कहानी - शायद कुछ नया मिलेगा

विजय अपने किसी जानपहचान वाले की तारीफ करते हुए कह रहा था, ‘‘बड़े दिलदार इंसान हैं हमारे ये भाईसाहब. राजा हैं राजा. बहुत बड़े दिल के मालिक हैं. जेब में चाहे 50 रुपए ही हों, खर्चा 500 का कर देते हैं. मेहमाननवाजी में कभी कोई कमी नहीं करते. बड़े शाही स्वभाव के हैं.’’

मैं समझ नहीं पा रहा था. वह उन के जिस गुण की तारीफ कर रहा था क्या वह वास्तव में तारीफ के लायक था. कहीं वही पुराना अंदाज ही तो नहीं दिखा रहा विजय?

‘‘अभी कुछ दिन पहले ही इन के बेटे की शादी हुई है. इन्होंने दिल खोल कर खर्चा किया. औफिस में सब को खूब शराब पिलाई. खाने पर खूब खर्चा किया. सभी वाहवाह करते हैं.’’

‘‘जी,’’ बढ़ कर हाथ मिला लिया मैं ने, ‘‘आप किस जगह काम करते हैं, क्या करते हैं, मतलब आप अपना ही कारोबार करते हैं या किसी नौकरी में हैं?’’

‘‘इन का अकाउंट्स का काम है, साहब. डी पी मेहता का नाम सुना होगा आप ने. वह इन्हीं की फर्म है.’’

एक लौ फर्म का नाम बताया मुझे विजय ने. उस व्यक्ति को देख कर ऐसा नहीं लगा मुझे कि वह इतनी बड़ी लौ फर्म का मालिक होगा. एक मुसकान का आदानप्रदान हुआ और वे साहब विदा ले कर चले गए. विजय के साथ अंदर आ गया मैं. विजय मेरा साढ़ू भाई है.

‘‘आइए, जीजाजी,’’ सौम्या मेरी आवाज सुनते ही चली आई थी. दीवाली का तोहफा ले कर गया था मैं.

‘‘दीदी ने क्या भेजा है, इस बार मठरी और बेसन की बर्फी तो नहीं बनाई होगी. दीदी के हाथ में दर्द था न.’’

‘‘बनाई है बाबा, और आधे से ज्यादा काम मुझ से कराया है तुम्हारी दीदी ने. अब यह मत कहना सब दीदी ने बनाया है. सारी मेहनत मेरी है इस बार. बेसन में कलछी भी मैं ने घुमाई है और मैदे में मोयन डाल उसे भी मैं ने ही मला है.’’

मैं ने जरा सा बल डाला माथे पर, सच बताया तो बड़ीबड़ी आंखें और भी बड़ी कर लीं सौम्या ने. मेरे हाथ से डब्बा झपट लिया, ‘‘क्या सच में?’’

सौम्या का सिर थपक दिया मैं ने, ‘‘जीती रहो. और सुनाओ, कैसी हो?’’

‘अच्छी हूं’ जैसी अभिव्यक्ति उभर आई सौम्या के गले लगने में. सौम्या का माथा चूमा मैं ने. मेरी छोटी बहन जैसी है सौम्या, मेरी बेटी जैसी.

‘‘और सुनाइए, आप कैसे हैं? इस बार बहुत देर बाद मुलाकात हुई है. फोन पर बात होती है तब भी कभी बाथरूम में होते हैं, कभी पता नहीं कहां होते हैं आप?’’ विजय से पूछा. मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया. बस, मुसकराभर दिया. अभी जो बाहर किसी की तारीफ में इतने पुल बांध रहा था. मेरे सामने, अब चुप था.

सौम्या झट से चाय बना लाई और प्लेट में इडलीसांभर.

‘‘भई वाह, तुम्हारे हाथ के इडलीसांभर का जवाब नहीं.’’

