कहानी: आग के फूल

न जाने क्यों बचपन से ही मुझे गुलमोहर का पेड़ बहुत पसंद है. घर के आंगन में लगा यह गुलमोहर मैंने ही रोपा है. मुझे अब भी याद है अपना वह जन्मदिन, उस दिन बाबूजी मुझे पौधों की नर्सरी में ले गए थे. वहां मुख्य द्वार पर लगा था गुलमोहर का पेड़ और भीतर आम, जामुन, अनार, अमरूद, अंजीर, फालसे के साथ गुलाब, मोगरा, चंपा, चमेली के पेड़ और बेलें भी लगी थी. पेड़ों के नीचे छोटे-छोटे मिट्टी के लोदों में रखे थे, ढेरों नन्हे-नन्हे पौधे.

बाबूजी मुझे उन छोटे-छोटे पौधों के पास ले गए और पौधा पसंद करने को कहा. तब मुझे गुलमोहर का नाम नहीं मालूम था. मैंने नर्सरी के मुख्य द्वार की तरफ़ लगे गुलमोहर के पेड़ की तरफ़ इशारा करके कहा,‘‘वो वाला जिसमें आग जैसे फूल आते हैं.’’

बाबूजी हंस पड़े,‘‘बच्चे तो अमरूद, अनार के पौधे पसंद करते हैं या फिर गुलाब और तू है कि गुलमोहर का पौधा मांग रही है. आख़िर क्या बात है उसमें?’’

‘‘वही अच्छा लगता है मुझे,’’ मैंने मचलकर कहा.

और वह पौधा मैंने अम्मा और बाबूजी की मदद से अपने आंगन में रोप दिया था. मैं बहुत ख़ुश थी.
समय बीतने लगा और पौधा तेज़ी से पेड़ बने लगा. देखते-देखते उसका क़द मुझसे भी ऊंचा हो गया और उसमें आग के फूल भी लगने लगे. तब मुझे लगता था कि मेरे भीतर की सारी आग, उस पेड़ में फूल बनकर टंग गई है. मैं फूलों को देखा करती. पेड़ की छांह में, पेड़ से बातें करते, फूलों को देखते-देखते समय तेज़ी से गुज़रने लगा. मैं एलएलबी कर चुकी थी. अब कोई चुनौती भरा काम करना चाहती थी. बाबूजी ने सिविल जज की परीक्षा में बैठने का सुझाव दिया. प्रथम प्रयास में ही मुझे सफलता मिल गई.

जब नियुक्ति पत्र मिला तो लगा, अब मैं बहुत कुछ कर सकती हूं. सारी दुनिया बदल सकती हूं. मगर सिविल जज के रूप में नौकरी सामान्य रूप से चल रही थी. एक सपाटपन था. कुछ ख़ास चुनौती भरा जैसा कि मैं चाहती थी, करने को नहीं था. मगर सत्र न्यायाधीश के रूप में पदोन्नती मेरे सामने ढेरों चुनौतियां लेकर आई.

उस दिन ममता के केसकी तारीख़ थी. इस केस की कई तारीख़ें मेरे सामने लगी हैं. ममता की उम्र क़रीब 22-23 साल है. कोर्ट में आती है तो चुपचाप एक कोने में खड़ी रहती है. मगर उसकी आंखें चंचल हैं. शरीर भरा हुआ और फुर्तीला. उसे देखकर कोई अनुमान नहीं लगा सकता कि, वह घरेलू नौकरानी का काम करती है. साफ़-सुथरे, व्यवस्थित कपड़े पहनती है. सलीके से बनाई लंबी चोटी, पीठ से नीचे कमर तक लहराती है. पैरों में ऊंची एड़ी की चप्पल पहनती है. कंधे पर पर्स भी टांगती है. नम्रता से बात करती है. आठवीं तक पढ़ी है.

ममता का केस बहुत उलझा हुआ है. जिस घर में वह नौकरानी का काम करती थी, वहीं के मालिक के ड्राइवर भरत से उसका प्रेम था. दोनों शादी करना चाहते थे मगर घरवाले तैयार नहीं थे इसलिए वे घर से भाग गए. इस पर ममता के भाई देवा को बहुत ग़ुस्सा आया उसने पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई कि भरत उसकी नाबालिग बहन को भगा कर ले गया है.

