कहानी: एक दोपहर

अगस्त भी बीत गया. बारिश नहीं हो रही है. मुंबई तप तो नहीं रही है, लेकिन अच्छी-ख़ासी गर्मी और उमस है. इस उमसभरी दोपहर में वह परेशान हो रही है, गालों पर बार-बार रेंग आने वाले पसीने से. वैसे भी उसे गर्मी, उमस और दोपहर से विशेष चिढ़ रही है. वैसे चिढ़ की बात न ही करें तो अच्छा होगा. कभी-कभी वो सोचती है किन-किन बातों से उसे चिढ़ नहीं होती. सुबह रिक्शेवालों की बद्तमीज़ियों से शुरू होनेवाली चिढ़ स्टेशन पर संभाल-संभालकर क़दम बढ़ा रहे लोगों को धकेलते हुए अगले लेवल तक पहुंच जाती है. 

वो हमउम्र महिलाएं भी तो उसे कम चिढ़ानेवाला काम नहीं करतीं, जिन्हें पता नहीं कैसे उसकी शक्ल में अपनी खोई हुई आंटियां नज़र आ जाती हैं. ऑफ़िस में बॉस की बॉसगिरी से पैदा होनेवाली चिढ़. शाम को सब्ज़ीवाले, फलवाले से झिकझिक करते हुए होनेवाली चिढ़. थकी-पकी घर पहुंचने पर किचन में घुसने पर होनेवाली चिढ़ तब कई गुना बढ़ जाती है, जब सोफ़े पर पसरे-पसरे रिमोट की जान निकालते अमन एक गिलास पानी के लिए भी उसे ही आवाज़ देते हैं. ऊपर से उनकी मां की ‘शादी को चार साल से ज़्यादा हो गए, अब तो तुम लोग बच्चा पैदा कर लो’ वाली नसीहत... ये तो वो वजहें हैं, जो वो एक सांस में गिना सकती है. 

फ़िलहाल वो माटुंगा स्टेशन पर बैठी है, सेवा में तत्पर भारतीय रेलवे के पंखे के नीचे. मोबाइल के स्क्रीन पर देखा, दो बज रहे हैं. इंटरव्यू कर चुकी है. यह सोचकर उसने राहतभरी सांस ली, क्योंकि सुबह-सुबह ओवरहेड वायर टूटने (आम मुंबईवालों के चिड़चिड़ाने की एक वजह यह भी है) के चलते ट्रेनों की आवाजाही जिस हद तक प्रभावित थी, उसे देखते हुए उसका समय पर पहुंचना संभव ही नहीं लग रहा था. ‘लेकिन इसमें नई बात क्या है? हर दूसरे दिन तो ऐसा होता है,’ उसने ख़ुद से कहा. वो दुविधा में है,‘ऑफ़िस जाऊं या घर?’ दोनों जगहें उसे पसंद हैं, पर आज न जाने क्यों उसका इन दोनों में से कहीं भी जाने का मन नहीं कर रहा है.

ऐसी दुविधा की स्थिति में पहले वो छापा-कांटा कर लिया करती थी, इन दिनों उसने एक नया नुस्ख़ा आज़माना शुरू किया है. वो मोबाइल की घड़ी की मदद लेने लगी है. घड़ी देखने से पहले वो तय करती है कि ऑड आया तो ‘यह काम’ और ईवन आया तो ‘वह’. इस बार भी घड़ी देखने से पहले उसने तय किया मिनट्स ऑड होंगे तो घर और ईवन होंगे तो ऑफ़िस. उसने घड़ी देखा 02:11 ‘यानी मुझे घर जाना चाहिए,’ उसके दिमाग़ ने कहा. पर न जाने क्यों वह अपनी जगह से उठी नहीं. दो ट्रेन ऑफ़िस की ओर जानेवाली और तीन घर पहुंचानेवाली चली गईं, पर वह बस यूं ही बैठी रही. वह ओवर ब्रिज से उतरकर प्लैटफ़ॉर्म पर आ रहे कॉलेज के बच्चों को देख रही थी. चार-पांच के ग्रुप में खड़े लड़के-लड़कियां जितना समय दोस्तों की बातचीत को दे रहे थे, उतना ही समय अपने स्मार्ट फ़ोन को भी पूरी ईमानदारी से समर्पित कर रहे थे. 