‘‘तुम्हारे मायके वाले पहले हलवाई का काम करते थे क्या? तुम दोनों बहनों को हर पल इन्हीं कामों की ही लगी रहती है. बाजार में क्या नहीं मिलता. सोहन हलवाई के पास अच्छी से अच्छी मिठाई मिलती है. 200 रुपए किलो से शुरू होती है 1000 रुपए किलो तक जो चाहो ले लो. पैसा खर्च करो, क्या नहीं मिलता.’’

सदा की तरह का रवैया था विजय का इस बार भी. उस ने इस बार भी जता दिया था, हमारा परिवार कंजूस है. हम रुपयापैसा खर्च करने में पीछे हटते हैं.

‘‘सोहन हलवाई की मिठाई में मेरी बहन के हाथ का प्यार नहीं है न, जिस की कीमत उस की 1000 रुपए किलो मिठाई से कहीं ज्यादा है.’’

‘‘अपनीअपनी सोच है, विजयजी. मैं आप की सोच को गलत नहीं कहता. आप मेरी सोच का सम्मान कीजिए. अगर इन बहनों को 1000 रुपए किलो वाली चीज 400 रुपए खर्च कर के घर में मिल जाती है तो 600 रुपए भी तो हमारा ही बचता है न. मेरी पत्नी अपने कपडे़ खुद डिजाइन करती है. जो सूट बाजार में 2000 का आता है उसे वह 700 रुपए में बना लेती है, 1300 रुपए किस के बचते हैं, मेरे ही घर के न. मुझे इतनी सुरक्षा अवश्य रहती है कि समय पर मुझे जो चाहिए, इस की दीदी अवश्य हाजिर कर देगी.

‘‘तभी झट से निकाल देगी न जब उस के पास होगा, होगा तभी जब वह अपनी मेहनत से बचाएगी. हमें इतनी मेहनती जीवनसाथी मिली है, आप को इस बात का सम्मान करना चाहिए. जेब में 100 रुपया हो और इंसान 50 का खर्चा करे, इस में समझदारी है या जेब में 50 रुपया हो और इंसान 500 का खर्च करे, इस में समझदारी है? क्या ऐसा इंसान हर पल कर्ज में नहीं डूबा रहेगा? ये जो साहब अभी गए जिन की आप तारीफ कर रहे थे, क्या सच में डी पी मेहता लौ फर्म वाले ही हैं?’’

‘‘कौन, जीजाजी?’’ सौम्या का प्रश्न था.

‘‘अभी जो गए वे डीपी मेहता लौ फर्म में अकाउंट्स का काम देखते हैं. संयोग से ये भी मेहता ही हैं.’’

हंसी आने लगी मुझे विजय की बुद्धि पर. हमें कंजूस कहने के लिए बेचारे ने अकाउटैंट को मालिक बना दिया था. सिर्फ यही समझाने के लिए कि देखिए, दिलदार आदमी क्या होता है, 50 जेब में और खर्चा 500 का करता है.’’

‘‘पिछले दिनों इन के बेटे ने भाग कर चुपचाप मंदिर में शादी कर ली. तो क्या करते मेहता साहब? कैसे बताते सब को कि बेटे ने शादी कर ली है. सब को मिठाई बांट दी और औफिस में सब को खिलापिला दिया. इन की जेब में तो कभी पैसे रहते ही नहीं. सदा किसी न किसी की उधारी ही चलती है. इन की तुलना हमारे परिवार से करने की क्या तुक?’’

