कहानी - कुछ तो हुआ है

साढ़े 10 बजे मैं सोने की तैयारी कर रही थी कि पार्थ आया और मेरे व अनिल के बीच में आ कर लेट गया. अनिल ने हंसते हुए उसे छेड़ा, ‘‘तुम्हें सारा दिन टाइम नहीं मिला क्या, जो इस समय अपनी मम्मी की नींद खराब कर रहे हो?’’ पार्थ ने फौरन जवाब दिया, ‘‘मेरी मरजी. मेरी मां है. मेरा जब मन होगा उन के पास आऊंगा. ठीक है न, मम्मी?’’

मैं ने उसे अपने से लिपटा लिया, ‘‘और क्या, मेरा बच्चा है. जब उस का मन होगा, मेरे पास आएगा.’’ इतने में रिया भी मेरे दूसरी तरफ लेट कर  मुझ से लिपट गई थी. अब दोनों के बीच में थी मैं. अनिल ने फिर दोनों को चिढ़ाया, ‘‘जाओ भई, तुम लोग, अपनी मां को सोने दो. याद नहीं है डाक्टर ने इन्हें टाइम पर सोने के लिए कहा है.’’

इस बार रिया ने कहा, ‘‘यह हमारा फैमिली टाइम है न, पापा. इसी समय तो इकट्ठा होते हैं चारों. है न मां? दिनभर तो सब कुछ न कुछ करते रहते हैं, थोड़ा सा लेट हो जाएगा, तो चलेगा न, मां?’’ मैं ने सस्नेह कहा, ‘‘और क्या, जब तक मन करे रहो यहां, मुझे कोई जल्दी नहीं है सोने की.’’ ‘‘सच?’’ पार्थ की आंखें चमक उठीं, ‘‘देखा पापा, आप बेकार में मम्मी के सोने की रट लगा रहे हैं. वैसे मां, आप को कुछ तो हुआ है? है न रिया?’’

‘‘हां मां, कुछ तो हुआ है.’’

मैं बस मुसकरा कर रह गई. सवा 11 बजे तक हम चारों दिनभर की बातें करते रहे. यह हमारा रोज का नियम है. फिर बच्चे अपने कमरे में चले गए तो अनिल ने कहा, ‘‘अब सो जाओ जल्दी. तुम्हें लेटते ही नींद आती भी नहीं है. ये दोनों तुम्हारा सोना रोज लेट करते हैं.’’

‘‘तो क्या हुआ, जब नींद आएगी, सो ही जाऊंगी. नींद का क्या है जब आनी हो, आ ही जाएगी.’’

‘‘जया, ये तुम ही हो न. सचमुच, तुम्हें कुछ तो हो गया है. चलो, गुडनाइट.’’ इतना कह कर अनिल तो हमेशा की तरह लेटते ही सो गए. मैं रोज की तरह काफीकुछ सोचतीविचारती रही. बहुत कोशिश करती हूं अनिल की तरह हो जाऊं, आंख बंद करते ही नींद आ जाए. लेकिन नहीं, पता नहीं क्यों दिनभर की बातें इसी समय याद आती हैं.

दिन में तो मन घरगृहस्थी के कई कामों में उलझा रहता है, रात को लेटते ही पता नहीं किन खयालों में उलझती चली जाती हूं. अभी तो मैं यही सोचने लगी कि आजकल तो इन तीनों की जबान पर यही शब्द रहते हैं कि कुछ तो हो गया है मुझे. कितनी ही बातों पर मेरी प्रतिक्रिया देख कर तीनों का यह कहना कि मुझे कुछ हो गया है, याद कर के रात के इस अंधेरे में भी मेरे होंठों पर अनायास ही ऐसी मुसकराहट आ गई जिस में आंखों की नमी भी शामिल है.

मैं जानती हूं मुझ में हद से ज्यादा बदलाव आ गया है. मुझे तो साढ़े 10 बजे तक सो जाना, सुबह साढ़े 5 बजे तक उठना होता था, सैर पर जाना होता था, व्यायाम करना होता था, फिटनैस का नशा था मुझे. मेरा हर काम घड़ी की सूइयों से बंधा होता था.

