कहानी: यह कैसी आस?

अरे जल्दी-जल्दी ज़ी टीवी लगा,’’ हाथ में सब्ज़ी का भारी-सा थैला लिए दरवाज़े को ठेलती हुई वे हड़बड़ाती हुई घर में दाख़िल हुईं.

‘‘अरे, ये क्या देख रही है? जल्दी से सारेगामापा लगा,’’ धम्म से तख्त पर बैठते हुए पसीना सुखाती बेचैनी से उन्होंने मेरे कुछ कहने के पहले ही चैनल बदल दिया और टकटकी लगाए सारेगामापा देखने लगीं. हमेशा यही होता, कहीं भी हों, कुछ भी कर रही हों, वे इस शो को देखना नहीं छोड़तीं, कहीं जाना-आना हो तो मजबूरी में जातीं और कोशिश करतीं कि उस समय तक लौट आएं. नहीं आ पातीं तो अनमनी हो जातीं और जब तक रिपीट टेलीकास्ट नहीं देख लेतीं, उदास रहतीं. देखने के बाद उनकी बेचैनी कुछ कम होती, लेकिन अक्सर उदासी बढ़ जाती. मेरे लिए यह किसी रहस्य से कम न था, ऐसी भी क्या लत कि यह कार्यक्रम न देखे तो बीमार-सी हो जाती थीं वो.

मैंने छेड़ते हुए कहा,‘‘क्या बुआ, सोनू निगम इत्ता पसंद है आपको? जो उसके इस कार्यक्रम को आप छोड़ती नहीं.’’ वैसे उन दिनों सोनू निगम सारेगामापा के एंकर हुआ करते थे और टीनएज किशोरियों के सपनों के राजकुमार, तो मेरी किशोर बुद्धि ने उनके लिए भी वही सोचा. भूल गई कि वे मुझसे पूरे 25 साल बड़ी हैं और सोनू निगम के लिए वैसे भाव उनके मन में शायद ही हों. मेरी बात सुन धीरे से मुस्कुरा दीं वो और फिर लग गईं शो को देखने.

वे शो को इतनी तन्मयता से देखतीं, लगता था मानो कोई योगी साधना में बैठा हो. पलक तक न झपकातीं, जैसे पलक झपकाने के दौरान कोई महत्वपूर्ण दृश्य छूट जाएगा. कभी टीवी ख़राब होने या लाइट के चले जाने पर उनकी बेचैनी चिड़चिड़ाहट और ग़ुस्से में तब्दील हो जाती. मेरी समझ में नहीं आता इतनी ज़हीन, सौम्य, शांत बुआ इस एक शो के लिए इतनी उग्र कैसे हो जाती हैं. यह मेरे लिए एक रहस्य था और मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. हो सकता है उन्हें संगीत बहुत पसंद हो, न सीख पाई हों, तो अब सुनकर आनंद लेती हों. संगीत तो सब को पसंद है, लेकिन बाक़ी रेडियो, या दूसरे गाने सुनने के लिए तो कभी उत्सुक नहीं देखा फिर टीवी पर ही क्यों? जब वो टीवी देखतीं तो मानो स्क्रीन पर कुछ ढूंढ़ती-सी रहतीं और गाने वालों से ज़्यादा जब बजाने वाले साजिंदों पर कैमरा आता तो वे घूर-घूरकर देखने लगतीं जैसे किसी को ढूंढ़ रही हों या पहचानने की कोशिश कर रही हों.
अकेली रहती थीं बरसों से. विधाता ने जैसे सारे दुख उन्हीं के खाते में डाल दिए थे. 

