कहानी: फ्रेंड ‌‌रिक्‍वेस्ट

मन पर एक दस्तक हुई... मैंने धीरे से कपाट खोले... कोई नहीं था... माने प्रत्यक्ष कोई नहीं था... पर कुछ अनुभव हो रहा था... परोक्ष जो था, वह बहुत प्यारा था, बहुत मासूम... रंग थे... कुछ पूरे, कुछ अधूरे...

याद है मुझे, तुम्हीं ने कहा था कुछ रंग क़ुदरत ने बनाए हैं, जो अपने आप में पूरे होते हुए भी अधूरे हैं. ये रंग मिलकर जब एक तीसरे रंग का सृजन करते हैं तो पता चलता है कितने अधूरे थे.

बस इसी तरह ढेरों रंग बनते गए और इस सृष्टि को रंगते गए... दिलों को रंगते गए... आत्माओं को रंगते गए.
ये रंग न होते तो कोई चित्र न होता... कोई कविता न होती... कोई सुर न होता.

याद है मुझे... सब याद है... एक-एक शब्द... हर शब्द को उच्चरित करते तुम्हारे होंठ... हर शब्द से झड़ते रंगों के अम्बार... किसी न किसी भाव चित्र की सृष्टि करते ये अम्बार... सब याद है मुझे. 

फ़ेसबुक पर चित्रों की प्रदर्शनी का एक पोस्ट गुज़रते-गुज़रते नहीं गुज़रा... बस ठहरा रहा... ठहरा ही रहा... चित्र थे तो रंग भी होंगे... रंग हैं तो तुम भी हो सकते हो... ठिठक गई मैं...

तुम्हारे साथ जिया हर रंग महफूज़ है... संजोकर रखा हुआ... मन के एक कोने में एक फ़ोल्डर में हर लम्हा संभाल रखा है... हर अहसास नत्थी हैं...

फ़ेसबुक के झिलमिलाते कोनों में से निकलकर एक सतरंगी लहर हड़बड़ाती हुई आई और मुझे खींचकर तुम्हारे पास ले आई.

तुम थे... सचमुच तुम... मेरेवाले तुम... सुधांशु रंजन... मैं क्या से क्या हो गई मुझे भी नहीं पता... भीगी हवाओं पर अति सूक्ष्म उत्सुकता की बूंद बनकर मैं उन्मुक्त गगन में उड़ रही थी...

सिर्फ़ तुम थे और मैं थी... और था वो सजीला एकान्त...

मैं एक ही बात सोच रही थी... इतने सालों बाद तुम मिले हो... चौदह साल बाद... तुम्हारे साथ कुछ सुगंधित आवारा लम्हे तो बनते हैं. 

चौदह साल पहले मैंने कहा था तुम्हें,‘चलो, भाग चलें.’ घास के बड़े से टुकड़े को टुकड़े-टुकड़े करते हुए मैं बोल गई थी. याद है मुझे कॉलेज के पीछे वाले ग्राउंड के कोने में पीरियड बंक कर के बैठे थे हम दोनों. 
‘वाह, क्या आइडिया है? अपने-अपने घर से कैश और गहने चोरी करते हैं और भाग चलते हैं.’ 
मैं आंखें फाड़े तुम्हें देख रही थी. 

‘क्या?’ मैं समझ नहीं पा रही थी, तुम मज़ाक कर रहे हो या सीरियस हो. 

‘तो और क्या? होटल का ख़र्चा कम नहीं है. दोनों को चोरी करनी पड़ेगी.’

‘चोरी?’ मैं सकपका गई. 

‘तू झल्ली ही रहेगी.’

‘झल्ली मत कहो मुझे.’

‘तो और क्या कहूं?’ 

‘तुझे पता है, आजकल प्रेमियों के भागने का स्कोप बहुत कम हो गया है. मां-बाप बड़े स्मार्ट हो गए हैं. मांएं सारे गहने लॉकर में रखती हैं और बापू जेब में कार्ड ले के घूमते हैं.’ चेहरा दाईं ओर को झटक दिया था तुमने.
‘क्या कह रहे हो दिमाग़ तो ठीक है.’

