कहानी: जीना इसी का नाम है

‘‘आप मेरे बेटे से मिलना चाहेंगी? चलिए मिलाती हूं...’’ कर्नल सिंह की पत्नी रमा ने बड़े उत्साह से कहा. मुझे भी कुछ कुछ उत्सुकता जाग उठी उनके बेटे के बारे में जानने की. वैसे रमा से एक बार पहले भी मुलाक़ात हो चुकी थी, लेकिन वह केवल औपचारिक ही थी. उनकी पोस्टिंग इस शहर में कुछ दिन पहले ही हुई थी. उनके स्वागत हेतु रखी पार्टी में केवल आपसी परिचय ही हुआ था. आज मेजर शर्मा की शादी की सालगिरह पार्टी थी काफ़ी लोग थे. सभी सहयोगी और कुछ मित्र व रिश्तेदार भी आमंत्रित थे. आफ़िसर्स मेस में पार्टी का आयोजन लॉन में किया गया था, चूंकि मौसम ठंडा नहीं था. सभी पुरुष ड्रेस कोड में थे. हां, महिलाएं साड़ी, सलवार, सूट, लंबी स्कर्ट, जीन्स, ईवनिंग गाउन जैसी पोशाकों में अलग-अलग ग्रुप में बैठी बतिया रही थी. जहां पुरुष वर्ग ड्रिंक्स या जूस लेते हुए पार्टी का मजा ले रही थे और कुछ महिलाएं भी उनके साथ ड्रिंक्स ले रही थीं, जैसी कि मिलट्री की संस्कृति है. सभी बड़े खुलेपन से बतिया रहे थे हंसी ठठ्ठा जारी था.

रमा मेरे क़रीब की कुर्सी पर बैठी थी. बातों का सिलसिला चला तो कुछ ही देर में हम एक-दूसरे के बारे में काफ़ी कुछ जान गए. एक-दूसरे की रुचियां, शिक्षा, उपलब्धियां आदि के बारे में जानने के बाद बात बच्चों पर आई. जब मैंने बताया कि हमारा बेटा इंजीनियरिंग कर रहा है तथा बेटी इंग्लिश में एम.ए. कर रही है तो अपने बारे में बाते हुए वह बोलीं,‘‘...हमारा एक ही बेटा है. आप उससे मिलना चाहेंगी? चलिए मिलाती हूं.’’ ग्लास से घूंट-घूंट जूस पीते, नमकीन दाने फांकते हुए हम उठ खड़े हुए. लॉन पार करने में ही अच्छा ख़ासा वक़्त लग गया. हर एक से औपचारिक कुशलमंगल की बातें करते, सवालों के जवाब देते जब लॉन पार किया तो सामने बने कमरे में व्हील कुर्सी पर बैठे किशोर की ओर इशारा करती रमा बोली,‘‘मीट माय सन अनिल. बेटा ये सविता आंटी हैं इन्हें हैलो करो...’’


मैं पलभर को जड़ हो गई. व्हील कुर्सी पर बैठे उस किशोर की उम्र 13-14 वर्ष होगी. दूर शून्य में एकटक ताकती आंखें और मुंह के कोने से बहती लार उसके मतिमंद होने का सबूत थे, वरना मैं यही समझती दुर्घटनावश कुछ समय के लिए वह व्हील चेयर पर है. तभी रमा बेटे को संबोधित करती सी बोली,‘‘बेटा, आंटी को नमस्ते करो.’ मैंने देखा अनिल के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आ गई...और कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी. वह दोबारा दूर क्षितिज में ताकने लगा. प्रकृति के ऐसे क्रूर मज़ाक के प्रति कोई अन्य महिला होती तो न जाने कितनी शिकायतें, कितने तनाव कितनी परेशानियां समेटे स्वयं को बदक़िस्मत मानती, लेकिन रमा का उत्साह और जीवटता देखकर मैं दंग थी. किशोर की इस स्थिति के बारे में जानने की उत्सुकता और बढ़ गई थी. रमा के सहज, संतुलित व्यवहार के कारण. अगली मुलाक़ात का अवसर ढूंढ़ने लगी थी. कर्नल सिंह ऑफ़िस के काम से दो दिन के लिए दौरे पर गए तो रमा ने फ़ोन करके पूछा,‘‘क्या कर रही हो? अगर फ्री हो तो कुछ देर के लिए आ जाओ गपशप करेंगे, कर्नल साहब दो दिन यहां नहीं है.’’