बड़ा-सा तीन मंज़िला पुश्तैनी मकान, सभी सुविधाएं. दादाजी बड़े अधिकारी थे. उन्हीं के गत वैभव का भग्न अवशेष था यह मकान. उन्हीं के नाम की प्रतिष्ठा थी. साधारण नौकरी वाले पिता की तीन बेटियां. दो बेटियों का विवाह संयुक्त परिवार में रहते हो गया. पर ये पता नहीं किस तरह का प्रारब्ध भोग रही थीं.सुना था शादी तो उनकी भी हुई थी, फिर क्या हुआ, यहां कैसे और इतने वर्षों तक किसी ने कुछ कहा न बताया. शादी के सालभर बाद ही वे लौट आई थीं, क्यों, वह मैं नहीं जानती थी. दूर के रिश्ते की बुआ थीं. गांव में पढ़ने के साधन नहीं थे तो मां-बाबा ने मुझे उनके पास भेज दिया था.

मां से पूछा तो डपट दिया,‘‘तुझे क्या करना है, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे. वक़्त आने पर सब बता दूंगी, अभी उमर नहीं है तेरी.’’

‘‘क्या मां कभी कहती हो, इत्ती बड़ी हो गई अकल नहीं आई, कभी कहती हो छोटी है,’’ मैंने ठुनकते हुए कहा.
ख़ैर, साथ रहते-रहते, धीरे-धीरे बुआ ने ही मुझे सब बता दिया था.

बुआ को दुखी तो मैंने नहीं देखा, लेकिन हां कई बीमारियों से ग्रस्त ज़रूर देखा था.

‘‘चल तो आज मुझे उस डॉक्टर के पास ले चल,’’ वे कहतीं, तो मैं भुनभुनाती बोलती,‘‘चलो लेकिन दवाएं तो तुम टाइम पर लेती नहीं.’’ वे धौल जमा कहतीं,‘‘चल अब ज़्यादा बोल मत.’’ और मैं अपनी हीरो पुक पर उन्हें बैठाकर ले जाती. तब कहां जानती थी, तन का नहीं मन का रोग है, जो तन पर उभरता है-अनमनेपन में, उदासी में, सुस्ती में. कभी-कभी दिन-दिनभर सोई रहतीं, कभी एक दिन में ही सारे काम निपटा देतीं. एक नौकरी भी की थी कहीं, लेकिन दो-चार साल में वह भी छोड़ दी.

शादी हुई थी उनकी एक सुदर्शन ब्राह्मण पुरुष से. दो-तीन महीने हुए कि नौकरी की तलाश में पति बंबई चला गया तो अब तक न लौटा. सालभर इंतज़ार किया, नदी किनारे के छोटे-से गांव में बूढ़ी सास के साथ रहती थीं. मायके ख़बर पहुंची तो भाई दौड़ते हुए आए और बहन की अवस्था देख रो पड़े. लिवा लाए मायके, तब से जीवन यहीं चल रहा है.

पता नहीं ये उनकी सज्जनता और सीधापन था कि समाज और परिवार कभी उनके लिए कठोर नहीं हुआ, बल्कि सबको यही कहते सुना कि,‘ऐसी लक्ष्मी-सी पत्नी का सुख नहीं था अभागे के भाग में और इसे देखो कैसे निर्लिप्त-सी हो गई है. लड़ना तो कभी सीखा नहीं था तो लड़ती कैसे और किससे?’ जिस कुपुत्र ने बूढ़ी मां को इस नववधू के भरोसे छोड़ दिया था, वह दो माह की ब्याहता के प्रति अपने कर्तव्य कैसे याद रखता. बातों ही बातों में अपने ससुराल का ज़िक्र कर देती थीं, लेकिन बड़ी सहजता से. उनके चेहरे पर वैसे कभी विषाद नज़र नहीं आया. क्या दुख की ऐसी स्वीकारोक्ति हो सकती है कि इंसान सहज हो जाए, निर्लिप्त हो जाए. मैं उस समय उनके चेहरे को देखती रह जाती थी.