‘सच कह रहा हूं.’ हल्की-सी चपत मारी थी सिर पर. 

‘कुछ बन जाऊं... कुछ कमाने लगूं तो तेरे मां-बाप के घर से इज़्ज़त से ले जाऊंगा. तब तक तुझे इंतज़ार करना पड़ेगा.’

‘तुम अपनी पेंटिंग्स बेचना. आजकल तो हज़ारों-लाखों में बिकती हैं.’

‘ज़मीन पे आ जा. ये जुगनू पकड़ना बंद कर. मेरी नहीं बिकेंगी. मैं न एमएफ़ हुसैन हूं, न ब्रूटा. न फ़ेरी हूं, न मिकालेन थॉमस.’ चेहरे पर निराशा के भाव नहीं थे, बस थोड़ी चुहलबाज़ी थी.

‘मैं अब हर पल तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं. हर पल काले डरावने डर के साये में जीना बहुत मुश्क़िल लगता है. 

किसी को पता लग गया तो...? बस इसी धुंध में घिरी रहती हूं हर वक़्त,’ मैंने कहा. 

और तुम ‘मैं समझता हूं.’ कहकर उठकर चले गए थे. थोड़े परेशान हो गए थे.

मैं तुम्हें कहना चाहती थी सुधांशु तुम पेंटिंग्स बनाना. तुम टाइटैनिक के लियोनार्डो डिकैप्रियो हो जाना और मैं केट विंसलेट हो जाऊंगी. मैं अनावृत्त होती जाऊंगी और तुम अपनी कूची के रंगों की चादर से मुझे आवृत्त करते जाना. मैं देह होती जाऊंगी तुम प्राण होते जाना. मैं तुम्हारी सांसों में घुलती जाऊंगी और तुम बादल बनकर मुझे भिगोते रहना. मैं सोंधी हवा बनती जाऊंगी तुम तूफ़ान बनकर मुझे घेर लेना. मैं सुबह की गुनगुनी धूप का एक टुकड़ा बनकर तुम्हारे जीवन में आऊंगी और तुम लकदक चमकता सूरज बन जाना. तुम मुझे स्पर्श भर कर लेना मैं तुम्हारे वजूद को ओढ़नी बनाकर पहन लूंगी. 

पर मैं कह नहीं पाई तुमसे. बस डबडबाई आंखों से तुम्हें देखती रही. मन ऊपर-ऊपर तक भर आया. हर पल डर लगता समय से, घर वालों से, दुनिया से, स्थितियों-परिस्थितियों से. पर ये सब तुम जाने क्यों समझते नहीं थे. कभी कोई हम दोनों के बीच में ऐसे आगत के रूप में साक्षात रूप में आकर खड़ा हो गया जिसका रास्ता हम नहीं मोड़ पाए तो? एक अनजाना, अनचाहा, अप्रत्यक्ष भय अपनी नुकीली नोकों को मेरी ओर बढ़ाने लगता था. पर तुम थे कि कुछ समझते ही नहीं थे. हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाते चलते थे और वह सारा धुआं मेरी सांसों में भर जाता था और फ़िक्र का एक घेरा बनकर मुझे चारों ओर से घेर लेता था. तुम मस्त थे और मैं त्रस्त. तुम्हें अहसास करा-करा कर पस्त. मेरा लरजता-परजता मन हर पल ऊंचाई से फेंके मिट्टी के ढेले की तरह लुढ़कता रहता. या शायद तुम मस्त नहीं थे. कहीं व्यस्त थे. या फिर बेबस.

एफ़बी पर तुमसे मिलकर स्तब्ध भी थी और ख़ुश भी. पर एक प्रश्न भी था, बड़ा-सा उलझा हुआ प्रश्न. मकड़ी के जालों में क़ैद. निश्चित रूप से तुम अब किसी और के हो चुके होगे. समय का प्रवाह भी तो रुकता नहीं. तुम्हारी वॉल पर व्यू प्रोफ़ाइल में एक स्कैच था. एक पेंटिंग. ओझल होते अहसास में डूबी नायिका, रोम-रोम अवसाद में डूबा हुआ. पलभर को लगा मैं ही तो नहीं. 