उस में जरा सा भी परिवर्तन होने पर मेरा मूड खराब हो जाता था. मेरा खानपान, लाइफस्टाइल पूरी तरह से फिटनैस से जुड़ा रहा है हमेशा. लेकिन अब इन नियमों को एक तरफ रख अपने जीवन के इस मोड़ पर खुद को पूरी तरह से बदल एकएक पल को जी रही हूं. लगता है इस समय का एकएक पल कीमती है. कीमती ही क्या, बल्कि अनमोल है. एक पल भी खराब न होने पाए.

रिया ने अभीअभी सीए कर के औफिस जाना शुरू किया है. पार्थ बीकौम कर के जीमैट की तैयारी कर रहा है. पार्थ का सपना यही है कि वह विदेश जा कर पढ़ाई कर के वहीं सैटल होगा. उस ने साफसाफ कह दिया है कि वह यहां नहीं रहेगा. उस के कई अच्छे दोस्त बाहर जा चुके हैं. इस को भी बाहर जाने की धुन सवार है. उस की धुन में अनिल पूरी तरह से उस के साथ हैं. 

मेरी इच्छा को देख कर रिया उसे बाहर सैटल होने के पक्ष में उत्साहित नहीं करती. बेटी है न, मां के कुछ कहे बिना ही मां के दिल का हाल जान लेती है. वह कई बार कहती है, ‘बाहर पढ़ने जरूर जाओ पर सैटल तो यहां भी अच्छी तरह से हो सकते हो न.’ उस के यह कहते ही दोनों में बहस हो जाती है. सो, रिया अब इस विषय पर चुप ही रहने लगी है.

पार्थ ने अपनी पढ़ाई में रातदिन एक कर रखा है. उस की लगन देख कर खुशी होती है पर जब कुछ महीनों बाद वह विदेश चला जाएगा तो...इस के आगे सोचने से मेरे दिल धड़कने लगता है, सांस थमती सी लगती है, जहां बैठी हूं, बैठी ही रह जाती हूं. शरीर की सारी ताकत जैसे इसी तो पर निचुड़ सी जाती है. पर अब जब मुझे यकीन हो गया है कि पार्थ को बाहर सैटल होने से कोई नहीं रोक पाएगा तो मैं ने इस विषय पर अपनी प्रतिक्रिया देनी छोड़ दी है. बस, इसी एहसास के साथ मुझे कुछ होता गया है.

 ब जब यह स्पष्ट है कि रिया का विवाह तो 2-5 वर्षों में हो ही जाएगा और पार्थ विदेशी धरती पर उड़ान भरने की तैयारी कर ही रहा है तो मैं अब दिल को तसल्ली देने की निरर्थक कोशिश में इस समय का एकएक पल जी रही हूं. उस के बाद तो क्या होगा, यह सोचना तो मूर्खता है. पर मां हूं न, हार जाती हूं खुद को समझाने में. इसलिए खुद को बदलना ही विकल्प लगता है.

अब जब अनिल के टूर पर जाने के बाद पार्थ की फरमाइश शुरू हो जाती है कि ‘मम्मी, चलो न, पिज्जा और्डर करते हैं.’ तो मैं उसे अब पहले की तरह मना नहीं कर पाती. मैं अपनी हैल्दी डायट को एक किनारे रख सहमति देती हूं तो वह चहक उठता है, ‘वाह मम्मी, क्या हो गया है आप को.’ पहले मेरी शर्त होती थी, ‘मंगवा लो, पर मुझे मत कहना खाने के लिए, मैं नहीं खाऊंगी, इतनी कैलोरीज होती है, तुम्हीं खाओ.’ तो पार्थ बहुत नाराज होता था. वह कहता था, ‘एक दिन मेरे साथ खा लोगी तो कुछ हो नहीं जाएगा.’ मैं हमेशा हलकाफुलका खाना ही खाती थी. उस के कहने पर अब मैं भी उस के साथ बैठ कर खाती हूं. वह बहुत खुश होता है. अपने स्पैशल मील की फोटो खींच कर हमारी फैमिली के व्हाट्सऐप ग्रुप पर अनिल और रिया को दिखाने के लिए भेजता है. साथ में, मैसेज भी होता है, ‘‘देखो, मांबेटा कितना एंजौय कर रहे हैं.’’ फौरन रिया और अनिल का जवाब आता है, ‘‘कुछ हो गया है जया को’’, ‘‘मम्मी, क्या हो गया है आप को.’’