पुलिस ने भरत और ममता की तलाश की. जब वे दोनों पुलिस को मिले, तब तक वे शादी नहीं कर पाए थे. चूंकि देवा के अनुसार ममता नाबालिग थी, सो पुलिस उन्हें थाने पर ले आई. उस समय रात के नौ बजे थे. थाने पर हेड कॉन्स्टेबल राधेश्याम और कॉन्स्टेबल गणेश तैनात थे.

राधेश्याम ने देवा को भी थाने पर बुलाया. सबसे बयान लिए. भरत और ममता के अनुसार, दोनों बालिग थे, पर देवा उसे नाबालिग बता रहा था. बयान के बाद राधेश्याम ने देवा और भरत को जाने दिया. ममता भी जाने लगी. राधेश्याम ने कहा,‘‘अभी रुको, और पूछताछ करनी है.’’ भरत और देवा भी रुक गए. इस पर राधेश्याम ने उन्हें डांटा,‘‘तुम लोग जाओ, ममता से अकेले में बात करनी है.’’
भरत और देवा थाने के बाहर खड़े हो गए. राधेश्याम और गणेश ममता को वहीं बिठाकर थाने के भीतरी भाग में चले गए. काफ़ी देर बाद दोनों लौटे तो शराब पिए हुए थे. यह देखकर ममता घबरा गई. उसने जाना चाहा. मगर राधेश्याम उसे घसीटकर थाने के पिछले भाग में ले गया. वह चीखने-चिल्लाने लगी. उसकी चीख सुनकर भरत और देवा भीतर आए मगर गणेश ने उन्हें रोक दिया. उसने उन्हें डांटा,‘‘तुम्हें घर जाने को कहा था ना. यहां क्या कर रहे हो? ममता सुबह आ जाएगी.’’

रात ग्यारह बजे का समय था. ममता की चीख-पुकार और कांस्टेबल गणेश द्वारा उन्हें भीतर जाने से रोकने पर उन्हें शक‍ हो गया. थाने के पास ही बस्ती थी. दोनों दौड़ते हुए बस्ती तक गए. गर्मी के दिन थे. पान की दुकान चालू थी. थोड़ी बहुत चहल-पहल थी. कई लोग घर के बाहर सड़क पर खाट डालकर सोए थे. वे दोनों शोर मचाने लगे,‘‘थाने पर पुलिसवाले एक लड़की से ज़ोर-ज़बरदस्ती कर रहे हैं.’’ यह सुनकर कई लोग उनके साथ थाने आ गए. इस बीच हेड कॉन्स्टेबल राधेश्याम, ममता की अस्मिता लूट चुका था. अब गणेश की बारी थी. जब लोग थाने पहुंचे तो भीतर से ममता के चीखने की तेज़ आवाज़ें आ रही थी. बाहर सब लोग चिल्ला रहे थे,‘‘लड़की को छोड़ो...ममता को छोड़ो.’’ शोर मचाते हुए लोग भीतर जाने लगे. उन्हें रोकने के लिए राधेश्याम बाहर आया और बोला,‘‘ममता यहां नहीं है. वह घर चली गई है.’’ मगर ममता उसके पीछे-पीछे ही आ रही थी. लोगों ने उसे देख भी लिया था. राधेश्याम और गणेश नशे में धुत थे. ममता रो रही थी.  उसने रोते-रोते अपने साथ घटे हादसे की बात लोगों को बताई.  

लोग क्रोध में थे. वे हेड कॉन्स्टेबल राधेश्याम और कॉन्स्टेबल गणेश के ख़िलाफ़ रिपोर्ट लिखवाना चाहते थे. पर थाने में केवल वे दोनों ही थे. तब उनके ख़िलाफ़ कौन रिपोर्ट लिखता?

कुछ लोग साइकिल पर थानेदार के घर गए, जो पास में ही था. उसे सारी बात बताई. थानेदार भी उन दोनों के ख़िलाफ़ रिपोर्ट नहीं लिखना चाहता था. मगर लोगों के दबाव और बड़े अधिकरियों के पास जाने की धमकी ने काम किया. थानेदार को रिपोर्ट लिखनी पड़ी. जनता के दबाव के कारण रिपोर्ट भले ही लिखी गई हो, पर डॉक्टरी जांच ममता के पक्ष में नहीं थी. उसमें साफ़ लिखा था-‘ममता का कौमार्य पहले से ही भंग है. वह ऐसे संबंधों की अभ्यस्त है. उससे शारीरिक संबंध तो हुए हैं मगर उसके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती की गई हो, इसके चिन्ह नहीं हैं.’

