कहानी - प्रथम डेट

शृंगारमेज के आगे खड़ी हम दोनों अपनीअपनी प्रथम ‘डेट’ के लिए शृंगार कर रही थीं. अदिति अपने मंगेतर रीतेष के लिए आकांक्षाओं से भरा दिल लिए, कंपकंपाते हाथों से अपेक्षाओं को सहेजती हुई और मैं पीयूष के लिए आशंकाओं भरा दिल लिए, थरथराते हाथों से अनिश्चितता का दामन पकडे़.

हम दोनों के होंठ यदाकदा कुछ बुदबुदा देते थे. एकदूसरे के आमनेसामने खड़े हो बात करने का साहस दोनों ही नहीं जुटा पा रही थीं. दर्पण की छवि ही बिना एकदूसरे का सामना किए कभीकभार कुछ बोल देती थी.

चेहरे पर पाउडर लगाते हुए अदिति ने ही पूछा, ‘‘कौन सी साड़ी पहन रही  हो, मां?’’

‘‘शायद नीली, हलकी सी जरी वाली...नहींनहीं...’’ वातावरण में गूंजे शब्द खुद को ही अजीब लगे और बोल पड़ी, ‘‘पिं्रटेड सिल्क वाली, क्यों, ठीक रहेगी न? और हां, मेकअप कैसा है?’’ और पूछते ही उस विचार ने कौंध कर अधरों पर थोड़ी सी मुसकराहट छिटका दी कि एक किशोरी से बेहतर सलाह ‘डेट्स’ के शृंगार पर और कौन दे सकता है.

मेरी मुसकराहट ने अदिति को भी अछूता न छोड़ा. वह बोली, ‘‘नहीं, नीली जरी वाली...कुछ तो ‘ग्लैमरस’ होना चाहिए न,’’ और उस ने मेरे गालों को हलके से मल कर रूज को हलका कर दिया और ‘आईशैडो’ को करीबकरीब मिटा ही दिया.

मैं ने दर्पण में देखा तो भौंहें अपनेआप ही सिकुड़ गईं, ‘‘अरे, यह तो मेकअप करने से पहले जैसी हो गई हूं.’’

‘‘हां, मां, यह तुम्हारा असली रूप ही है. आप ही ने तो हमें हरदम यह सिखाया है कि अंदर का रूप वास्तविक होता है, बाहर का नहीं. यह एक महत्त्वपूर्ण भेंट है... उस पर गलत प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए.’’

‘‘अरे, तुम कब से मेरी बात सुनने लगी हो?’’

‘‘मां, घबराओ नहीं,’’ अदिति ने कहते हुए शरारत में कंधे उचका दिए, ‘‘यह तो मुलाकात मात्र है.’’

‘‘अभी तो तुम कह रही थीं कि यह एक महत्त्वपूर्ण भेंट है...मुझे सावधान रहना चाहिए कि उस पर गलत प्रभाव न पड़े.’’

अदिति भी हंस पड़ी और मेरी नकल कर के बोली, ‘‘आप कब से मेरी बात सुनने लगी हैं?’’

तनाव थोड़ा सा कम हो रहा था पर हाथों के कंपन ने फिर भी बिंदी गिरा ही दी.

अदिति बोली, ‘‘मां, थोड़ी देर बैठ जाओ या थोड़ी देर ‘योगा’ कर लो.’’

‘‘क्या? मैं और योगा? अरे, कब देखा है तुम ने मुझे योगा करते हुए?’’

‘‘हां मां,’’ अदिति ने गंभीरता से कहा, ‘‘इस से तुम्हें आराम मिलेगा. जूली रोज योगा करती है. वह कहती है कि इस से तनाव नहीं रहता.’’

थोड़ा सा तनाव दूर होने की हलकी सी जो शांति उपजी थी, वह जूली के नाम से ही कपूर की तरह उड़ गई. शरीर की मांसपेशियां सूखी लकड़ी की तरह अकड़ गईं. मुंह का स्वाद न चाहते हुए भी कसैला हो गया. अपने को शांत रखने की कोशिशों के बावजूद आवाज में व्यंग्य उभर आया, ‘‘हां, जूली को ही योगा की ज्यादा जरूरत है, तुम्हारे पिता के साथ रहने के लिए. उसी को ही योगा से उत्पन्न शांति की जरूरत है. मैं तो अपने हिस्टीरिया के साथ ही सब से ज्यादा आरामदायक स्थिति में हूं, मुझे तो यही आता है.’’

‘‘मुझे खेद है, मां,’’ अदिति ने जल्दी से मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘पता नहीं क्यों मैं ने उस का नाम ले लिया. यह मेरी मूर्खता ही है.’’