जैसे ही एफ़बी पर मैंने तुम्हें पा लिया तो मुझे लगा इस बार भागी नहीं तो इस बार भी खो दूंगी तुम्हें. घर में रहूंगी तो हर भाव सास-ससुर, नौकरों की आंखों में किर-किर करता रहेगा. मन के आवेगों के उतार-चढ़ाव को घर में नियंत्रित करना और छुपाना कठिन होगा. सीवन उधड़ेंगे, तुरपाइयां खुलेंगीं, भीतर कितना कुछ उमड़ेगा. पता नहीं मैं क्या से क्या हो जाऊं. मैं तुम्हारे साथ कोई भी पल किसी आशंका में नहीं बिताना चाहती थी. मैं तुम्हारी यादों के भीतर उतरना चाहती थी पर किसी के सामने नहीं. 

फ़ोन बज उठा.

नीरज था.

मैंने फ़ोन नहीं उठाया. 

बड़े सालों के अंतराल के बाद मैं तुम्हारे आगोश में थी इसलिए कोई व्यवधान नहीं चाहती थी. 

मैंने फ़ोन नहीं उठाया तो नीरज का मैसेज आ गया.

‘शाम को कलकत्ता जाना है. कल कोर्ट में एक पिटिशन फ़ाइल होनी है. दो दिन का टूर है. पैकिंग कर देना. शाम सात बजे की फ़्लाइट है. मैं पांच बजे तक घर आ जाऊंगा.’

मैंने पढ़ लिया था.

अभी तो सुबह के दस बजे हैं. बहुत टाइम है. मैं आराम से कुछ समय तुम्हारे साथ रह सकती हूं. घर से निकलकर मैं सेक्टर छह के चौराहे पर खड़ी थी. 

कहां जाऊं?

मैं स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स की ओर बढ़ चली. लोग घर जा रहे थे मैं प्रवेश कर रही थी. मैं जानती थी मई की गर्मी में दिन में स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में भयंकर एकांत होता है. 

होती है तो धूप में नहाती दूब, पुलकित गिलहरियां, गरम हवा से लड़ती-भिड़ती फूल पत्तियां, बदन को गरमाती हवा. पर इनसे तो मेरा नाता है. कॉलेज में भी तो इस गर्मी में हम घंटों पार्क में बैठे रहा करते थे. ये जानते हैं कि मैं तुम्हारे साथ कुछ पल गुज़ारना चाहती हूं. मैं भी जानती हूं ये उन पलों के साक्षी होंगे व्यवधान नहीं. 

मैं ऊंची उन्मुक्त उड़ानों पर थी. प्रफुल्लित मन से तुम्हारे साथ उड़ना चाहती थी. 

मैं सीधे बच्चों के झूलेवाले पार्क में रखे बेंच पर बैठ गई. मैंने फटाफट एफ़बी खोला. 

ध्यान से तुम्हें नज़रभर देखा. प्रयास करके आंखों को नदी नहीं बनने दिया.

मैं तुम्हें आंखों में भरती रही और हृदय में उतारती रही. तुम्हें कहती रही तुम पीछे नहीं छूटे. चौदह साल बाद भी मेरे साथ मेरी सांसों के साथ-साथ चल रहे हो. तुम मेरा अतीत नहीं हो गए, बल्कि सहेज कर रखे गए वर्तमान हो. आज भी उतने ही अपने हो, उतने ही... हमेशा उतने ही अपने रहोगे. तुम आज भी मुझे दूर से निहारते हुए टकटकी लगाए देखते रहते हो. तुम अभी भी मेरे हृदय में ऐसी पेंटिंग्स बनाते हो, जिनमें मेरे हर अहसास को मेरे भीतर बहुत गहरे से पकड़कर तुम अपनी उंगलियों में थामे मेरे सामने आ खड़े होते हो. आज भी तुम पतंग उड़ाते हो और मैं डोर थामे खड़ी रहती हूं. आज भी तुम्हारे हाथ की रेखाओं में मैं अपने आपको ढूंढ़ सकती हूं. आज भी तुम मेरी रूह की तरह मेरे भीतर सांस लेते हो. आज भी तुम मेरे हृदय की पगडंडियों में बेहिचक घूमते हो. 

