कहानी: भूलना कोई निर्णय नहीं होता

अनय चला गया है, सुबह आंख खुलते ही राका के ज़ेहन में यह बात सबसे पहले कौंधी थी. हाथ-पैर एकदम से ठंडे हो आए थे. उसने चादर के साथ इस ख़्याल को सायास झटक कर परे किया था. ख़ुद को याद दिलाया था, अब उसे याद नहीं करना. जो बीत गई सो बात गई... 

बाथरूम से निकलकर उसने नींबू पानी पिया था फिर ख़ुद के लिए चाय बनाई थी. सिर बहुत भारी है. आंखों के पपोटे सूजे हुए. रात जाने कितने पेग पी गई... स्ट्रॉन्ग कॉफ़ी मिलती तो अच्छा होता, मगर समय घर में है नहीं. बदन अब भी घुला रहा. गनीमत है, दफ़्तर की लगातार तीन दिन छुट्टी है. 

चाय का कप लेकर वह बाल्कनी में आ बैठी थी. धूप के शामियाने के बाहर सुबह सफ़ेद रौशनी में नहाई हुई है. सामने घर की मुंडेर पर एक गौरैया का जोड़ा चहक रहा. इसी बीच जाने कब टब के पौधों पर भरकर कलियां आई हैं. खिल पड़ने को बेसब्र! चमकते हुए पांत की पांत गुलाबी फूल कांच जैसे लग रहे हैं. मनी प्लांट के आसपास धूप का रंग हरा हो रहा है. इन्हें पानी देने की बात पर रोज़ अनय से बहस हो जाती थी... उनसे नज़र हटाकर वह दूसरी तरफ़ देखने की कोशिश करती है. 

इस घर में कोई ऐसा कोना नहीं जहां अनय नहीं बसता. चले जाने से ही लोग चले नहीं जाते जीवन से... रहते हैं जीवित अपनी मंडराती गंध में, छोड़ी हुई स्मृतियों में... अब महसूस हो रहा है, रह सकता है कोई चुपचाप, कुछ इसी तरह किसी किताब के मुड़े हुए पन्ने में, ऐश ट्रे में पड़ी राख में, बिस्तर की सिलवटों में... महीनों से उसकी बातें, हंसी, स्पर्श इस घर में इकट्ठी होती रही हैं. ख़ुद उस में भी तो! इनको निकालने गई तो बचा क्या रहेगा... असबाबों से भरा कोई-कोई मकान जितना भरा होता है उतना ही कहीं से ख़ाली भी! उनका स्तब्ध शून्य उनके भराव में निरंतर गूंजता रहता है.

सर झटकते हुए अजीब थकान-सी हुई थी उसे. कुछ भी सोचने की कोशिश करे, बात अंततः अनय पर ही आ ठहरती है. भीतर की यात्राएं अक्सर पीछे की ओर क्यों होती हैं? जहां से शुरू होती हैं, वहीं गोल-गोल घूमकर ख़त्म भी हो जाती हैं. कुछ दहलीजों से पांव कभी जाने के लिए नहीं उठ पाते. यहां क़दमों से नापी गई दूरियां कोई माने भी नहीं रखतीं. पास या दूर होना बस मन की अवस्थाएं हैं.

पिछले एक साल से दोनों साथ रह रहे थे. अनय का डिवोर्स केस चल रहा था. जाने कितना समय लगता. शादी का फ़िलहाल कोई प्लैन नहीं था. ‘इन रस्मों में क्या रखा है! बस बंधना! हम ऐसे ही ठीक हैं...’ अनय उसके चॉकलेट, वाइन से महकते होंठों को चूमकर कहता तो दसवीं मंज़िल से दिखते शहर की सारी झिलमिलाहट उसकी आंखों की पुतलियों में उतर आती. ‘हम अपने रिश्ते को कभी पिंजरा नहीं बनने देंगे अनय, एक-दूसरे का आकाश बनेंगे, साथ-साथ उड़ेंगे...’ 