मैं तो अवसर ढूंढ़ रही थी फौरन स्वीकृति दे दी. जल्दी से ज़रूरी काम निबटाए और रमा के घर पहुंच गई.

रमा ने घर बढ़े सुरुचिपूर्ण तरीक़े से सजा रखा था. कुछ देर में ही वह खुलने लगी. अनिल की शारीरिक विकलांगता की बात निकली तो उसने बताया,‘‘अनिल के पैदा होने पर हम बेहद ख़ुश थे. आम बच्चों की तरह उसका जन्म हुआ. रंग-रूप वज़न सभी कुछ सामान्य था. लेकिन कुछ दिनों के बाद हमें असामान्यताएं नज़र आने लगीं तो डॉक्टर के पास पहुंचे. पूरे परीक्षण के बाद डॉक्टर ने बताया जन्म के समय उसके मस्तिष्क की नस क्षतिग्रस्त हो गई है. यदि दवाइयों से कुछ फ़र्क़ पड़ गया तो आप ख़ुशक़िस्मत होंगे, वरना यह बच्चा न बोल पाएगा न चल पाएगा.’’ हमारे ऊपर तो गाज गिर पड़ी थी. 


कितने ही समय तक हम काठ बने प्रकृति के इस क्रूर मज़ाक पर आंसू बहाते रहे. ईश्वर से शिकायतें कीं- संतान देनी ही थी तो ऐसी क्यों दी, जो जीवन में कोई ख़ुशी ही महसूस न करा सके! ना मां बाप को उसकी किलकारियां, बालसुलभ चेष्टाएं, शरारतें ही देखने को मिलें. अधूरे मातृत्व, तड़प व अवसाद के बीच जीवन मानो ठहर-सा गया था. पालने में बच्चा स्पंदनहीन-सा पड़ा रहता न रोता-चीखता, न किलकारियां मारता. दूध पानी के लिए भी कोई चीख पुकार नहीं. केवल कभी-कभी हल्का सा मुस्करा देता.

‘‘वैसे तो आजकल टेक्नोलॉजी इतनी अधिक विकसित हो चुकी है कि बच्चे के जन्म से पहले ही उसकी शारीरिक, मानसिक स्थिति का पता लग जाता है, क्या आपने सारे टेस्ट करवाए थे?’’ जिज्ञासावश मैंने पूछा.

हां, सारे परीक्षण एकदम सामान्य थे, असल में डॉक्टर ऑपरेशन के पक्ष में नहीं थीं. नॉर्मल डिलीवरी करवाने के लिए मुझसे जो मेहनत मशक्कत करवाई उसके फलस्वरूप बच्चे की दिमाग़ की कुछ नसें क्षतिग्रस्त हो गईं. डॉक्टरी भाषा में इसे ‘ऑब्स्ट्रक्टेड लेबर’ कहते हैं. यही वजह थी कि वह...’’


‘‘यह तो डॉक्टर की ग़लती के कारण हुआ, आपने उनसे कुछ कहा नहीं?’’

‘‘क्या कहते! डॉक्टर ने तो एक छोटा-सा शब्द ‘सॉरी’ बोलकर अपनी तसल्ली कर ली.’’ वह मायूस हो गई थी.
कुछ क्षणों के मौन के बाद बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए मैंने पूछा,‘‘क्या आपकी इच्छा नहीं हुई कि परिवार में एक स्वस्थ बच्चा भी हो जिसकी सहज गतिविधियों से आप अनिल की शारीरिक, मानसिक विकलांगता की पीड़ा के अवसाद को कुछ कम कर पातीं?’’

