कहानी- पगलिया

“मैं अपनी कोख में नन्हीं-सी जान को लेकर घर से निकली, तो जानती थी कि मुझे अपनी और अपनी बच्ची के चारों तरफ़ एक सख़्त कवच बुनना होगा, जो मेरी और उसकी रक्षा समाज में इंसान के वेश में छिपे भेड़ियों से कर सके. ऐसे में घर छोड़ते समय मुझे मेरी मृत मां बहुत याद आईं, जो कहती थीं कि मैं रहूं या न रहूं, मेरा आशीर्वाद हर समय तेरा साथ देगा. मैंने अपनी मां की स्मृतियों से ही अपना कवच बुन लिया, लेकिन वही कवच मेरा दुश्मन बन गया. प्रथम की मां मुझे पागल समझकर मुझसे डरती हैं.’’   
वाणी के जाने के बाद से उसकी कातर आवाज़ मेरे दिल से निकल ही नहीं रही थी. “प्लीज़ डॉक्टर, आप एक बार

मानसिक अस्पताल चलकर मां को देख लीजिए. मैं उन्हें वहां नहीं छोड़ना चाहती. मेरी समझ में नहीं आ रहा कि अचानक से मां इतनी आक्रामक कैसे हो गईं? शायद उनसे किसी ने कह दिया था कि उनकी मां मर चुकी हैं, इसीलिए वो हर किसी को पत्थर मारने लगी हैं. लोगों को पकड़कर कहती हैं कि मेरी मां से मिलो. जब वे कहते हैं कि यहां कोई नहीं है, तो उसे मारने दौड़ती हैं.” कहते-कहते वाणी का गला भर्रा गया था.

मैं असमंजस में पड़ गई. मेरे इतने वर्षों का अनुभव ग़लत कैसे हो गया? भले ही सामान्य और परा-मनोविज्ञान के विद्यार्थियों ने उस केस को वाद-विवाद का विषय बना दिया हो, पर मेरी अनुभवी आंखों के लिए तो वो केस आईने की तरह साफ़ था, तभी तो मैंने कह दिया था वाणी से कि उसकी मां को इलाज की कोई आवश्यकता नहीं है, फिर अचानक ये कैसे हो सकता है?

मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा था कि वो अपनी मां की पूरी जीवनी विस्तार से लिखकर लाए. जो कुछ भी वो उनके बचपन से उनके बारे में जानती है या उसने किसी से भी सुना है वो सिलसिलेवार लिखे, ताकि मैं उनका केस एक बार फिर समझ सकूं और आज ही वो ये दर्द का दस्तावेज़ लेकर आ गई थी, जिसे मैंने पूरी तन्मयता से पढ़ना शुरू किया.

‘मेरी मां को भी हर औरत की तरह अपने भीतर उस स्पंदन ने अभिभूत किया, जो किसी भी औरत के जीवन में उल्लास के वो क्षण लेकर आता है, जिनमें वो सृष्टि से सर्जक हो जाने का गौरव पा लेती है. उनके साथ-साथ उनके ससुरालवाले भी बहुत ख़ुश थे, लेकिन घरवालों की नीयत नियति के खेल में कौन-सा अड़ंगा लगानेवाली है, ये पता चला तो उनके होश उड़ गए. तीन महीने पूरे हुए और डॉक्टर ने उनका परीक्षण करके जो बताया, उससे घरवालों के चेहरों के भाव बदल गए. पिता ने जब रात में उन्हें समझाया कि कल शाम को गर्भपात के लिए क्लीनिक जाना है, तो उनके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई. कल तक जिस नन्हें जीव के आगमन पर सब हर्षित व उत्साहित थे, आज उसी के आगमन का द्वार बंद कर देना चाहते थे. क्यों? क्योंकि वो एक कन्या थी? वो कन्या जिसे हमारी संस्कृति में देवी कहा गया, वो कन्या जिसका दान वैतरणी नदी को पार करने का साधन बताया गया. वो कन्या, जिसके पांव छूकर नवरात्र में उससे घर की समृद्धि का आशीर्वाद मांगा जाता है. उस कन्या का जीवन छीन लेना उन्हें गवारा न हुआ. उन्होंने घरवालों को समझाने की बहुत कोशिश की, पर कोई निष्कर्ष नहीं निकला. पिता ने अपने पक्ष रखे कि वो तीन बहनों की शादियां करके त्रस्त हो चुके हैं. बेटी की शादी ही नहीं, हिफ़ाज़त करना भी एक जंजाल है. तर्कों की कमी तो मां के पास भी न थी, लेकिन किसी ने उनकी एक न सुनी. आख़िर पिता ने कह ही दिया कि उन्हें अब कोई बहस नहीं करनी है और ये उनका अंतिम फैसला है, तो मां के सामने ये चुनौती खड़ी हो गई कि अपनी संसृति की जान कैसे बचाए.