पाउट निकालकर सेल्फ़ी खींच रहीं कॉलेज की लड़कियों को देख उसके होंठों पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान खिंच गई. ‘उंह... आजकल के बच्चे.’ तभी उसकी नज़र फ़ोन की स्क्रीन पर बज रहे ०२.२० पर पड़ी. ‘अब ऑफ़िस जाकर क्या फ़ायदा,’ पता नहीं उसने ख़ुद से कहा या पूछा. तभी वॉट्स ऐप रिंगटोन बजी. अनु ने ‘हाय’ कहा था. बड़े दिनों बाद उसका मैसेज आना यानी कोई अर्जेंट काम होगा उसने सोचा. उसने तुरंत रिप्लाई किया,‘ज़रूर कोई काम होगा मेरी मतलबी दोस्त को.’ जवाब में मिले ग़ुस्सेवाले इमोजीकॉन से वो समझ गई कि बस यूं ही चिटचैटिंग के मूड में है अनु. ‘क्या कर रही है?’ अनु ने पूछा.

‘बस यूं ही स्टेशन पर बैठी हूं.’

‘क्यों इतने बुरे दिन आ गए हैं तेरे?’ लिखने के बाद अनु ने एक आंख बंदकर जीभ बाहर निकाला हुआ स्माइली
इमोजी भेजा.

‘माटुंगा में हूं. घर जाने निकली हूं,’ उसने जवाब दिया.

‘इतनी जल्दी जाकर क्या करेगी? ऑफ़िस आ जा मेरे.’

एक पल के लिए उसे भी यह ऑफ़र एक्साइटिंग लगा.

‘देखती हूं.’ उसने जवाब दिया और मोबाइल लॉक करने से पहले अनु का थम्स अप देखा.

उसे घर की ओर जानेवाली अगली ट्रेन दिखी. ठाणे स्लो, जो लगभग ख़ाली थी, लेकिन वो दौड़ते हुए अंदर घुसी. अंदर पहुंचकर उसे ख़ुद पर हंसी आ गई. यूं ही उसकी सहेलियां उसे पक्की मुंबइया नहीं कहतीं. विंडो सीट पर बैठकर वो बाहर ताकने लगी. अंदर ऐक्सेसरी बेचनेवाली महिला की आवाज़ भी उसके कानों तक पहुंच रही थी. उसे याद नहीं है कि इन सात सालों में ख़ाली लोकल में सफ़र करने का सौभाग्य पिछली बार कब मिला था. यहां तो छुट्टियों के दिन भी सुबह-शाम ट्रेन में धक्के खाने जितनी भीड़ जमा हो ही जाती है. 

यादें उसे कॉलेज के दिनों में खींच ले गईं. अमन और वो कॉलेज से छूटने के बाद विक्रोली स्टेशन से ठाणे स्लो में बैठ जाते और अपनी दुनिया में खो जाते. वे ठाणे पहुंचते और वहां से वापस विक्रोली लौट आते. यह सोचकर हल्की-सी झुरझुरी हो गई. कितने अच्छे थे वो दिन! पैसे नहीं होते थे इतने कि थिएटर में जाकर फ़िल्में देख आएं या किसी रेस्तरां में कपल्स के लिए बने अलग सेक्शन में बैठकर कुछ खाएं-पिएं और गपियाएं. दिन के समय गार्डन भी बंद रहते थे सो ट्रेन के अलावा कोई दूसरा सस्ता विकल्प नहीं था. हां, ट्रेन में किसी पहचानवाले की नज़रों में पड़ने का डर लगातार बना रहता था, पर प्यार की ख़ातिर इतना ख़तरा मोल लेना तो बनता था. 

ख़ाली ट्रेन क्या, थोड़ी भीड़भरी ट्रेन में भी अमन के साथ होना अच्छा लगता था. वो हमेशा उसके साथ रहना चाहती थी. अमन भी ऐसा ही कहता था तब. पर न जाने कैसे शादी के बाद वो इतना केयरिंग हो गए कि दिन में भी कहीं लोकल से साथ जाना हुआ तो कहते हैं,‘तुम लेडीज़ में चली जाओ. वहां बैठने को जगह मिल जाएगी.’ कितने बदल जाते हैं बॉयफ्रेंड शादी के बाद, उसके मन ने हिसाब लगाया. एक वो दिन थे, जब कॉरीडोर में एक ओर खड़े रहनेभर की जगह मिल जाए तो वे लोग सीएसटी तक पहुंच जाते थे!

