कहानी- गृहस्थी
उन्हें सोमेश बाबू को यूं स्त्रियों की भांति गृहस्थी चलाते देख काफ़ी आश्चर्य होता था. अक्सर मज़ाक में पूछ बैठते, “यार सोम, तुम ऐसे औरतोंवाले काम इतनी आसानी से कैसे कर लेते हो? तुम्हें बोरियत नहीं होती क्या?”
सोमेश बाबू हंसकर कहते, “सच पूछो तो मुझे बड़ा मज़ा आता है. अपनी इच्छानुकूल भोजन बनाकर खाने से जो परम संतुष्टि मिलती है, उसे तुम नहीं समझोगे.”
आज भी सोमेश बाबू ने दो-चार निवाले खाकर थाली सरका दी. उनकी पत्नी नीलम देवी के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं.
आख़िर इनको हो क्या गया है? आज पांच दिन हो गए इनको बेतिया आए, लेकिन रोज़ खाते समय यही बेरुखी दिखा रहे हैं.
जब से बड़े बेटे सतीश की शादी हुई है, खाना उसकी पत्नी ममता ही बनाती है. बेचारी काफ़ी अच्छा खाना बनाती है. जो भी खाता है, उसकी तारीफ़ करता है. नीलम देवी सोचती रहीं कि अगर यह मान भी लिया जाए कि इनको बहू के हाथ के खाने का स्वाद रास न आता हो, लेकिन आज तो नीलम ने ख़ुद रसोई में जाकर अपना मनपसंद भोजन तैयार किया था, फिर भी इन्होंने नहीं खाया. कहीं इनकी तबियत तो गड़बड़ा नहीं गयी.
सोमेश बाबू चारपाई पर लेटे हुए थे. नीलम देवी ने प्यार से उनका माथा सहलाया.
“क्यों जी, आपकी तबियत ठीक नहीं है क्या? जब से आप आए हैं, खाना ठीक से नहीं खा रहे हैं.”
“नहीं, तबियत तो ठीक है. बस ऐसे ही खाने की इच्छा नहीं हो रही है. खैर, मैं कुछ देर सोना चाहता हूं. तुम भी जाकर आराम करो.”
सोमेश बाबू आंखें बंद कर जागते रहे. अपनी विगत ज़िन्दगी के बारे में सोचते रहे. आज से पैंतीस साल पहले उनकी नियुक्ति रेलवे में बुकिंग क्लर्क के पद पर मुजफ्फरपुर में हुई थी. उसी समय उनकी नई-नई शादी भी हुई थी.
बेतिया में उनका पुश्तैनी मकान था और वे अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे. मजबूरी में सोमेश बाबू को मुजफ्फरपुर में रेलवे क्वार्टर में अकेले रहना पड़ता था, क्योंकि उनके माता-पिता अपना घर छोड़कर नहीं जाना चाहते थे. बेचारी नई-नवेली उनकी पत्नी को लोक-लाज के कारण सास-ससुर की सेवा के लिए उनके साथ ही रहना पड़ता था.
तब आज का ज़माना तो था नहीं कि आज शादी हुई और कल माता-पिता की मर्ज़ी की परवाह किए बिना ही लड़का अपनी पत्नी को साथ लेकर चला जाए. शुरू-शुरू में सोमेश बाबू को अकेलापन काटने को दौड़ता, जब ड्यूटी से थके-हारे क्वार्टर में आते तो मन में एक हूक-सी उठती.
काश! मेरी पत्नी मेरे साथ रह पाती, मेरे लिए चाय-नाश्ता बनाकर रखती, मुस्कुराकर स्वागत करती.
लेकिन मन की इच्छा मन में ही दबकर रह जाती थी. शुरू-शुरू में वे जल्दी-जल्दी घर जाते थे. धीरे-धीरे समय बीतता रहा. नीलम देवी को दो लड़के और एक लड़की हुई. माता-पिता तो अपनी उम्र पूरी कर बारी-बारी से दुनिया से चले गए, लेकिन अब बच्चों की पढ़ाई की समस्या मुंह फाड़कर खड़ी हो गई.
घर को तो किराए पर देकर भी जाया जा सकता था, लेकिन सोमेश बाबू का हर दो-तीन साल पर स्थानांतरण होता रहता था. ऐसे में तीन-तीन बच्चों की पढ़ाई सुचारू रूप से नहीं चल पाती, इसलिए मजबूरी में नीलम देवी बेतिया में ही रहकर बच्चों को पढ़ाती रहीं.