नीले रंग की एक चिड़िया साथ के बेंच पर आ बैठी है. वह मुझे उकसा रही है कि मैं तुम्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दूं. मैं तुम्हारे प्रोफ़ाइल में घुस कर बैठी हूं. तुम्हारा परिवार ढूंढ़ रही हूं. मुझे कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा है. बस तुम्हारी कृतियां हैं. बीच-बीच में हमारे कॉलेज के दोस्त सिर निकालकर झांकने लगते हैं. मैं तुम्हारी हर कूची के हर रंग में उत्तर भी ढूंढ़ने लगी हूं. तुम एक सवाल बनकर नहीं, प्यारी-सी मासूम-सी अनगढ़ जिज्ञासा बनकर मेरे सामने हो. वो जिज्ञासा जिसे मैंने चौदह साल सहला-सहलाकर संजोकर अपने तकिए के नीचे रखा है. हर पल उठते-बैठते तकिया हटाकर देखती रही हूं. मैं समझ गई हूं चले गए पल भी कभी नहीं जाते, रोमछिद्रों में छुपकर बैठे रहते हैं.

भरे-पूरे घर में सास-ससुर, पति बच्चों के साथ रहते हुए भी मैंने अपनी एक अलग दुनिया रचा रखी है, जिसमें तुम्हारी कूची के रंग होते हैं और मैं होती हूं. उन रंगों में इधर-उधर बिखरे लम्हे मैं चुन लेती हूं और उन्हें तरतीब देती रहती हूं. जितना सुख मुझे इसमें मिलता है उतना और किसी चीज़ में नहीं.

तुम्हारे प्रोफ़ाइल में एक पेंटिंग में मैं अटक गई हूं. आकाश रो रहा है मोटे-मोटे आंसुओं से. इन आंसुओं का रंग कहीं लाल है कहीं नीला. मेरा दिल कह रहा है यह तुमने उसी दिन बनाई होगी, जिस दिन तुम मुझे ढूंढ़ते हुए मेरे घर तक पहुंच गए थे. छोटी बहन ने बताया था तुम पगला से गए थे. रोने लगे थे. 

तुम्हारे जर्मनी प्रवास के दौरान ही मेरे ससुरालवाले मुझे देखने आए थे. साथ ही चुन्नी चढ़ाकर ले गए. मैं तुम्हें फ़ोन करती रही, तुम पहुंच से बाहर थे. मैं इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाई कि कह पाती अभी मुझे इंतज़ार करना है. बस वही चुप्पी मुझे निगल गई. तुरत-फुरत एक जोड़े में मैं ससुराल पहुंच गई और उन सबके प्यार में आज भी बंधी हूं. 

लेकिन यह भी सच है इस समय मैं तुम्हारे साथ हूं. ऊपर से एक लाल रंग का फल ठीक मेरी झोली में आकर गिरा है, जैसे कह रहा हो इस फल को मत खाना यह वर्जित फल है. पर वर्जनाओं के बीच भी एक-दूसरे का सान्निध्य हमें सक्षम बनाता रहा है कि हम सितारों को छू सकें. त्रिकोणीय रास्तों पर भी सुगमता से चल सकें. उलझी हुई उलझनों को सुलझा सकें.

तभी तुमने मुझे लहलहाता हुआ एक निमंत्रण भेजा. मेरी आंखों के सामने गुनगुनाते शब्द थे. चमकीले शब्द. तुम्हारी कूची के रंग में रंगे शब्द. प्यार की मिठास से लकदक चमकते शब्द. 

