कहानी: सरनेम

मम्मी जी, आप यहीं बैठिएगा मैं व्हील चेयर का इंतज़ाम करती हूं...” अपनी सास का बुझा चेहरा देखकर आरवी उन्हें समझाती हुई बोली,“मम्मी जी, यहां स्टेशन में बहुत चलना पड़ता है आप बेवजह तंग हो जाएंगी...”

 “अरे फिर भी, अब इतना भी न चल सकूं तो...” हेमलता के कमज़ोर शब्दों पर आरवी अड़ गई,‘‘अरे मम्मी आप तो मज़े से व्हील चेयर पर बैठो. पापा और मैं आपको लेकर जाएंगे... थोड़े दिन की बात है, ऑपरेशन के बाद देखना आप इसी स्टेशन पर अपने पैरों पर चलाकर आएंगी... और मेरठ जाएंगी...”

यह सुनकर मायूसी से हेमलता हथियार डालती-सी बोली,“जा ले आ व्हीलचेयर...”  


हेमलता की मनोदशा केदार से छिपी नहीं थी... जिस स्त्री ने घर भर की धुरी बनकर जीवन जिया हो वह घुटनों के कारण इतनी असहाय हो जाए कि चलने-फिरने के लिए व्हील चेयर का सहारा लेना पड़े, यह दुःख किसी पहाड़ से कम नहीं था.

व्हील चेयर के साथ बाहर निकलते ही संयम दिखा तो हेमलता-केदार के चेहरे खिल गए.

 “आरवी शर्मा आपको संभाल कर लाई या नहीं?” यह बोलते हुए वह माता-पिता के पैर छूने लगा, फिर अपनी मां को ध्यानपूर्वक व्हील चेयर से कार तक ले गया.

रास्तेभर नए शहर को केदार-हेमलता कौतुहल से निहारते रहे.  


क़रीब बीस मिनट के अंदर ही वह बेटे-बहू के नए फ़्लैट में पहुंच गए. ऊंची पांच मंज़िली इमारत देखकर हेमलता के चेहरे पर चिंता की रेखाएं घिर आईं. जिसे भांपकर आरवी बोली,“मम्मी इस फ़्लैट में दो-दो लिफ़्ट हैं, लाइट जाती है तो जनरेटर से ये चल जाती है.”

लिफ़्ट से तीसरे फ़्लोर पर पहुंचते ही दरवाज़े के बाहर गमलों में लगे स्वस्थ हरे-भरे... और दरवाज़े के कोने में कड़ियों में लगी घंटियां हवा से धीमी-धीमी बजती हुई भली लगीं... नेमप्लेट पर नज़र ठहर-सी गई... उस पर लिखा था  ‘मिसेज़ आरवी शर्मा, मिस्टर संयम कनौजिया’

नेमप्लेट की और ताकते हुए हेमलता-केदार के चेहरे पर कुछ सख़्त से भाव आए. जिसे उन्होंने ज़ब्त करने की कोशिश की... सास-ससुर के भाव से असहज आरवी जल्दी-जल्दी सामान अंदर करने लगी... सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा घर का हर एक कोना आरवी की रचनात्मकता को दर्शा रहा था.   


अपनी अटैची और बैग के पीछे-पीछे हेमलता-केदार एक कमरे में गए तो आरवी बोली,“मम्मी, यहां बालकनी है वहां से नीचे बना पार्क दिखता है और ये अटैच बाथरूम... आप लोग हाथ-मुंह धो लो फिर चाय पीकर घर देखना...’’ उसके चेहरे पर उत्साह झलक रहा था.     

हाथ-मुंह धोकर हेमलता, पति के साथ बैठक में आई तो देखा आरवी नाश्ता लगा रही है और संयम चाय बना रहा था... चाय पीते समय आरवी बोली,‘‘जब घुटना ठीक हो तब आप इस पार्क में पापा जी के संग घूमने जाइएगा.’’ यह सुनकर हेमलता मुस्कुराकर बोली,“घूमने-फिरने के लिए तो मेरठ ही ठीक है. वैसे भी अगले हफ़्ते तुम कैनेडा जा रही हो... क्या घूमेंगे पार्क-वार्क... कौन-सा यहां बसेरा डालना है?”

