कहानी: लव (नहीं) मैरिज
तुम्हें कितनी बार कहा भी है और रिक्वेस्ट भी किया है कि ये पेपर पढ़कर टेबल पर जमाकर रख दिया करो. पर तुम हो कि सुनते ही नहीं हो,” कहते हुए शैव्या ने टेबल पर से फटाफट चाय के कप उठाए और किचन में जा कर खाना बनाने में जुट गई.
“तुम्हें ये क्या होता जा रहा है, तुम मेरी ज़रा-सी भी कमी-बेशी को बर्दाश्त नहीं कर सकती हो पहले तो बड़ी-बड़ी बातें नज़रअंदाज़ कर देती थी. अभी फिर मैं गिनाने लगूंगा तो सुन नहीं पाओगी.” शोभन ने पेपरों को वैसे ही फैले छोड़ा और अपनी शर्ट प्रेस करने लगा.
“सुबह-सुबह तुमसे कौन बहस करे? तुम पर तो इसका कोई असर होता नहीं पर मेरा मूड पूरे दिन के लिए ऑफ़ हो जाता है. तुम्हें जैसा ठीक लगे वैसा करो,” शैव्या ने किचन से ही कहा.
“तुम्हें जो भी बकबक करनी हो अकेले ही करो मेरे पास इन बातों के लिए टाइम नहीं है. वैसे भी मुझे आज जल्दी निकलना है,” शोभन ने शर्ट हैंगर पर टांगते हुए कहा और शेविंग करने लगा.
“खाना तो खा कर जाओगे ना? या लंच बॉक्स ले जाओगे?” शैव्या ने सब्ज़ी छौंकी और खांसते-खांसते पूछा.
“नहीं मैं तुरंत ही निकल रहा हूं,” शोभन ने बाथरूम में से कहा.
“तो यही बात थोड़ी देर पहले नहीं बोल सकते थे? मैं खाना जल्दी बना देती या उस हिसाब से बनाती,” शैव्या एकदम झल्ला उठी.
“.........” शोभन ने कुछ भी नहीं
कहा और धड़ाम से दरवाज़ा बंद करके निकल गया.
इनके घर का रोज़ का यही सिलसिला है. शैव्या और शोभन! बस दोनों ही हैं. लेकिन सुबह नहीं तो शाम, शाम नहीं तो सुबह उनमें मोबाइल चार्जर, जूते, पर्स, बेल्ट, पेपर या अपने कपड़ों से लेकर लैपटॉप या ज़रूरी काग़ज़ों को सही जगह पर रखने को लेकर चख-चख हो ही जाती है. शैव्या को सब कुछ व्यवस्थित रखने की आदत है, तो शोभन हर बात से उतना ही बेपरवाह! दोनों मुंबई में फ़िल्मों और सीरियलों में छोटे-मोटे काम करते हैं और अपने संघर्ष के दिनों को नामचीन होने के साथ ही पूरे ऐशो-आराम की ज़िंदगी के सपनों के साथ जिए जा रहे हैं. मुंबई की महिमा ही ऐसी है कि जो यहां कहीं से भी आता है, यहीं का होकर रह जाना चाहता है. सामान्य आदमी तो यहां पैसे कमाने आता है, पर किसी भी तरह की कला से सम्बन्ध रखने वाला कलार्थी अपने लोकप्रिय होने के सपने भी पालता है, इस तरह इन लोगों पर दोहरा दबाव होता है. यह एक अलग बात है कि इसी दबाव को जानने, समझने और झेलने के लिये देश और दुनिया के कोने-कोने से लोग यहां आंखों में असंख्य सपने लिए आते हैं. मुंबई में न कभी सपनों की फसल सूखती है और न ही कभी उम्मीदें अरब सागर में डूबती हैं. मुंबई हर सुबह सपनों और उम्मीदों की एक खेप ताज़े फूलों की तरह पैदा कर देती है, ताकि सब अपने-अपने हिस्से की उम्मीदें और सपने काट सकें. शैव्या और शोभन की कहानी भी ऐसी ही है. दोनों अलग-अलग शहरों से यहां आए हैं.
