कहानी - एक था बचपन

पता नहीं क्यों मुझे पहली बार उन्हें देखते ही घर में रखी दुर्गा मां की तस्वीर याद आ गई थी. उनका बेहद गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, मझला कद और सलीके से बांधी गई साड़ी. एक गरिमामय व्यक्तित्व लगा था मुझे, इसलिए मैं भी उन्हें प्यार से ‘अम्मी’ कहकर बुलाती थी.
अपने बचपन की स्मृतियों में ख़ासकर जब बचपन की सहेलियों को याद करती हूं, तो मुझे याद आती है परवीन. उसकी याद जैसे अभी तक हूबहू वही है. उस समय मैं कक्षा आठवीं में थी और पिताजी का तबादला देवास से रायपुर हुआ था और हम लोग रायपुर आ गए थे. जैसा कि नए स्कूल में प्रवेश के समय कुछ घबराहट होती है, मैं भी कुछ सकुचाई-सी अपनी कक्षा में आई थी, पर उसी समय परवीन ने मेरा हाथ थाम लिया था.
“क्या तुम ही वो न्यू कमर हो, जिसका मैम ज़िक्र कर रही थीं?”

“हां.” अभी भी मेरी आवाज़ में हिचकिचाहट थी.

“चलो, तुम अब मेरे पास बैठो.” उसने बड़े अपनेपन से अपनी बगल में मेरे लिए जगह बना दी थी. बस, धीरे-धीरे मेरी भी हिचक दूर होने लगी थी. यह तो मुझे बाद में ही पता चला था कि परवीन का घर भी मेरे घर के पास ही है. हम लोग सरकारी क्वॉर्टर में रहते थे और कुछ ही दूर पर परवीन का एक पुराना बंगलेनुमा घर था. इस प्रकार हम दोनों क़रीब रोज़ ही स्कूल साथ आया-जाया करते थे.

कभी-कभार वह साइकिल पर आती, तब मैं उसके साइकिल के कैरियर पर बैठती. साइकिल उस समय मैं भी चला लेती थी, पर इतनी तेज़ रफ़्तार से नहीं. परवीन के साथ मैंने साइकिल ही नहीं, कई और काम भी सीखे. वह चूंकि अब तक अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ी थी, तो बेझिझक अंग्रेज़ी बोलती थी. एक दिन मैंने उससे कहा था, “तुम तो बहुत अच्छी अंग्रेज़ी बोलती हो, पर मैं तो इतनी फ्लुएंट अंग्रेज़ी नहीं बोल पाती हूं.”

“कोई बात नहीं, मैं तुमसे अंग्रेज़ी में बात किया करूंगी, तो तुम्हारी भी प्रैक्टिस हो जाएगी. बस, तुम गणित और विज्ञान में मेरी मदद कर देना.” फिर अंग्रेज़ी ही क्या, उसने मुझे थोड़ी-बहुत उर्दू भी सिखाई.

हम दोनों परिवारों के रहन-सहन में ज़मीन-आसमान का अंतर था. मेरा परिवार कट्टर ब्राह्मण था. हम लोग सभी व्रत-त्योहार और तिथि का पालन करते थे. अम्मा सुबह नहा-धोकर चौके में रसोई बनातीं, उस समय रसोईघर में किसी का भी प्रवेश नहीं हो सकता था. भोजन पूरा सात्विक बनता था. प्याज़-लहसुन का तो सवाल ही नहीं था. पिताजी तिलक लगाकर पूजा करते, तो उस समय हम बच्चों को बोलने की इजाज़त नहीं होती थी और फिर घर में दादी का अनुशासन तो था ही.