समय के साथ सोमेश बाबू ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया. अब उन्हें अकेले रहना नहीं खलता था. ड्यूटी से वापस आकर अपने लिए वे स्पेशल कड़क चाय का प्याला तैयार करते और इत्मीनान से अख़बार के साथ चाय की चुस्की लेते. फिर थैला लेकर बाज़ार निकल जाते. चुन-चुन कर ताज़ी सब्ज़ियां लाते, उन्हें साफ़ करते, बड़े मनोयोग से खाना तैयार करते और खा-पीकर संतुष्टि की नींद सो जाते.
धीरे-धीरे उन्होंने गृहस्थी का पूरा साजो-सामान इकट्ठा कर लिया था. सोमेश बाबू खाना बहुत लाजवाब बनाते थे. चिकन और मटन तो इतना अच्छा बनाते कि उनके मित्रों की लार टपक पड़ती.
उनके एक मित्र थे राकेश सहाय. वो बेचारे एक ग्लास पानी भी ख़ुद से लेकर नहीं पीते थे, इसलिए दोनों बच्चों को हॉस्टल में डाल दिया था और पत्नी को हमेशा साथ ही रखते थे. उन्हें सोमेश बाबू को यूं स्त्रियों की भांति गृहस्थी चलाते देख काफ़ी आश्चर्य होता था. अक्सर मज़ाक में पूछ बैठते, “यार सोम, तुम ऐसे औरतोंवाले काम इतनी आसानी से कैसे कर लेते हो? तुम्हें बोरियत नहीं होती क्या?”
सोमेश बाबू हंस कर कहते, “सच पूछो तो मुझे बड़ा मज़ा आता है. अपनी इच्छानुकूल भोजन बनाकर खाने से जो परम संतुष्टि मिलती है, उसे तुम नहीं समझोगे.”
अब तो सोमेश बाबू को अपने हाथ से बनाए भोजन की ऐसी आदत पड़ गई थी कि छुट्टियों में घर जाने पर पत्नी और बेटी के हाथ का बना खाना बेस्वाद लगता था. लेकिन ‘दो-चार दिनों की बात है’, सोचकर किसी तरह काम चला लेते.
जब से बच्चे बड़े हो गए थे, कभी-कभार नीलम देवी छुट्टियों में उनके पास आकर रहना चाहती, तो उनके रवैये से जल्दी ही उकता कर चली जातीं. शुरू-शुरू में तो बेचारी ने बड़े चाव से पति की गृहस्थी को संवारना चाहा. लेकिन जैसे ही वह कोई काम करना चाहती, सोमेश बाबू लपककर पहुंच जाते और पत्नी पर न्योछावर होने लगते, “तुम यहां तो आराम कर लो, वहां तो दिनभर खटती रहती हो, कम-से-कम बन्दे को यहां तो अपनी सेवा का मौक़ा दो.” नाटकीय अंदाज़ में हंसकर सोमेश बाबू पत्नी के हाथ का काम छीनकर ख़ुद करने लगते.
बेचारी लाचारी से अपने पति को काम करते देखती रहती. एक भारतीय संस्कारों में पली औरत के लिए यह कितने शर्म की बात है कि वह भली-चंगी बैठी रहे और उसका पति गृहस्थी के काम करे. यहां तक कि सोमेश बाबू उनका खाना तक परोस देते. तंग आकर पत्नी ने उनके पास आना ही बन्द कर दिया.
इसी बीच बिटिया की शादी कर दी और फिर जैसे ही बड़े बेटे सतीश की नौकरी बैंक में लगी, उसकी भी शादी कर दी. छोटा बेटा नीतेश मेडिकल के अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रहा था.
अब सोमेश बाबू के रिटायरमेंट में दो साल और बचे थे. आजकल वे गोरखपुर में बड़े बाबू के पद पर कार्यरत थे. उनके ज़िम्मेदारीपूर्ण दायित्व निर्वाह को देखते हुए उनके उच्चाधिकारियों ने उनकी तऱक़्क़ी के साथ बेतिया में डिप्टेशन कर दिया, ताकि नौकरी के अंतिम वर्ष वे परिवार के साथ रह सकें.
सोमेश बाबू को बहुत आश्चर्य हुआ, उन्होंने तो इसके लिए कभी कोई सिफ़ारिश नहीं की थी. बेचारे बड़े कशमकश में थे. उन्हें अकेले रहने की ऐसी आदत पड़ चुकी थी कि परिवार के साथ रहना उन्हें अपनी स्वतंत्रता का हनन लगता था. लेकिन अगर इंकार कर देते तो लोगों को आश्चर्य होता कि लोग परिवार के साथ रहने के लिए क्या-क्या तिकड़म नहीं भिड़ाते और वे कैसे आदमी हैं, जो ऐसा मौक़ा गवा रहे हैं. लिहाज़ा उन्होंने बड़े बेमन से बेतिया रेलवे स्टेशन का कार्यभार संभाल लिया.
