कहानी: बद्तमीज़ जनरेशन!
ट्रेन में दमघोटू भीड़ थी. पीक आवर में एक भी ट्रेन कैंसल हो जाए तो ऐसा ही होता है. वैसे देविका के लिए मुंबई की लोकल ट्रेन की यह भीड़ अनजानी नहीं थी. वह पिछले 12 वर्षों से सुबह इसी तरह पिसते-पिसाते, भीड़ को कोसते हुए ठाणे से दादर और शाम को दादर से ठाणे पहुंचती है. पर ऑफ़िस से दस-पांच दिनों की छुट्टी लेने के बाद ज़िंदगी में कुछ अधूरापन-सा लगने लगता है. ख़ैर, हम बात कर रहे थे आज की.
घाटकोपर में लोगों के उतरने से हल्का महसूस होते ही देविका ख़ुद को थोड़ा व्यवस्थित करने के लिए अपनी जगह से ज़रा-सी आगे-पीछे हुई नहीं कि पीछे से आवाज़ आई,‘एक्सक्यूज़ मी मैम!’ देविका ने मुड़कर देखा तो वो एक 21-22 वर्ष की लड़की थी. देविका के व्यवस्थित होने के प्रयास से उसे हल्का धक्का लग गया था. दोनों की नज़रें एक-दूसरे से मिलीं. देविका ने उसे घूरकर देखा और उस लड़की ने अपनी नज़रें नीचे कर लीं, बात ख़त्म.
देविका ट्रेन का हैंडल पकड़कर पहले की पोज़िशन में खड़ी हो गई, पर मस्तिष्क पहले वाली स्थिति में नहीं पहुंच पाया. ‘आजकल की लड़कियां न जाने ख़ुद को क्या समझती हैं? धक्का लगा होता तो और बात थी, ज़रा-सा टच हुआ नहीं कि मुंह बिचकाने लगती हैं. बेवकूफ़ कहीं की. इतनी ही फूल-पंखुड़ी हैं तो ट्रेन में आती ही क्यों हैं?’
हालांकि उस लड़की ने ट्रेन में आए दिन मिलनेवाली बदतमीज़ टाइप की लड़कियों की तरह न कुछ किया न कहा, पर उसके इस तरह टोकने से देविका के मूड का कबाड़ा हो चुका था. आख़िर वो लड़की भी तो इसी बदतमीज़ जनरेशन की ही है.
आज उसे ऑफ़िस में अकाउंटेंट की ख़ाली पड़ी पोस्ट के लिए लोगों का इंटरव्यू भी लेना है. ऑफ़िस का ख़्याल आते ही देविका की चिढ़ उस लड़की से ऑफ़िसवालों पर शिफ़्ट हो गई. ‘कहने को चीफ़ अकाउंटेंट हूं. सालभर से मेरे नीचे कोई अकाउंटेंट है ही नहीं. जब कंपनी ठीक से पैसे देगी ही नहीं तो भला कौन अच्छा बंदा टिकेगा? कम पैसों में, नौसिखिए मिलते हैं. टैली का कोर्स किया और चले आए अकाउंटेंट बनने. पहले उन्हें सिखाने के लिए मशक्कत करो, फिर ज़रा-सा सीखते ही उड़न छू हो जाते हैं. आज न जाने कैसे-कैसे तीसमार ख़ानों से पाला पड़नेवाला है.’ उसके विचारों के शृंखला की कड़ियां एक के बाद एक अपने आप जुड़ती चली जा रही थीं, निराशावादी और नकारात्मक.
वहीं दूसरी ओर देविका के मूड का कबाड़ा करनेवाली लड़की ज्योति, इस भीड़ में होकर भी बिल्कुल अकेली थी. आज उसे मुंबई आए हुए 15 दिन हो गए हैं, पर अब भी उसका मन अपने शहर इलाहाबाद से बाहर नहीं निकल पाया था. ‘भीड़ वहां भी है, लेकिन इतनी? वहां खुली हवा है, पर यहां इतनी जगह ही नहीं है कि हवा खुलकर चल सके. लोग बस भागते रहते हैं. पिछले तीन दिनों से यही देख रही हूं, जब से ऑफ़िस जाना शुरू किया है. ये दौड़ता-भागता शहर कभी रुकता भी होगा क्या? न जाने भैया-भाभी यहां कैसे रह लेते हैं. ऐसा लग रहा है, जैसे इस शहर में किसी को चैन ही नहीं है. और ना ही किसी को किसी की परवाह. अब इन मैडम को ही देख लीजिए, पैर रखने को जगह नहीं है, लेकिन ये हैं कि पोज़ दे रही हैं. ये महिलाएं चढ़ते और उतरते समय सोचती भी नहीं होंगी कि किसका दुपट्टा खिंच रहा है, किसका बैग फंसा है और किसके पैर पर पैर पड़ रहा है. ये मैडम भी कुछ ऐसी ही लग रही हैं. नकचढ़ी-सी, बिल्कुल मेरी बॉस की तरह. एक तो मुझे ढकेल रही हैं, ऊपर से ऐसे घूरकर देखती हैं जैसे मैंने ही कोई ग़लती कर दी हो.’
इंसानी फ़ितरत भी विचित्र है, कभी तो ज़िंदगीभर के साथ के बाद भी एक-दूसरे को समझ नहीं पाते और कभी एक ही नज़र में किसी का आकलन करके धारणा बना लेते हैं, जैसे उसे सदियों से जानते हों. आकलन के बाद, देविका को वह लड़की उद्दंड लगी और ज्योति को वह महिला खड़ूस.