क्रोध आने लगा था, सौम्या को, ‘‘पीठ पीछे आप गाली भी इसी आदमी को देते हैं कि जब देखो उधार ही मांगता रहता है फिर जीजाजी के सामने उसी को बढ़ाचढ़ा कर बताने का क्या मतलब? मेहताजी खर्च ही कर पाते तो इज्जत से अपने दोनों बच्चों की शादी न कर लेते. बेटी ने भी लड़का पसंद कर रखा था और बेटे ने भी लड़की कब से समझबूझ रखी थी. मातापिता क्या अंधे थे जो कुछ नजर नहीं आता था. वे तो चाहते ही थे बच्चे अपनेआप ही कुछ कर लें. जब दोनों बच्चों ने भाग कर शादी कर ली तो बस बांट दी मिठाई. क्या इज्जत है उन के परिवार की? पीठ पीछे तो सब गाली देते हैं कि पैसे मांगमांग कर जान खा जाता है यह आदमी. उन का उदाहरण हमें क्यों दे रहे हो तुम, विजय?

‘‘मेरा मायका लुटाता नहीं है और न ही किसी को लूटता है. अगर अपनी मेहनत से कुछ बचाता है तो उस में आप को तकलीफ क्यों होती है. आप के पास तो कोई मांगने नहीं न आता. आप ले आओ न, 1000 रुपए किलो वाली मिठाई, किस ने रोका है?’’

बगलें झांकने लगा था विजय. सौम्या का क्रोध जायज था मगर वहां मेरा रुकना मुझे अब भारी लगने लगा था. सदा ऐसा ही होता है जब भी मैं यहां आता हूं. शायद साल के बाद हर दीवाली पर ही आता हूं और हर बार विजय की जबान से यही रस फूटता है. इस बीच हमारी कभी बात ही नहीं होती क्योंकि हमारे दिल कभी मिले ही नहीं. सौम्या ही कभीकभी आ कर मिल जाती है. मेरे सासससुर की एक दुर्घटना में मृत्यु के बाद सौम्या हमारे पास ही रही थी. मेरी पत्नी से 10 साल छोटी है यह बच्ची और मुझ से 16 साल. अपनी बच्ची ही लगती है मुझे, सौम्या. विजय में यही देखता हूं कि वह दामाद है. तो वह कुछ भी कह सकता है, कर सकता है. 10 साल हो चुके हैं सौम्या की शादी को लेकिन हमारे साथ विजय का रिश्ता ऐसा ही है, फीका और रसहीन.

‘‘तुम मेरे दामाद नहीं हो, विजय. मेरे सामने हर बार बेतुकी अकड़ दिखाने का भला क्या फायदा होता है तुम्हें, जरा सोचो. जो सासससुर मेरे थे वही तुम्हारे भी थे. तुम्हारामेरा रिश्ता बराबरी का है. मुझे जलीकटी सुनाना बनता ही नहीं तुम्हारा क्योंकि मैं भी दामाद हूं उन्हीं का जिन के तुम हो. हम दोनों का तो मीठी जबान का रिश्ता है. मैं ने कहा न तुम मेरे दामाद नहीं हो जो तुम्हारी बातें सहन करूं मैं. इज्जत दोगे, इज्जत मिलेगी. प्यार करोगे प्यार मिलेगा. सौम्या हमारी बेटी जैसी है इसलिए इसे तो हम छोड़ नहीं सकते. बेहतर होगा तुम भी हमारे बन जाओ.

‘‘बेकार तानों में अपना दिमाग खराब मत किया करो. दामाद होने की धौंस भी छोड़ दो क्योंकि जिन को दिखाना चाहते हो वे तो हमारे बीच हैं नहीं. मैं सहूंगा नहीं क्योंकि तुम मेरे दामाद हो ही नहीं. निशाना सही रखो, तभी फायदा होगा. सौम्या और इस की दीदी 2 ही तो बहनें हैं. कभीकभार प्यार से मिल लेने में तुम्हारा क्या जाता है, मेरी तो समझ में ही नहीं आता. 10 साल हो गए तुम आज भी उस रेत की तरह हो जिस पर चाहे कितना सावन बरस जाए, वह सूखी की सूखी रहती है. हमारी कंजूसी से तुम्हें क्या लेनादेना. अपनी चादर में रह कर जीना तो समझदारी है. हम लोगों से कट कर रहोगे तो नुकसान तुम्हारा ही होगा क्योंकि अब हमारे बच्चे भी बड़े हो रहे हैं. कल को वे वही पाएंगे जो आज परोसोगे. अपनी इज्जत अपने हाथ में होती है. आज तुम्हें हम से नाराजगी है कल हमारे बच्चों से भी होगी. अपना व्यवहार देखो विजय. उस का आकलन करो. तुम किसी के लिए क्या कर रहे हो, जरा सोचो.’’

