कहानी: वो लम्हे...

मन उलझे हुए धागों के समान होता है. कभी धागों का एक सिरा मिल जाता है और कभी कभी पूरी उम्र निकल जाती है धागे का एक भी सिरा हाथों की पकड़ में नहीं आता है, जितना सुलझाने की कोशिश करो, वह उलझता ही जाता है. मनुष्य जब अपने रिश्ते क़ायम करने के रास्ते आगे बढ़ता है तो कभी सोचता भी नहीं है कि यह रिश्ता आगे जाकर उलझे धागों की तरह हो जाएगा.

युवावस्था के मार्ग पर टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी भी जीवन में एक रोमांच घोलती है, चाहे वह पगडंडी अरण्य में खो जाती हो, लेकिन उसका अनुभव जीवनभर साथ रहता है. मध्यम श्रेणी का परिवार था, जो न तो अपने आपको बहुत नीचे ले जा सकता था और ना ही स्वयं को ऊंचाइयों तक पहुंचा सकता था. समस्त रू‌‌‌ढ़ियों, कुरीतियों को ढोता हुआ स्वयं को घसीटता परिवार था, जिसका प्रारंभ प्रात: से ही प्रारंभ हो जाता था, जब शौच के लिए क्रमश: सबके नंबर लगते थे. कभी कभी छोटा भाई कहता ‘प्लीज़ रुचि दीदी, मुझे जल्दी जाने दो ना...’

उसके चेहरे पर आई परेशानी देखकर मैं उसको जाने का अवसर दे देती थी. यही स्नानघर में भी होता था. सुबह का समय-सब काम पर जाने की जल्दी में. मैं कॉलेज जाने की जल्दी में. सब चाहते थे कि बाथरूम में जल्दी चले जाएं.

मेरी बड़ी इच्छा होती थी कि कुछ देर अपने सिर पर पानी डालते हुए आईने में निहारूं-फिर धीरे-धीरे अपनी नज़र और नीचे ले जाऊं. लेकिन उसके पहले ही बाथरूम के दरवाज़े पर पापा की ठक-ठक की आवाज़ गूंज उठती थी.

मैं जल्दी से बाहर आ जाती थी. घर में एक ही तौलिया, एक ही कंघी, एक ही दर्पण. सिर में डालने के लिए नारियल का तेल. मां कभी-कभी उसमें कोई ख़ुशबू का इत्र डाल देती थीं. बस, वही हमारे लिए महंगा तेल हो जाता था. कभी नहाने के लिए आख़िरी नंबर होता तो तौलिया एकदम गीला मिलता. मैं दिल मसोसकर रह जाती. मां ने पुरानी साड़ियों की बारीक़ सिलाई करके गोदड़ियां बना रखी थीं, वज़न में भारी. कभी-कभी तो ठंड में रातभर सो नहीं पाती थी. तकिए पर तेल के दाग़ ऐसे हो जाते थे कि सिर ही चिपकने लगता था. मां कभी-कभी उस पर एक कपड़ा डाल देती थीं, ताकि तकियों को धोना न पड़े.

परिवार की एक अच्छी आदत थी कि रात में लगभग हम सब साथ खाना खाते थे. ऐसे ही कॉलेज के दिनों में सलमा ज़िंदगी में आई. ना जाने उसने मुझमें क्या देखा कि हम दोनों सहेलियां बन गईं. उसने उसके घर मुझे बुलवाया. उसका घर दो मंज़िला था, जिसमें ऊपर वाली मंज़िल पर उसका एक कमरा था. पूरा घर व्यवस्थित सजा हुआ था. हर चीज़ अपने स्थान पर थी. एक दो पेंटिंग भी लगी हुई थीं. मुझे पानी पीने को दिया. हम दोनों बातें कर रहे थे कि उसने नाश्ता लाने की बात कही और नीचे चली गई. मैं फटी-फटी आंखों से पूरे कमरे को देख रही थी. टेबल, उस पर टेबल लैम्प, कुर्सी, एक ओर पलंग उसपर शानदार चादर, फ़र्श पर कालीन बिछा था. तब ही मुझे सीढ़ियां चढ़ने की आवाज़ सुनाई दी. मैं थोड़ा सतर्क होकर सामान्य-सी बनकर बैठ गई थी. मुझे अपने कपड़े, रंग-रूप पर बहुत संकोच हो रहा था. कहां सलमा का निखरा हुआ गोरा रंग रूप और कहां मैं? पढ़ाई में भी वह अच्छी थी. दोस्ती के किसी भी मापदंड पर मैं उसके बराबर नहीं थी.