इसी रिपोर्ट को बचाव पक्ष के वक़ील ने अपराधी के बचाव का ठोस आधार बनाया. उसकी दलील थी-‘ममता, ऐसे संबंधों की आदी है. उसके शरीर पर विरोध के चिन्ह भी नहीं पाए गए हैं. हेड कांस्टेबल राधेश्याम ने ममता की सहमति से उससे संबंध बनाए. वह बालिग भी है. चूंकि वह एक व्याभिचारिणी स्त्री है अत: उसकी गवाही नहीं मानी जा सकती.’

यह दलील अपराधी के बचाव का पैंतरा था. निर्दोष को दोषी बताया जा रहा था, दोषी को निर्दोष. तारीख़ पंद्रह दिन आगे बढ़ाकर मैं घर लौटी तो मन अच्छा नहीं था. वक़ील साहब की दलीलें मन में उथल-पुथल मचाए हुए थीं. अपना बोझ मैंने अम्मा के आगे रखा, मगर बोझ घटने के बदले बढ़ गया.

‘‘बड़े-बूढ़े ठीक ही कहते हैं. स्त्री को अपनी बेज़्ज़ती की बात किसी से नहीं कहना चाहिए. इससे उसकी ख़ुद की बेज़्ज़ती होती है. और ममता ने तो थाना-कचहरी कर लिया. और इस प्रेम-व्रेम के चक्कर से तो भगवान ही बचाए.’’

‘‘रहने दो अम्मा. इन दकियानूसी बातों ने ही तो लड़कियों को दब्बू और डरपोक बनाया है,’’ मैंने अम्मा की बात काटी.

मगर अम्मा ने बहस जारी रखी,‘‘मैंने तो पहले भी कहा था औरत का काम घर के भीतर का होता है. न ममता बाहर जाती, न प्रेम होता. न वो अपने घर से भागती, न इतना बड़ा कांड होता.’’

‘‘ओह अम्मा. काम नहीं करती तो खाती क्या? फिर प्रेम करना तो व्यक्ति का बुनियादी हक़ है. इसका मतलब यह थोड़े ही है कि कोई भी उससे ज़बरदस्ती कर ले.’’

‘‘तुम्हारी बात तो हमारे गले नहीं उतरती,’’ अम्मा ने कहा तब तक जानकी चाय ले आई थी.

‘‘चलो छोड़ो इन बातों को. चाय पीते हैं,’’ मैंने इस बहस को परे ढकेला. मगर मन का बोझ ज्यों का त्यों था.
यदि ममता का चरित्र ख़राब भी था, तब भी ड्यूटी पर तैनात पुलिसवालों का उससे जबरन संबंध बनाना, शराब के नशे में धुत होना, क्यान्यायसंगत था?

अगली तारीख़ पर मैंने फ़ैसला लिखा-‘पुलिस से नागरिकों की रक्षा की अपेक्षा की जाती है. यह उसके कर्तव्य का हिस्सा है. मगर ड्यूटी पर शराब के नशे में धुत होकर बलात्कार करना अक्षम्य अपराध है. अपने कर्तव्य की गंभीरता को न समझकर हेड कॉन्स्टेबल राधेश्याम और गणेश ने निम्न श्रेणी का आचरण किया है. ममता को रात के समय थाने पर रोकने का ग़ैरक़ानूनी कृत्य भी इन दोनों ने किया है. इससे स्पष्ट है कि इन्होंने योजनाबद्ध तरीक़े से ममता से बलात्कार किया. जहां तक प्रतिरोध के चिन्ह नहीं पाए जाने का सवाल है तो उसका कारण साफ़ है. जिन परिस्थितियों में ममता पकड़ी गई, थाने पर ले जाई गई, उसमें उसका भयभीत हो जाना स्वाभाविक था. वह प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं थी. ममता का भंग कौमार्य, उसके प्रेम-संबंध का परिणाम है, न कि दुष्चरित्रता का. राधेश्याम और गणेश दोषी पाए गए. राधेश्याम को ममता से बलात्कार के अपराध में दस वर्ष की और गणेश को बलात्कार के प्रयास के लिए दो वर्ष की सज़ा दी जाती है.’