‘कल दोपहर बारह बजे से शाम पांच बजे तक कला दीर्घा में मेरी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में आप सादर आमंत्रित हैं.’
मुझे लगा तुम्हारी किसी अदृश्य आंख ने देख लिया है मुझे प्रतीक्षारत. 

एक-एक शब्द को मैं किसी अदृश्य सीढ़ी से भीतर उतरता अनुभव कर रही थी. 

मैं भला कैसे रुक सकती थी. मैंने ख़ुशी से तुम्हें हग कर लिया. मैं वही कॉलेज वाली कविता हो गई थी. मैंने तुम्हें कस के हग कर लिया और कस के, और कस के.

मैंने महसूस कर लिया था तुम आत्मसात कर रहे हो मेरे हर अहसास को. मेरी हर प्रत्याशा को.

सामने माली पौधों को नहला रहा था. मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक हम दोनों के नथुनों को स्पर्श कर रही थी. कोंपलें ख़ुश थीं, हमें आलिंगनबद्ध देखकर. दूब चिकोटी काटने को तैयार थी. वह नीली चिड़िया धीमा-धीमा मुस्करा रही थी. 

फिर लगा कहीं प्रदर्शनी में तुम्हारे साथ तुम्हारी पत्नी हुई तो? उसने मुझे पहचान लिया तो? उसने सवाल पूछे तो? तुम्हारे जीवन पर कोई प्रभाव पड़ा तो?

पलभर के लिए सब रुक गया. मैं, नीली चिड़िया, मुझे निहारती कोंपलें. सब स्थिर.

पर जाने क्या था मैं व्यग्र थी, अधीर हो चुकी थी. पैंतीस साल की दो बच्चों की मां नहीं रही थी. वही कॉलेज वाली बाइस साल की आवारागर्द कविता हो गई थी. वही चुलबुली, झल्ली कविता. मैं बस तुम्हें, सिर्फ़ तुम्हें अपनी आंखों से अपलक देखना चाहती थी.

मैं वापिस घर आ गई. नीरज की टूर की तैयारी करनी थी.

शाम को मैं नीरज को एयरपोर्ट छोड़ आई. पर तुम हर पल मेरे साथ थे. दोपहर में बच्चों के स्टॉप पर, रसोई में, घर की हवा में, मेरी सांसों की ध्वनि के साथ एकाकार होते हुए. रात में तुम सूक्ष्मतर होकर फिर मेरे तकिए के नीचे दुबक गए थे.

सुबह मैं मेट्रो में थी. मैं उड़ रही थी दिल्ली को पीछे छोड़ती हुई. एक-एक इमारत आंखों के आगे से निकल भागती जा रही थी. हम दोनों विपरीत दिशाओं में भाग रहे थे. मुझे लग रहा था मैं उड़ रही हूं और आर्ट गैलरी पहुंचने तक अपनी यात्रा में हर चीज़ को पीछे धकेल रही हूं. बड़ी-बड़ी इमारतों को, खम्बों को, फ़्लाइओवरों को... हर चीज़ को.

आर्ट गैलरी के बाहर बैनर पर तुम्हारा नाम मुझे विचलित करने लगा. जाने क्यूं बार-बार विचार आ रहा था, जाऊं या नहीं... यहीं से वापस चलूं... कहीं कुछ ग़लत तो नहीं कर रही... कहीं तुम्हारी शांत साधना में कोई खलल तो नहीं डाल रही... कहीं ठहरे सरोवर में कंकड़ तो नहीं डाल रही... फिर कुछ अहसास चुपके से आए और मेरी उंगली पकड़कर मुझे अंदर खींच लेते चले गए.

 मैं दरवाज़े पर ठिठकी खड़ी थी.

 चारों ओर नज़र दौड़ाई और तुम नहीं दिखे तो मैंने चैन की सांस ली.

 मुझे अजीब लग रहा था. तुम्हीं से तो मिलने आई हूं फिर क्यों चाह रही हूं तुम न दिखो. लगा क्षणभर में मन कैसी अबूझ पहेली हो गया है.