इसी ऊहापोह में वे आधी रात में उठकर छत पर टहलने लगीं. हवा कुछ ज़्यादा ही वेगमयी और घुमावदार थी. उसके घर्षण से उपजी सांय-सांय की ध्वनियां जैसे मन के झंझावात का प्रतिनिधित्व कर रही थीं कि उन्हें अपनी मां दिखाई पड़ीं. वो सुखद आश्‍चर्य के साथ दौड़कर उनसे लिपट गईं. “आप यहां? बाबूजी ने तो संदेशा भिजवाया था कि आप… लेकिन मैं जानती थी कि मेरी मां मुझे छोड़कर स्वर्ग भी नहीं जा सकती.” वो रोते हुए बोलीं. नानी ने उनके आंसू पोंछकर सांत्वना दी और कहा कि वे उनके साथ हैं. अब उनके भीतर और बाहर का झंझावात भीषण रूप ले चुका था. एक और एक ख़ुशनुमा ज़िंदगी थी, जिसमें सब कुछ था सिवाय निर्णय लेने की स्वतंत्रता के और दूसरी ओर एक तिनके को तूफ़ानों को ही पायदान बनाते हुए अंबर की ऊंचाइयों तक पहुंचाने का संघर्ष. आख़िर उनके अंतर्द्वंद्व की प्रतिनिधि हवाओं की सरसराहट धीरे-धीरे शांत होते-होते एक रहस्यमयी सन्नाटे में बदल गई. ये तूफ़ान आने के पहले का ख़ामोश शोर था, क्योंकि वो जीवन को तूफ़ान के हवाले करने का निर्णय ले चुकी थीं.

सुबह मां तैयार हुईं. मंदिर जाने के बहाने घर से निकलीं और ट्रेन में बैठ गईं. उनके बैग में उनके गहने, कुछ पैसे, उनके शैक्षणिक प्रमाणपत्र और उस तीर्थस्थान का टिकट था, जहां वो शादी के बाद घूमने गई थीं. ट्रेन से उतरकर वो उसी सराय में पहुंचीं, जहां तब वो लोग ठहरे थे. वहां निराश्रित महिलाओं के लिए एक आश्रम भी था. उन्हें मिलकर सराय के सारे काम करने होते थे और पारिश्रमिक के तौर पर भोजन, वस्त्र और एक सामूहिक छत मिलती थी. काम से मां कब घबराती थीं. यहीं उनका नाम ‘पगलिया’ पड़ा, क्योंकि काम तो वो पागलों की तरह बिना थके-रुके, बिना कोई प्रतिवाद किए करती ही थीं, साथ ही उस मां से अक्सर बात भी करती थीं, जो उनके सिवा किसी को नज़र ही नहीं आती थीं. कुछ लोग तो ये मानने लगे थे कि उन पर किसी भूत-प्रेत का साया है और उसी की सहायता से वो इतना काम कर लेती हैं.

मैं चार साल की हुई, तो वो एक अच्छे स्कूल का फॉर्म लेने गईं, लेकिन उन्हें ये कहकर मना कर दिया गया कि पिता के हस्ताक्षर के बिना बच्चे को प्रवेश नहीं मिल सकता. फिर उन्होंने एक तरकीब आज़माई. वो रोज़ सुबह जाकर प्रधानाध्यापक के घर के गेट के सामने खड़ी हो जातीं. जब उनकी गाड़ी निकलती, तो रोज़ उन्हें सामने से हटाना पड़ता. रोज़ वो उनसे एक ही प्रार्थना करतीं. एक महीने बाद आख़िर वो तंग आ गए और कार से उतरकर उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि अगर तुम्हारी बेटी को प्रवेश दे भी दिया गया, तो तुम अपने बच्चे को गृहकार्य कैसे कराओगी?

अगले दिन मां ने उनके घर की घंटी बजाई. दरवाज़ा खुलने पर वे बोलीं, “आपको ये दिखाना था.” उनके हाथ में एक उत्तर पुस्तिका थी, जिसमें कक्षा आठ की गणित के हल किए हुए सवाल थे. फिर उन्होंने अपनी कहानी बताकर अपने पढ़ाई के प्रमाणपत्र दिखाए और प्रधानाध्यापक से पढ़ाई से संबंधित कुछ भी पूछने को कहा. वो उनके जुनून के आगे नतमस्तक हो गए और मुझे प्रवेश मिल गया.

