.

‘‘क्या हुआ नंदिनी? तुम चुप चुप लग रही हो,’’ सासू मां ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं मां, रात ठीक से सो नहीं सकी...इसलिए,’’ उसने कहा.

‘‘मैं कुछ देर के लिए बाहर जाऊंगा,’’ उसके कमरे में घुसते ही अमित बोले.

‘‘कहां?’’

‘‘कुछ काम है, नेहरू प्लेस में.’’

‍‘‘कब तक आइएगा?’’

‘‘शाम तक...पांच तो बज ही जाएंगे.’’

‘‘पहले कह दिया होता तो आपके लिए भी टिफ़न बना देती.’’

‘‘चिंता मत करो, बाहर ही कुछ खा लूंगा,’’ यह कहते हुए अमित बाहर निकल गए.

कमरे में अकेली बैठी नंदिनी फिर पुराने ख़्यालों में पहुंच गई. पापा अच्छा दमाद मिलने की ख़ुशी मना रहे थे तो मां अपनी बेटी के गुणगान करती कहां थक रही थीं?

‘‘देखो जीजी, होमसाइंस पढ़ाया नंदिनी को तो क्या बुरा किया. कितना अच्छा खाना बनाती है. अचार-चटनी, केक, पेस्ट्री, बिस्किट, लड्डू कुछ भी बनवा ले कोई, चटखारे ले कर न खाए तो कहना... और इसके हाथ की बनी पेंटिंग और कसीदाकारी की हुई चादरें...जो देखता है तारीफ़ करते नहीं थकता...’’

‘‘कसीदाकारी क्या होती है मामी?’’ बुआ की दस वर्षीय लड़की ने भोलेपन से पूछा.

‘‘अरी शहरी बिटिया! कढ़ाई को उर्दू में कसीदाकारी कहते हैं,’’ उसे यह जवाब थमा कर मां अपनी रौ में बताने लगीं,‘‘बीसियों चादर काढ़ी हैं इसने... मैं तो सारी चादरें, मेजपोश और कपड़े जो इसने काढ़े हैं इसकी ससुराल ही भिजवा रही हूं. उन्हें भी तो पता चलें मेरी लड़की के गुण...’’

अरे हां, यहां आने के बाद मेरी काढ़ी हुई नई की नई चादरों वाला बक्सा तो खुला ही नहीं. अमित और घर के लोगों के प्यार दुलार के बीच मैं ये बात तो भूल ही गई कि इन्हें सबको दिखाऊं. यह सोचते ही वह उठ खड़ी हुई. उसके मायके से आया सभी सामान सासू मां ने स्टोर रूम में रखवाया था. हो न हो वह बक्सा भी वहीं होगा. वो भागते हुए स्टोर रूम में पहुंची और बक्सा खोल कर देखा...सभी चादरों को मां ने बड़े चाव से पैक कर के रखवाया था. उन्हें उलट पलट के देखती रही और तभी उसके मन में एक विचार कौंधा.

सासू मां पूजा कर रही थीं, उन्हें तो घंटे भर से ज़्यादा समय लगेगा. यह सोच कर वो किचन में काम कर रही जेठानी के पास पहुंची.

‘‘भाभी, थोड़ी देर के लिए मेरी सहेली विनीता के यहां जाना चाहती हूं. चली जाऊं क्या?’’

‘‘तुम अकेली चली जाओगी... रास्ता तो याद है ना तुम्हें? मां से पूछा?’’

‘‘मां तो पूजा कर रही हैं. मैं बस, घंटे भर में लौट आऊंगी...मुझे रास्ता याद है भाभी.’’

‘‘अच्छा चली जाओ, पर अपना मोबाइल ले जाना और खाने के समय से पहले लौट आना.’’

नंदिनी ने फटाफट चार-पांच चादरों के पैकेट एक बैग में भरे और लाजपत नगर 2 के अपने घर से निकल कर लाजपत नगर 3 स्थित अपनी सहेली विनीता के यहां पहुंच गई.

‘‘अरे वाह! सोच भी नहीं सकती थी कि तुम अचानक यूं ही मुझसे मिलने चली आओगी,’’ दरवाज़ा खोलते ही नंदिनी को सामने देखकर विनीता बोली.

‘‘हां, घर में मन ही नहीं लग रहा था तो सोचा कुछ देर तुम्हारे साथ बैठ कर गप्पें लड़ा लूं.’’

‘‘अच्छा किया. अमित ऑफ़िस गए?’’

‘‘अ..हां, तभी तो आ गई. और तुम सुनाओ क्या चल रहा है? अंशु कहां है?’’

‘‘उसे तो प्ले स्कूल भेजने लगी हूं आजकल. 12 बजे तक लेने जाऊंगी. अरे, इस बैग में क्या है?’’

