कहानी - बदली हुई भूमिकाएं
आजकल यही होता है, रिनी और तन्मय हमें बताते हैं कि हम पर क्या अच्छा लग रहा है, हमें कहां जाना चाहिए और कहां नहीं. शुरू में बहुत अजीब लगता था, कभी-कभी झुंझलाहट भी होती थी, पर अब सोचती हूं तो अच्छा लगता है कि घर में, जीवन में भूमिकाएं बदल गईं.
अपनी किटी पार्टी में जाने के लिए तैयार हो रही थी. मैंने अपना नया ब्लू टॉप और कॉटन की ब्लैक पैंट पहनी, जैसे ही पैरों में चप्पल डाली, मेरी बाइस वर्षीया बेटी ने टोका, “यह क्या मां, ये चप्पल इस ड्रेस के साथ बिल्कुल नहीं मैच कर रही है.” मैंने कहा, “अरे ठीक है, पास में ही तो जाना है और घर के बाहर ही तो उतार देनी है जाकर.” एक प्यार भरी डांट पड़ी मुझे, “तो क्या हुआ. रुको, मैं अभी आई.” उसने अपनी नई चप्पल लाकर मेरे पैर के पास रखी, “वाह, अब देखो, आपको तो यह भी बताना पड़ता है.” मैं हंसी तो उसकी नज़र मेरे हाथों पर गई, बोली, “और यह क्या, व्हाइट घड़ी किस दिन के लिए रखी है. इसे उतारकर उसे पहनो.” मैंने बिना ना-नुकुर किए चुपचाच व्हाइट घड़ी पहन ली और दूसरे हाथ में उसके अनुसार एक ब्रेसलेट पहन लिया. उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, कहा, “परफेक्ट, अब जाओ आप…” और मेरे गाल पर किस करके पूछा, “फोन रख लिया न?” मैं हां में सिर हिलाकर ‘बाय’ कहकर घर से निकल गई.
सीमा के घर थी किटी पार्टी, ज़्यादा दूर नहीं था उसका घर. मुंबई की दिसंबर की हल्की-सी ठंडक लिए शाम मुझे हमेशा से अच्छी लगती है. मेरा पैदल चलने का मूड हो आया. साढ़े पांच बज रहे थे. मैं टहलते हुए ही आगे बढ़ने लगी. रिनी की ही बातें याद कर मैं मन ही मन मुस्कुरा रही थी. आजकल मैं अक्सर सोचती हूं कि यह तो कभी सोचा ही नहीं था कि रिश्तों में भूमिकाएं बदलती रहती हैं. आज लगा मैं रिनी को पहले ऐसे ही तो तैयार किया करती थी और अब उसने मेरी जगह ले ली है. कभी-कभी लगता है वो मां है मेरी. कभी मुझे कहीं जाना हो और वह घर पर हो, तो उसकी सलाह सुनना और फिर मानना मुझे अच्छा लगता है. आजकल उसके निर्देश कुछ इस तरह से होते हैं. अगर उसकी सहेलियां आनेवाली होंगी, तो पहले से ही कहना शुरू कर देगी, “मां, उनके सामने मेरी बुराई मत करना प्लीज़, वो मेरी खिंचाई करेंगी बाद में.” कभी हम लोग बाहर खाने-पीने किसी रेस्तरां में गए, तो मैं अगर किसी बात पर ज़ोर से हंस पड़ूं या बात करते समय मेरी आवाज़ ज़रा ऊंची हो जाए, तो आंख दिखाती है मुझे और मुझे हंसी आ जाती है. मैं कभी अपनी मम्मी के घर अकेली जाऊं, तो उसके निर्देश कुछ इस तरह होते हैं, “रात में नानी के साथ वॉक पर ज़रूर जाना और आपके शहर में जो रिक्शा चलाते हैं न, उन पर हैंडल पकड़कर ही बैठना, नहीं तो स्पीड ब्रेकर पर झटका लगेगा, फिर कमरदर्द होगा और मैं तोे वहां होऊंगी नहीं दवाई लगाने के लिए.” फिर मैं कहती हूं, “एक मां मेरी वहां है और एक यहां है.” वह हंसकर मुझसे लिपट जाती है और कहती है, “आई लव यू मॉम.” और यह तो मैं जानती ही हूं न कि जैसे-जैसे वह बड़ी हो रही है, वह मेरा ध्यान वैसे ही रखती है, जैसे मैं तब रखती थी जब वह छोटी थी. कभी किसी बात पर मैं अगर उदास हूं या मुझे रोना आ रहा हो, तो पुचकारते हुए कहती है, “अरे, क्या हुआ मेरी बेबी को.” मेरे दिल में एक ठंडक-सी उतर जाती है और हम दोनों ही मुस्कुरा देते हैं.