मुंबई के इस दसवीं मंज़िल के फ़्लैट से आकाश बहुत क़रीब लगता था उन दिनों. जैसे हाथ बढ़ाकर इसके नील में हथेली डुबोई जा सकती है या गुच्छों में चमकते सितारों को शरारत से बिखेरकर बेतरतीब किया जा सकता है. दोनों बेबात रातभर जागते तो उनके बिस्तर से जलते-बुझते नक्षत्र खिड़की पर टंके-से दिखते. चांद रौशनदान पर उगता और बाल्कनी के वॉटर फ़ाउंटेन के पीछे डूब जाता... दुनिया से परे की अपनी बांह भर की दुनिया, कोई-क़ानून नहीं, संबंध की गिरह-गांठ नहीं, बस प्यार और भरोसा...

‘तुम नहीं जानती, किस नरक से हो कर पहुंचा हूं तुम तक. ज़िम्मेदारियों का दुसह्य बोझ और अंतहीन शिकायतें... हर क़दम पर रिश्ते की क़ीमत चुकाते चलना, दम घुट गया था मेरा.’ अनय उसके शरीर के तिल गिनते हुए कांधे के नीले तिल पर ठिठक जाता,‘जानती हो, यह अंधेरे में चमकता है!’

ख़ुद के भीतर कहीं गडमड वह उसकी बात अनसुनी कर देती. नींद, जगार के बीच के यह क्षण देहातीत सपनों के होते,‘बिना किसी क़ीमत के दे सकी हूं तुम्हें, तभी ख़ुद को दिया है. तय कर लिया था, प्यार, समर्पण ले कर कभी संबंध की हाट पर नहीं बैठूंगी, इन पर बोली लगने नहीं दूंगी!’ इन शब्दों में गुरूर होता था, भीड़ से अलग, कुछ विशिष्ट होने का. अपने पुरुष की आंखों में अनन्या होकर बसने का गुरूर. वह सिर्फ़ उसका बिस्तर नहीं घेरती, मन का सारा आकाश समेट चांद-तारों की तरह जगमगाती है. उसकी देह कोई तीतर फांद नहीं अपने प्रेम के लिए, मुक्ति और सुख की अविरल बहती नदी है... 

‘कभी चुटकीभर सिंदूर की मोहताज नहीं होना तुम. हमारा रिश्ता दुनियावी नहीं. देखो ना उस औरत को, संबंध का सबूत काग़ज़ों, तस्वीरों में लिए फिर रही, रंगदारों की तरह प्यार ऐंठने के लिए पुलिस, अदालत की धमकी दे रही... ऐसे संवेदनाएं वसूली जाती हैं! अब ग़ुस्सा भी नहीं आता, रहम आता है उस पर. अपनी ही क़ीमत लगा रही-सात साल के जीवन की, देह की, कोख की... वह भी कितना!’

अनय के ख़्यालों से लड़ना छोड़ दिया उसने. भूलाने की कोशिश याद करने का ही एक तरीक़ा है, समझ गई है. मगर अब अकेले उनका सामना नहीं किया जाता. कलेजे का ख़ून पानी हो जाता है. उठकर वह किचन के कैबिनेट में ढूंढ़ती है, बोतल उलटकर देखती है, अगर थोड़ी-सी भी रम बची हो. हालांकि वह जानती थी, नहीं बची है. कल रात ही उसने और नूरी ने मिलकर कोक में मिलाकर सब पी लिया था. 

नूरी एयर होस्टेस है, मुंबई आने पर कभी-कभी उससे मिलती थी, कुछ और दोस्तों के साथ. सब मिलकर पार्टी करते थे, हुड़दंग मचाते थे. पिछले साल बारिश में रातभर जूहू-चौपाटी में भीगे थे. सुबह से पहले उन्हें हवालात में बंद कर दिया गया था. फिर अनय का कनेक्शन ही काम आया था. उसके मामाजी किसी मिनिस्टर के पीए थे. 

अनय उस दिन पहली बार उनकी पार्टी में आया था. उलझे, चमकीले बाल और काली, गहरी आंखों वाला ख़ूब ऊंचे क़द का मर्द! उदास और अनमन. जब सब मस्ती में डूबे थे, वह एक कोने में सबसे अलग-थलग ग़मगीन होकर पी रहा था. उसने उससे बात की थी उस दिन, पहले रुक-रुककर, फिर ढेर सारी. जाने क्या-क्या! सुबह तक. कभी बाल्कनी में, कभी टेरस पर तो कभी कार के बोनेट पर बैठकर. उनके बीच बीयर की ख़ाली होती बोतलों का अंबार लग गया था. इसके कुछ दिन बाद अनय उसके फ़्लैट में आ गया था साथ रहने.