‘‘मेरी काढ़ी हुई कुछ चादरें हैं, सोचा तुम्हारे घर के पास ही जो बुटीक है, उन्हें दे कर देखती हूं... शायद ये बिक जाएं. घर बैठे बैठे बोर हो जाती हूं यार... सोचती हूं यदि लोग इन्हें पसंद करेंगे तो फिर से अपने कढ़ाई के शौक़ पर ध्यान देना शुरू कर दूंगी. थोड़े पैसे जमा हो जाएंगे तो अपनी शादी की सालगिरह आते आते अमित को अच्छा सा तोहफ़ा दूंगी.’’
‘‘चल, चाय पीकर चलते हैं बुटीक में.’’

चाय पीते पीते दोनों ने ढेर सारी बातें कीं और फिर दोनों सहेलियां बुटीक में चल दीं. वहां पहुंच कर नंदिनी ने बुटीक की ओनर से कहा,‘‘ये मेरी काढ़ी हुई चादरें हैं, क्या इन्हें आप अपने बुटीक में सेल के लिए रखेंगी?’’

‘‘कढ़ाई तो काफ़ी अच्छी की है आपने, पर मैं तो अपने यहां सिर्फ़ सूट्स ही रखती हूं.’’ चादरों को उलट पलट कर देखते हुए वह बोली.

‘‘एक सप्ताह के लिए इन्हें यहां रख कर देखिए... आप चाहें तो इसके लिए मैं आपको कुछ पैसे दे सकती हूं. यदि चादरें बिकती हैं तो ठीक है, नहीं तो आप मेरे दिए हुए पैसे रख लीजिएगा और चादरें मैं वापस ले लूंगी.’’

‘‘क्या दाम रखना चाहेंगी आप इनका?’’

‘‘1,200-1,300 रु. तक... क्या आपको लगता है इस दाम में लोग ख़रीदेंगे?’’

‘‘भरी हुई कढ़ाई वाली चादरें हैं, इनकी क़ीमत 1,500 तक रखिए. अगर बिकती हैं तो हर चादर पर मैं भी 10 फ़ीसदी हिस्सा लूंगी.’’

‘‘हां, चलेगा. मैं आपको कितने पैसे दूं?’’

‘‘आप सिर्फ़ अपना फ़ोन नंबर दे दीजिए, ताकि यदि ये बिकें तो मैं आपको बता सकूं.’’
अपना नंबर उसे दे कर और उस बुटीक का विज़िटिंग कार्ड लेकर नंदिनी और विनिता अंशु को लेने प्ले स्कूल 
गए और नंदिनी वहीं से अपने घर लौट गई.

‘‘कहां चली गई थी नंदिनी,’’ घर पहुंची तो सासू मां ने पूछा.

‘‘मेरी सहेली विनीता है ना, उसके घर.’’

‘‘थोड़ा मन बदल गया होगा. आज सुबह से तुम अनमनी लग रही हो.’’

‘‘नहीं मां, ऐसा कुछ भी तो नहीं है.’’

‘‘अमित कहां गया है?’’

‘‘कह रहे थे नेहरू प्लेस में कुछ काम है, शाम तक लौटेंगे.’’

‘‘चल कपड़े बदल ले, फिर खाना खाते हैं.’’

तीन चार दिन यूं ही गुज़र गए. अमित ने उसे बताया कि वे नौकरी की तलाश कर तो रहे हैं, लेकिन कुछ बात बन नहीं पा रही है. नंदिनी को लगा वह ख़ामख़ां उस दिन अमित की बातों का बुरा मान कर रो पड़ी. उन्हें भी तो इस बात का दुख है कि उनकी नौकरी चली गई और वो अपनी तरफ़ से प्रयास कर ही रहे हैं. उसी दिन दोपहर को बुटीक वाली का फ़ोन आया. उसने बताया कि पांचों चादरें बिक गई हैं और वो आकर पैसे ले जाए यदि और चादरें हैं तो साथ ले आए, क्योंकि एक दो लोग और ख़रीदना चाहते हैं.

नंदिनी से रहा नहीं गया. वो अपनी काढ़ी हुई बची हुई चादरें लेकर तुरंत अमित के पास पहुंची.

‘‘अमित, आपसे कुछ कहना था. हमारी शादी के बाद का समय इतना ख़ुशनुमा बीता और इतनी जल्दी निकल गया कि मुझे आपको ये अपनी काढ़ी हुई चादरें दिखाने का मौक़ा ही नहीं मिल पाया. देखिए, कैसी हैं?’’

इस मामले में अनाड़ी अमित ने चादरों को ऊपर नीचे से देखा और बोले,‘‘ये तो अच्छी लग रही हैं.’’