आंगन बहुत बड़ा था उस घर का. एक पारिजात, एक नींबू, एक गुलाब और ढेर सारे तुलसी के पौधे... एक छोटा-मोटा वृंदावन ही था वहां. ख़ूब सारी तुलसी डालकर चाय बना कर पीती थीं दोनों. और पारिजात के फूल ओहो... संसार में इससे सुंदर और कोमल कोई फूल है भला! पारिजात के फूल टप टप चांदनी रात में झरते मेरे किशोर मन को रोमांचित करते. अंजुरी भर-भर उठा मैं उसकी मादक गंध को अपनी सांसों में भरती और भगवान पर अर्पित करने के लिए सहेज लेती. एक दिन मैं अपना यह पसंदीदा काम कर रही थी, लेकिन वो झाड़ू लगाते-लगाते खीझती-सी बोलीं,‘‘कितनी बार कहा इस पेड़ को कटवा के दूसरा पेड़ लगा दो, कितना कचरा होता है इन फूलों से, लेकिन कोई सुने तब ना.’’

मैंने कहा,‘‘क्या बुआ सारे सौंदर्यबोध का कचरा किए देती हो. थोड़ा रोमैंटिक हो जाओ भाई, इसके केसरिया डंठल और सफ़ेद, निर्मल धवल पत्तियों को तो देखो, ओह कितनी मुलायम हैं. देखो-देखो, इसको देखो तो...’’ मैंने उन्हें ज़बरन फूल दिखाते हुए कहा,‘‘जैसे किसी केसर हल्दी रंगी, नववधू की देह को चांद के रंग की सितारों भरी चुनर ओढ़ा दी हो.’’ उन्होंने हंसकर मेरा कान पकड़ लिया और बोलीं,‘‘लगता है मम्मी से बोलकर अब तेरी शादी की बात चलानी ही पड़ेगी. नववधू, रोमैंस, सौंदर्यबोध... हां’’ वे शरारत से मुस्कुराईं. मैंने तुनककर कहा,‘‘ओह हो बुआ, आप भी ना हर बात का एक ही मतलब निकालती हो.’’ वे अपना काम करने में लग गईं.

लेकिन उसी दिन आंगन से अंदर जाते-जाते उन्होंने मुझसे कहा,‘‘मुझे तो इन फूलों को देख ऐसा लगता है, मानो किसी कोमलांगी नववधू के सिर पर किसी ने दुर्भाग्य की सफ़ेद चादर डाल दी हो और उसके जीवन के सारे रंग चले गए हों.’’ मैं धक्क से रह गई. इतनी सुंदर रचना में ऐसे विषाद का दर्शन! तब शायद उम्र नहीं थी समझने की कि मन के भावों का आरोपण ही तो होता है किसी वस्तु पर और वही भाव उसे दैवीय सौंदर्य या दुर्भाग्य से जुड़ा लगता है. ख़ैर, इन सबके बीच उनका संगीत का कार्यक्रम देखने का सिलसिला निर्बाध गति से चलता रहा.
एक दिन मैं तख्त पर औंधी लेटे-लेटे पढ़ाई कर रही थी और बुआ खाना खा रही थीं, मैंने पेंसिल मुंह में घुमाते-घुमाते पूछा,‘‘बुआ, तुम अपने ससुराल अपने हक़ के लिए क्यों नहीं गई? लड़ना चाहिए था. ऐसे कैसे कोई कर सकता है? बंबई चली जातीं मामा को लेकर, वहीं रह जातीं, पर ऐसे कैसे चली आईं सिर झुकाकर चुपचाप?’’

उन्हें पता था मैं सब जानती हूं इसलिए चौंकी नहीं. एक ठंडी सांस लेकर हाथ का कौर थाली में वापस रख बोलीं,‘‘क्या होता लड़ने से? वो क्या मुझे साथ ले जाते? और लड़कर ज़बरन साथ जाने पर क्या मुझे वो प्रेम और सम्मान मिलता जो मिलना चाहिए था? छीने हुए अधिकार को अधिकार कैसे कहूं, क्यों हाथ पैर जोड़ूं उस इंसान के सामने, जिसके साथ कुल तीन महीने रही?’’ पहली बार, हां पहली बार ऐसी दीन, सीधी, सरला बुआ के चेहरे पर स्वाभिमान की चमक देख मुझे अच्छा लगा.

