कहानी - करवा चौथ

“पूर्णा बिल्कुल सही है. सारे नियम हम महिलाओं के लिए क्यों? विवाह के बंधन में तो स्त्री-पुरुष दोनों बंधते हैं. फिर सुहाग चिह्न स्त्रियों के लिए क्यों? पुरुषों के लिए कोई सुहाग चिह्न क्यों नहीं? ये सब स़िर्फ व स़िर्फ शृंगार के सामान हैं, जो स्त्री इसे चाहे पहने, जो न चाहे न पहने. बिल्कुल लिपस्टिक की तरह. तुम्हें अच्छा लगता है लगाना, तुम लगाती हो. मुझे नहीं लगता. मैं नहीं लगाती.”

आज पूर्णा का पहला करवा चौथ था. सास मायाजी सुबह से कितनी ही बार उसे बता गई थीं इस व्रत की विधि. “पूर्णा आज सिंदूर लगा लेना व बिछुए भी पहन लेना. चूड़ियां तो पूरे हाथों में होनी चाहिए…” मायाजी कहती जा रही थीं और पूर्णा सोच रही थी कि सारी हिदायतें स़िर्फ उसी के लिए. रविवार तो पूरे सप्ताह में एक ही होता है, पर उसे सुबह उठना पड़ा. मयंक अभी तक सो रहे थे.

बचपन से वह ये सब देख रही थी. सारे नियम-क़ायदे स़िर्फ लड़कियों के लिए. पहले अच्छे पति के लिए व्रत रखो. भाई के लिए भी व्रत रखो. और जब शादी हो जाए, तो उसके बाद भी पति के लिए व्रत रखो. जैसे स्त्री के रूप में पैदा होना कोई पाप हो गया. इसीलिए पूरी उम्र एक न एक व्रत रखकर पाप की सज़ा भुगतना है. इस नाटक से उसे हमेशा से चिढ़ थी.

बचपन में मां और मोहल्ले की सभी औरतों का बनाव-शृंगार देखती थी, तो सोचती थी कि कितना अच्छा लगता होगा. जब भी मां व्रत करके पापा के पैर छूती, तो वो सोचा करती थी कि पैर तो पापा को छूने चाहिए. आख़िर मां ने उनके लिए व्रत रखा था. वह हमेशा सोचती थी कि ये सब ग़लत है. वह विरोध भी करती थी, पर उसकी आवाज़ दब जाती थी. तब से लेकर आज तक, जब वो एक मल्टीनेशनल कंपनी के बड़े पद पर पहुंच गई है, कहने के लिए समाज काफ़ी आधुनिक हो गया है. करवा चौथ का व्यापारीकरण हो गया है, पर सोच वही पुरानी है.

“पूर्णा, तैयार नहीं हुई क्या? सब आ गई हैं.” तभी मायाजी की आवाज़ सुनाई दी. जाने से पहले पूर्णा ने अपने आपको आईने में देखा, एक गहरी सांस ली और चल पड़ी.

कमरे में इतनी सारी आंखें उसे अजीब नज़रों से देख रही थीं. मायाजी को देख लग रहा था, जैसे उसे खा ही जाएंगी.

“अरे, ये क्या? इतना सादा सूट, साड़ी क्यों नहीं पहनी? सिंदूर भी नहीं लगाया? क्या चाहती हो? बोलो, मेरे बेटे की ज़रा भी चिंता नहीं तुम्हें? या मेरा अपमान करना चाहती हो.” मायाजी ने लगभग चीखते हुए कहा. पूर्णा जानती थी कि ये सब होगा और वो तैयार भी थी.

“मम्मीजी, मैं आपका बहुत सम्मान करती हूं. आपको पता है कि मैं साड़ी में सहज महसूस नहीं करती. मैं मयंक से भी बहुत प्यार करती हूं, पर मेरे सिंदूर लगाने से मयंक का हित कैसे हो सकता है, ये मेरी समझ में नहीं आता.” पूर्णा के इतना कहते ही पड़ोस की सरला आंटी बोलीं, “छोड़िए बहनजी, इसका तो दिमाग़ ख़राब है. व्रत रखा है या वो भी नहीं रखा.”