सोचते हुए उसे ड्रिंक की तेज़ तलब हुई थी. मैं अब तुम्हारे साथ क्या, तुम्हारे ख़्यालों के साथ भी कुछ देर अकेली नहीं रह सकती. ड्राॅअर से निकल आई अनय की तस्वीर वापस ड्राॅअर में धकेलते हुए वह बाथरूम में आईने के सामने खड़ी गहरी-गहरी सांसें लेती रही थी. कल से योग शुरू करेगी, पक्का! अभी से सांस चढ़ने लगी है! 

अनय ही उससे ठेल-ठालकर योगा करवाता था. कहता था, मुझसे पांच साल बड़ी हो तो पांच साल पहले ना मर जाओ, इसका बंदोबस्त करो. इतनी देर से मिली हो, अब एक पल भी गंवाना नहीं चाहता! किडनी स्टोन के लिए डॉक्टर ने उसे ज़्यादा पानी पीने के लिए कहा तो हमेशा पानी की बोतल लेकर वह पीछे-पीछे घूमने लगा. वह परेशान हो गई थी. जिधर देखो पानी की बोतलें, बिस्तर के साइड टेबल पर, ड्रॉइंग रूम में, बैग में, कार में... दफ़्तर में होती तो हर आधे घंटे में फ़ोन कर पूछता, पानी पिया? सब उसका मज़ाक उड़ाने लगे थे, यह तुम्हारा बॉयफ्रेंड है कि बाप? कई बार वह रूआंसी हो उठती. मिनती करते-करते अनय को झिड़क बैठती. 

पहली बार अनय को फूट-फूट कर रोते देख वह घबरा गई थी. किसी मर्द को इस तरह उसने पहली बार रोते हुए देखा था. वह बात-बात पर रो पड़ता था. लोगों के सामने भी! अचानक चेहरा सुर्ख़ पड़ जाता और आंखों से आंसू बहने लगते. कई बार पार्टी, मॉल या भीड़ भरे रास्ते में सबके सामने रोकर वह उसे बेतरह शर्मिंदा कर चुका था. इसलिए वह हमेशा सतर्क रहती थी कि अनय को किसी बात से ठेस ना पहुंचे. 

जाने कब अनय के आंसुओं की स्मृति ने उसकी आंखों को नम कर दिया था. आईने में प्रतिबिम्बित मेघ-सा डबडबाया चेहरा अचानक भाप बनकर उड़ने लगा था. उन खारे आंसुओं को, गाढ़ी आवाज़ में बार-बार कहे गए शब्दों को कैसे झूठ मान ले! तब तो आंखों में पसरी यह सारी दुनिया झूठी हो जाए. ना इंसान रहेगा ना भगवान. हर पल मुट्ठी से फिसलते जाते यक़ीन को वह बांधने की कोशिश करती है, मगर हथेली के साथ उंगलियां भी अब उसके साथ गलकर बहने लगी हैं जैसे...                       