‘‘लेकिन बुआ भरण-पोषण के लिए तो लड़ सकती थीं,’’ मैंने कहा तो वे बोलीं,‘‘किसी की भीख या दया नहीं चाहती मैं. इतना तो इस घर में मुझे सम्मान मिलता ही है. जिसने सात फेरे लिए थे, क्या उसे भान नहीं था मेरा? ख़ुद आना था, साफ़-साफ़ कह देना था, मैं ख़ुद चली आती.’’ थाली उठाते हुए उन्होंने कहा,‘‘मेरी सास अच्छी थी रे, बेचारी अब पता नहीं किस हाल में होंगी, उसे भी साथ ले गए या नहीं क्या पता?’’ मैंने आश्चर्य से उनके प्रदीप्त मुख की तरफ़ देखा अपने पति से स्वाभिमान की लड़ाई लड़ती वे निराश्रित हो भाई और पिता के पास लौट आईं. क्या तब आश्रित होने का भान नहीं आया? यहां स्वाभिमान आड़े नहीं आया? लगता है वे मेरी बात ताड़ गईं और बोलीं,‘‘क़िस्मत से मेरे पिता, भाई और परिवार बहुत अच्छे हैं, उन्होंने मेरे आत्मसम्मान का ध्यान रखा है और कभी झूठी संवेदना नहीं दिखाते. पढ़ी-लिखी थी बैंक, पेंशन, डॉक्टर माता-पिता की ज़िम्मेदारी उठा रखी थी एक लड़के की तरह.’’

मैं उनका कौशल देखकर कई बार हैरान रह जाती थी. धार्मिक प्रवृत्ति की थीं, पूजा-पाठ, स्वाध्याय में लगी रहतीं और घर के काम-काज में उनका मन रमा रहता. लेकिन हरसिंगार उन्हें नहीं सुहाता. एक दिन घर की लाइट चली गई, वे बैचैन होकर इधर-उधर पूछ आईं. सबके यहां लाइट थी, केवल हमारे यहां नहीं थी. मोहल्ले के इलेक्ट्रीशियन को बुलाकर दिखाया, लेकिन लाइट ठीक नहीं हुई. उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. शो का टाइम हो रहा था. वे तो तैयार होकर अपनी सहेली के यहां चली गईं, मैं अकेली कंदील जलाकर बैठी रही. खिचड़ी बना ली और खा भी ली. उस दिन मुझे बहुत खीझ हुई. उनके लौटने पर मैं चिड़चिड़ा रही थी. वे भी थोड़ा अपराधबोध महसूस कर रही थीं. मैंने पूछा,‘‘हमें तो बोलती रहती हो कोई लत ठीक नहीं, ख़ासतौर से टीवी देखने की. ख़ुद कैसी लत लगा रखी है? शो छूट जाता तो कोई अनर्थ तो नहीं हो जाता.’’ वे झेपतीं-सी बोलीं,‘‘अभी सो जा. कल बताऊंगी क्या अनर्थ हो जाता.’’

अगले दिन रविवार था. देर से उठी तो देखा, आंगन में बैठी बुआ बालों में मेहंदी लगाए, धूप की तरफ़ पीठ कर पेपर पढ़ रही थीं. ब्रश कर, चाय बना अपना बड़ा-सा कप ले मैं भी वहीं बैठ गई. उन्होंने धूप से चुंधियाती आंखों से मुझे देखा और कहा,‘‘आज शाम को मंदिर चलेंगे. आज शो नहीं आनेवाला है. उधर से चाट खाते आएंगे.’’ मैंने सिर हिलाकर हामी भरी. ‘‘तेरे लिए भी मेहंदी रखी है लगा लेना.’’