“रखा है आंटी, बिल्कुल रखा है.” पूर्णा ने बस इतना कहा. वो बात और बढ़ाना नहीं चाहती थी. मायाजी की ख़ुशी के लिए उसने उपवास रखने का सोच लिया था.

सभी महिलाएं पूजा-पाठ में लग गईं. उसके बाद गाना-बजाना शुरू हो गया. मयंक अपने किसी दोस्त से मिलने चले गए थे. पूर्णा तो वहीं थी, उसे तो रहना ही था. उसकी कई सहेलियां ब्यूटीपार्लर से सज-धज कर आई थीं. कहने के लिए वो सब काफ़ी पढ़ी-लिखी थीं, बड़े पद पर भी थीं, पर वे सब यहां भूखी-प्यासी पति की लंबी उम्र के लिए सात भाइयों की बहन की कहानी सुन रही थीं.

किसकी बेटी का चक्कर किसके साथ है?, अपनी-अपनी बहुओं की बुराई, बेटों की कमाई की डींगें मारना… उम्रदराज़ महिलाओं में इस तरह की चर्चाएं हो रही थीं.

मेरे बच्चे को उसके बच्चे ने मारा, मेरा बच्चा पढ़ने में उसके बच्चे से अच्छा, गहने कितने के बनवाए?, पति का प्रमोशन, देर से घर आना, सासू मां की बातें… महिलाओं का एक ग्रुप इस तरह की बातों में लगा हुआ था.

और उसकी सहेलियां, उनकी बातें भी कुछ कम न थीं, जैसे- पति से क्या गिफ्ट लेना है?, ऑफिस में कौन कितना बड़ा चापलूस है, सास को ताना मारने के तरी़के, पति को कैसे अपने मनमुताबिक़ चलाना है… आदि. और तो और, वे दूसरी सभी महिलाओं को पिछड़ा कहकर हंस भी रही थीं.

पूर्णा को वहां बैठना भारी लग रहा था. इन सभी ने व्रत रखा था. क्या किसी कथा में इन्हें ये नहीं बताया गया कि सच्ची पूजा आत्मा की पवित्रता है. जब दम ज़्यादा घुटने लगा, तो वो वहां से उठकर अंदर कमरे में चली गई.
“दीदी, अरे ओ दीदी… ” तभी छोटू की तेज़ आवाज़ सुनाई दी. अभी तो कमरे में आई थी वो इतनी जल्दी क्या हो गया?
“क्या हुआ छोटू?” पूर्णा ने कमरे से बाहर आते हुए पूछा.

छोटू हांफता हुआ बोला, “दीदी, नमन भइया का फोन आया था. वो बोल रहे थे कि मयंक भइया का एक्सीडेंट हो गया है. वे उन्हें लेकर सिटी हॉस्पिटल जा रहे हैं. आप भी वहां पहुंचो.” सुनते ही पूर्णा को चक्कर आ गया. उसके हाथ-पैर फूलने लगे. लेकिन ये वक़्त धैर्य खोने का नहीं था. ससुरजी अपनी बहन को मिलने गए थे. शाम को आनेवाले थे. समय बिल्कुल नहीं था. उसने छोटू को सारी बात
सास-ससुर को बताने के लिए कहा और ख़ुद तुरंत निकल गई. रास्ते में उसने अपने मां-पापा को भी फोन कर दिया. जब वह अस्पताल पहुंची, तब डॉक्टर ऑपरेशन की तैयारी कर रहे थे. वह सबसे पहले मयंक को देखना चाहती थी. लेकिन डॉक्टर ने उसे बीच में ही
रोक दिया.

“अच्छा आप इनकी पत्नी हैं. देखिए बहुत ख़ून बह चुका है. हमें तुरंत ऑपरेशन करना होगा. इनका ब्लड ग्रुप ओ पॉज़ीटिव है. आप ब्लड का इंतज़ाम करें. वैसे हम भी कोशिश कर रहे हैं.”

पूर्णा ने तुरंत उसके सारे दोस्तों को फोन कर दिया. डॉक्टर से भी ऑपरेशन शुरू करने को कहा. लेकिन ऑपरेशन शुरू करने के लिए दो बॉटल ब्लड की ज़रूरत थी.