शैव्या उत्तराखंड के पहाड़ों के क़स्बे नुमा शहर से अपनी वैसी ही सुंदरता और ताज़गी लिए आई है. वह अच्छी नृत्यांगना है. यह प्रतिभा उसे जन्मजात मिली है. घर परिवार में दूर-दूर तक नृत्य ही क्या अन्य किसी भी कला से किसी का कोई सम्बन्ध नहीं था. सब अपने काम-धंधे को ही अपना भगवान मानते थे. शैव्या से भी ऐसे ही पढ़-लिखकर कहीं अच्छी सरकारी नौकरी की अपेक्षा थी परिवार को. लेकिन जब माता-पिता को यह पता चला कि वह पढ़ती तो ठीक-ठाक है परन्तु स्कूल-कॉलेज के कार्यक्रमों में नृत्य बहुत आला दर्जे का करती है और नृत्य करवाती उससे भी अच्छा है. यह जानकर उन्हें बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा. उन्होंने उसे समझाया कि नाच-गाना कोई अच्छे लोगों का काम नहीं है. मगर अपनी धुन की पक्की शैव्या ख़ुद की ही सुनती थी. ‘नृत्य इतना ही बुरा होता तो स्वयं भगवान शिव तांडव क्यों करते?’ वह पूछती. परिवार के लोग इस बात पर उसे बहुत डांटते-डपटते. बाद में तो इसी बात पर प्रायः आए दिन कलह होता. हारकर इधर घरवालों का कहना समझाना कम हुआ तो उधर उसके नृत्य कौशल की चर्चा उसके शहर के साथ साथ आसपास के शहरों तक भी पहुंचने लगी. कई स्कूलों संस्थाओं ने न केवल उसके कार्यक्रम रखे, बल्कि अपने यहां उसे नौकरी के प्रस्ताव भी दिए. इस तरह वह ठीक-ठाक कमाने लगी तो लगी, लेकिन परिवार का सरकारी नौकरी का आग्रहनुमा दबाव बना रहा. इसी बीच उसे कुछ लोगों ने सुझाया कि उसे अपनी नृत्य कला को अधिक विस्तार देने के लिए इन पहाड़ों से उतरना होगा. जिस तरह गंगा का उद्गम भले ही पहाड़ों से हो, लेकिन उसका विस्तार और महत्ता मैदानों में ही फली-फूली है. यह बात उसके एकदम गले उतरी.
उसने एक दिन घर में घोषणा कर दी कि वह जल्दी ही मुंबई जाना चाहती है. यह सुनते ही घर में भूचाल आ गया. बात समझाइश से जल्दी ही हाथापाई तक आ गई. भाई ने उसके गालों पर तमाचों की बरसात ही कर दी थी. पापा की भी उसमें मौन सहमति थी. बेचारी मां दोनों पाटों के बीच पिस रही थी. हर घर में मां का यह भी एक बहुत अहम् काम होता है कि वह पति और बच्चों की असहमतियों में असहाय पिसे भी! वे कभी शैव्या को समझती तो कभी, पति और बेटे को. फिर भी दोनों ही पक्ष उनसे असंतुष्ट ही रहते. एक दिन इसी कहासुनी में पता नहीं कहां से शैव्या में इतनी हिम्मत आ गई कि उसने भाई और पापा को सम्बोधित करते हुए कहा कि वे चाहें तो उसकी जान ले लें, लेकिन यदि वह ज़िंदा बची तो जल्दी से जल्दी घर और शहर छोड़ जाएगी. इस पर भाई तो उसकी जान लेने पर सचमुच उतारू हो गया था, लेकिन उसकी मां ने समझाया कि इसको मार देने से भी परिवार की बदनामी तो होगी ही. पर अगर इसे जाने दिया तो बदनामी चाहे हो जाए, लेकिन बेटी तो बची रहेगी. और अगर यह कुछ बन बना गई तो तुम्हीं लोग अपनी शर्ट का कालर ऊंचा करके घूमोगे पूरे शहर में. इस तरह मां के थोड़े-से सहयोग से शैव्या मरते-मरते बची. हालांकि मां ने उसे इस काम के लिए सिर्फ़ एक साल का समय ही दिया था और कहा था कि यदि एक साल में वह कुछ नहीं कर पाई तो वापस आकर उसे शादी करना होगी. शैव्या ने उस समय उस शर्त को मानना ही ठीक समझा क्योंकि वहां से निकलने के लिए वह ज़रूरी था. और वह बिना समय गंवाए मुंबई आ पहुंची थी.