यह सुनते ही आरवी और संयम एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे तो हेमलता ने अपनी बात पर ग़ौर किया कि कहीं बेध्यानी में वह ग़लत तो नहीं बोल गई... पर उसने यह बात किसी ग़लत नियत से नहीं कही थी, साफ़ मन से यह बात कही थी. इसमें झिझकना कैसा, पूरे तीन साल के लिए बेटा कैनेडा जा रहा है तो ज़ाहिर-सी बात है बहू भी जाएगी ही.


शाम को संयम ने ज़बरदस्ती उन्हें फ़्लैट से नीचे उतारा पर एक चक्कर में ही हेमलता के घुटने ने साथ छोड़ दिया, इसलिए केदार उसे ऊपर ले आए. घंटी बजाते-बजाते एक बार फिर नेमप्लेट पर नज़र पड़ी... ‘मिसेज़ आरवी शर्मा, मिस्टर संयम कनौजिया’ उफ़! कैसा अटपटा लग रहा था चेहरे पर तनाव-सा आ गया. आरवी संयम कनौजिया भी तो हो सकता है, पर आजकल की यूथ का क्या कहे अपने अस्तित्व का झंडा लेकर खड़े हो जाते हैं हर जगह.

रात को विचारों में डूबी हेमलता ने सहसा करवट बदली. नई जगह होने से नींद नहीं आ रही थी. रह-रहकर नेमप्लेट आंखों के सामने घूमती रही. नेमप्लेट से बंधे तार उसे एक साल पहले हुई बेटे की शादी की ओर ले गए. जब आरवी बहू बनकर घर आई थी. हेमलता ने नोटिस किया था कि वह किसी बात पर संकोच नहीं करती थी. कोई उससे कुछ पूछता तो वह बड़ी बेबाकी से बात करती. कभी-कभी उसे अटपटा भी लगता, जब वह किसी रीति-रिवाज को देखकर प्रश्न भी पूछ लेती. ‘क्यों होती है... क्या होता है...’ सरीखे प्रश्नों पर झल्लाकर संयम की ताई जी ने कटाक्ष भी कर दिया था कि,‘बहू, ये रस्में पीढ़ियों से होती आ रही हैं हमने निभा दी, बिना किसी सवाल के सो


क्या जानें क्यों होती हैं? बस होती हैं.’ यह सुनकर आरवी ने चुपचाप बाक़ी की रस्में पूरी कीं. हेमलता नई बहू की साफ़ग़ोई और उत्सुकता को समझती थी, पर वह अपने किसी रिश्तेदार के सामने कोई हास्यास्पद स्थिति नहीं चाहती थी.

घर में नई बहू के आने की गहमागहमी में केदार के दोस्त की पत्नी, जो शादी में किसी वजह से नहीं आ पाई थी वो नई बहू से मिलने घर आई. आरंभिक बातचीत के दौरान उन्होंने आरवी से सहज प्रश्न किया. ‘क्या नाम है तुम्हारा?’ यह सुनकर स्मित मुस्कराहट के साथ वह बड़े आत्मविश्वास के साथ बोली,‘जी, आरवी शर्मा...’ बड़ी ही सहजता से नई नवेली ने जवाब दिया तो वहां मौजूद महिलाओं-पुरुष के हुजूम में हंसी का फव्वारा सा छूटा. तभी किसी ने हंसकर कहा,‘अरे अभी आदत नहीं है न... इसलिए बेचारी आरवी कनौजिया की जगह शर्मा बोल गई.’


हेमलता की जेठानी बोली,‘शर्मा तो मायके का सरनेम है, अरे अब तो ये सरनेम भुला ही दो बहुरिया... अब तो सरनेम पतिदेव का ही लगेगा... संयम कनौजिया की पत्नी आरवी कनौजिया...’

इस प्रकरण को संयम की भाभी ने संभालते हुए कहा,‘अरे चाची जब मैं आई थी न तब बड़े दिनों तक मोहंती बोल जाती थी... फिर कनौजिया की आदत पड़ी... कोई न, इसे भी आदत पड़ जाएगी...’