मां ने अपने साथ लाए गहने बेचकर स्कूल का शुरुआती ख़र्च तो निकाल लिया, पर आगे के ख़र्च की समस्या के लिए उन्होंने आस-पास के लोगों के घरों में काम ढूंढ़ना शुरू किया. उन्हें एक घर में खाना बनाने का काम मिल गया. बच्चे तो आश्रम की कुछ और औरतों के भी थे. वे बगल के सरकारी स्कूल में पढ़ने भी जाते थे,  पर मां की बात और उनकी दिनचर्या कुछ अलग ही थी. मैं हमेशा खिली-खिली और साफ़-सुथरे प्रेस किए कपड़ों में दिखती. जब भी बाकी औरतों के आराम का समय होता, वो थोड़ी देर लेटकर झपकी ले रही होतीं, मां मेरे साथ-साथ और बच्चों को भी बिठाकर गृहकार्य करा रही होतीं या मुझे साथ लेकर पड़ोस के घर में खाना बनाने गई होतीं. अक्सर पूछने पर कि वो इतना काम बिना थके कैसे कर लेती हैं, वो बतातीं कि उनकी मां उनकी काम में मदद करती हैं.

एक दिन मां आश्रम की रसोई में थीं और मैं अपनी कोठरी में पढ़ रही थी. तभी एक प्रबंधक की कुदृष्टि मुझ पर पड़ गई. उसका मन मुझे चॉकलेट देने का हुआ. वो मुझे फुसलाकर अपने कमरे में ले गया और दरवाज़ा बंद करने चला, तो सामने मां को देखकर घबरा गया. वो ग़ुस्से में बोलीं, “मेरी बेटी को अकेला न समझना, उसकी नानी उसके साथ रहती हैं और जब भी वो समझती हैं कि वाणी को मेरी ज़रूरत है, मुझे बता देती हैं. यदि कभी मैं न भी उपलब्ध हुई, तो मेरी मां उसकी रक्षा कर सकती हैं.” मां की आंखों में अंगारे थे और कंठ में ज्वाला. उनकी ऊंचे स्वर में कही गई ये बातें औरों ने भी सुनी. उस दिन के बाद से किसी ने मेरे पास आने की हिम्मत नहीं की.

आसमान के नक्षत्र और घड़ी की सुइयां अपने ढंग से समय के परिवर्तन चक्र में मां के संघर्षों के साक्षी बनते रहे. जब वसंत में वल्लरियों में नए फूटते पल्लव और पुष्पों की नई कोपलें मन का हुलास बढ़ाते होते और अन्य औरतें खिड़की में बैठकर तनिक सुस्ताते हुए वासंती हवा में सराबोर हो रही होतीं, तब मां मुझे फल-मेवे तथा अन्य पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने के लिए अतिरिक्त कमाई हेतु लिफ़ा़फे बना रही होतीं. जब ग्रीष्म के ताप से आक्रांत धरती बरखा की रिमझिम फुहारों से शीतल हो रही होती और आलस भरी दोपहरी में काम से थककर सब नींद ले रहे होते, तब मां मेरी छोटी-बड़ी ज़रूरतें पूरी करने के लिए किसी के घर में खाना बना रही होतीं. जब अमराई में नए बौरों की सोंधास आम्रफलों की मीठी ख़ुशबू में बदलती होती, तब मां पागलों की तरह आश्रम में आनेवाले अजनबियों से बारहवीं के बाद की पढ़ाई के विकल्पों की जानकारी एकत्र कर रही होतीं. जिस प्रकार दीये अपनी प्रकृति के अनुसार हवाओं से जूझते हुए अंधकार को भगाने और किसी के जीवन में उजाला भरने के लिए अपनी देह को निमित्त बनाते हैं, ठीक उसी प्रकार मेरी मां अपनी संपूर्ण ओजस्विता के साथ दिन में उन्नीस घंटे काम करके अपनी संतति के व्यक्तित्व को संपूर्णता देने के यज्ञ में स्वयं के जीवन को होम करती रहीं. संकीर्ण लोगों का डर मां के पागलपन या उन पर किसी प्रेतात्मा की छाया होने की बात फैलाता रहा और उदार लोगों की संवेदना हमारा मार्गदर्शन और विभिन्न समस्याओं का समाधान करती रही.