लेकिन आज पांच दिन हो गए उन्हें घर आए और जबसे आए थे भरपेट खा नहीं सके थे. बेचारे अपनी मन:स्थिति का बयान भी किसी से नहीं कर सकते थे. अगर बात स़िर्फ पत्नी की होती, तो वे किसी बहाने उसे दरकिनार कर रसोई ख़ुद संभाल सकते थे, लेकिन सवाल तो बहू का था, उसके रहते तो यह कभी संभव न था. बेटे की पोस्टिंग इसी जगह थी, इसलिए बेटे-बहू को यहीं रहना था. उन्हें रह-रहकर अपनी स्वच्छंद जीवनचर्या याद आ रही थी, जहां वे अपने ढंग से जीते थे.
“उठिए न, चाय पी लीजिए,” पत्नी की आवाज़ से उनकी विचारधारा टूटी. आंखें खोलकर चाय का कप थाम लिया, अपनी बनाई स्पेशल चाय के सामने तो यह चाय बिल्कुल बेकार लगी. सोमेश बाबू घबरा गए.
‘बाप रे, दो साल में तो मैं घुटघुट कर मर जाऊंगा.’
मन के किसी कोने से आवाज़ आई, ‘रिटायरमेंट के बाद क्या करोगे?’
इसका भी हल उन्होंने निकाल लिया, ‘रिटायरमेंट के बाद मिले पैसों से गोरखपुर में ही कोई छोटा-सा बना-बनाया घर ख़रीद लूंगा कि मेरे स्वास्थ्य के लिए यही जगह अनुकूल है और उसमें अकेले पत्नी के साथ रहूंगा. पत्नी से उतनी प्रॉब्लम थोड़े ही होगी, जितनी बेटा-बहू और पूरे परिवार के बीच रहने पर है. पेंशन से दोनों जनों का आराम से गुज़ारा हो जाएगा.’
फ़िलहाल इस समस्या का समाधान उन्होंने इस प्रकार किया- अपने परिवारवालों से चुपचाप उन्होंने यह बहाना करते हुए अपने उच्चाधिकारियों के पास आवेदन कर दिया कि उम्र अधिक हो जाने के कारण उन्हें नई जगह पर नए पद का कार्यभार संभालने में काफ़ी मुश्किल हो रही है. इसलिए उन्हें गोरखपुर में ही बड़ा बाबू के पद पर वापस भेज दिया जाए, जिसका उन्हें तीन वर्षों का अनुभव है.
दो दिनों के बाद ही उन्हें गोरखपुर वापस भेज दिया गया. उनका डिप्टेशन समाप्त कर दिया गया. नीलम देवी उनके बुढ़ापे को देखते हुए उनके फिर से अकेले रहने की बात पर काफ़ी चिंतित हुईं.
सोमेश बाबू ने अपने अंदर की ख़ुशी को दबाकर ऊपरी अफ़सोस ज़ाहिर किया, “मैंने भी सोचा था कि अब चैन से घर-परिवार के साथ रहूंगा, लेकिन नौकरी करनी है
तो अफ़सरों का हुक्म तो बजाना ही पड़ेगा.”
नीलम देवी ने रास्ता निकाला, “अगर आप चाहें तो अब मैं आपके साथ रह सकती हूं. बिटिया भी ससुराल चली गई और घर संभालने के लिए सुघड़ बहू भी आ गई है.”
सोमेश बाबू घबरा गए, “अरे, नहीं-नहीं, तुम इतनी चिंता क्यों करती हो, तुमने तो अपनी सारी ज़िंदगी घर-गृहस्थी और बच्चों में खपा दी. अब तुम्हें आराम की ज़रूरत है. तुम कुछ दिन चैन से बहू की सेवा का आनंद उठाओ.”
पत्नी को उनकी बात रास नहीं आई. “मैं यहां सेवा का आनंद उठाऊं और आप वहां बुढ़ापे में अकेले बनाएं-खाएं.”
सोमेश बाबू ने हंसकर कहा, “मेरा क्या है, एक पेट के लिए थोड़ा-बहुत बना ही लूंगा. अब दो साल की ही तो बात है, फिर तो सब साथ ही रहेंगे.”
दरअसल, सोमेश बाबू अपनी गृहस्थी में किसी का हस्तक्षेप बर्दाश्त करना नहीं चाहते थे. पत्नी को हैरान-परेशान छोड़कर वे पूरे उत्साह से अपने वापस जाने की तैयारी करने लगे.
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