चेहरे पर मुखौटा चढ़ा लेने के बावजूद बेचैनी छिप नहीं रही थी. होंठ वक्र हो कर थरथरा रहे थे, गले की नसें बैठने का नाम नहीं ले रही थीं. अवांछित आंसुओं को रोकने की कोशिश में आंखें फड़फड़ाए जा रही थीं, सबकुछ धुंधला पड़ रहा था.

दूर से आती अदिति की आवाज ने मुझे चौंका दिया, ‘‘शायद मैं भी रीतेष के साथ अपनी प्रथम डेट की वजह से ‘नर्वस’ हूं.’’

सहसा मैं सचेत हो गई. अपने पर ही कोफ्त हुई कि क्यों ऐसा होता है?

किसी तरह अपने को संभालती हुई बर्फीली मुसकान के साथ मैं बोली, ‘‘सब ठीक है बेटा, जूली तुम्हारे पिता की पत्नी है,’’ और जोर से अपने होंठों को दबा अगला वाक्य--‘हालांकि वह इतनी छोटी है कि तुम्हारी बहन जैसी लगती है,’ निकलने से रोक पाई.

बेटी की आंखों में झलकी ममता और दया का मिश्रण मैं झेल न सकी. शीशे की ओर मुंह फेर आंखों के नीचे की लाइन मिटाने लगी. मिटातेमिटाते थक गई पर वह न मिटी. तब आभास हुआ कि यह मिटने वाली लाइन नहीं, यह तो विवाद के उन थपेड़ों की निशानी है जो अब उम्रभर अंकित रहेगी.

‘‘मां, मां, आप ठीक तो हैं न?’’ अदिति की आवाज कानों से टकराई

और न चाहते हुए भी मैं बोल पड़ी, ‘‘हां, ठीक ही तो हूं. 42 साल की हो गई हूं. पति 22 साल का साथ मेरे से आधी उम्र की लड़की के लिए छोड़ गए हैं. ठीक ही तो है, उस की तो उम्र ही नहीं, वजन भी शायद मेरे से आधा होगा.’’

‘‘औपरेशन से पैदा हुए 3 बच्चों के बाद मांसपेशियां कसाव के दायरे में आने का नाम नहीं लेना चाहतीं, जवानी दामन छोड़ दूर खड़ी हो गई है. शादी से पहले कभी डेट नहीं की और शादी के बाद तो उस का प्रश्न ही नहीं उठता. तुम्हारे पिता ही सबकुछ थे. आज जिंदगी में पहली बार डेट पर जा रही हूं. वह आदमी, जो कुछ ही मिनटों में मेरा द्वार खटखटाएगा,  समझ में नहीं आता कि उस से क्या कहूंगी?’’

‘‘मां, याद करो, आप ने हमें क्या शिक्षा दी है,’’ अदिति मुझे उखड़े हुए मूड से निकालने का प्रयत्न करती हुई बोली.

थोड़ी सी मुसकराहट वापस आई, ‘‘यही कि ज्यादा चपड़चपड़ न करूं?’’

‘‘ओह, मां.’’

‘‘पगली, मैं तो मजाक कर रही थी.’’

‘‘मां, कृपया आज कोई मजाक नहीं, ठीक है न. आज आप सिर्फ आप ही रहें,’’ और उस ने वे ढेर सारे उपदेश, जो कभी मैं ने उसे दिए थे और उस के पहले मेरी मां ने मुझे दिए थे, दे डाले. फिर शरारत से बोली, ‘‘यदि आप ज्यादा नर्वस हों तो बोलिएगा मत, चुपचाप सुनती रहिएगा. पुरुषों को अच्छा लगता है, जब कोई उन्हें सुनता रहे. अपने को वे महत्त्वपूर्ण समझने लगते हैं,’’ कहते हुए अदिति अपने बाल बनाने लगी.

मैं फिर आशंकाओं के अंधेरे कुएं में गिरती चली गई. अपनी आवाज उसी अंधेरे कुएं से आती लगी, ‘यह कैसी विवशता है. अनिल ने तो मुझे अपने जीवन से झाड़बुहार कर कचरे की तरह बाहर फेंक दिया और मैं सारी कटुताओं के साथ उसे अपने में समाए बैठी हूं. किसी भी तरह आंचल झटक कर दूर नहीं हो पा रही हूं.’

अदिति मेरी ओर मुड़ी और एक बार जो मेरे बोलने का प्रवाह चालू हो गया था, वह अबाध गति से बहने लगा, ‘‘अदिति, हालांकि शादी के दूसरे साल से ही अनिल विश्वासघात करने लगे थे, लेकिन मैं अपने को ही दोषी मान कर उन के अनुरूप ढलने का निरंतर प्रयास करती रही.

‘‘लोग कहते हैं कि आदमी का प्यार उस की जिह्वा में समा जाता है. इसलिए मैं ने उन की पसंद की खाने की चीजों में निपुणता हासिल की.