पलभर को लगा यहां नहीं आना चाहिए था, एफ़बी पर मिल तो चुकी थी. तुम्हारे साथ समय भी बिता चुकी थी. तुम्हें हग भी कर लिया था. स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में जीभर कर एफ़बी पर देख लिया था. तब से अब तक हम साथ ही तो थे. बस देह ही तो नहीं थी. अब तुम मिल भी गए तो आंखें फाड़कर तुम्हें देख भी नहीं सकती. तुम्हारी पत्नी? कहीं स्थिति नाज़ुक न हो जाए. तुम ठीक कहते थे हर स्थिति में बहती जाती हो. कभी-कभी रुककर देखना ज़रूरी होता है.

मैंने डरते-डरते पेंटिंग्स देखनी शुरू की. वही स्टाइल, वही रंग, वही आग, वही अवसाद, वही संघर्ष, वही आक्रोश.

‘अंतर्निहित’ नामक पेंटिंग पर आकर मैं ठहर गई.
दो रहस्यमयी बड़ी-बड़ी गहरी आंखें. सारे ज़माने की ताब भीतर छुपाए. कितने रेगिस्तानों, कितने समंदरों को थामे. अनगिनत अहसासों को तर्जनी पर उठाए.

मैं वहीं ठहर गई.

‘‘तुम्हीं हो.’’

तुम्हारी आवाज़ थी. मैं पूरी हिल गई थी. 

मैंने पीछे मुड़कर देखा तो सचमुच तुम ही थे. पलभर को सृष्टि थम गई थी. सब ठहर गया था. हमारी सांस, हमारे 
प्राण बस हमारा प्यार गतिमान था.

हम दोनों एक-दूसरे से मिल रहे थे. क्षितिज हो गए थे.

तुम्हारी चश्मे में से झांकती आंखों की मासूमियत परिपक्वता की पीली झिल्ली के पीछे छुप गई थी. मुस्कराहट वैसी ही निश्छल, अबोध थी.

‘‘पांच साल से तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूं. जब से तुम एफ़बी पर आई हो, रोज़ सुबह तुमसे मिलता हूं. रोज़ तुम्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने के लिए बढ़ा हाथ जाने कौन पकड़ लेता है. पता नहीं तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी. पर मन कहता था एक न एक दिन तुम ज़रूर आओगी. इस विश्वास को मैंने धारण कर लिया था. तुम लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन की बात करती थीं न. यक़ीन मानो एक बार भी संशय के सुराख का बुलबुला नहीं फूटा. तुम सही कहती थीं.’’

मैं बस चुपचाप तुम्हारे हिलते होंठों को देखती रही. मेरी सम्पूर्ण चेतना उन हिलते होंठों में समा गई थी.

‘‘मिस्टर सुधांशु, कमाल कर दिया. ये पेंटिंग अंतर्निहित, वो आंखें. सच लाजवाब.’’

‘‘थैंक्स, वो आंखें...’’ फिर मेरी ओर देखकर तुम कुछ कहते-कहते रुक गए.

 वह प्रशंसक हाथ मिलाकर चला गया.

‘‘बहुत बदल गई हो.’’

‘‘नहीं.’’

‘‘वो उन्मुक्तता कहीं ग़ायब हो गई है. वो हर पल हवाओं के टुकड़ों को पकड़ना, उछल-उछलकर तितलियों के रंगीन पंखों को छूना, जुगनुओं के पीछे भागना, केले के पत्तों पर फिसलती शबनम से खेलना...’’ 

तुम बोलते-बोलते रुक गए.

दो क़दम आगे बढ़ आए.

मेरे और पास आ गए.

तुम मुझे छूना चाहते थे और मैं तुम्हें.

हम दोनों एक-दूसरे को छू रहे थे.

देह से नहीं प्राण से.

क्षणभर में तुम प्रशंसकों से घिर गए जैसे सावन में आसमान बादलों में घिर जाता है. जैसे छुट्टियों में दादा-दादी, नाना-नानी बच्चों से घिर जाते हैं.

