कहानी - मुझे न पुकारना
बस में बहुत भीड़ थी, दम घुटा जा रहा था. मैं ने खिड़की से बाहर मुंह निकाल कर 2-3 गहरीगहरी सांसें लीं. चंद लमहे धूप की तपिश बरदाश्त की, फिर सिर को अंदर कर लिया. छोटे बच्चे ने फिर ‘पानीपानी’ की रट लगा दी. थर्मस में पानी कब का खत्म हो चुका था और इस भीड़ से गुजर कर बाहर जा कर पानी लाना बहुत मुश्किल काम था. मैं ने उस को बहुत बहलाया, डराया, धमकाया, तंग आ कर उस के फूल से गाल पर चुटकी भी ली, मगर वह न माना.
मैं ने बेबसी से इधरउधर देखा. मेरी निगाह सामने की सीट पर बैठी हुई एक अधेड़ उम्र की औरत पर पड़ी और जैसे जम कर ही रह गई, ‘इसे कहीं देखा है, कहां देखा है, कब देखा है?’
मैं अपने दिमाग पर जोर दे रही थी. उसी वक्त उस औरत ने भी मेरी तरफ देखा और उस की आंखों में जो चमक उभरी, वह साफ बता गई कि उस ने मुझे पहचान लिया है. लेकिन दूसरे ही पल वह चमक बुझ गई. औरत ने अजीब बेरुखी से अपना चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लिया और हाथ उठा कर अपना आंचल ठीक करने लगी. ऐसा करते हुए उस के हाथ में पड़ी हुई सोने की मोटीमोटी चूडि़यां आपस में टकराईं और उन से जो झंकार निकली, उस ने गोया मेरे दिमाग के पट खोल दिए.
उन खुले पटों से चांदी की चूडि़यां टकरा रही थीं...सलीमन बूआ...सलीमन बूआ...हां, वे सलीमन बूआ ही थीं. बरसों बाद उन्हें देखा था, लेकिन फिर भी पहचान लिया था. वे बहुत बदल चुकी थीं. अगर मैं ने उन को बहुत करीब से न देखा होता तो कभी न पहचान पाती.
दुबलीपतली, काली सलीमन बूआ चिकने स्याह गोश्त का ढेर बन गई थीं. मिस्कीन चेहरे पर ऐसा रोबदार इतमीनान और घमंड झलक रहा था जो बेहद पैसे वालों के चेहरों पर हुआ करता है. अपने ऊपर वह हजारों का सोना लादे हुए थीं. कान, हाथ, नाक कुछ भी तो खाली नहीं था. साड़ी भी बड़ी कीमती थी और वह पर्स भी, जो उन की गोद में रखा हुआ था. मेरा बच्चा रो रहा था और मैं उस को थपकते हुए कहीं दूर, बहुत दूर, बरसों पीछे भागी चली जा रही थी. मैं जब बच्ची थी तो यही सलीमन बूआ सिर्फ मेरी देखभाल के लिए रखी गई थीं. उन दिनों वे बहुत दुखी थीं. उन के तीसरे मियां ने उन को तलाक दे दिया था और लड़के को भी उन से छीन लिया था. सलीमन बूआ ने अपनी सारी ममता मुझ पर निछावर कर दी. मैं अपनी मां की ममता इसलिए कम पा रही थी क्योंकि मुझ से छोटे 2 और बच्चे भी थे.
अम्मा बेचारी क्या करतीं, मुझे संभालतीं या मेरे नन्हे भाइयों को देखतीं. सलीमन बूआ की मैं ऐसी आशिक हुई कि रात को भी उन के पास रहती. अब्बाजान सोते में मुझे अपने बिस्तर पर उठा ले जाते, लेकिन रात को जब भी मेरी आंख खुलती, फिर भाग कर सलीमन बूआ के पास पहुंच जाती. वे जाग कर, हंस कर मुझे चिपटा लेतीं, ‘आ गई मेरी बिटिया रानी...’ और फिर अपनी बारीक आवाज में वे लोरी गाने लगतीं, जिस को सुन कर मैं फौरन सो जाती. मुझे नहलाना, मेरे कपड़े बदलना, कंघी करना, काजल लगाना, खिलानापिलाना, सुलाना, कहानियां सुनाना, बाहर टहलाने ले जाना, यह सब बूआ के जिम्मे था. अम्मा मेरी तरफ से बेफिक्र हो कर दूसरे बच्चों में लग गई थीं.