उठ पड़ा मैं. सौम्या की आंखें भर आई थीं.

‘‘यह बच्ची मेरे लिए रो पड़ी है क्योंकि मैं ने इस रिश्ते में कुछ निवेश किया है. खून का रिश्ता नहीं है हमारा लेकिन मुझे पता है, अगर जरूरत पड़ी तो मेरे बच्चों से पहले यह मेरे काम आएगी.

‘‘क्या तुम ने भी अपने ससुराल में ऐसा कोई रिश्ता बनाया है जो कोई नंगे पैर दौड़ कर तुम्हारे लिए चला आए? छोड़ो 1 हजार रुपए किलो मिठाई का रोना. जो अमूल्य है क्या वह है तुम्हारे पास? कोई ऐसा इंसान है जिस की आंख में तुम्हारे लिए पानी आ जाए? सोचना, जरा ठंडे दिमाग से,’’ मैं ने आतेआते सौम्या का माथा चूमा.

‘‘अच्छा बेटा, मन मैला मत करना, खुश रहो.’’

चला आया मैं. हर साल इसी तरह चला जाता हूं. सौम्या से मोह है. उस का कौन है हमारे परिवार के सिवा. सोचता हूं मैं बड़ा हूं. बड़ों को कभीकभी ज्यादा सहना पड़ता है मगर अब बीमार होने लगा हूं. विजय का व्यवहार चुभता है, रातभर सोने नहीं देता. हम ने क्या बिगाड़ा है जो विजय हम से ऐसा व्यवहार करता है. हमारी बेटी उस घर ब्याही है मात्र इसी बात की धौंस. अफसोस होता है कभीकभी कि क्यों कुछ लोग प्यार और स्नेह के सागर के किनारे खड़े रह कर भी मात्र खडे़ ही रह जाते हैं, क्यों नहीं जरा सी डुबकी लगा लेते? क्यों नहीं प्यार का प्रतिकार प्यार और अपनेपन से देते? अफसोस होता है मुझे, सच में बुरा लगता जब विजय जैसे लोग रीते के रीते ही रह जाते हैं.

4 दिन बाद ही दीवाली थी. मैं और मेरा परिवार अपना छोटा सा घर सजाने में व्यस्त थे. पता नहीं कहां से मौसम बिना बरसात की तरह विजय हमारे घर चला आया. साथ में 4 मित्र भी थे. स्वागत किया हम ने और आवभगत भी की.

‘‘किसी को फ्लैट खरीदना था इसी तरह का. ज्यादा खर्चा नहीं करना चाहते. मैं ने सोचा आप का दिखा देता हूं.’’

अवाक् थे हम. विजय की जबान का रस यहां भी चला आया टपकने. क्या उत्तर दें हम. कुछ लोग बहुत ही बेशर्म होते हैं.’’

‘‘सजावट भी अपनेआप ही कर रहे हो. 2-3 हजार खर्च करते, अच्छी सजावट हो जाती. खैर, आप को तो सब अपने ही हाथ से करने की आदत है न.’’

अपने मित्रों के सामने विजय क्या प्रमाणित करना चाहता था, हम समझ नहीं पा रहे थे. मेरे दोनों बेटे भी बारीबारी से कभी उन का और कभी हमारा मुंह देख रहे थे. बड़ा वाला तो चुप भी नहीं रह पाया, ‘‘मौसी को साथ नहीं लाए?’’