शाम को मंदिर में बैठे थे तो वे सहसा बोल पड़ीं,‘‘तू जानना चाहती है ना मैं इस म्यूज़िकल शो के पीछे इतनी पागल क्यों रहती हूं?’’ मैंने कहा,‘‘हां बताओ.’’

‘‘रमेश भैया हैं ना, अरे मेरी मौसी के लड़के... वो एक बार बंबई गए थे, पांच-सात साल पहले. वहां उन्हें तेरे फूफाजी मिले थे.’’

‘‘मेरे फूफाजी? कौन फूफाजी? ओह, यानी आपके पति!’’ मैंने विस्मय से पूछा और फिर ग़ुस्से में कहा,‘‘बुआ, वो फूफाजी कैसे हुए? जब तुमसे कोई रिश्ता नहीं रहा तो तुम अब भी उन्हें अपना कैसे कह सकती हो?’’

‘‘चल यह सब छोड़ और सुन. रमेश भैया को उन्होंने बताया कि वे फ़िल्मों में गिटार बजाते हैं और बड़े-बड़े म्यूज़िकल शोज़ में भी बजाने के लिए बुलाए जाते हैं.’’

‘‘तो?’’ मैंने मुंह बनाते हुए पूछा.

‘‘उन्होंने मेरे बारे में भी पूछा. सारी ग़लती उनके घरवालों की थी, उनके मना करने पर भी उन्होंने मेरे साथ उनका ब्याह कर दिया. उन्हें तो संगीत में अपना करियर बनाना था,’’ वो बोलीं.

‘‘इसलिए तुम्हें छोड़कर भाग गए. करियर तुम्हारे साथ नहीं बनता क्या?’’ मैंने भुनभुनाते हुए कहा.

‘‘नहीं शादी के बाद एक बार उन्होंने मुझसे मज़ाक में पूछा था,‘तुम्हे बंबई की रानी बनाऊंगा, चलोगी?’ लेकिन मैंने घबराकर मना कर दिया था, क्योंकि एक घटना हुई थी यहां, जहां पति पत्नी को बहलाकर ले गया और उसे बेच दिया. मैं तो बंबई के नाम से ही घबराती थी. शायद इसलिए भाग गए वो,’’ वो अनमनी-सी बोलीं.

मैंने ग़ुस्से से बिफरते कहा,‘‘कैसी औरत हो तुम बुआ? एक इंसान साफ़ तुम्हें धोखा दे गया और बाद में फालतू बात बना अपने गुनाह पर पर्दा डाल रहा है, उस बात पर तुम विश्वास कर रही हो. क्या उन्होंने दूसरी शादी नहीं की?’’
‘‘कहां बातों में आई? आ जाती तो चली न जाती. और दूसरी शादी तो मेरे आने के दो साल बाद ही कर ली थी, लेकिन मन कभी-कभी उदास हो सोचता है कि साथ चली जाती तो शायद आज मैं होती वहां,’’ कहते-कहते उनकी आंखों में मायूसी, बेबसी के आंसू छलक आए.

मैंने अपने स्वर को कुछ नरम कर कहा,‘‘इस बात का इस शो से क्या संबंध?’’

वे अर्थपूर्ण दृष्टि से मुझे देखते हुए बोलीं,‘‘वे गिटार बजाते हैं, कहीं किसी शो में बजाते हुए मुझे दिख जाएं इसलिए शो ध्यान से देखती हूं.’’ कहते-कहते वे फफक पड़ीं और दोनों हाथों से अपना चेहरा छुपा रो पड़ीं.