मैं फिर उसी पेंटिंग को देखने लगी.

 तुम प्रशंसकों के बीच होते हुए भी मेरे साथ थे. तुम लगातार मुझे ही देख रहे थे. 

मैं घड़ी देखने लगी तो तुम एकदम मेरे पास आ गए.

‘‘अब मैं चलती हूं.’’

‘‘आधा घंटा रुको. समीर और रूपा आनेवाले हैं.’’

‘‘समीर और रूपा?’’

मैं हैरान थी. हम एक साथ कॉलेज में थे.

‘‘हां, दोनों ने शादी कर ली. दोनों दिल्ली में ही हैं.’’ 

मुझे समझ नहीं आ रहा था ख़ुश होऊं 

या उदास.

‘‘फिर कभी मिल लूंगी. बच्चों की बस का टाइम हो जाएगा. अभी भी जाने में मुझे एक घंटा लगेगा.’’
तुमने मुझे रोका नहीं. हम दोनों साथ-साथ गेट की ओर बढ़ रहे थे.

‘‘बहुत अच्छी पेंटिंग्स हैं,’’ मैंने तुम्हें देखते हुए कहा था. क्षणभर मेरी नज़रें तुम्हारे चेहरे पर टिकी रही थीं.

‘‘हर पेंटिंग में कहीं न कहीं तुम हो.’’

मैं तुम्हारी इस सदाशयता पर सदा से मोहित रही हूं.

‘‘कविता, क्या तुम ख़ुश हो अपनी फ़ैमिली में?’’

‘‘हां. और तुम?’’

‘‘मैं भी ख़ुश हूं,’’ कहते हुए तुम एक दम बच्चे की तरह प्रफुल्लित हो उठे थे.

जैसे तुम्हें बस मेरी ख़ुशी ही जाननी थी.

‘‘कविता, क्या मैं तुम्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज सकता हूं?’’

‘‘हां.’’  मैंने गर्दन हिला दी थी.

तुम्हारे मुंह से अपना नाम सुनना मुझे सुकून से भर गया था, शायद तुम्हें भी. ये आवाज़ तुम्हारे हृदय से निकल रही थी. जैसे मैं तुम्हारे भीतर कहीं गहराइयों में मौजूद हूं और तुम मेरे भीतर. 

मुझे लग रहा था तुम बार-बार मेरा नाम बोलकर मुझे अपने क़रीब अनुभव कर रहे हो.

मैं वापस चलने को मुड़ी तो...

‘‘कविता, आती रहना.’’

मैंने स्वीकृति में गर्दन हिला दी.

मैं चलने को हुई.

‘‘कविता, थैंक्स.’’

तुम बच्चों की तरह मचल उठे थे.

‘‘अंतर्निहित के लिए थैंक्स.’’

मैंने कहा तो तुम शरमा गए.

‘‘सब तुम्हारा ही है.’’

मैं लौट आई.

मैंने तुम्हारी एकटक देखती आंखों को अपनी पीठ पर महसूस किया था. मैंने मुड़कर नहीं देखा.

मैं मेट्रो में थी, पर तुम साथ थे.

मैं बच्चों के स्टॉप पर थी, पर तुम साथ थे.

मैं घर आ गई, तब भी तुम साथ थे.

तुम हर पल एक ख़ुशबूदार याद बनकर मेरे तकिए के आसपास दुबके रहते हो.

तुमने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी और मैंने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया.

मुझे लगता है हम किसी बर्तन में तैरते उस तेल और पानी की तरह हो गए हैं, जो न कभी मिलेंगे न दूर होंगे. अलग होते हुए भी साथ रहेंगे, बिल्कुल क़रीब रहेंगे. पर अपनी सीमा रेखाओं के बीच. और इन सीमा रेखाओं के बीच न कोई झांक पाएगा, न कोई स्पर्श कर पाएगा. कोई नहीं, कभी नहीं.

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