‘‘बहुत इच्छा थी इसलिए तीन वर्ष बाद जब मैं गर्भवती हुई तो हमने निश्चय किया बस अब एक स्वस्थ बच्चा हो जाने पर हम परिवार सीमित कर लेंगे, क्योंकि अनिल की देखभाल के लिए काफ़ी वक़्त की दरकार होती थी. लेकिन भाग्य को शायद कुछ और मंज़ूर था. जब हम स्वस्थ बच्चे के सुनहरे ख़्वाब बुनने में डूबे हुए थे, तभी सोनोग्राफ़ी की रिपोर्ट ने हमारे सपनों को तहस-नहस कर दिया. बच्चे के अंग पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो रहे थे. डॉक्टर के अनुसार उसे जन्म देने का कोई फ़ायदा नहीं था. प्रकृति के क्रूर मज़ाक के सामने झुकना पड़ा और गर्भपात कराकर उस बच्चे को मुक्ति दिला दी गई. इस सदमे से उबरने में भी मुझे काफ़ी वक़्त लगा.


‘‘ज़िंदगी की तमाम ख़ुशियां, उत्साह, उमंग जैसे चुक गए थे. हम बड़ा नीरस, वीरान महसूस कर रहे थे. एक दिन टी.वी. के किसी कार्यक्रम को देखा एक दंपत्ति के एक नहीं, बल्कि दो विकलांग संतानें हैं और वे इसे ईश्वर का प्रसाद मान उनकी सेवा में पूरे समर्पण से लगे हैं. न कोई शिकवा-शिकायत, न खीज, न क्रोध. अपनी ज़िंदगी का ध्येय अपने बच्चों की बेहतर देखभाल मानते हुए उन्होंने बड़ी सहजता से कहा-इसमें बच्चों का क्या दोष है? उन्हें प्यार, ममता से अच्छी देखभाल से क्यों वंचित किया जाए? जब संसार में हम उन्हें लाए हैं तो उनके पालन पोषण की ज़िम्मेदारी भी हमारी है. प्रकृति ने अगर उनके साथ अन्याय किया है तो हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उन्हें सहारा दें, उनका संबल बनें.

‘‘इस कार्यक्रम ने हमारी सोच को नई दिशा दी. काफ़ी सोच-विचार के बाद हमने निश्चय किया कि अब हमारी ज़िंदगी में दूसरा बच्चा नहीं आएगा. केवल अनिल की उचित देखभाल ही हमारी ज़िंदगी का मक़सद होगा. जीवन की सारी ख़ुशियों, प्यार, ममता और स्नेह का केंद्र केवल अनिल ही होगा. इस सोच के साथ ही हमारी ज़िंदगी में बदलाव आ गया. मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी, ताकि पूरा ध्यान अनिल पर लगा सकूं. अभी तक तो उसके लालन पालन में आया की ही प्रमुख भूमिका थी. अब उसकी पूरी ज़िम्मेदारी मैंने ले ली. 

उसके खिलाने-पिलाने के अलावा उसके साथ खेलना, टीवी पर कार्टून फ़िल्में दिखाना, किताबों में से रंग-बिरंगे चित्र दिखाकर उसका मनोरंजन करना मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन गए थे. सालभर के भीतर इतना बदलाव अवश्य हुआ कि अनिल हंसने मुस्कराने लगा था और कुछ शब्द तुतलाकर बोलने लगा था. अपनी कुछ बातें वह इशारों से भी कह देता था जैसे कोई कार्टून फिल्म पसंद नहीं तो टीवी की ओर इशारे करके ‘ना’ में सिर हिला देना, कोई चित्र देखने का मन न हो तो पुस्तक को दूर धकेल देना आदि.


‘‘चूंकि वह चल फिर नहीं सकता था और पलंग पर भी ज़्यादा घूमता-फिरता नहीं था इसलिए उसे पलंग पर सुलाकर मैं बेफ़िक्री से अपने दैनिक कार्य निपटा लेती थी. तब शायद उसकी उम्र पांच वर्ष की रही होगी. एक दिन उसे सुलाकर मैं रसोई के कामों में व्यस्त थी. अचानक मुझे अनिल की चीखने की आवाज़ आई. दौड़कर उसके कमरे में पहुंची तो देखा कि वह नीचे गिर पड़ा था. उसे गोद में लेकर चुप कराने लगी, लेकिन वह बेहोश हो गया. मैं बहुत घबरा गई. फौरन उसे गाड़ी में लेकर अस्पताल पहुंची. डॉक्टर ने जांच के बाद बताया उसे सिर में चोट लगी है. नसों में सूजन आ जाने के कारण वह अचेत हो गया है. दो चार दिन अस्पताल में रखना पड़ेगा.