‘‘नहीं, वह घर सजा रही है.’’

‘‘क्या आप ने 2-3 हजार रुपए खर्च नहीं किए? घर सजाने वालों को बुला लेते? कम से कम मौसी तो साथ आ जातीं. जहां जाते हैं आप अकेले ही जाते हैं. आप के यही दोस्त सदा साथ होते हैं. क्या खर्चा करने से डर लगता है जो मौसी को साथ नहीं ले जाते. बहुत ज्यादा पैसे खर्च कराती हैं क्या मौसी?’’

इस बार विजय जरा सा अवाक् लगा.

‘‘हमारे फ्लैट बहुत महंगे हो गए हैं, अब 50 लाख से कम में नहीं मिल पाएंगे. आप का बजट कितना है, बताइए. ऋषि नगर में सस्ते फ्लैट बन रहे हैं, उधर शायद, आप का काम बन जाए.’’

एमबीए कर रहा है हमारा बड़ा बेटा. इतने बडे़ बच्चे की जबान पर सब के सामने रोक लगाना आसान नहीं होता.

‘‘मौसाजी, दीवाली के दिन आप हमारे घर खाली हाथ ही चले आए? क्या मौसी ने कुछ भेजा नहीं हमारे लिए? क्या मौसी बड़ी कंजूस हो गई हैं. अभी फोन कर के पूछता हूं, क्या हमारी याद नहीं है मौसी को?’’

मोनू ने झट से सौम्या को फोन भी लगा दिया और नाराजगी भी जता दी.

‘‘मौसी कह रही हैं समय नहीं मिला कुछ बनाने का. अरे, घर में हड्डियां तोड़ने की क्या जरूरत थी. सोहन हलवाई के पास 200 रुपए से ले कर 1 हजार रुपए किलो तक सब मिलता है. वहीं से ले कर भेज देतीं. कंजूस कहीं की. क्या है मौसाजी, आप के साथ रह कर भी मौसी बदली नहीं. हम जैसी कंजूस ही रहीं. मौसाजी, आप ही कुछ मीठा ले आते न.’’

डर लग रहा था मुझे. खिसिया सा गया था विजय. मोनू ने उस के मित्रों को सारा घर घुमा कर दिखाया.

‘‘लकड़ी का काम ही कम से कम 5-6 लाख रुपए का है. पूरे घर का पेंट कराया था 1 लाख रुपया तो तभी लग गया था. 50 लाख रुपए तो फ्लैट की कीमत होगी. ऊपर का काम ही 10 लाख रुपए का है. 60 लाख रुपए तक कीमत होगी हमारी तरफ. इतना बजट है तो बताइए. मैं प्रौपर्टी डीलर का पता बता देता हूं.’’

चुप थे विजय के सारे मित्र. समझ रहा था मैं कि मनुष्य वही भाषा बोले जो सामने वाले को समझ में आए. तमीज और शालीन रास्ता बदतमीज इंसान को समझ कहां आता है.

‘‘नहीं, अब चलते हैं,’’ विजय ने बहाना बनाया.

‘‘नहीं, नहीं, रुको भैया, दीवाली के दिन खाली कैसे भेज दूं,’’ श्रीमतीजी झट से बादाम, नारियल और शगुन के रुपए ले आईं, ‘‘अपनी पसंद की शर्ट ले लेना. हमारी पसंद तो अब पुरानी हो गई है. बच्चे अपनी ही पसंद का पहनें तो उन्हें अच्छा लगता है. वैसे खाना भी तैयार है, खा कर जाते तो अच्छा लगता.’’

‘‘अरे नहीं मां, क्यों इन की दीवाली खराब कर रही हो. इन्हें आप के हाथ का खाना पसंद नहीं. कितनी बार तो इशारा कर चुके हैं. किसी फाइवस्टार होटल में आज इन का लंचडिनर होगा.’’