मेरे इस फ़ैसले के विरुद्ध बचाव पक्ष द्वारा हाईकोर्ट में अपील की गई. हाईकोर्ट में फ़ैसला बदल दिया गया. अपील मंज़ूर करते हुए माननीय न्यायमूर्ति ने लिखा-‘अपने प्रेमी भरत के सामने स्वयं निर्दोष प्रमाणित करने के लिए ममता ने लोगों के सामने चिल्ला-चिल्लाकर बलात्कार की बात कही. अविवाहित होकर भी ऐसे संबंधों की अभ्यस्त लड़की की गवाही विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती है. यह शांतिपूर्ण शारीरिक संबंध बनाने की घटना है, बलात्कार की नहीं. आरोपी राधेश्याम और गणेश दोषमुक्त पाए गए हैं. अपील मंज़ूर की जाती है.’
इस फ़ैसले से मैं बहुत आहत हुई. एक शून्य में घिर गई. शाम बढ़ने के साथ-साथ शून्य भी बढ़ता गया. रात को न्यूज़ देखने के बहाने शून्य भरने की कोशिश में टीवी ऑन किया. पेइचिंग की विश्व महिला सम्मेलन की रिकॉर्डेड रिपोर्ट दिखायी जा रही थी. स्त्रियों को बग़ैर दबाव, भेदभाव और हिंसा के अपने यौन संबंधों के बारे में स्वयं निर्णय लेने पर ज़ोरदार बहस हो रही थी. शून्य और गहरा हो गया.

‘पुरुषसत्ता के वर्चस्व के चलते स्त्री की नियति, देह-शोषण सहने की हो सकती है. ममता की तरह बोलने पर इसकी दोहरी सज़ा पाने की भी. ऐसे में अपने दैहिक संबंधों के मामले में स्वतंत्र निर्णय लेना?’’ इसी शून्य में घिरी मैं सोचती रही कि कितने साल बीत गए पेइचिंग के विश्व महिला सम्मेलन को.’

फिर चैनल बदल दिया. मध्यप्रदेश के किसी गांव में महिला सरपंच को वस्त्रहीन कर, भरी पंचायत में घुमाने का समाचार चल रहा था. फिर उस महिला सरपंच से बातचीत का सीधा प्रसारण शुरू हो गया. तभी लाइट चली गई और मैं गहरे अंधेरे में डूब गई.

‘ममता या ममता जैसे दूसरे प्रकरणों में न्याय कैसे हो? इस नौकरी में क्यासोचकर आई थी. मगर पग-पग पर मेरा मोहभंग हुआ है. न्याय करने का सोचकर आई थी. पर अब ख़ुद को लाचार पा रही हूं, क़ानूनी छेद, प्रकरणों में जान-बूझकर या अनजाने में छूटी तकनीकी भूलों और घटिया षड़यंत्रों में जकड़कर भला न्याय कैसे किया जा सकता है? जो किया जा सकता है, वह फ़ैसला हो सकता है पर न्याय तो नहीं.’

यह सब सोचते हुए हताशा महसूस होने लगी.

तभी मेरी निगाह पड़ी आंगन में लगे गुलमोहर पर. उसमें लगे आग के फूल इस गहन अंधेरे में और ज़्यादा चमक रहे थे. उन्हें देखते ही मेरे भीतर की हताशा तिरोहित हो गई. मन-मस्तिष्क में एक के बाद एक विचारों की लहरें हिलोरें लेने लगीं. इतनी हताशा भी ठीक नहीं. क़ानून बनते हैं तो कुछ कमियां भी रह जाती हैं. वे दूर भी हो सकती हैं, कई बार हुई भी हैं. कई क़ानून पहले थे ही नहीं, वे बने, फिर धीरे-धीरे कमियां दूर की गईं. अब भी ऐसा हो सकता है.

इस ख़्याल से मेरे भीतर उत्साह आ गया. ‘यह इतना आसान नहीं, मगर असंभव जितना कठिन भी नहीं है. बदलाव तो धीरे-धीरे ही होते हैं. मगर कैसे...?’ मैं सोचती रही.