बड़े भाई और आपा मुझे चिढ़ाते, ‘देखो, परवीन की बूआ क्या काली डरावनी सी है. अंधेरे में देखो तो डर जाओ. अरे, भैंस है पूरी, शैतान की खाला.’ मैं रोरो मरती, दोनों को काटने दौड़ती, चप्पल खींचखींच मारती. सलीमन बूआ यह सब सुन कर बस मुसकरा दिया करतीं और मुझ से दोगुना लाड़ करने लगतीं. मैं काफी बड़ी हो गई थी, लेकिन फिर भी उन की गोद में लदी रहती. मुहर्रम में मातम या 7 तारीख का कुदरती आलम देखने के लिए मैं इतनी दूर से खुरदपुरा और सय्यदवाड़ा महल्लों में उन की गोद में ही लद कर जाया करती. वह हांफ जातीं, थक कर चूर हो जातीं, मगर न मैं उन की गोद से उतरती न वे उतारतीं.
कोई औरत टोकती, ‘ऐ सलीमन बूआ, इस मोटी को लादे घूम रही हो, फेफड़ा फट जाएगा.’
तब वे बहुत बुरा मानतीं, ‘फटने दो मेरा फेफड़ा, तुम काहे को फिक्र करती हो, बड़ी आई मेरी बिटिया को नजर लगाने वाली.’ घर आ कर वे मेरी नजर उतारतीं तो मैं बड़े घमंड से गरदन अकड़ाअकड़ा कर बड़े भाई और आपा को देखती. तब वे दोनों जलभुन कर रह जाते. सचमुच मुझे अपनी काली डरावनी सी सलीमन बूआ से कितना प्यार था. बचपन छूटा, जवानी ने गले लगाया, फिर भी सलीमन बूआ मेरे उतने ही करीब रहीं. मैं अकसर उन के साथ ही सोती. तब मुझे कभी रात में नींद न आती तो वे मुझे लोरी सुनाने लगतीं, ‘चंदन का है पालना, रेशम की है डोर...जीवे मेरी रानी बिटिया...’
मैं हंस देती, ‘बूआ, अब तो लोरी न सुनाया करो, मैं बड़ी हो गई हूं.’
‘लाख बड़ी हो जाओ, मेरे लिए तो वही छटांक भर की हो.’
सलीमन बूआ ने 3 शादियां की थीं, 2 से कोई बच्चा नहीं हुआ तो तलाक हो गया कि वे बांझ हैं.
मगर तीसरी शादी हुई तो 9वें महीने ही बूआ की गोद भर गई. यह शादी 5 साल चली. लेकिन यहां भी दुखों ने बूआ का पीछा न छोड़ा. उन के मियां का दूसरी औरत से दिल लग गया. बूआ यह बरदाश्त न कर सकीं. झगड़ा बढ़ा तो मर्द ने तलाक दे दिया और घर से निकाल दिया. साथ ही उस ने बच्चा भी छीन लिया. हारी, दुत्कारी सलीमन बूआ घरघर का कामकाज कर के पेट की आग बुझा रही थीं कि चाचा ने उन को अम्मा के पास पहुंचा दिया और उन्होंने उन को मेरे लिए रख लिया. खाना, कपड़ा, तनख्वाह, पान, दवा, बिछौना, बस और क्या चाहिए था उन्हें. बूआ हमारे घर में जम कर पूरे 16 बरस रहीं. बच्चे बड़े हो गए. बड़े अधेड़ हो गए, बूआ हमारे घर का एक जरूरी पुरजा बन गई थीं.
मगर एक दिन 21 बरस का ऊंचा, तगड़ा, गहरा सांवला नौजवान हमारे दरवाजे पर आ कर खड़ा हुआ. उस ने पुकारा, ‘अम्मा.’
बूआ, जो मेरे लिए उबटन पीस रही थीं, आवाज को सुनते ही दरवाजे की तरफ देखने लगीं. उन का हाथ रुका तो चांदी की चूडि़यों का खनकना बंद हो गया.
‘कौन है?’ बड़े भाई ने डपट कर पूछा, क्योंकि वह नौजवान सीधा अंदर घुसा आ रहा था. नीली पैंट, सफेद कमीज, हाथ में शानदार बैग, चमकते जूते और कलाई में सोने की घड़ी देख सब ठिठक कर रह गए.
‘मैं हूं...कलीम...अम्मा को लेने आया हूं,’ उस ने कहा.
बूआ ने 21 बरस के उस नौजवान में अपने 5 साल के कल्लू को बिलबिलाता देख लिया था. वे चीख मार कर दौड़ीं, ‘कलुवा.’
‘अम्मा,’ और दोनों एकदूसरे से लिपट गए.