‘‘हर तरह से, हर कोण से अपने को बदला, पर कहीं कोई अंतर न पड़ा.

‘‘उन का अलमस्त, फक्कड़ स्वभाव, उन की इश्कबाजी, जो शादी के प्रथम वर्ष में गुदगुदा जाती थी और जिसे मैं ‘निधि’ की निधि समझे बैठी थी, वही मेरी सौतन बन बैठी. उस निधि पर डाका डालने, उसे हड़पने कई जूलियां आईं और गईं.

‘‘हर प्रेम संबंध धीरेधीरे दिल को नम व जड़ करता गया. फिर 3 बच्चों के साथ जाती भी तो कहां? सच पूछो तो जाना भी नहीं चाहती थी कहीं. अनिल के साथ कुछ इस तरह जुड़ी थी कि सब यातनाओं के बाद भी उसे जीवन का नासूर समझ काट न सकी.’’

अदिति ने सांत्वना भरे अपने हाथों से मेरे हाथों को सहलाया तो लगा कि बच्ची इस माहौल में रह कर अपनी उम्र से बड़ी हो गई है. अनायास मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘बेटा, ऐसा नहीं कि मैं तुम बच्चों के चेहरे पर आए भावों को पढ़ नहीं पाती. मैं जानती हूं कि तुम्हें अपने पिता पर रोष है. रोष क्या मुझे कम है? पर स्नेह तंतु तोड़ने में अपने को असमर्थ पाती हूं.

‘‘मित्रों और हितैषियों ने कई बार समझाया कि मैं अपनी जिंदगी की बागडोर खुद संभालूं, पर संभालती तो कैसे. आत्मप्रताड़ना से फुरसत मिले तब न.

‘‘आत्मग्लानि, रोष, कड़वाहट से भरे दिल में किसी और भावना के लिए कोई जगह ही नहीं बची थी. जिंदगी का हर पहलू इन से भरा हुआ था कि एक सुबह आंखें खुलीं और पाया कि इस दौरान  धीरेधीरे मैं ने सब मित्रों को दूर खिसका दिया. तुम लोगों के चेहरों पर भी मेरे प्रति लुकीछिपी अधीरता दिनबदिन ज्यादा उजागर होने लगी. तब लगा, मेरा यह रोष, मेरी यह प्रताड़ना सिर्फ मुझे ही खा कर संतुष्ट नहीं, मेरे परिवार की ओर भी मुंहबाए खड़ी है.

‘‘उस दिन मैं यह जान गई कि अब मुझे इस दलदल से निकलना ही पड़ेगा और उसी दिन से शुरू हो गया था आत्मसम्मान को पाने का अनंत सफर.

‘‘जिस दिन मैं पहली बार नौकरी पर गई थी, आत्मविश्वास फिर डगमगा गया था. पर तुम लोगों के उल्लसित चेहरे देख डगमगाते कदमों को सहारा मिला था.

‘‘अदिति, यहीं पर दफ्तर में पीयूष से मुलाकात हुई. तुम्हारे पिता से बिलकुल अलग व्यक्तित्व, शांत, गंभीर, अल्पभाषी पर अपनी लगन के पक्के. 2 बार मना करने पर भी आज शाम के रात्रिभोज के लिए पूछ बैठे.

‘‘अब तुम्हीं बताओ, उम्र के इस दौर में कैसे परियों के देश में पहुंच जाऊं? कहां से वह उत्साह लाऊं, जो कब का मुझे छोड़ कर जा चुका है? नहीं, अब मुझ में और निराशाओं को झेलने की शक्ति नहीं रही. मैं न जा पाऊंगी. यह प्रथम डेट शुरू होने से पहले ही समाप्त हो जाए तो बेहतर है.’’

मैं अपना मुंह छिपाते हुए मुड़ने ही वाली थी कि अदिति की दर्पण से झांकती 2 बेबस आंखें मेरे पैरों में बेड़ी डाल गईं और मैं वैसे ही, वहीं जकड़ी खड़ी रह गई.

अदिति की आंखें मुझे बरबस खींचे जा रही थीं. भावनाओं के ज्वारभाटे पर किसी तरह अंकुश लगा कर आवाज को सामान्य बनाते हुए नए संकल्प के साथ मैं बोली, ‘‘नीली हलकी जरी वाली साड़ी ही ठीक रहेगी, कुछ तो ग्लैमरस होना चाहिए न.’’

क्षणभर में अदिति मेरी बांहों में झूम रही थी. मैं ने प्यार से उस के माथे को चूमा. उस के बालों को सहलाते हुए अचानक मेरी नजर दर्पण पर पड़ी, जहां से झांकती अपनी आंखों को देख मैं चौंक पड़ी. उन में प्रथम डेट का भय नहीं था, बल्कि थी आशा की एक किरण.   

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.