अगला स्टेशन कुर्ला. अनाउंसमेंट सुनकर उसे याद आया कि अनु से मिलने जाना है. वो बैग संभालते हुए प्लैटफ़ॉर्म पर आ गई. कुर्ला उपनगर के सबसे तंग और अस्तव्यस्त स्टेशन्स में एक है. स्टेशन से बाहर निकलने के बाद उसे सुखद आश्चर्य हुआ, जब उसने महसूस किया कि दिन में यहां इत्मीनान से चलने भर की जगह तो होती है. वो बस की लाइन में लग गई. वहां भी अपेक्षाकृत कम लोग थे. बस में भी उसे खिड़कीवाली सीट मिल गई. हर शाम वो पत्रकारिता की क्लास में जाने के लिए बस पकड़ती थी. 

शाम को ट्रैफ़िक में रेंगनेवाली बस दौड़ रही थी. इस समय वो ऑफ़िस में होती है. यह लंच के बाद का वह समय है, जब हल्की-हल्की नींद आने लगती है. ब्लैक टी या लेमन टी की चुस्की से सुस्ती भगानी पड़ती है. गर्म चाय पीते हुए वो उन लड़कियों को भी कोसती है, जिनका काम तेज़ एसी बिना चलता नहीं था. पता नहीं स्किन पर क्या लगाकर आती हैं वो लड़कियां? फ़िलहाल बस की खिड़की के बाहर से आ रही धूप उसकी त्वचा को छू रही है, उसे पता नहीं क्यों अच्छा लग रहा है.

‘कहां पहुंची?’ यह मैसेज मिलने तक वो अनु के ऑफ़िस के मेन गेट तक पहुंच चुकी थी. अनु उसे लेने आई. अनु पिछली बार की तुलना में थोड़ी स्लिम हो गई थी. सुंदर दिख रही थी. उसने अनु को कॉम्प्लिमेंट देने से पहले चोर नज़रों से ख़ुद को देखा और सांस के साथ अपने पेट को भी थोड़ा अंदर खींच लिया. अनु के साथ उसकी कलीग रजनी भी थी, जो उसे थोड़ी झल्ली लगती थी. तीनों बैठे. दो-चार मिनट हाल-ख़बर लेने-देने के बाद अनु और रजनी अपने-अपने कम्प्यूटर में खो गईं तो वो झल्ला उठी या कहें चिढ़ने से ठीक पहले की अवस्था में पहुंच गई.
‘‘इससे अच्छा तो मैं ऑफ़िस हो आती या घर ही चली जाती.’’

अनु ने मुस्कुराते हुए कहा,‘‘कूल डाउन यार. बस दो मिनट यह एक ज़रूरी ईमेल भेजना है. उसके बाद फ्री हूं तेरे लिए.’’ वो उसके ऑफ़िस में यहां-वहां देखती रही.

दो के १० मिनट हो गए, जब अनु ने पूछा,‘‘क्या लेगी?’’

‘‘तेरा ख़ून. वैसे भी मेरे दिमा़ग में गर्मी चढ़ गई है,’’ उसने थोड़ा ग़ुस्सा होते हुए कहा.

‘‘देख हो गया,’’ पीसी शट डाउन करते हुए अनु ने अपनी ऐंग्री बर्ड सहेली को शांत करने की कोशिश करते हुए कहा.

बातों-बातों में दोनों को पता चला कि लंच करना बाक़ी है उनका. पास में बैठी रजनी ने दोनों की बातें सुनकर सुझाव दिया,‘‘तो चलो न फ़िनिक्स मॉल चलते हैं. वहां खा भी लेंगे और थोड़ी विंडो शॉपिंग भी हो जाएगी.’’

अनु भी बोल पड़ी,‘‘हां, चल न थोड़ा माहौल चेंज हो जाएगा. ऑफ़िस में खुलकर बातचीत भी तो नहीं कर पाएंगे.’’
पौने चार बजे तक वे मॉल के फ़ूड कोर्ट में थे. पर वहां भीड़ कम नहीं थी. ऐसा लग रहा था कि कॉलेज के बच्चों की क्लास यहीं लगती है. ‘‘बिगड़ी हुई जनरेशन,’’ उसने बुदबुदाते हुए कहा. उसे बुदबुदाते हुए रजनी और अनु ने सुना. दोनों उसकी ओर देख मुस्कुरा दीं. उन्हें मुस्कुराते देख वो भी हंस दी.

अनु ने कहा,‘‘छोड़ यार. कभी-कभी मुझे भी लगता है कि ये बिगड़ी हुई जनरेशन है, पर ऐसा कुछ भी नहीं है. ये अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं. हम लोग भी तो इतना ही एन्जॉय करते थे कॉलेज के समय.’’