‘‘बस करो, मोनू, मजाक की भी एक सीमा होती है.’’

‘‘नाराज क्यों हो रही हो, मां. बड़ों से ही तो सीखते हैं न बच्चे. मजाक करना भी तो मौसाजी ने ही सिखाया है.’’

मैं किसी का मन नहीं दुखाना चाहता लेकिन यह भी सच है कि मोनू जिस भाषा का इस्तेमाल मजाक में ही कर रहा था उस से मुझे जरा सा चैन अवश्य मिल रहा था.

संयोग ऐसा बना कि जाते हुए विजय पर जलता हुआ पटाखा गिर गया जिस के चलते कमीज ने आग पकड़ ली. हमारे घर से थोड़ी दूर ही उस ने अपनी गाड़ी पार्क की थी. हम तो विदा कर के खाने में व्यस्त हो गए थे. घंटाभर बीत चुका था तब, जब सौम्या का फोन आया.

‘‘हमारे घर आए तो थे, मौसा जी. उन के 4 दोस्त साथ थे. यहां से गए तो 2 घंटे हो गए हैं. किसी मित्र मंडली में व्यस्त हो गए होंगे. तुम खापी कर सो जाओ न मौसी,’’ मोनू ने फिर मजाक ही किया.

मुझे चिंता होने लगी थी. सौम्या का पति है विजय. हम जो भी करते हैं, वह इसलिए करते हैं क्योंकि सौम्या का सुखदुख जुड़ा है विजय के साथ वरना विजय की चिंता करने का मन तो कभी नहीं होता.

रात हो गई, विजय का पता नहीं चला. परेशानी होने लगी. आजकल तो बच्चेबच्चे के हाथ में मोबाइल है. कम से कम सूचना तो दे देता, वह कहां है. विजय के मित्रों के नंबर भी सौम्या के पास नहीं थे. किस से पूछताछ करे वह. दीवाली की पूजा और रात का खाना सब तनाव में ही खो गया.

रात 10 बजे के आसपास विजय का फोन हमें आया. वह तो हमारे ही घर के पास वाले नर्सिंगहोम में था. आननफानन हम सब भागे.

मेरी पत्नी तो रो पड़ी उसे पट्टियों में बंधा देख कर, ‘‘आप के दोस्त ही हमें बता जाते, कम से कम, हम तभी आ जाते. 6-7 घंटे हो गए आप को ढूंढ़ते...’’

चुप रहा विजय. दोस्तों ने बताया, नहीं बताया, यह हम क्यों सोचें. दीवाली का दिन है. हो सकता है विजय ने ही मना किया हो. हम से मदद मांगना भी तो इसे गवारा नहीं होगा न. सदा जिन के सामने हेकड़ी दिखाता रहा उन्हीं के सामने मनुष्य बेबस, लाचार भी तो दिखना नहीं चाहता.

मोनू जा कर सौम्या और बच्चों को ले आया.

‘‘आप के दोस्त साथ थे, क्या वे मुझे बता नहीं सकते थे?’’ सौम्या की नाराजगी जायज थी.

खैर, प्रकृति ने विजय को अपनों की कद्र करना सिखा दिया था. 1 हफ्ता विजय वहां रहा और हमारा परिवार ही था जो उस की देखरेख कर रहा था. विजय का कोई मित्र हमें नजर नहीं आया, शायद फोन आता हो. विजय के मातापिता भी उस के बड़े भाई के पास थे. उन्हें बता कर परेशान नहीं करना चाहते थे, इसलिए बताया नहीं. चेहरे और गरदन का काफी हिस्सा जल गया था जिस की पीड़ा समय के साथ ही भरने वाली थी. उस की तकलीफ पर हम खुश नहीं थे मगर प्रकृति के इस प्रयास पर हम खुश थे कि शायद अब हमें पुराने विजय की जगह नया और स्नेहिल विजय मिलेगा.   

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