शोभन की कहानी इससे अलग थी. वह उत्तर-पूर्व भारत के मेघालय से था. शैव्या से एकदम उलट पारिवारिक पृष्ठभूमि से. उसके परिवार के लोग लोक जीवन में रचे बसे थे. शिक्षित थे, फिर भी अपनी परम्पराओं से बंधे हुए. शोभन की मां लोक गायिका थी और पिता स्थानीय स्कूल में स्पोर्ट्स टीचर. शोभन को अभिनय और गायन जैसे घुट्टी में मिला था. वह अपने स्कूली दिनों से ही सांस्कृतिक गतिविधियों में निरंतर सक्रिय रहता था. इससे उसमें सधा हुआ अभिनय करने और उन नाटकों को निर्देशित करने की योग्यता क्रमशः विकसित होती चली गई. इन्हीं सब बातों के चलते उसके माता-पिता और क़स्बे वालों ने बड़ी उम्मीद उत्साह और अपेक्षाओं के साथ समारोहपूर्वक मुंबई के लिये बिदा किया था. शोभन के रूप में उन सबके सपनों को अनंत व्योम में उड़ान भरने का मौक़ा जो मिला था. इस प्रकार शोभन असीम अपेक्षाओं की गठरी लिये मुंबई की जमीन पर उतरा था. मुंबई किसी को स्वीकारेगी या नहीं? और आनेवाला मुंबई में अड्जस्ट होगा या नहीं? इसमें चार छह महीने का समय लगता है. और यह समय पलक झपकते ही बीत जाता है. यही शोभन के साथ भी हुआ. वह अपने मेघालय के ख़ूबसूरत नज़ारों को यहां मुंबई में ढूंढ़ता. मुंबई की अपनी चकाचौंध है, लेकिन उसमें क़ुदरती ख़ूबसूरती कहां? उसे बार-बार लगता कि वह वापस अपने मेघालय लौट जाए और अपने लोकगीतों, लोक रंग और लोक जीवन में फिर रम जाए. लेकिन अपने साथ वह जिन अनंत अपेक्षाओं को लेकर आया था, उन्होंने उसे वह क़दम नहीं उठाने दिया. हालांकि इसमें उसकी आंखों में जो सपने थे उन्होंने भी उसके वापस न जाने में बड़ी भूमिका निभाई थी.