इसके विपरीत परवीन घर की इकलौती संतान थी. उसके पिताजी की पुरानी ज़मींदारी थी, अभी भी वे शिकार के शौकीन थे. एक खुली जीप में अक्सर बाहर जाते हुए दिख जाते थे. हां, उसकी अम्मी ज़रूर पहली बार में ही मुझसे बड़े अपनत्व से मिलीं. मेरा नाम श्यामली था, तो वो मुझे प्यार से ‘शम्मी’ कहकर संबोधित करती थीं. पता नहीं क्यों मुझे पहली बार उन्हें देखते ही घर में रखी दुर्गा मां की तस्वीर याद आ गई थी. उनका बेहद गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, मझला कद और सलीके से बांधी गई साड़ी. एक गरिमामय व्यक्तित्व लगा था मुझे, इसलिए मैं 
भी उन्हें प्यार से ‘अम्मी’ कहकर बुलाती थी.

परवीन स्कूल में टिफिन में अच्छा मसालेदार खाना लाती थी. कभी चटपटा पुलाव, तो कभी मसालेदार सब्ज़ी के साथ परांठे. शायद मैंने उसके साथ ही प्याज़ व लहसुन खाना सीखा था. धीरे-धीरे मुझे उसके घर का खाना इतना अच्छा लगने लगा कि मैं ख़ुद ही किसी ख़ास व्यंजन की फ़रमाइश कर देती. इसके विपरीत उसे अम्मा के हाथों के बने बेसन के लड्डू, मठरी और कम मसाले के व्यंजन पसंद आते.

हमारे घर पास-पास में थे, तो स्कूल की छुट्टियों में भी हम एक-दूसरे के घर आया-जाया करते थे. चुलबुली और शैतान परवीन को हमारे यहां अम्मा और दादी भी पसंद करने लगी थीं. वह थी ही ऐसी कि अपने व्यवहार से सबका दिल जीत लेती थी.

हमारे स्कूल में सोशल गैदरिंग होनेवाली थी, तब परवीन ने पूछा था, “श्यामली, क्या तुम डांस में हिस्सा लोगी?”
“डांस!” मैं चौंक गई थी. डांस तो मुझे आता ही नहीं था और ऊपर से डांस के नाम से हमारे पूरे परिवार को चिढ़ थी. एक बार मैंने पिताजी से डांस सीखने जाने की बात कही थी, तब दादी ख़ूब बिगड़ी थीं, “अरे! क्या नचनिया बनना है तुझे, कोई डांस-वांस नहीं सीखना है. स्कूल जाओ और पढ़ाई करो बस.” इसके बाद तो मैं भी चुप हो गई थी, पर पता नहीं क्यों अब मन हो रहा था कि काश, मैं भी डांस करना जानती, तो आज स्कूल के कार्यक्रम में भाग ले पाती. परवीन को देखो, हर काम में अव्वल है. पढ़ाई हो, खेलकूद या कोई और एक्टिविटी, सब में भाग लेती है, ईनाम मिलते उसे. पूरा स्कूल उसके नाम से परिचित था.

शायद मेरे मन को पढ़ लिया था परवीन ने इसलिए उसने फिर कहा, “तुम अगर डांस सीखना चाहो, तो सीख सकती हो. मेरे घर पर आ जाना, अम्मी सिखा देंगी.”

“अम्मी!” मैं हैरान थी.

“हां, अम्मी ने ही तो मुझे सिखाया है.” वह फिर बोली.

“पर…” मैं अभी भी हिचकिचा रही थी. सोच रही थी, स्कूल में डांस करने के लिए अपने घर में कैसे राज़ी कर पाऊंगी सबको. दूसरे दिन स्कूल जाते समय जब मैंने परवीन को आवाज़ दी, तो उसकी अम्मी ने ही दरवाज़ा खोला था, “शम्मी, अगर तुम्हें डांस सीखने का शौक़ है, तो मैं तुम्हारे घर पर बात कर लूंगी. लड़कियों के स्कूल में ही तो कार्यक्रम है, वे लोग मना नहीं करेंगे.” मैं कुछ जवाब नहीं दे पाई, पर शायद उन्होंने मेरे मन की बात पढ़ ली थी.