 ‘‘पर यार हम लोग इतने बद्तमीज़ नहीं थे,’’ उसने तर्क दिया.

‘‘ऐसा हमें लगता है, हो सकता है कि अपने से बड़ों को हमारी हरकतें बद्तमीज़ी लगती रही हों. वैसे भी अब जनरेशन गैप की समय सीमा कम हो गई है. इन्हें छोड़. अपनी बता. क्या चल रहा है? अमन कैसे हैं? और हां, बेबी कब प्लैन कर रही है?’’ ऐसा लगा अनु ने उसकी दुखती रग को छेड़ दिया.

वो कुछ बोलती इसके पहले झल्ली रजनी ने कहा,‘‘तू मां बन गई तो क्या पूरी दुनिया को ही मां बनाकर चैन लेगी? तुम ना इसकी बातों में मत आना. अपना टाइम लो यार. जब तुम्हें लगे तैयार हो, तभी इस बारे में सोचना.’’ पहली बार उसे रजनी झल्ली नहीं लगी. वैसे रजनी भी एक इंट्रेस्टिंग कैरेक्टर है. अनु से सुनती आई है कि ये भोंदू भले दिखती हो, पर काम के मामले में बड़ी चालू चीज़ है. बेहद प्रो़फेशनल. 

अब चूंकि रजनी उसकी दोस्त अनु की कलीग थी और दोनों में काम को लेकर कॉम्पिटिशन रहता था इसलिए स्वाभाविक है कि रजनी उसे ज़्यादा पसंद नहीं आती थी. वो अक्सर उसे इग्नोर करती थी, हालांकि रजनी की बातों से लगता था कि वो उससे बात करने को लेकर ख़ासी उत्सुक रहती थी. लेकिन जैसा कि अनु ने बताया था कि इन दिनों उसके और रजनी के बीच अच्छी बॉन्डिंग हो गई है. बॉन्डिंग की कहानी उसने खाने के बाद कॉफ़ी की चुस्कियों के बीच रजनी से ही सुनी.

उस सुनी हुई कहानी का सार यह था कि काम के मामले में बेहद प्रोफ़ेशनल रजनी को विज्ञापन जगत में लेखन की संभावना तलाश रहे एक लड़के की लच्छेदार बातों से प्यार हो गया था. पर वो लड़का तो रजनी से भी तेज़ निकला. पहले उसने रजनी की रूममेट और उसके बीच झगड़ा लगाकर दोनों को अलग किया और फिर रजनी को नया घर किराए पर दिलाया. जल्दी ही वो ख़र्च शेयर करने की बात करके रजनी के साथ रहने आ गया. उसका दावा था कि वो रजनी से बहुत प्यार करता है. उसके बिना नहीं रह सकता. 

प्यार में बावरी रजनी ने अपने मम्मी-पापा से बात की और कथित जाति भेद और लड़के की नौकरी का ठिकाना न होने के बावजूद उन्हें तैयार कर लिया. वहीं प्रेमी महोदय अपने परिवार को इस रिश्ते के स्वीकार न होने की बात कहकर दोनों परिवारों को आमने-सामने मिलाने से कतराते रहे. फिर भी सगाई की डेट फ़िक्स हो गई. लेकिन सगाई के दिन हीरो ग़ायब और फ़ोन स्विच्ड ऑफ़. वो तो रजनी के मम्मी-पापा इतने मैच्योर थे कि ख़ुद संभले और अपनी बेटी को भी संबल दिया. फिर भी दिल टूटने का दर्द प्रो़फेशनल रूप से मज़बूत रजनी दिल में नहीं रख पाई. उसने अनु के सामने दिल खोलकर रख दिया और इस तरह वो दोनों अच्छी सहेलियां बन गईं.
‘‘पर पता है तुझे ये कितनी बड़ी बेवकूफ़ है. दो महीने बाद जब इसका प्रेमी फिर कड़की में आया तो पैर पकड़कर लोट गया और ये महारानी उसके सच्चे प्यार पर फ़ना हो गईं,’’ थोड़ी तल्ख़ होते हुए अनु ने बताया. झेंपती हुई रजनी सुन रही थी.