पूर्णा ने कुछ सोचा और बोली, “नमनजी, मैंने सुबह से कुछ खाया नहीं है, मेरे लिए ज़रा एक टोस्ट और चाय ला दीजिए.”

फिर डॉक्टर की तरफ़ घूमकर बोली, “सर, मेरा ब्लड ग्रुप ओ पॉज़ीटिव है. प्लीज़, मेरा ब्लड ले लीजिए और जल्द से जल्द इलाज शुरू कीजिए.” ब्लड देने के लिए कुछ न कुछ खाना बहुत ज़रूरी था.

थोड़ी देर बाद ऑपरेशन शुरू हो गया. बाकी ब्लड का इंतज़ाम थोड़ी देर में हो गया. अब सब बैठकर ऑपरेशन ख़त्म होने का इंतज़ार कर रहे थे. दो घंटे बीत चुके थे.

नमन ने कैंटीन से सबके लिए चाय मंगवा ली थी. सारे दोस्त चाय पीने लगे. पूर्णा अभी चाय का एक घूंट भरने ही जा रही थी कि…

“हां खाओ-पीओ, मेरे इकलौते बेटे को मौत के मुंह में… तेरी वजह से आज उसकी ये हालत है. तूने…” बस इतना ही कह पाईं मायाजी, फिर फूट-फूट कर रोने लगीं.

“बताओ, करवा चौथ का व्रत पति की लंबी उम्र के लिए निर्जल रखकर करते हैं और ये महारानी चाय-बिस्किट उड़ा रही हैं. सिंदूर जितना लंबा होगा, पति की उम्र उतनी ही लंबी होती है और ये तो सिंदूर लगाती ही नहीं.” सरला आंटी फुसफुसाई. उन्हें तो अच्छा मौक़ा मिला था. रमा आंटी भी उनके पीछे ही थीं.

“और क्या? नियम-क़ायदे ऐसे ही थोड़े बनाए जाते हैं. अब व्रत भंग किया है, तो भुगतना ही पड़ेगा. हे करवा माता, माफ़ कर देना इस मूर्ख लड़की को. इस बेचारी मां की सुन ले. कितने उपवास किए हैं, इस बेचारी ने.” ये सभी शायद इसीलिए आई थीं. पूर्णा तो पहले से इतनी परेशान थी, उस पर सरला आंटी की बातों ने उसे और परेशान कर दिया. वह सोचने लगी, ‘अगर सिंदूर लगाने से पति की उम्र लंबी होती है, तो आंटी पूरा शरीर ही सिंदूर से क्यों नहीं रंग लेतीं. क्या वे इतनी लंबी उम्र तक अंकल को झेल नहीं पाएंगी या शायद बेचारे अंकल. ख़ैर…’ पूर्णा ने मायाजी को चुप कराना चाहा, पर वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं.

“परेशान मत हो पूर्णा, सब ठीक हो जाएगा.” पापा की आवाज़ थी ये. वे और मां पता नहीं कब आकर खड़े हो गए थे. पापा को देखकर नहीं रोक पाई वो ख़ुद को. उनके गले लग रो पड़ी.
“अब क्यों रो रही है मेरे बेटे को…”

“माया चुप रहो, ये अस्पताल है.” ससुरजी की गंभीर आवाज़ से सासू मां चुप हो गईं. तभी डॉक्टर ने आकर कहा, “ऑपरेशन हो गया है. मयंकजी अब ख़तरे से बाहर हैं. थोड़ी देर बाद उन्हें कमरे में ले जाएंगे. आप उनसे वहां मिल लेना.”

लगभग दो सप्ताह तक मयंक अस्पताल में रहे. मायाजी अभी भी शायद उसे ही दुर्घटना का ज़िम्मेदार मान रही थीं. मयंक कई बार बता चुके थे कि दुर्घटना उनकी अपनी लापरवाही से हुई थी. अब पूर्णा कैसे मायाजी को समझाए कि सिंदुर, बिछुआ व चूड़ियों से किसी दुर्घटना को रोका नहीं जा सकता. न ही करवा चौथ लंबी उम्र की गारंटी है.