 ‘पर दीदी, आरवी के साथ कनौजिया...  शर्मा ही नहीं रहने दे सकते क्या?’ आरवी के कहते ही सबकी त्यौरियां चढ़-सी गईं, तभी संयम बोल पड़ा,‘हां, ऐक्चुअली, तुम्हारे नाम के आगे शर्मा सरनेम ही सूट करता है. वैसे जब इतनी उम्र इस सरनेम के साथ गुज़ारी है तो आगे क्या दिक़्क़त है.’’ यह सुनते ही मानो सबको बिच्छू डंक मार गया. इस बात पर घर में जंग-सी छिड़ गई. बड़ी-बूढ़ियां नाराज़ थीं. ये कहा गया कि शादी के बाद ससुराल का सरनेम न अपनाने वाली बीवियां अपने पति पर हावी होती हैं. ये जाने कौन-सा चलन शुरू हुआ है? सरनेम बदलने की परंपरा तो बहुत पुरानी है. इसमें तो शान बढ़ती है, पर आजकल की लड़कियों को मायके के सरनेम को अपनाने में शान प्रतीत होती है... आदि आदि. 


जितने मुंह उतनी बातें लिए मेहमान विदा हुए. वह और केदार भी आरवी की इस हरकत पर खिन्न थे. संयम को उसे उकसाने और ग़लत को सही बताने का दोषी माना जा रहा था. इसे संयम की बेवजह की छूट भी बोला गया और तो और शादी कमज़ोर साबित होगी ऐसा भी ऐलान किया गया. आख़िरकार समर्पण का पहला क़दम पति का सरनेम अपनाना ही तो था. पति के सरनेम को अस्वीकार करना अर्थात पति के अस्तित्व को अस्वीकारने जैसा था. घर में मचे इस घमासान पर संयम चिढ़ गया. पर आरवी ने आरवी शर्मा कनौजिया लिखकर रास्ता निकाला तो बेवजह इस मुद्दे को दिए तूल पर चिढ़ा संयम कनौजिया शर्मा लिखने लगा. अब तो और फ़ज़ीहत हुई. वह और केदार तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं बचे.

दोनों को बैठाकर ऊंच-नीच समझाते हुए कहा गया कि पत्नी द्वारा पति के सरनेम को स्वीकारना यह दिखाता है कि पत्नी पति के परिवार को प्राथमिकता देती है. आरवी ने भावुक होकर कहा,‘मुझे नहीं पता था ये इतना बड़ा विवाद है. मैं संयम के साथ मन से जुड़ी हूं, इसलिए मैं शर्मा रहूं या कनौजिया मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.’ यह सुनकर संयम संवेदनशीलता के साथ कहने लगा,‘रिश्तों में प्यार महत्वपूर्ण है, सरनेम नहीं. मैं तुम्हें समझता हूं और तुम मुझे, इसलिए सरनेम बदलने और लगाने के लिए न मैं बाध्य हूं न तुम. या तो दोनों एक-दूसरे के सरनेम को अपनाएंगे या दोनों ही नहीं.’

संयम की सोच सदा से ही बेड़ियों और बंधनों से मुक्त रही है उसकी इस चुनौती और सनकभरी शर्त ने मुश्क़िल खड़ी कर दी थी. आरवी शर्मा के साथ कनौजिया उतना अजीब नहीं लग रहा था, जितना संयम कनौजिया के साथ शर्मा सरनेम को ढोते अजीब लगा था.

‘तुम्हारे बच्चे किस सरनेम को अपनाएंगे?’ व्यंग्य से केदार ने पूछा. तब आरवी सरलता से बोली,‘पापा वो तो कनौजिया ही लिखेंगे, क्योंकि स्कूलों में पिता का सरनेम लिखने का प्रावधान है. हम अपने बच्चों के नाम ऐसे चुनकर रखेंगे, जिनमें कनौजिया सरनेम सूट करे.’ यह सुनकर केदार सकपका गए. संयम बोल पड़ा,‘सच में सरल नाम ही रखेंगे. तुम्हारे पैरेंट्स ने अनसुना नाम रखा है.’ यह सुनकर आरवी बेसाख़्ता हंस पड़ी.   