ये सब मेरे साथ ही नहीं, अमित के साथ भी होता है. उस दिन अमित और मैं शॉपिंग से लौटे, तो अमित ने अपने कपड़े रिनी को दिखाए, तो फ़ौरन बोली, “ओह नो पापा, यह कलर क्यों ख़रीदा? यह तो आपकी उम्र के साथ मैच नहीं करेगा.” अमित ने उसे छेड़ा, “अरे, मेरा मन है, मैं पहनूंगा.” ग़ुस्सा हुई रिनी, “नहीं, आप इसे चेंज करो, कोई दूसरा देखे और मज़ाक बनाए. अच्छा लगेगा क्या? आप इसे बिल्कुल नहीं पहनोगे.” अमित ने उसे चेंज नहीं किया, घर पर ही पहनते हैं, वो भी तब, जब रिनी बाहर होती है.
अब बात बीस वर्षीय तन्मय की, उसके साथ भी यही सब अनुभव करती हूं मैं. एक दिन मैं जल्दी में थी, मैंने कुर्ता और चूड़ीदार पहना हुआ था. मैंने जैसे ही पर्स उठाते हुए तन्मय से कहा, “तनु, बस मैं अभी आई कुछ फल लेकर.” टीवी पर नज़रें जमाए तनु ने कहा, “मां, आप जल्दी में दुपट्टा भूल रही हैं.” जानती हूं मेरा कुर्ता टाइट था, उस पर दुपट्टा होना ही चाहिए था. मैं कुछ आलस कर रही थी और कुछ जल्दी में भी थी. तनु ने फिर कहा, “टॉप और जींस की बात अलग होती है मां, पर ऐसे कुछ जम नहीं रहा है.” मैंने दुपट्टा एक तरफ़ लटका लिया, तो बोला, “गुड, देखा अब आप कितनी ग्रेसफुल लग रही हैं.” मैं हैरान-सी बाहर चली गई. एक दिन वह अमित को कह रहा था, “पापा, मेरे दोस्त आनेवाले हैं, आप अपने चेहरे पर स्माइल रखना, नहीं तो मेरे दोस्तों को लगता है आप फ्रेंडली नहीं हैं. वे आपको स्ट्रिक्ट कहते हैं.” अमित इस बात पर मेरा मुंह देखते रह गए और बोले, “कभी सोचा नहीं था कि मेरा बेटा मुझे सिखाएगा कि कब हंसना है, कब नहीं.”
हमारी सोसाइटी के सामने के कॉम्प्लेक्स में मशहूर लाऊंज की एक ब्रांच खुली थी, नई-नई जगह घूमने के शौक़ीन अमित के प्रोग्राम बनाने से पहले ही तन्मय ने कहा, “पापा, आप दोनों मत जाना वहां.”
“क्यों भई?”
“बस, कह दिया न पापा.”
“अरे, घर के सामने है, क्यूं न जाएं हम?”
“पापा, वह जगह आप लोगों को सूट नहीं करेगी, वहां बस हमारी उम्र के लोग जाते हैं. मैं एक दिन गया था अपने दोस्तों के साथ, एक ही अंकल-आंटी बैठे थे वहां और सब लड़के-लड़कियां ही थे. वे आपस में उन अंकल-आंटी को देखकर कह रहे थे कि ये क्या करने आए हैं यहां. यह जगह इनके लिए तो है नहीं, इतना लाउड म्यूज़िक था, डांस हो रहा था, आप लोग मत जाना.” हम दोनों एक-दूसरे का मुंह देखते रह गए थे.
ये तो स़ि़र्फ कुछ उदाहरण हैं. आजकल यही होता है, रिनी और तन्मय हमें बताते हैं कि हम पर क्या अच्छा लग रहा है, हमें कहां जाना चाहिए और कहां नहीं. शुरू में बहुत अजीब लगता था, कभी-कभी झुंझलाहट भी होती थी, पर अब सोचती हूं तो अच्छा लगता है कि घर में, जीवन में भूमिकाएं बदल गईं. पहले हम सिखाते थे बच्चों को, अब बच्चे बताते हैं कि नए ज़माने के साथ कैसे क़दम मिलाना है, तो इसमें बुराई भी नहीं है. मुझे तो अच्छा लगता है कि कोई है जो हमें अपने स्नेह के घेरे में लेकर खड़ा है, जिसकी नज़रें हम पर हैं, कोई तो ऐसा है, जिसे हमारे जीवन में, हमारी कार्यशैली में, हमारी आदतों में रुचि है. ये बदली हुई भूमिकाएं मुझे अच्छी लग रही हैं. अमित प्रत्यक्षतः दिखाते तो नहीं, पर मैं जानती हूं इन बातों के लिए बच्चों द्वारा टोका जाना उन्हें ख़ूब भाता है. अपने ख़्यालों में डूबी मैं सीमा के घर पहुंच गई थी. मैंने डोरबेल पर हाथ रखा ही था कि मेरा फोन बज उठा. रिनी थी, “मॉम, पहुंच गईं?” मैंने ‘हां’ कहा, तो बोली, “ठीक है, एंजॉय करो और हां, सीमा आंटी के घर के बाहर अक्सर ऑटो नहीं मिलते. मुझे फोन करना मैं स्कूटी से आऊंगी या तन्मय को भेज दूंगी.” मैंने “ठीक है” कहकर फोन रखा और मन ही मन मुस्कुरा उठी.
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