आज मयंक को अस्पताल से छुट्टी मिलनेवाली थी. पूर्णा सामान पैक कर रही थी. मायाजी मयंक को सूप पिला रही थीं. तभी डॉक्टर आए और मयंक को आगे के लिए हिदायतें देने लगे. मायाजी ने उनको धन्यवाद कहा. इस पर वे बोले, “धन्यवाद की हक़दार तो आपकी बहू है. उस दिन जब मयंक को ख़ून की ज़रूरत थी, तो पहले दो बॉटल ख़ून पूर्णा ने ही दिया था. थैंक गॉड! उसने समझदारी से काम लिया. उपवास से ज़रूरी मयंक की जान बचाना था. आप और मयंक काफ़ी लकी हैं. ओके मयंक अपना ध्यान रखना. हां, पूर्णा ज़रा मुझसे जाते समय मिल लेना.”

घर आने पर पूर्णा को सास से बात करने का समय ही नहीं मिल पाया था. मिलने आनेवालों का तो जैसे मेला लग गया था.

सास की सारी सहेलियां आई थीं आज. सरला आंटी, रमा आंटी, अंजू आंटी और उनके साथ दो-चार और थीं. पूर्णा ने उन्हें चाय-नाश्ता दिया और वहां से हट गई. वे सब उसे अजीब नज़रों से घूर रही थीं. जाते समय उसे अंजू आंटी की फुसफुसाहट साफ़ सुनाई दी, “देख ज़रा, अभी भी सुहाग की कोई निशानी नहीं लगाई है. कैसी है ये…”

सभी आंटियों को छोड़ने जब मायाजी बाहर गईं, तो मौक़ा देखकर सरला बोली, “अरे, तेरी बहू तो अभी भी वैसे ही घूम रही है. उसको कहा नहीं क्या? अरी सुन एक व्रत और आ रहा है. उसको करने से…”

सरला की बात को बीच में रोकते हुए मायाजी ने बोलना शुरू किया, जो वे इतने दिनों से सोच रही थीं. “पूर्णा बिल्कुल सही है. सारे नियम हम महिलाओं के लिए क्यों? विवाह के बंधन में तो स्त्री-पुरुष दोनों बंधते हैं. फिर सुहाग चिह्न स्त्रियों के लिए क्यों? पुरुषों के लिए कोई सुहाग चिह्न क्यों नहीं? ये सब स़िर्फ व स़िर्फ शृंगार के सामान हैं, जो स्त्री इसे चाहे पहने, जो न चाहे न पहने. बिल्कुल लिपस्टिक की तरह. तुम्हें अच्छा लगता है लगाना, तुम लगाती हो. मुझे नहीं लगता. मैं नहीं लगाती.

जहां तक करवा चौथ की बात है, तो यह एक त्योहार है और हमें इसे एक त्योहार की तरह ही मनाना चाहिए. जो उपवास रखना चाहे रखे, जो न चाहे वो न रखे. किसी व्रत से अगर उम्र लंबी होती, तो हमारे देश में शायद कोई महिला विधवा ही नहीं होती. पता है सरला, सबसे ज़रूरी है हम स्त्रियों का अपने आप से प्यार करना. सबसे प्यार करते-करते हम अपने आप से प्यार करना ही भूल जाते हैं. मुझे गर्व है अपनी पूर्णा पर.” सब को चकित छोड़कर मायाजी जब पलटीं, तो सामने पूर्णा खड़ी थी. उसकी आंखों में ढेर सारा प्यार व सम्मान था और साथ में आंसू भी थे, पर ख़ुशी के. किसी को कुछ कहने की ज़रूरत न थी, दोनों गले लग गईं. उसे अंदर आने को कहकर मायाजी अंदर चली गईं.

पूर्णा आसमान में देख रही थी. चांद चमक रहा था. यही था उसके करवा चौथ का चांद, जिसने रिश्तों पर पड़े हुए ग्रहण को हटा दिया था. “पूर्णा जल्दी अंदर आ जा बेटे, सब एक साथ डिनर करेंगे आज.” तभी मायाजी की आवाज़ आई. विचारों को झटककर उसने घर के अंदर प्रवेश किया. सामने सब मुस्कुराते हुए चेहरे से उसका स्वागत कर रहे थे. आज सही मायने में उसका गृह-प्रवेश हुआ था.

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