इस प्रकरण के बाद और फ़ज़ीहत से बचने के लिए केदार ने भी उनपर किसी प्रकार का दबाव न बनाने का आदेश दिया, पर मन खट्टा हो चुका था. इस बीच आरवी कई बार ससुराल आई, पर हेमलता उसके साथ सहज नहीं हो पाई.

इधर घुटनों ने जवाब दे दिया, पर संयम और आरवी बीच में आए तो उसकी दशा देखकर परेशान हो गए. आरवी ने वहां रुकने की पेशकश की तो हेमलता ने चुपचाप हामी भर दी.

कुछ दिन पहले ही वह बड़ी बहू लतिका को आज़मा चुकी थी. उसने वहां आने में असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा,‘मम्मी जी क्या करूं आ नहीं सकती, न ही आपको बुला सकती हूं. यहां आप और भी परेशान हो जाएंगी. काम में दिन कहां निकलता है पता ही नहीं चलता. मेड की भी प्रॉब्लम है.’

कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकला कि किसी भी हालत में न तो बहू मेरठ आ सकती है, न वह बैंगलोर जा सकती है. केदार के साथ जैसे-तैसे समय निकल ही जाता था. किसी और के आने में और कहीं जाने से बेहतर है कि वह थोड़े कष्ट केदार के साथ वहीं मेरठ में ही बांट ले.


लतिका के पास हेमलता की समस्या का कोई समाधान नहीं था, सिर्फ़ उम्र के साथ आनेवाली इन दिक़्क़तों के लिए उसके पास संवेदनाएं ही थीं. बड़े शहर में बड़े डॉक्टर का एक लालच ज़रूर था. केदार ने एक बार बैंगलोर में हड्डी के एक बड़े डॉक्टर को दिखाने की गुज़ारिश की थी, पर बड़े शहरों में मुश्क़िल से मिलनेवाले अपॉइन्टमेंट को देखते हुए मेरठ में ही इलाज करवाने की सलाह मिली.

केदार समझते थे स्वास्थ्य का महत्व. बेटों-बहुओं से बहुत उम्मीद उन्होंने पाली ही नहीं थी. बेटे-बहू उनकी सेवा करेंगे ऐसी ख़ुशफ़हमी रखना आज के युग में बेमानी था. ऐसे में जब संयम ने मां को पूना के एक प्रसिद्ध डॉक्टर को दिखाने का मन बनाया तो केदार तुरंत राज़ी हो गए. आनन-फानन में ही घुटने के आपरेशन की बात भी तय हुई.

संयम को ट्रेनिंग के लिए दो हफ़्ते के लिए हैदराबाद जाना था, सो आरवी ने ससुराल जाने का मन बना लिया. वहीं से पूना के डॉक्टर से अपॉइन्टमेंट फ़िक्स हुआ. आरवी के मेरठ रहने के दौरान हेमलता को उसे समझने का मौक़ा मिला. उसकी दो टूक बातें उसके साफ़ मन की बानगी देने लगीं. संयम के पूना आने पर आरवी ही उन्हें मेरठ से पूना लेकर आई. हेमलता-केदार डॉक्टर कानन से मिलने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे. लेकिन संयम-आरवी की ओर से तीन दिन बीत जाने पर भी डॉक्टर कानन से मिलने-मिलाने का कोई संकेत नहीं आया. और तो और, जाने-अनजाने नवदंपति परिहास में एक-दूसरे को उनके पूरे नाम से पुकारते थे अर्थात संयम कनौजिया या फिर आरवी शर्मा. केदार टोकने से ख़ुद को रोक लेते, पर उनके मुख के भाव अपनी आपत्ति छिपाने में असफल हो ही जाते. हेमलता केदार को समझाती,“जब नई रीति चला ही ली है तो न टोका करें बच्चों को, बेकार में बुरा लग गया तो बचा-खुचा प्रेमभाव भी चला जाएगा.’’ तीन साल के लिए कैनेडा के प्रवासी होने जा रहे बहू-बेटे अपना प्यार लुटा रहे हैं तो थोड़े समय के लिए सबकुछ भूलाकर उसका लुत्फ़ क्यों न उठाया जाए.


“मम्मी जी, अब रोज़ मैं आपको खाना अपने हाथ का बनाकर ही खिलाऊंगी,’’ आरवी की आवाज़ से सहसा हेमलता सोच-विचार के घेरे से बाहर आई.