‘‘वे चार दिन मानसिक तनाव में बीते. हम पति-पत्नी दिन-रात उसके सिरहाने बैठ उसके होश में आने की प्रतीक्षा करते. चूंकि हम अनिल की देखरेख व सेवा को अपने जीवन का मक़सद मान चुके थे इसलिए ईश्वर से उसके प्राणों की रक्षा के लिए दुआ मांगते रहे. अनिल के बिना अपने जीवन की कल्पना से ही भय व सिहरन महसूस होने लगती. उसकी इस स्थिति के लिए कुछ हद तक मैं स्वयं को ज़िम्मेदार मानने लगी थी. मुझे इतना बेफ़िक्र नहीं होना चाहिए था. वह अपरिपक्व मस्तिष्क वाला बच्चा तो नासमझ था, लेकिन मैं तो समझदार थी क्यों लापरवाही कर गई? पति बेशक़ समझाते रहे, लेकिन मेरे मन में अपराधबोध समा गया था.


‘‘आख़िर पांचवें दिन अनिल होश में आया. हमने राहत की सांस ली. मन ही मन में संकल्प लिया कि अब दोबारा ऐसी कोई लापरवाही नहीं होने दूंगी. उसके बाद सब कुछ सामान्य होने लगा.’’

‘‘क्या उस वक़्त एक पल के लिए भी आपके मन में यह ख़्याल नहीं आया कि उसे इस दुखभरी, ज़िंदगी से छुटकारा मिल रहा है तो शायद उसके लिए भी अच्छा होगा और आपके लिए भी! क्योंकि मानव स्वभाव ही ऐसा है किसी लाचार, अपंग की सेवा करना बहुत कठिन लगता है, बेशक़ वह कोर्स प्रियजन ही क्यों न हो...?’’

‘‘नहीं, क्योंकि हम निश्चय कर चुके थे हमारी ज़िंदगी का मक़सद अनिल की सेवा करना है. हमारी सोच पूरी तरह से बदल चुकी है. जिन दंपत्तियों को संतान सुख प्राप्त ही नहीं होता, उनकी तुलना में हम स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं. कम से कम हमें संतान सुख तो मिला. यह भी ईश्वर का दिया हुआ प्रसाद है और प्रसाद को अस्वीकार नहीं किया जाता. अपनी ममता, स्नेह, प्रेम लुटाने के लिए हमारे पास औलाद तो है. 


समाज में प्रतिष्ठित परिवारों के बच्चे अच्छा भला मस्तिष्क होने हुए भी मानसिक रूप से विकलांग होते हैं तभी तो कभी बिगड़ैल प्रवृत्ति के, कभी अपराधी प्रवृत्ति के, कभी सारी उम्र मां-बाप को मानसिक यातना देनेवाले होते हैं. मेरा तो यह मानना है कि समाज में ऐसी संतानों की संख्या ज़्यादा है. अपनी औलाद को पालने-पोसने, उसे शिक्षित करने, उनकी सुख सुविधाओं के लिए मां बाप जीवन होम कर देते हैं, लेकिन बदले में उन्हें अपनी संतान से उपेक्षा, प्रताड़ना, अह्वेलना, दु:ख ही मिलता है. हमारी औलाद कम से कम हमें यह सब तो नहीं देगी, बल्कि जब वह मुस्कुराता है तो हमें महसूस होता है सारे जमाने के सुख मिल गए हैं.

‘‘हालांकि हम यह भी जानते हैं ऐसे बच्चों का जीवनकाल अधिक नहीं होता फिर भी इसके बग़ैर जीने की कल्पना से हम सिहर उठते हैं. इसकी सेवा करना, अधिक से अधिक ख़ुश रखने का प्रयास, बेहतर देखभाल ही हमारे जीवन का उद्देश्य है तभी तो हम इसे हर जगह ले जाते हैं-चाहे कोई पार्टी हो या किसी के घर मुलाक़ात करने का अवसर.’’