मेरी आंखों से भी आंसू बह निकले. ओह भारतीय नारी! मन हुआ उनके पैर पकड़ लूं, कैसी मासूम-सी चाह? एक झलक उस इंसान की देखना चाह रही हैं, जिसने जीवन का कोई सुख नहीं दिया. क्या पता उनके रमेश भैया ने बुआ से झूठ ही कहा हो कि उनके बारे में पूछा था. बस उनके बारे में पूछा था, सुनकर ही वह निहाल हो गईं. वह पुरुष इस निर्मल प्रेम की कल्पना भी नहीं कर सकता. अभागा, हां सचमुच अभागा ही था.

मन हाहाकार कर उठा,‘ओह पुरुष, काश के तुम स्त्री के मन के इस पवित्र भाव का मर्म समझ पाते! काश कि तुम इस प्रेम, इस सरलता को अपने जीवन का हिस्सा बना पाते तो तुम से अधिक धनी कोई न होता.’

मैंने आंखें पोंछते हुए भर्राए गले से कहा,‘‘इतने साल में तो चेहरा बदल गया होगा. कैसे पहचानोगी?’’

उन्होंने अपने पर्स में से एक फ़ोटो निकालकर दिखाया. उसमें बॉम्बे के एक लाइव कॉन्सर्ट में परफ़ॉर्म कर रहे आर्केस्ट्रा ग्रुप में गिटार बजाते हुए उनके तथाकथित पति और मेरे फूफाजी भी थे. वे बोलीं,‘‘ये रमेश भैया ने दी थी.’’

‘‘तो इन्हें ही ढूंढ़ती हो शो में?’’

एक बारगी मन किया कि जा पहुंचूं उस इंसान के पास और घसीटकर लाकर खड़ा कर दूं इस निर्मला प्रेममूर्ति के सामने और बताऊं,‘देखो तुमने क्या खोया है?’

‘‘अब वो तुम्हें लेने आए तो जाओगी?’’ मैं दम साधे उत्तर की प्रतीक्षा करती रही.

थोड़ी देर सोचने के बाद बोलीं,‘‘नहीं.’’

मैं यही उत्तर सुनना चाहती थी. प्रेम और स्वाभिमान में स्वाभिमान की जीत हुई थी, लेकिन प्रेम भी हारा कहां था. पहली बार दोनों को एक साथ जीतते देख रही थी. मैंने उन्हें हाथ पकड़कर उठाया और घर ले चली. दोनों चुप थीं.

अगले दिन शो के नियमित समय पर टीवी लगा मैंने उन्हें आवाज़ दी,‘‘बुआ चलो टाइम हो गया.’’

वे मुस्कुराती हुई आकर बैठ गईं. अब तो मैं भी उनके इस कौतुक में शामिल हो गई.

‘देखो ये तो नहीं? वो तो नहीं? देखो वैसे ही बाल, वैसी आंखों वाला वो तो नहीं?’ और दोनों ख़ूब खिलखिला कर हंस पड़तीं.

इस बात को कई बरस बीत गए. फ़ेसबुक, व्हाट्सऐप, मोबाइल नहीं थे. तथाकथित फूफाजी का पता भी कभी नहीं चला. सोचती हूं क्या आज भी वे संगीत के शो देखती होंगी? पिछले दिनों पता चला, उनकी दोनों आंखों के मोतियाबिंद का ऑपरेशन हुआ था. आंखों की रौशनी बेहद कम हो गई है और डॉक्टर ने उनके टीवी देखने पर सख़्त पाबंदी लगा दी है. सोच सोचकर रोना आ गया. अब वह कैसे अपनी आस का दामन थाम जी पाएंगीं? झूठा, अविश्वसनीय संबल था उनके पास वह भी छिन गया था. स्वाभिमानी स्त्री ने कभी वहां जा, अपने लिए भीख नहीं मांगीं थी, किंतु मन के कोमल हिस्से का यह सुख वह किसी चातक की तरह साधती थीं. उनकी तड़प, उनकी प्रतीक्षा... उफ़्फ़ अब क्या होगा? वे तो जी ही रही थीं इस आस में कि किसी दिन, कभी, कहीं एक झलक देख पातीं उसकी.

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