पारंपरिक व्यंजन सीखने के प्रति उसकी ललक देखकर हेमलता को अच्छा लगा. वह पूछ-पूछकर खाने लायक खाना बना ही लेती.

छह दिन बीतने तक भी जब नी रीप्लेसमेंट की कोई बात नहीं हुई, तो केदार ने रात को खाने के समय पूछ ही लिया,‘‘तुम्हारी डॉक्टर से कोई बात हुई क्या?’’ यह सुनकर संयम बोला,‘‘पापा, दरअस्ल डॉक्टर कानन एक कोर्स के लिए अमेरिका गए हैं, वो दो महीने बाद आ रहे हैं, उसके बाद सबसे पहले मम्मी का ऑपरेशन होगा.” यह ख़बर उनके लिए अप्रत्याशित थी. अत: उत्तेजित होकर बोले,“तुमने पहले क्यों नहीं बताया... और आरवी... क्या ये नहीं जानती थी?”


यह सुनकर संयम हंसते हुए कहने लगा,‘‘पापा मुझे पिछले हफ़्ते ही पता लग गया था. मैंने आरवी को फ़ोन किया तो वो बोली,“जो प्रोग्राम जैसा है वैसा रहने दो. वैसे भी मैं कैनेडा जाऊंगा पर डॉक्टर कानन तो यही रहेंगे. और इन दिनों आप लोग यहां एडजस्ट हो जाएंगे... आपरेशन के बाद जब मम्मी की हालत ठीक लगे आप चले जाइएगा.”

यह सुनकर हेमलता हड़बड़ाकार बोली,“अरे इससे तो मुझे वहीं रहने देता. जब डेट मिलती हम आकर करवा जाते.’’

“बस इसीलिए आपको नहीं बताया. अरे अभी आप घर पर नहीं हैं क्या? वहां मैंने देखा नहीं क्या आपको कितनी मुश्क़िल होती थी काम करने में,’’ ऐसा आरवी ने कहा.

आरवी की बात पर संयम भी हां में हां मिलाते बोला,“हां मां, यहां पापा हैं, आरवी है, क्या दिक़्क़त है?”

“आरवी तो तुम्हारे साथ जा रही है ना?’’

यह सुनते ही आरवी रहस्यमई शरारती मुस्कान के साथ बोली,“मम्मी जा रही थी, पर अब जाऊंगी आपके नी ऑपरेशन के बाद. जो भी हो जाए डॉक्टर कानन से आपका नी रीप्लेसमेंट करवाना अब आरवी शर्मा का मिशन है!”


और समय होता तो ‘शर्मा’ सरनेम पर वो क्षोभ से भर जाते पर आज आरवी शर्मा शीतलता प्रदान कर रहा था.
“पर बेटा हमारी वजह से तुम लोग... संयम पहले जाएगा और तुम बाद में?”

“तो क्या हुआ मम्मी, आपकी जगह मेरी अपनी मम्मी होती तो क्या उन्हें इस दर्द में छोड़कर चली जाती?”
उसके सरल हृदय और साफ़ग़ोई पर हेमलता का मन भर आया. उसके प्रति मन में सूखी भावनाएं आंसुओं से भीग गईं.

“हे भगवान, आप कितनी इमोशनल हैं,” कहते हुए उसने हेमलता को गले लगा लिया.

वहीं हेमलता की आंखों से बहते आंसू मन में पाले पूर्वाग्रह को बहाकर मन से निकालते रहे.


“जानती हैं मम्मी, आज मुझे बड़ा अच्छा लग रहा है. ऐसा लग रहा है जैसे पहली बार मैंने आपको मां के रूप में पाया हो...”

यह सुनते ही हेमलता अपने में सिमट गई. सच तो यही था कि उसने आज ही तो सच्चे मन से बिना किसी संशय या पूर्वाग्रह के आरवी शर्मा को गले लगाया था.

‘मन को मन से राहत मिलती है’ सोलह आने सच इस सत्य की अनुभूति आज उसे हो गई. आज उसे आरवी शर्मा और संयम कनौजिया पर गर्व हो रहा है.


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