नूरी हमेशा की तरह निर्मम थी. उसकी बातें सुन ठठाकर हंसी थी,‘बिस्तर पर की गई मर्द की बात पर यक़ीन करती है सिली लड़की! एक बात बता, उसे कभी तेरे संग रातों को अपनी ज़िम्मेदारियों का ख़्याल आया? दुनिया का? नहीं ना? वादा वफ़ा करते हुए आया होगा! यह इश्क़-मुहब्बत लफ़्फ़ाज़ी है यार इन सैयादों (प्रेमियों) का. अपनी बीवी को छोड़ना होता तो अब तक उसकी पैन्टी-ब्रा संभालकर बैठा नहीं रहता चौकीदारी पर! वक़्त वह तुम्हारे साथ गुज़ारता था, मगर घर उसका वहीं था, जहां वह गुलफ़ाम थी. देखा नहीं, उसके लगाए फूलों के गमलों को कैसे सम्हालता रहा? केस पर बात करने जाता और दिनभर झगड़ने के बजाय एक कमरे में बंद होकर रोता. यह लड़ाई उनका प्यार था जाना.’ नूरी के कहे शब्द उबलते लावे की तरह थे. राका के जिस्म पर फफोले पड़ गए थे. मगर वह क्या कहती! जिस दिन से कही गई बातों को अंजाम देने का वक़्त आया, अनय बदलने लगा. इस बीच उसके घर से फ़ोन आने बढ़ गए. कभी उसकी मां का, कभी बेटे का तो कभी पत्नी का. कल तक जीवन की हर बात साझा करने की बात करनेवाला अनय अचानक अपने परिवार और डिवोर्स की बात करने से कतराने लगा. वह पूछती तो अकारण चिढ़ जाता, कभी किसी बात का सीधा जवाब नहीं देता. उसकी व्यस्तता भी अचानक बढ़ गई थी. साथ नींद और थकान भी. उनके बिस्तर के बीच अब अक्सर अनय की पीठ की दीवार और नींद की गहरी काली लकीर खिंची रहती.  

एक वक़्त ऐसा भी था, जब अपने मोबाइल से अनय हर समय चिपका रहता था. कहता था,‘जब हम-तुम दूर होते हैं, हमारे बीच यही होता है, पुल कह लो, सड़क कह लो! आवर लाइफ़ लाइन!’ वह कहती थी,‘मुझे किसी और से नहीं, इस काली-कलूटी से रश्क होता है, सौत बनी बैठी है!’ वहीं मोबाइल पर अब उसकी नज़र तक नहीं पड़ती. नोटिफ़िकेशन की घंटी पर वह हर बार फ़ोन उठाकर देखती मगर निराशा ही हाथ लगती.

एक बार घर लौटकर अनय की पत्नी को बैठी देख वह सन्न रह गई थी. उस दिन हरितालिका तीज था. वह हरी साड़ी, चूड़ी और मांग भर सिंदूर में थी. दोनों शायद रोते रहे थे. आंखें लाल हो रही थीं उनकी. बाद में पूछने पर अनय ने कहा था,‘मत भूलो हमारे बीच सात साल का सह-जीवन है.’ वह कुछ नहीं भूली थी, हां शायद अनय को भूला हुआ सब कुछ याद आने लगा था... 

चाय ख़त्म कर वह किसी शव की तरह पूरे घर में घूमती है, यह नहीं समझते हुए कि इस कोने उस कोने क्या ढूंढ़ रही है. बिस्तर-चादर झाड़ती है, मगर उनकी तहों में बसी ख़ुशबू झाड़-बुहार कर फेंक नहीं पाती. स्मृतियां दीवारों पर रंग-सी पुती हैं, दृश्य हर अदृश्य में चमक रहा... 

एक तेज़ ग़ुस्से का दौरा-सा पड़ता है उसे. अनय को अपने जीवन के हर हिस्से से खुरच कर फेंक देना है. कहीं रहने नहीं देगी वह उसे. वॉर्डरोब से उसके कपड़े निकाल लाती है, कैंची से उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर पोटली में बांध डस्टबिन में फेंक आती है. इसके बाद बैठकर फ़ोन से तस्वीरों की गैलरी ख़ाली करती है. तस्वीरें भी झूठ बोलती हैं. यह चेहरे चमकते मुखौटे होते हैं, मुस्कराहट और रंगों से लिथड़े हुए. इनके पीछे कहीं गहरे छिपी होती है नीयत. और समय... वह भी झूठ के सिवा कुछ नहीं. जो अनय के साथ उसके हिस्से आया, वह बस बिताया जा रहा था! 

वह भूल गई थी, भीतर के शून्य को असबाबों से नहीं भरा जा सकता. वह एक असबाब मात्र थी, एक बेजान फ़र्नीचर! अनय यहां था, मगर कभी नहीं था. अपनी ख़ुशफ़हमी में अब तक एक परछाई के साथ जीती रही वह और अब ख़ुद एक परछाई बन कर रह गई! 