‘‘मैं आपको कुछ और भी बताना चाहती हूं. जिस दिन आप नेहरू प्लेस गए थे, इनमें से कुछ चादरें लेकर मैं अपनी सहेली विनीता के घर गई थी और उन्हें मैंने एक बुटीक में सेल के लिए दिया था. हर एक चादर 1,500 रु. में बिक गई है. बुटीक वाली ने मुझे बुलाया है, पैसे लेने और कहा है यदि और चादरें हों तो लेती आऊं. आपको मेरा ऐसा करना बुरा तो नहीं लगेगा?’’

‍अपनी पत्नी की साफ़गोई और अपने प्रति चिंता की भावना को समझते हुए अमित बोले,‘‘अपनी प्रतिभा का उपयोग कर उससे पैसे कमाना तो तारीफ़ की बात है, लेकिन यदि तुम ये सब इसलिए कर रही हो कि मुझे नौकरी नहीं मिल रही है तो मुझे थोड़ा अफ़सोस होगा कि तुम्हें मुझ पर इतना भी भरोसा नहीं है...’’

‘‘नहीं, नहीं ऐसा नहीं है अमित. मैं तो दिन भर घर पर बैठी बोर होती हूं, सोचा यदि कढ़ाई करूंगी तो मन लगा रहेगा और ख़ुद कुछ पैसे कमाने से आत्मविश्वास भी बना रहेगा.’’

‘‘तो चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं, बुटीक वाली से पैसे ले लेंगे और बची हुई चादरें उसे दे देंगे,’’ यह कहते हुए अमित तैयार होने लगे.

वहां पहुंच कर अमित ने बुटीक वाली से पूछा,‘‘आपको क्या लगता है, इन चादरों की मांग कितनी होगी यहां?’’
‘‘कढ़ाई का काम तो हमेशा ही फ़ैशन में रहता है, फिर चाहे चादरें हों, मेजपोश हों या सूट्स...’’

‘‘आप अपने बुटीक के लिए कढ़ाई का काम किसे देती हैं?’’ शायद ये बातें अमित के अंदर का मार्केटिंग मैनेजर जानना चाहता था. यह सोच कर नंदिनी उन दोनों की बातें सुनती रही.

‘‘दो कारीगर हैं.’’

‘‘आपको यदि नंदिनी का काम पसंद आया हो तो ये काम आप उसे भी तो दे सकती हैं.’’

‘‘हां, क्यों नहीं? वैसे भी मैं अपना दूसरा बुटीक लाजपत नगर 2 में खोलना चाहती हूं.’’

‘‘ग्रेट! वहां आपका काम नंदिनी संभाल सकती है.’’

‘‘हां, हम इस पर चर्चा कर लेते हैं.’’

कुछ ही दिनों में नंदिनी उनके दूसरे बुटीक के लिए ऑर्डर लेने लगी. घर में सासू मां और जेठानी भी नंदिनी के काम में मदद करने लगे. अमित नौकरी ढूंढ़ने के प्रयास के लिए जहां भी जाते अपने मार्केटिंग के हुनर को नंदिनी के लिए इस्तेमाल कर के एक दो जगह उसके काम के लिए भी बात करते हुए लौटते. देखते ही देखते नंदिनी को बहुत ऑर्डर्स मिलने लगे. तीन चार माह बाद तो उसे इस काम के लिए कारीगर रखने पड़े. इस बीच अमित का चयन भी एक अच्छी कंपनी में हो गया. उन्हें 15 दिनों बाद नौकरी ज्वॉइन करनी थी. अमित अब प्रसन्न रहने लगे थे और पूरे समय नंदिनी के काम में उसकी मदद भी करने लगे थे. उस रात नंदिनी ने कहा,‘‘मेरा काम इतना बढ़ रहा है कि इसे संभालना...ऐसा लगता है कि मेरे बस की बात ही नहीं रह गई है. आर्डर्स पूरे करने और फिर उनकी डिलेवरी करवाना...फिर नए ऑर्डर्स के लिए लोगों से मिलना...’’

‘‘तुम्हारी समस्या का एक हल है मेरे पास,’’ उसके क़रीब आते हुए अमित ने आगे कहा,‘‘मुझे अपना बिज़नेस पार्टनर बनाओगी?’’  

नंदिनी को तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गई. उसने झट से हामी में सिर हिला दिया.

‘‘अपना ख़ुद का व्यवसाय करना और उसे बढ़ाना अलग ही सुख देता है ना नंदिनी?’’ अमित ने यह कहा तो अमित के आगोश में समाई नंदिनी बोली,‘‘मैं तो बस, यही जानती हूं कि इन धागों के सहारे ही मैंने अपने ससुराल के रिश्तों को बुना है... और मैं इनकी बेहद शुक्रगुज़ार हूं.’’

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