और सचमुच शाम को अम्मी हमारे घर आ गई थीं. अम्मा तो उन्हें देखकर हैरान थीं. उन्होंने दादी के साथ ही साथ अम्मा के भी पैर छूए थे. दादी ने गद्गद् होकर उन्हें ढेरों आशीर्वाद दे डाले थे. अम्मा ने आदर के साथ उन्हें बिठाया. पूछा कि चाय-शरबत क्या लेंगी, “कुछ नहीं दीदी, बस यह कहने आई थी कि बेटी का अगर इतना मन है, तो उसे डांस सीखने दीजिए ना. आख़िर घर में भी तो शादी-ब्याह में लड़कियां नाचती-गाती हैं. फिर वह तो लड़कियों का ही स्कूल है. बस, मेरे यहां घर पर ही परवीन के साथ प्रैक्टिस कर लेगी.” उनके कहने का ढंग इतना प्रभावशाली था कि अम्मा क्या, दादी भी मना नहीं कर पाईं.

बस, उस दिन से मेरी डांस की प्रैक्टिस परवीन के साथ शुरू हो गई. परवीन तो ख़ैर पारंगत थी, पर मुझे हर एक स्टेप सीखने में व़क्त लग रहा था, तब वह मेरा मज़ाक भी बनाती, पर अम्मी मुझे हौसला देती रहीं और सिखाती रहीं.

स्कूल में हम दोनों का डुएट डांस था. प्रैक्टिस के बाद मैं भी अच्छी तरह डांस करना सीख ही गई थी. स्कूल में ज़ोरों-शोरों से तैयारियां चल रही थीं. मेरी और परवीन की भी डांस की अच्छी प्रैक्टिस हो गई थी. अम्मी ने हमारी ड्रेसेस भी तैयार करवा दी थीं.

इसी बीच एक बड़ा धमाका हो गया. पिताजी के एक सहकर्मी शर्माजी एक दिन हमारे घर आए और अम्मा और दादी के सामने ही उन्होंने पिताजी से कहना शुरू कर दिया, “यह आप श्यामली को कहां भेज रहे हैं? पता भी है आपको इसकी सहेली के बारे में?”

“सहेली, कौन परवीन?” अम्मा ने पूछा था, फिर आगे बोली थीं, “हां, शाम को परवीन के यहां जाती है. असल में डांस सीख रही है. स्कूल में प्रोग्राम है न, उसमें भाग लेगी. परवीन की मां ने ही ज़ोर दिया था. वे ख़ुद ही सिखा रही हैं.”

“परवीन की मां!” शर्माजी एक व्यंग्यपूर्वक हंसी हंसे थे.

“पता है कौन है वो?”

“कौन है?” अब तो दादी भी चौंकी थीं.

“पहले वो एक वेश्या थी. परवीन के पिता यानी मिर्ज़ाजी ने एक वेश्या से शादी कर ली है, इसीलिए तो लोगों का उनके घर आना-जाना नहीं है. अब मिर्ज़ाजी की पत्नी बन गई है, तो शरीफ़ महिला तो नहीं बन गई न?”

“वेश्या?” अम्मा, पिताजी, दादी सबके चेहरे स़फेद पड़ गए थे.

“हां, मैं तो श्यामली को भी आगाह करना चाह रहा था कि बेटा इस लड़की से दोस्ती ठीक नहीं. चलो बच्चियों तक तो ठीक था, पर अब उसके घर जाकर उसकी मां से डांस सीखना. ख़ैर, जैसी आप लोगों की मर्ज़ी.”

शर्माजी तो कहकर चल दिए, पर अब पूरे घर में तूफ़ान आ गया था. पिताजी ने उसी व़क्त फ़रमान जारी कर दिया, “अब कोई डांस-वांस नहीं और न ही उस लड़की से दोस्ती, समझी. नाक कटवा दी हमारी.”