उफ, बेमुरव्वत, बेवफा सलीमन बूआ एकदम सब कुछ भूल गईं. अपनी जिंदगी के 16 बरस उन्होंने एक पल में झटक कर दूर फेंक दिए. उन्होंने तो उस बिखरे उबटन को भी न उठाया, जो चक्की के इर्दगिर्द पड़ा था और जिस को पीसते हुए वे लहकलहक कर गा रही थीं, ‘गंगाजमनी तेरी ससुराल से आया सेहरा... अब्बा मियां ने खड़े हो के बंधाया सेहरा...’
मैं सन्न बैठी रह गई, अचानक पत्थर की मूरत बन गई. बस, टुकुरटुकुर बूआ को देखती रह गई. यह बड़ी खुशी की बात थी कि उन का बेटा उन को लेने आया था. रोता, बिलखता कलुवा अब हंसतामुसकराता कलीम अहमद बन गया था. उस का बाप मर गया था और अपने पीछे ढेर सी दौलत छोड़ गया था, जिस का कलीम अकेला वारिस था क्योंकि उस की सौतेली मां बहुत बरस पहले ही उस के बाप को छोड़ कर भाग गई थी. बाप की बेड़ी कटी तो वह अपनी मां का पता लगातेलगाते हमारे यहां आ पहुंचा और 2 घंटे के बाद ही बूआ को ले कर चलता बना. 2 घंटों में बूआ सिर्फ एक बार मेरे पास आई थीं, वह भी जाते वक्त, ‘जा रही हूं बीबी...हमेशा सुखी रहो...’ मैं ने सोचा था कि बूआ बिलख उठेंगी, मुझे किसी नन्ही बच्ची की तरह गोद में भर लेंगी, कलीम से लड़ेंगी, कहेंगी, ‘वाह, मैं क्यों जाऊं अपनी बेटी को छोड़ कर...’
मगर नहीं, बूआ की तो बाछें खिल उठी थीं. कालाकलूटा चेहरा, जो मुझ को सलोना नजर आता था, खुशी के मारे और खून की तमतमाहट से और स्याह हो गया था. ‘जा रही हो बूआ?’ मेरी आवाज थरथरा गई.
‘हां, बेटी...मेरा कलुवा अब बहुत बड़ा आदमी बन गया है. कह रहा है, मेरी बड़ी बेइज्जती होती है, तुम क्यों दूसरों के दर पर पड़ी हो? ठीक भी है...ऐसे कब तक जिंदगी गुजारती. अच्छा, चलता हूं...’
यह कह कर उन्होंने मेरा सिर थपका और बगल में दबी हुई अपने कपड़ों की पोटली ठीक करने लगीं. फिर यह जा, वह जा. फिर उड़तीपड़ती खबरें मैं सुनती रही कि बूआ कलकत्ता में हैं, बड़े मजे कर रही हैं. कलीम की एक नहीं, कई दुकानें खुल गई हैं. कार भी खरीद ली है और मकान भी बन गया है. आज बरसों बाद मैं सलीमन बूआ को फिर देख रही थी. नजर थी कि उन पर से हटने का नाम नहीं ले रही थी. बच्चा मेरी गोद में रोतेरोते निढाल हो चुका था और अब सिसकियां भर रहा था. मैं सोचने लगी कि बूआ कितनी बेवफा और संगदिल निकलीं. कभी किस चाव से कहा करती थीं, ‘इतनी उम्र यहां गुजरी, अब जो रह गई है, वह भी रानी बिटिया के साथ इस के ससुराल में गुजर जाएगी. बिटिया को पाला है, इस के बच्चे भी पालूंगी, आंखों के तारे बना कर रखूंगी...’
लेकिन इस वक्त मैं भी सामने थी और मेरे दोनों बच्चे भी मेरे साथ थे. मेरा छोटा बच्चा प्यास के मारे रो रहा था. और सलीमन बूआ ने चंद मिनट पहले ही किस मजे से अपने खूबसूरत थर्मस से पानी पिया था. फिर बड़ी नफासत से रूमाल से मुंह पोंछा, थर्मस बंद कर के बराबर में रखी हुई टोकरी के अंदर रखते हुए भी उन्होंने मेरी या मेरे बच्चों की तरफ नहीं देखा.
मेरा जी चाह रहा था कि पुकारूं, ‘सलीमन बूआ’, मगर उन की ठंडीठंडी बेरुखी ने मेरे होंठ सीं दिए.
‘‘लो बहन, बच्चे को पानी पिला दो,’’ एक औरत भीड़ को चीर कर बड़ी मुश्किल से मेरे पास पहुंची तो मेरी जान में जान आ गई.
‘‘बहन, बहुतबहुत शुक्रिया,’’ मैं इतना ही कह पाई.