आजकल पार्थ कोचिंग जाता है र घर में भी पढ़ाई में व्यस्त रहता है. बीचबीच में उस की फरमाइशों का इंतजार रहने लगा है मुझे. कभी अचानक कहेगा, ‘मम्मी, चलो, आइसक्रीम खाने कूल कैंप चलते हैं.’ मैं उस की स्कूटी पर बैठ कर फौरन चल देती हूं. वह स्कूटी पर मेरे बैठने पर हैरान तो होता है क्योंकि कमरदर्द के चलते मेरी डाक्टर ने मुझे स्कूटी पर बैठने के लिए मना किया है. मुझे कोई झटका न लगे, इस बात की वह परवा करता है. कभी वह फ्रैंड्स के साथ फिल्म का नाइटशो देखने जाने की बात करता है तो मैं पहले की तरह मना नहीं कर पाती. अनिल तो कह भी देते हैं, ‘किसी बात के लिए तो कभी डांटो उसे.’ इस पर वह मुझ से लिपट जाता है. आजकल सुबह से रात तक मेरे मन में यही चलता रहता है कि कैसे रहती हैं वे मांएं जिन के बच्चे सात समंदर दूर जा कर बस जाते हैं. फोन पर या स्काइप पर बात कर के तसल्ली होती होगी?  बच्चों का यह स्पर्श, गले में बांहें डाल कर लिपट जाना, चिपटना, फरमाइश करना, उन का परेशान करना, उन का प्यार करना जब याद आता होगा, कैसे दिल को समझाती होंगी वे मांएं. आजकल मुझे अकेले रहना अच्छा लगने लगा है. आंखें कभी भी बरस पड़ती हैं, कोई देखने वाला तो नहीं होता न. किसी से मिलने पर, किसी फ्रैंड के साथ बैठने पर यही टौपिक छिड़ जाता है जिस से मैं आजकल बचती घूमती हूं.

कईकई दिनों तक मेरे किसी से न मिलने पर रिया टोक ही देती है, ‘मम्मी, जाया करो न किसी फ्रैंड से मिलने. क्यों इस के साथ हमेशा घर में बैठी रहती हो?’ सच तो यही है कि ऐसा लगता है कि किसी और के साथ तो कुछ दिनों बाद कभी भी बैठजाऊंगी, पार्थ के साथ फिर कहां समय मिलेगा. ये पल तो फिर कभी भी नहीं आएंगे न. जीवन की आपाधापी में फिर उस के पास समय कहां होगा. जानती भी हूं कि हर बच्चे को अपना जीवन अपने ढंग से जीने का अधिकार है. मैं ने खुद अपनी सहेलियों, जिन के बच्चे विदेश में हैं, को कई बार तसल्ली दी है कि खुद को व्यस्त रखो, बच्चों को अपना सपना पूरा करने दो, फोन पर तो बात होती ही है न, वगैरावगैरा. पर जब बात खुद पर आई है तो अपने दिल को समझाना, अपने कलेजे के टुकड़े से दूर होने के लिए खुद को तैयार करना आसान नहीं लग रहा.

मैं ने समय देखा, साढ़े 12 बज रहे थे. नींद का नामोनिशान नहीं था. फिर भी आंखें बंद कर ही लीं. कल फिर एकएक पल को जीना है, दिनभर फिर उस के आसपास रहना है, उस से जुड़े एकएक एहसास में डूबे अपने मन को समझाते हुए, उस की हर हरकत, हर जिद, हर स्पर्श, उस की मुसकराहट, उस की नाराजगी, उस की हर बात अपनी आंखों में समेटते हुए और कई बार उस की हैरतभरी आवाज में, ‘मां, आप को कुछ तो हुआ है,’ सुनते हुए.  

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