‘ममता के प्रकरण में मुख्य मुद्दा तो क़ानूनी कमी का है. प्रेम-संबंधों में सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करके देह की सीमाओं को पार कर लेने से किसी भी अन्य पुरुष को उससे बलात्कार करने का अधिकार तो नहीं मिल जाता? न ही इस आधार पर उसे दुष्चरित्र मानकर अपराधी पुरुष को निर्दोष माना जा सकता है. मुझे क़ानून की कमी को दूर करने के लिए क़ानून में बदलाव लाने के लिए संघर्ष करना होगा.’ मेरा मन शांत था और मैं स्पष्ट सोच पा रही थी.

तभी लाइट आ गई और कमरा रौशनी से जगमगाने लगा.

‘मेरे अनुभव यही थे कि प्रजातंत्र में जनमत सब पर भारी है. जन सहयोग से सरकार पर बलात्कार क़ानून में संशोधन का दबाव बनाया जा सकता है. जन सहयोग लेने से पीड़ित स्त्रियों के प्रतिसमाज की सोच बदलने की संभावनाए बढ़ेंगी. पर जनसहयोग कैसे लिया जाए?’ मैं सोचती रही.

बहुत देर बाद एक उपाय सूझा. मैंने राष्ट्रीय महिला आयोग को इस आशय का मेल किया. मेल करते हुए मुझे यह एहसास हुआ कि यह संघर्ष मेरा अकेले का नहीं पूरी दुनिया की महिलाओं का है.

और कुछ ही दिनों में जब उनका जबाव आया तो मेरा यह एहसास भरोसे में बदल गया. उन्होंने मुझे संशोधित क़ानून और जनआंदोलन की रूपरेखा बनाने की ज़िम्मेदारी दे दी.

मैंने एक अपील का मसौदा तैयार करके उन्हें भेजा और अधीरता से प्रतीक्षा करने लगी. उसी रात मैंने सपने में देखा की ढेर सारे हाथों ने कांटेदार झाड़ियों का जंगल साफ़ कर दिया और वहां गुलामोहर के ढेरों पौधे उग आए. वे झूम-झूमकर गीत गाते हुए तेज़ी से पेड़ बन रहे थे.
और ऐसा ही हुआ भी. जब महिला आयोग की ओर से यह आह्वान देश के लगभग सारे समाचार-पत्रों में, हर प्रांतीय भाषा में छपा. टेलीविज़न के हर चैनल पर महिला आयोग की अध्यक्ष श्रीमती चटर्जी के आह्वान की रिकार्डेड सीडी हर लोकप्रिय कार्यक्रम के ब्रेक में दिखाई गई. इसके अलावा सारी कंपनियों के मोबाइल पर उनकी ओर से एसएमएस भेजे गए. सारे बुद्धिजीवियों, समाजसेवी संगठनों से इस अभियान से जुड़ने का अलग से आग्रह किया गया. चुनाव प्रचार अभियान की तरह यह अभियान चलाया गया.

मुझे सुखद आश्चर्य हुआ, जब छोटी-सी चिंगारी ज्वाला बनकर पूरे देश में धधक गई. और निश्चित दिन, निश्चित समय पर पूरे देश में, हर नगर, हर गांव, हर क़स्बे में निश्चित जगह पर लोग इकट्ठा हुए. यह एक विशिष्ट घटना थी. इस आंदोलन से पूरा देश हिल गया. जनमत की ताक़त का प्रमाण तब मिला जब बलात्कार क़ानून में संशोधन के उद्देश्य से तीन दिन के भीतर एक समिति गठित की गई. और ठीक एक महीने बाद ही... पीड़ित स्त्री के पूर्व चरित्र का संदर्भ देने संबंधी धारा को हटा दिया गया.

यह ख़बर पाते ही जनता ने दांतों तले उंगली दबा ली. इतनी ताक़त है उसमें और वही अनभिज्ञ थी अपनी ताक़त से. राष्ट्रीय महिला आयोग ने जनमत को उसकी ताक़त से परिचित कराया था. इस परिदृश्य में मेरी भूमिका सफल हुई थी, मैं बेहद संतोष से भरी हुई थी.

उसी रात मैंने सपने में देखा, कंटीली झाड़ियों के डरावने जंगल में गुलमोहर का एक पेड़ लगा था. पेड़ से अंगारे गिरने लगे और डरावना जंगल सुलगकर राख हो गया. फिर मैंने गरम राख के बीच एक उपला दबा दिया, सुलगता रहने के लिए.

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