‘‘शुक्रिया कैसा बहनजी, बच्चा जान दिए दे रहा था...मैं ने नरेश के पिता से पानी मंगवाया, कोई साथ में नहीं है क्या?’’
‘‘नहीं, मेरे पति मुझे स्टेशन पर मिल जाएंगे. मैं अपने मायके से आ रही हूं.’’
यह बात मैं ने सिर्फ सलीमन बूआ को सुनाने के लिए जरा ऊंची आवाज में कही. मगर वे उसी तरह ठस बनी बैठी खिड़की से बाहर देखती रहीं. बच्चे ने जी भर पानी पिया और मेरी ओर देख कर हंसने लगा.
इतने में ड्राइवर आ गया और उस ने हौर्न बजाया. खुश हो कर बच्चे ने पूछा, ‘‘अम्मा, अब बस चलेगी?’’
‘‘हां, बेटा...अब चलने ही वाली है.’’
‘‘आहा...बस चल रही है,’’ उस ने अपने नन्हेमुन्ने हाथों से ताली बजाई. 2-3 आदमी उस की मासूम खुशी देख कर हंसने लगे. मैं ने बड़ी उम्मीद से सलीमन बूआ की तरफ देखा कि शायद वे भी देखें, शायद उन के चेहरे पर भी मुसकराहट उभरे और शायद वे अपनी बेमुरव्वती अब न निभा सकें. मगर बूआ का चेहरा सपाट था, चिकना स्याह पत्थर, जिस पर हलकीहलकी झुर्रियों का जाल सा बंधा हुआ था. मैं ने सोचा, शायद बराबर में बैठा हुआ 8-9 बरस का लड़का उन का पोता होगा. वे उस से बातें कर रही थीं. वही आवाज, वही अंदाज, वही होंठों का खास खिंचाव...
मेरा नन्हा बाबी ऊंघने लगा था. मैं ने उस को गोद में लिटा लिया और उस के नर्म बालों में उंगलियां फेरते हुए बिना इरादा ही गुनगुनाने लगी, ‘‘चंदन का है पालना, रेशम की डोर, जीवे मेरा राजा बेटा...’’
एकाएक एक अजीब, बहुत अजीब सी बात हुई. सलीमन बूआ के चेहरे पर एक चमक सी आई, उन की नजरें मेरे चेहरे से होती हुई बाबी पर जम गईं. मेरा दिल जोरजोर से धड़क उठा, लव कांप रहे थे. मैं ने सोचा, अब सलीमन बूआ उठीं और अब उन्होंने मेरी गोद से बाबी को ले कर कलेजे से लगाया और अपनी उसी मीठी, सुरीली आवाज में गुनगुनाने लगीं, ‘चंदन का है पालना...’
वह उठीं और बीच की सीट पर मेरी तरफ पीठ किए बैठे आदमी से कहने लगीं, ‘‘ओ बच्चे, तू इधर मेरी सीट पर बैठ जा, मैं उधर बैठ जाऊंगी.’’ वह जरा कसमसाया, मगर सोने की चूडि़यों की चमक और खनक के रोब में आ गया. वह उठ कर बूआ की जगह जा बैठा और बूआ अपना भारी जिस्म समेट कर उस की जगह पर धंस गईं. अब मेरी तरफ उन की पीठ थी.
सबकुछ बदल गया था, मगर उन का जूड़ा नहीं बदला था. वही पहाड़ी आलू जैसा उजड़ा, सूखा जूड़ा और उस के गिर्द लाल फीता. मेरे दिल में गुदगुदी सी उठी, मैं सब कुछ भूल गई. मैं तो बस वही शोख और खिलंदरी परवीन बन गई थी जो दिन में कम से कम 15 बार बूआ का जूड़ा हिला कर ढीला कर दिया करती थी. तब बूआ मुहब्बत भरी झिड़कियां दे कर अपनी नन्ही सी चोटी खोल कर लाल फीता दांतों में दबाए नए सिरे से जूड़ा बनाने लगती थीं. मैं ने हाथ बढ़ा कर उन का नन्हा सा जूड़ा छू लिया तो उन के बदन में बिजली सी दौड़ गई. वे मुड़ीं और घूर कर मेरी तरफ देखा. मैं मुसकराई, फिर हंस पड़ी, ‘‘बूआ...’’ मैं ने आगे कुछ कहना चाहा, लेकिन बड़ी सर्द आवाज में और बड़ी नागवारी से उन्होंने तेज सरगोशी की, ‘‘मुझे बूआ न पुकारना... इस तरह तो मेरी बेइज्जती होगी, कहना हो तो आंटीजी कहो.’’ सहसा मेरे होंठों पर आई हंसी एक खिंचाव की सूरत में जम कर रह गई.
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