मैं मंत्रमुग्ध-सी उसकी कथा सुन रही थी. हैरानी हो रही थी कि अपने बच्चे के साथ वे बड़ा सहज व प्रसन्न जीवन जी रहे थे. ऐसे दंपत्ति की सोच, धैर्य, हिम्मत व परिश्रम की दाद देनी चाहिए, जो विपरीत परिस्थितियों में भी बगैर शिकवा शिकायत के सहजता से जीवन की चुनौतियों का डटकर सामना कर रहे हैं. मन श्रद्धा से भर उठा.

दो वर्ष बीतते न बीतते कर्नल साहब का तबादला दूसरे शहर हो गया. जैसा कि इस विभाग की सेवा में होता है अल्प समय के नोटिस पर ही. इन दो वर्षों में मेरी रमा के साथ अच्छी दोस्ती हो गई थी. अत: काफ़ी समय तक हमारे बीच कुशलमंगल के अलावा दूसरी बातें भी होती थीं. अनिल की भी तबीयत ठीक ठाक चल रही थी. धीरे-धीरे मैं भी अपनी पारिवारिक, सामाजिक व्यस्तताओं में खो गई और फ़ोन से संपर्क का सिलसिला भी कम होता गया.

एक दिन ऑफ़िस से लौटकर पति बोले,‘‘बुरी ख़बर है.’’

मैं कांप गई-पता नहीं क्या बताने जा रहे हैं! फिर धीरे से बोले,‘‘कर्नल सिंह के बेटे अनिल का निधन हो गया है. पिछले सप्ताह उसकी तबियत काफ़ी बिगड़ गई थी. तीन दिन पहले वह चल बसा. आज ऑफ़िस के एक सहयोगी ने बताया तो सबको पता लगा.’’ कितनी ही देर मैं जड़ बनी रही क्या बोलूं कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. रमा के शब्द ज़हन में प्रतिध्वनित होते महसूस हो रहे थे-‘अनिल के बगैर जीने की कल्पना से ही हम सिहर उठते हैं.’ उनका क्या हाल हो रहा होगा! फ़ोन किया तो सिसकियों के बाद रुंधे गले से रमा बोली, ‘‘बहुत अकेले हो गए हैं हम. जीने का मक़सद ही ख़त्म हो गया. लगता है कैसे जिएं, क्यों और किसके लिए?’’ सहानूभूति के अलावा मैं और क्या दे सकती थी?

दो-तीन महीने बीते होंगे कि रमा का फ़ोन आया. स्वर में उदासी तो थी, लेकिन परिस्थितियों से समझौता करने के बाद की सहजता भी मौजूद थी. धीरे-धीरे लेकिन दृढ़ शब्दों में उसने बताया,‘‘अनिल के जाने के बाद हमें अपना जीवन व्यर्थ लग रहा था. इतने वर्षों तक उसकी देखभाल, सेवा में समय बीतने का एहसास ही नहीं होता था. अब समय काटने की समस्या खड़ी हो गई थी. काफ़ी सोच विचार के बाद हमने निर्णय ले ही लिया. कर्नल साहब ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है. अब हम उदयपुर आ गए हैं. यहां के सेवा संस्थान केंद्र में नियमित 5-6 घंटे विकलांग बच्चों की देखभाल में लगाते हैं. यहां बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे हैं, 


जिन्हें देखभाल की दरकार होती है. उनकी देखभाल करते-करते हमें उन्हीं में अनिल की छवि दिखाई देती है. जिससे मन को कुछ राहत मिलती है. अब शेष जिंदगी इस आश्रम के बच्चों की सेवा में ही बिता देंगे. हां, एक बात और अनिल शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं था, लेकिन उसकी आंखें एकदम स्वस्थ थीं इसलिए हमने उसकी आंखें नेत्र बैंक में दान कर दी है, ताकि किसी नेत्रहीन के अंधेरे जीवन में अनिल की आंखों से उजाला आ जाए. किसी न किसी रूप में हमारा अनिल इस दुनिया में ज़िंदा रहेगा. हम उससे ही आत्मसंतुष्टि कर लेंगे.’’ राजी-ख़ुशी की कुछ और बातें पूछ कर उसने फ़ोन रख दिया. उस दंपत्ति की सोच, आदर्श और उनके व्यवहार के सामने मैं श्रद्धा से नतमस्तक हो गई.

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