उधर दादी अलग बड़बड़ा रही थीं और अम्मा को खरी-खोटी सुना रही थीं. मेरी तो सिट्टी-पिट्टी ही गुम थी. अभी तक वेश्या का पूरा मतलब भी मेरी समझ में नहीं आ रहा था और न पूछने की हिम्मत ही बची थी.

अब प्रोग्राम का क्या होगा? आज ही शाम को कार्यक्रम है. बड़ी मुश्किल से इस शर्त पर पिताजी ने इजाज़त दी कि आज के बाद मेरी परवीन से बोलचाल बंद हो जाएगी और उसके घर पर जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. कार्यक्रम के लिए सभी उत्साहित थे, पर मेरे मन में अभी भी धुकधुकी बनी हुई थी.

स्कूल के मैदान में बड़ा शामियाना लगा था. स्टेज को भी ख़ूब सजाया गया था. 3-4 कार्यक्रमों के बाद मेरा और परवीन का नंबर आया. जैसे ही हम दोनों स्टेज पर पहुंचे और डांस शुरू हुआ, अचानक बिजली गुल हो गई. घटाटोप अंधकार और ज़ोर की हूटिंग की आवाज़ें. हुआ यह था कि पास के लड़कों के हॉस्टल के उद्दंडी लड़के अंदर आ गए थे और उन्होंने बिजली के तार काट दिए थे. अब तो सड़क पर चलते राहगीर भी अंदर आ गए थे. भीड़ को नियंत्रित करना मुश्किल हो रहा था. स्टेज पर भी भगदड़ मच गई थी. घुप्प अंधेरे में यह भी नहीं सूझ रहा था कि रास्ता किधर से है. परवीन तो एक ओर दौड़ी, लेकिन बदहवासी में मैं स्टेज से कूद गई थी, पर कूदते ही लड़कों की भीड़ से घिर गई थी. मैं चिल्लाकर भाग रही थी और उद्दंडी लड़के मुझे पकड़ना चाह रहे थे.

“बचाओ… बचाओ…” हांफती-गिरती शायद मैं होश खोने लगी थी, तभी लगा कि किसी ने मेरे पीछे खड़े लड़के को चांटा मारा, तड़ाक्… आवाज़ हुई थी. फिर चूड़ी खनकते हाथों ने मुझे एक ओर खींचा, “शम्मी, उधर कहां भाग रही है, इधर चल.” अरे! यह तो अम्मी की आवाज़ है. मैं ज़ोर से रो पड़ी थी.

“रो मत.” वे मुझे खींचती हुई स्कूल के एक कमरे में ले गईं. परवीन व कई और लड़कियां भी वहां थीं. परवीन तो मुझे देखते ही चिल्लाई, “स्टेज से क्यों कूद गई?”

तभी अम्मी ने उसे टोका, “अब तू चुप रह. देख नहीं रही है, यह कितना घबरा गई है.”

मैं अब भी रोए जा रही थी. परवीन ने फिर बोतल से पानी निकालकर मुझे पिलाया. क़रीब दो घंटे तक पूरा हुड़दंग चला था. हम लोग कमरे में ही बंद रहे. पुलिस आई, बिजली के तार जोड़े गए, तब रोशनी हुई.

स्कूल से ही अम्मी ने फोन कर दिया था, तो परवीन के अब्बू जीप लेकर आ गए थे. अम्मी ने पहले मुझे घर पर छोड़ा. अम्मा, पिताजी, दादी सब बदहवास से दरवाज़े पर ही खड़े थे. उन्हें भी स्कूल के हादसे की ख़बर मिल गई थी, सब सोच रहे थे कि क्या करें? सबकी सांस अटक रही थी.

“आपकी बेटी सलामत है दीदी.” कहते हुए अम्मी की आवाज़ भर्रा गई थी. आज फिर उन्होंने अम्मा और दादी के पैर छूए थे. मैं असमंजस में थी, पर देखा कि दादी ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया था. मैं अब भी कमरे में टंगी दुर्गा मां की तस्वीर और अम्मी को एक रूप में देख रही थी.

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