मैं रात में सोने से पहले मां की गोद में सिर रखकर अपने दिनभर के क्रियाकलापों के बारे में बताती. मां ने मुझे मेरे जन्म से पहले की बातें तब-तब टुकड़ों में बताईं, जब कभी मैंने किसी परीक्षा, प्रतियोगिता या संघर्ष के कारण निराशा या हताशा भरी बातें कहीं.

परिश्रम और जुझारूपन के गुण मैंने अपनी मां से विरासत में पाए थे, इसलिए विश्‍वविद्यालय में व्याख्याता बन सकी. यहीं मेरी मुलाक़ात प्रथम से हुई. धीरे-धीरे मुलाक़ात जान-पहचान में, फिर दोस्ती और फिर प्यार में बदली. नौकरी शुरू करते ही मैं मां को लेकर एक अच्छे किराए के घर में आ गई. प्रथम को भी मैंने शुरू में ही अपनी कहानी बताते हुए स्पष्ट कर दिया था कि मां सदैव मेरे साथ ही रहेंगी. उस दिन मां प्रथम की मां से मिलकर आईं, फिर अचानक ये सब क्या हो गया? समझ में नहीं आता.’

मेरा ध्यान अंतिम शब्दों पर अटक गया.

‘मां प्रथम की मां से मिलने गईं.’ और माजरा मेरी समझ में आ गया. अब इस केस को सुलझाने का एक ही उपाय था कि देविका का पक्ष प्रथम की मां के सामने रखा जाए. हालांकि ये सैद्धांतिक रूप से तो ग़लत कहा जाता था, एक प्रकार का छल था, पर देविका का भला इसी में था.

दूसरे दिन मानसिक अस्पताल में मैंने देविका का हाथ संपूर्ण स्निग्धता के साथ अपने हाथों में लेकर उसकी आंखों में सीधे झांकते हुए बस इतना ही कहा, “तुम मुझे धोखा नहीं दे सकतीं. जब तुम्हारी बेटी तुम्हें पहली बार मेरे पास इलाज के लिए लाई थी, तभी मैं समझ गई थी कि तुम्हें कोई बीमारी नहीं है. तुम चाहो, तो मुझसे अपने दिल की बात बांट सकती हो.”

इस पर जाने कितनी देर जीवन की सख़्त धूप से वाष्पित होकर मन के आकाश पर जमते गए बादल आंसुओं की बरसात करते रहे और उन्होंने कहना शुरू किया, “मैं अपनी कोख में नन्हीं-सी जान को लेकर घर से निकली, तो जानती थी कि मुझे अपनी और अपनी बच्ची के चारों तरफ़ एक सख़्त कवच बुनना होगा, जो मेरी और उसकी रक्षा समाज में इंसान के वेश में छिपे भेड़ियों से कर सके. ऐसे में घर छोड़ते समय मुझे मेरी मृत मां बहुत याद आईं, जो कहती थीं कि मैं रहूं या न रहूं, मेरा आशीर्वाद हर समय तेरा साथ देगा. मैंने अपनी मां की स्मृतियों से ही अपना कवच बुन लिया, लेकिन वही कवच मेरा दुश्मन बन गया. प्रथम की मां मुझे पागल समझकर मुझसे डरती हैं. वो मुझे साथ रखने को किसी भी प्रकार से तैयार नहीं हो रही हैं, इसीलिए वाणी और प्रथम में दूरियां बढ़ती जा रही हैं. मैं वाणी को अच्छी तरह जानती हूं. वो अपना प्यार छोड़ देगी, पर मां को नहीं छोड़ेगी. मुझे और कुछ नहीं सूझा, तो मैंने ये उपाय किया.” वो मेरे सामने हाथ जोड़कर बैठ गईं, “मैं जानती हूं कि एक जीवनसाथी के बिना जीवन गुज़ारने का दर्द क्या होता है. जब से प्रथम मेरी बेटी के जीवन में आया है, मैंने उसकी आंखों में जो चमक देखी है, उसके छिन जाने की कल्पना से भी सिहर उठती हूं. प्लीज़ आप मेरी बेटी की ख़ुशियां बचा लीजिए. उससे कह दीजिए कि उसकी मां को बाकी का सारा जीवन मानसिक अस्पताल में ही गुज़ारना होगा. वो ठीक नहीं हो सकती.”

मेरे साथ आए और पर्दे के पीछे बैठे वाणी-प्रथम और प्रथम की मां सब सुन रहे थे और किंकर्त्तव्यविमूढ़ से उस त्याग की मूरत को देख रहे थे, जो स़िर्फ एक मां थी. आख़िर प्रथम की मां उठीं और उन्होंने देविका को गले लगा लिया.

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.