एक दिन अचानक अनय ने कहा था,‘सविता घर लौट आई है, मुझे भी जाना होगा. बेटे का स्कूल शुरू हो रहा है.’ सुनकर वह सन्नाटे में आ गई थी. फिर ग़ुस्से से भरकर रोते-चिल्लाते जाने क्या-क्या कह गई थी. मगर जवाब में अनय ने बस इतना ही कहा था,‘अपनी पत्नी और बेटे के प्रति मेरे कुछ वैधिक, सामाजिक दायित्व हैं...’ उसने जिस आवाज़ में यह बात की थी, वह अजनबी थी राका के लिए. वह इस अनय को नहीं जानती थी. यह अब तक कहां छिपा बैठा था! 

सुनकर नूरी ने कहा था,‘यार! तू यह सब बर्दाश्त कर रही है! बाई गॉड, मैं तेरी जगह होती ना तो इसे उल्टा लटकाकर मिर्ची की धूनी लगा देती. ऐसी वाहियात बातें करता है! जब मुंह भर-भरकर कसमें-वादे उगल रहा था तब क्या कोई बच्चा था? और यह वैवाहिक दायित्व, पिता की ज़िम्मेदारी... माय फ़ुट. बेटा आज पैदा हुआ है इसका? बीवी कल नहीं थी इसकी? इन बहानों के पीछे अपनी मक्कारी छिपा रहा है. एक की ज़िंदगी बर्बाद कर दूसरे की बनाने चला है? ऐसे सिली आर्ग्युमेंट्स देने वालों का कसम से, मार डंडा बॉटम लाल कर देना चाहिए.’ नूरी एक बार शुरू हो जाती तो उसे चुप कराना मुश्क़िल हो जाता.

उसने अनय को फ़ेसबुक, मैसेंजर, वॉट्सऐप पर ब्लॉक किया, फ़ोन नंबर डिलीट किया, ट्विटर पर अनफ़ॉलो किया... मेल ट्रैश में डालते-डालते वह हांफने लगी थी. अब कहां बचा रह गया होगा वह? उसे हर जगह से ढूंढ़कर मिटा देगी वह. डिलीट कर देगी. सोचते हुए उसकी नज़र आईने में ख़ुद पर पड़ी थी. ओह! वह तो बची रह गई, पूरी की पूरी, अनय की स्मृतियों के साथ, उसके प्यार में धड़कती, जीती... हाथ में कैची लिए वह देखती रह गई थी, ख़ुद को कहां से काटे-छांटे, मिटाए और फेंक आए?

उस क्षण मोबाइल की घंटी सन्नाटे में बिजली की तरह कौंधी थी. उसने जाने कितनी देर बाद फ़ोन उठाया था. दूसरी तरफ नूरी थी,‘‘कमबख़्त इतनी देर से फ़ोन उठाया? क्या कर रही थी?’’ 

जवाब में उसने उदासीन भाव से कहा,‘‘अपनी ज़िंदगी से अनय को मिटा रही थी, हमेशा के लिए भुला रही थी...’’
‘‘तो...? भुला दिया?” दूसरी तरफ़ से नूरी की तंज भरी चहक गूंजी. 

इस बार वह चुप रह गई. क्या जवाब दे? सामने आईने में खड़ी है वह, अनय की ज़िंदा याद बनकर, उसका वह घर बनकर जिसे छोड़कर वह हमेशा के लिए उसे एक मकान बना गया है. ख़ाली मकान! अनायास वह भरभराकर रो पड़ी,‘‘नूरी...’’

‘‘वह कोई मेल, तस्वीर या सामान नहीं था राका, जिसे इस तरह मिटा सको. पागलपन मत करो, ख़ुद को वक़्त दो, यही इसका अकेला इलाज है.’’ 

नूरी की बात सुनते हुए उसके हाथ से कैंची छूटकर नीचे गिर पड़ी. कुछ कहना मुश्क़िल हो गया. आंखें आंसुओं से अंधी हुई जा रही थीं. नूरी अब संजीदा होकर कह रही है,‘‘राका! समझो, प्यार, अगर वह प्यार है तो, करना, भूलना कोई निर्णय नहीं होता...’’

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