दादर में ट्रेन रुकी. डिब्बे की महिलाएं पागलों की तरह उतरने लगीं. ज्योति ने महसूस किया कि आगे वाली महिला जानबूझकर उसके रास्ते में आ रही है और देविका को लगा कि पीछेवाली लड़की उसे बेवजह ढकेल रही है. प्लैटफ़ॉर्म पर उतरते ही दोनों ने एक-दूसरे पर ऐसी घूरती हुई नज़र डाली जैसे किसी दुश्मन को अलविदा कह रही हों और अपने-अपने रास्ते चली गईं.
अभी ज्योति ने कुछ ही क़दम आगे बढ़ाए होंगे कि पीछे से लोगों के चिल्लाने की आवाज़ें सुनकर वह ठिठकी. एक छह-सात साल की बच्ची प्लैटफ़ॉर्म पर बेहोश पड़ी थी. कुछ लोग उसे होश में लाने की कोशिश कर रहे थे. तभी उसकी नज़र उस ट्रेनवाली खड़ूस महिला पर पड़ी, जो उस बच्ची के चेहरे पर पानी छिड़क रही थी. बच्ची के होश में आते ही वहां जमा लोग आपस में बात करते, एक-दूसरे से कुछ पूछते हुए छंटने लगे. अब बच्ची के पास उस महिला समेत दो और व्यक्ति खड़े थे. जब वह महिला बच्ची का हाथ पकड़कर रेलवे पुलिस के बूथ की ओर जाने लगी तो वे दोनों व्यक्ति भी प्लैटफ़ॉर्म से बाहर निकल रही भीड़ में समा गए.
ज्योति जिज्ञासावश महिला और बच्ची के पीछे हो ली. वह कुछ दूर ही थी कि उसने देखा कि पुलिसकर्मियों ने न जाने क्या कहा कि वह महिला भड़क गई. और ज़ोर-ज़ोर से कहने लगी,‘‘प्लैटफ़ॉर्म पर कुछ होता है तो उसे देखना आप लोगों की ज़िम्मेदारी है. मैं जितना कर सकती थी उतना किया. मुझे ऑफ़िस के लिए देर हो रही है.’’ जब वह महिला पुलिसवालों से बात कर रही थी तो लड़की सहमते हुए उसके पीछे-पीछे होती जा रही थी. और क़रीब आने पर ज्योति ने पुलिसवाले की आवाज़ सुनी,‘‘मैडम, हम समझते हैं आपकी प्रॉब्लम, पर यदि आप इसके घरवालों के आने तक रुक जातीं तो अच्छा होता.
देखिए ना ये कितनी डरी हुई है.’’ उस महिला ने अपने पीछे खड़ी बच्ची की ओर देखा और पता नहीं क्या सोचकर सहमति में सिर हिला दिया. पास आ चुकी ज्योति अब सबकुछ समझ चुकी थी. हालांकि उसे ऑफ़िस के लिए काफ़ी देर हो रही थी, पर एक अनजाना आकर्षण उसे उस महिला से बात करने के लिए प्रेरित कर रहा था.
‘‘क्या मैं आपकी कुछ मदद कर सकती हूं?’’ जब देविका ने इस आवाज़ की तरफ़ देखा तो एक पल के लिए अचंभित हो गई. वही बद्तमीज़ जनरेशन वाली लड़की सामने थी. ‘‘हां, शायद कर सकती हो,’’ कुछ पल उसके चेहरे का आकलन करते हुए देविका ने कहा. कुछ ही पलों में दोनों में बातचीत शुरू हुई. अबोला ख़त्म होने के बाद ज्योति को कई और बातें पता चलीं, जैसे-वह लड़की अपनी मम्मी और भाई के साथ जा रही थी. मम्मी और भाई तो ट्रेन में चढ़ गए पर वह भीड़ के कारण नीचे गिर गई.
और हां, वह खड़ूस महिला जो अब उसे भली-सी लग रही है वह देविका चव्हाण है और एक फ़र्म में चीफ़ अकाउंटेंट है. देविका ने जाना कि उसके साथ जो लड़की रुकी है, वो इलाहाबाद मूल की ज्योति सक्सेना है, आज उसके ऑफ़िस का चौथा दिन है. थोड़ी देर बातचीत करने पर उसे लगा कि वह बद्तमीज़-सी लगनेवाली लड़की इतनी बुरी भी नहीं है.
देविका ने उस लड़की की मां को फ़ोन किया और ज्योति उसे सहज करने के लिए चॉकलेट्स ले आई. क़रीब चालीस मिनट इंतज़ार करने के बाद जब उसकी मां पहुंची तब तक साढ़े दस बज चुके थे. यानी ऑफ़िस टाइम से अच्छी-ख़ासी देर हो चुकी थी. देविका का मन तो किया कि आज छुट्टी ले ले पर सेकेंड हाफ़ में उसे इंटरव्यू लेने थे. उसने मैसेज करके ऑफ़िस में बता दिया कि उसे थोड़ी देर हो जाएगी. वहीं फ़ोन पर इस बारे में अपनी बॉस से बात करने के बाद ज्योति का चेहरा थोड़ा उतरा हुआ दिखा, पर देविका की ओर देख मुस्कुरा दी.
दोनों साथ में स्टेशन से बाहर निकल कर टैक्सी स्टैंड की ओर बढ़े. उनके चेहरों पर एक-दूसरे के बारे में ट्रेन में किए आकलन के बाद बनी धारणा के ग़लत साबित होने की ख़ुशी स्पष्ट दिख रही थी.
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