इस तरह दो अलग-अलग भूमि, भेष और भोजन के लोगों का अकल्पनीय संगम यहां मुंबई में हुआ. शैव्या को याद आता है कि वह उस दिन अपनी किसी से मीटिंग के सिलसिले में पृथ्वी थिएटर के कैफ़े में थी. वहीं शोभन अपने कुछ दोस्तों के साथ आया था. उसे छोटा-सा कोई रोल किसी सीरियल में मिला था, जिसमें उसे डांस करना था. लेकिन एक अच्छा अभिनेता और गायक होने के बावजूद वह उस नृत्य स्टेप को ठीक से नहीं कर पा रहा था, जिसकी दरकार निर्देशक को थी. यह मुंबई और ख़ासतौर पर फ़िल्म उद्योग की विशेषता ही है कि अभिनेता बनने आए आदमी को लेखक बनाती है, तो नृत्य को अपना जीवन माननेवाले को निर्देशक नहीं तो संगीतकार बनने को मजबूर करती है. शोभन के साथ भी यही हो रहा था. उत्तर-पूर्वी होने से उसका जो विशेष चेहरा-मोहरा था उस कारण यह इंडस्ट्री उसे अभिनेता के तौर पर स्वीकारने को तैयार बैठी थी. जबकि वह तो गायक बनने के सपनों में जीता था. वह इसी कारण उस नृत्य स्टेप को ठीक से नहीं कर पा रहा था. उसके डायरेक्टर ने उसे सिर्फ़ एक दिन की मोहलत के साथ आख़िरी अल्टीमेटम दे दिया था. इस वजह से वह परेशान था कि यह अवसर हाथ से न चला जाए. वह वहीं लॉन में इसी की प्रैक्टिस कर रहा था, लेकिन बात बन नहीं पा रही थी. यह देखकर शैव्या की नृत्यांगना मचल उठी. वह हौले-हौले उसके पास पहुंची और कहा कि वह उसको डांस सिखा सकती है. शोभन को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई. उसने ख़ुशी-ख़ुशी वह स्टेप सीख लिया. अगला दिन तो उसका होना ही था. बाद में उसी सफलता को सेलिब्रेट करने के साथ ही शैव्या को थैंक्स कहने को उसने वहीं पृथ्वी थिएटर में उसे ट्रीट दी थी. फिर धीरे-धीरे दोनों में संपर्क का सिलसिला शुरू हो गया. एक दिन शोभन के उस निर्देशक ने उससे पूछा कि आख़िर वह कठिन स्टेप उसने सीखा कैसे? शोभन ने जब शैव्या का जिक्र किया तो उसने उसे बुला भेजा. उसकी नृत्य में निपुणता देखकर अपनी टीम में कोरियोग्राफ़र नियुक्त कर लिया. इस तरह शैव्या और शोभन एक ही साथ कम करने लगे.
शैव्या जब भी उसे देखती तो नाक-नक़्श से तो वह उसे उतना आकर्षक नहीं लगता, लेकिन उसकी गायकी और किसी पहाड़ी झरने-सी उसकी खिलखिलाहट उसे बहुत अच्छी लगती. ‘बाहरी आकर्षण तो समय के साथ कम हो जाता है, लेकिन आंतरिक सौंदर्य चिरस्थाई होता है’ वह सोचती. लेकिन वह समझ नहीं पा रही थी कि महज़ आकर्षण है या वह उससे प्यार करने लगी है. एक दिन उसने अपनी मां से इस बात का ज़िक्र किया तो वे उस पर बहुत नाराज़ हुईं और उसे वापस आने का अल्टीमेटम दे दिया. हारकर शैव्या ने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण पाने की कोशिश की. लेकिन वह कहते हैं ना कि इश्क़ की आग लगाए न लगे और न बुझाए बुझे. शैव्या शोभन के मोहपाश में बंधती चली गई. शोभन को इसका एहसास ही नहीं था, क्योंकि शैव्या ने कभी खुलकर इसका इज़हार भी नहीं किया था लेकिन हां, अनुमान अवश्य था पर वह भी मौन था. आख़िर एक दिन शैव्या के मुंह पर यह बात आ ही गई. और उसने उस दिन पृथ्वी थिएटर के उसी कैफ़े में शोभन को ‘आई लव यू’ बोला था, जहां वे दोनों पहली बार मिले थे. शोभन ने कहा तो कुछ नहीं पर उसकी आंखें सबकुछ बोल गई थीं. दोनों सुदूर पहाड़ों से आते थे इसलिये ‘लिव-इन’ जैसी किसी व्यवस्था में उनका भरोसा नहीं था, क्योंकि पहाड़ों का पानी हो, वन वनस्पति हो या कि संस्कार मैदानों में उतरकर ही दूषित होते हैं. इतने दिनों के बाद भी उनके मूल्य, उनके साथ बने हुए थे. जल्दी ही शोभन के घरवालों की रज़ामंदी और शैव्या के परिवार की असहमति के बीच वे विवाह के पवित्र बंधन में बंध गए. शैव्या के घरवालों का ‘ऑनर’ आहत हुआ था इसलिए उन्होंने ‘किलिंग’ का विकल्प भी खुला रखा था. पर उन दोनों ने अपनी हैसियत से अधिक पैसा ख़र्च करके बाउंसरों की सुरक्षा ली, तब कहीं जाकर वे बच सके थे.