‘‘वो तो अच्छा हुआ कि एक दिन सच्चे प्रेमी वॉशरूम में थे और उनकी किसी नई प्रेमिका का फ़ोन रजनी ने उठा लिया. तब जाकर इसकी आंखों पर से प्यार की पट्टी खुली.’’ हंसते हुए अनु ने आगे बताया,‘‘हां, फिर इस घायल शेरनी ने उसकी जो धुलाई की कि वो भी याद रखेगा किसी को अगली बार चीट करने से पहले. इतना ही नहीं रजनी रानी का ज़मीर जगा और इसने उससे अपने वो पैसे भी मांगे, जो प्रेमी महोदय ने अलग-अलग बहाने बनाकर मांगे थे.’’

‘‘पर कमीने के पास पैसे हों तो देता ना. मैंने उसका लैपटॉप और यह आईफ़ोन रख लिया,’’ रजनी ने हाथ के आईफ़ोन को दिखाते हुए कहा. रजनी के चेहरे की मुस्कुराहट के पीछे दर्द दिखा, पर जल्द ही तीनों की हंसी अट्टहास में बदल गई और जब वे चुप हुईं तो एक-दूसरे के क़रीब थीं. बहुत थोड़े से ही समय के लिए ही, इस समय कहानी का मुख्य कि़रदार रजनी थी. रजनी ने कहा,‘‘पता है इस ख़राब रिश्ते से निकलना मेरे लिए एक नए जन्म लेने जैसा था. वैसे मैंने कहीं पढ़ा था,‘हम सिर्फ़ उसी रोज़ पैदा नहीं होते, जब मां हमें जन्म देती है, जीवन हमें बार-बार यह अवसर देता है कि हम जन्म लें.’’’

रजनी की बात सुनकर अनु चुप थी और वो भी ख़ामोशी से अपने फ़ोन का स्क्रीन देख रही थी. '07:31' यानी अब घर के लिए निकलना चाहिए. उसने अमन को टेक्स्ट किया,‘काम ज़्यादा है. ऑफ़िस से लेट निकल रही हूं. मम्मी को बता देना. बाहर ही खाने चलते हैं.’ उसने टेक्स्ट करके सिर उठाया तो देखा रजनी और अनु सेल्फ़ी लेने के लिए तैयार थीं. रजनी ने आईफ़ोन से सेल्फ़ी ली. मॉल से निकलकर वे स्टेशन पहुंच गए.

अनु और रजनी को अलविदा कहकर वो ठाणे ट्रेन में बैठी. तभी उसे वॉट्सऐप पर रजनी की भेजी हुई फ़ोटो मिली. पाउट निकाले हुए तीनों कार्टून लग रहे थे, जिसे देख वो हंस पड़ी. उसने उसे अपना वॉट्सऐप प्रोफ़ाइल पिक्चर बनाया. स्टेटस भी अपटेड किया. ‘एक सुहानी दुपहरी   ’

उसके दिमा़ग में चल रहा था वाक़ई दोपहर कितनी मज़ेदार होती है. दोपहर की धूप कितनी सुहानी लगती है. ट्रेन्स आज भी ख़ाली होती हैं. बसें बिना ट्रैफ़िक में फंसे भी चल सकती हैं. आजकल के कॉलेज के बच्चे कितने कूल होते हैं. अनु कितनी प्यारी है. झल्ली रजनी... झल्ली नहीं... रजनी कितनी अच्छी है. उसे पता नहीं क्यों अमन पर भी बड़ा प्यार आ रहा था. एक पल के लिए उनकी मम्मी की बच्चा पैदा करनेवाली नसीहतें भी इतनी इरिटेटिंग नहीं लगीं. सबसे बड़ी बात चौथी सीट पर बैठी आंटी झूल-झूलकर उसके ऊपर गिर रही थीं, पर उसे चिड़चिड़ाहट नहीं हो रही थी.

स्टेशन के बाहर रिक्शे की लाइन में उसने पूछा,‘‘भैया नौपाड़ा चलोगे?’’

रिक्शेवाले ने बेरुख़ी से कहा,‘‘घोड़बंदर.’’

ये सुनकर ग़ुस्सा तो इतना आया कि ज़बर्दस्ती रिक्शे के अंदर बैठ जाए. पर वो दोपहर की सीख इतनी जल्दी नहीं भूलना चाहती थी. तभी पीछेवाले रिक्शे में बैठी एक हमउम्र-सी महिला की आवाज़ आई,‘‘आंटी मेरे साथ आ जाओ.’’

उसने घूरकर देखा, फिर मुस्कुराते हुए कहा,‘‘हां, चलो बेटी.’’ एक-दूसरे से नज़रें मिलते ही वे दोनों ठठाकर हंस पड़ीं.

मीटर घुमाने के लिए पीछे मुड़ा रिक्शा ड्राइवर क्लूलेस था.

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