इतने संघर्षों और मनोयोग से पाई शादी की ख़ुशी भी शैव्या को स्थाई नहीं लगी. शादी को महज़ दो साल हुए हैं, लेकिन वह कभी-कभी सोचती है कि ‘क्या यही वह शोभन है, जिसे वह इस क़दर चाहने लगी थी कि अपने मनचाहे करियर के शुरुआती दिनों में शादी जैसा ज़िम्मेदारी भरा क़दम उठाया? ऐसा इसमें क्या था यार कि मैं इसकी ऐसी दीवानी हो गई थी?’ वह ख़ुद से ही पूछती लेकिन न दिल से, न दिमाग़ से कोई संतोषजनक जवाब मिलता! अब उसे लगता है कि चाहे लव मैरिज ही क्यों न हो अंततः उसमें मैरिज ही शेष रह जाती है, लव तो कपूर की तरह जल्दी ही उड़ जाता है. यहां तक कि समय के साथ प्यार की महक तक नहीं बचती.
मोबाइल की रिंग से उसकी तंद्रा टूटी. देखा तो मां का फ़ोन था. जी हां, उसकी शादी से थोड़े दिनों की नाराज़गी के बाद मां और उसके बीच बातचीत का टूटा सेतु फिर बन गया था, हालांकि उसके पापा और भाई अब तक नाराज़ ही थे. यही कारण था कि मां उनसे नज़र बचाकर दिन में एक-दो बार उसे फ़ोन कर लेती है. मां और बेटी का रिश्ता ऐसा ही होता है, जो दूरियों की परवाह किए बिना अदृश्य और अटूट धागों से बंधा होता है. मां के पूछने पर वह सबकुछ कुशल होने का ही कहती, लेकिन एक दिन उसकी मां ने उसकी आवाज़ में छुपी गहन उदासी को पहचान लिया था. तब से वे उसके प्रति ज़्यादा चिंतित हो गई थीं. हालांकि वे उसे हर बार समझातीं कि दुनिया में दो इंसान एक जैसे नहीं हो सकते, उस पर भी पति-पत्नी तो क़तई नहीं! इसलिये थोड़ा-थोड़ा सब को ‘अड्जस्ट’ करना पड़ता है. वे अपना ख़ुद का उदाहरण देतीं. फिर उसे आश्वस्त करतीं कि शोभन और उसके बीच इन छोटी-मोटी बातों के अलावा कोई ऐसा बड़ा इश्यु नहीं है, जो उनके रिश्ते को खटास से भर दे. वह भी अपनी मां से बात करके तरोताज़ा हो जाती.
उसने ‘लोकल’ में बात करने का कहकर बात जल्दी ख़त्म की. फिर शोभन के फैलाए सामानों को फटाफट यथास्थान स्थान रखती हुई, मां की समझाइश याद करके मुस्कुरा उठी. किसी तरह दो रोटी पेट में ठूंसकर भागी और अपनी रोज़ की 8.47 की लोकल पकड़कर उसकी भीड़ का हिस्सा हो गई.
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