आवाज़ पास आई. मैं समझी सलमा आ गई होगी. तभी कानों में पुरुष स्वर सुनाई दिया, ‘सलमा’ और वो अंदर कमरे में दाख़िल हुआ.

मुझे देखकर वह अचकचा गया,‘आप?’

मैं बुरी तरह घबरा गई.

‘मैं सलमा का भाई रफ़ीक हूं और आप शायद रुचि हैं?’

‘शायद नहीं, रुचि ही हूं,’ मैंने संकोच के साथ कहा.

‘सलमा आपके बारे में बहुत बातें करती है. वह कहां है?’

‘शायद नीचे गई है.’ मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया. रफ़ीक आंखों पर नज़र का चश्मा लगाए, सांवले रंग का, लंबे नैन-नक्श का, पहनावा ऐसा कि मानो कहीं पार्टी में जाना हो. मैं ख़ुद को और अपने कपड़ों को देख रही थी. नज़रें नीची थीं. पांव मुझे मैले-से लग रहे थे. आज तक मैंने ख़ुद को कभी ऐसी नज़र से नहीं देखा था. आज तुलनात्मक कोई पास था, जिसके चलते मैं अपने आप को काफ़ी नीचा समझ रही थी.

‘पढ़ाई कैसी चल रही है?’

‘ठीक.’

‘सलमा कैसी है पढ़ने में?’

‘बहुत अच्छी.’

‘अपने दोस्त की कौन बुराई करता है?’ रफ़ीक ने हंसते हुए कहा.

‘ऐसी बात नहीं है,’ मैं और भी सकुचा गई थी.

तभी सलमा ट्रे में नाश्ते की प्लेट लिए अंदर आ गई. प्लेट में मिठाई, नमकीन, मठरी वगैरह थी. शायद कुछ चीज़ों का नाम भी नहीं मालूम था. सलमा ने रफ़ीक को देखा तो ख़ुश होकर कहा,‘सही वक़्त पर आए.’

‘क्यों? क्या हो गया?’ रफ़ीक ने पूछा.

‘कुछ ख़ास नहीं, हम नाश्ता निपटा रहे हैं तब तक आप आइसक्रीम ले आइए ना.’

‘ओ नो यार.’

‘ओ यस भाई जान,’ सलमा ने ज़िद की.

‘ठीक है-पूछो अपनी सहेली से कि कौन-सा फ़्लेवर पसंद है?’

दोनों मेरे चेहरे की ओर देखने लगे. आइसक्रीम में भी कोई फ़्लेवर होता है मुझे नहीं मालूम था, फिर भी संकोच के साथ कहा,‘जो आपको पसंद हो.’

‘मैं कसाटा ले आऊं?’

‘जाओ भी भाई.’ सलमा ने कहा.

रफ़ीक मस्तीभरी चाल से सीढ़ियां उतर गया. मैं क्या इतना नाश्ता कर पाऊंगी-सोच रही थी. फिर एक ख़ाली प्लेट में थोड़ा नमकीन, एक मिठाई का टुकड़ा ले लिया. सलमा और लेने कहती रही, लेकिन मैंने कह दिया कि मैं ज़्यादा नहीं खा पाती. मन ही मन मुझे लग रहा था कि और ले लूं, लेकिन नहीं लिया.

थोड़ी देर में रफ़ीक एक बड़ा पैकेट कसाटा का ले आया. चारों ओर काजू लगे थे. मैंने थोड़ी-सी आइसक्रीम ली. जीवन में पहली बार इतनी अच्छी आइसक्रीम खाई थी. उनके खाने, पहनने, बोलने के अंदाज़ से लग रहा था कि उनका परिवार काफ़ी अमीर है. शाम को घर लौटते समय सलमा ने उसकी अम्मी से मिलवाया. वह काफ़ी रिज़र्व लगीं. सलमा ने ऑर्डर दिया कि रफ़ीक मुझे छोड़कर आए. मैं मना करती रही, लेकिन रफ़ीक मुझे अपनी बाइक से छोड़ने गया था. मैंने अपना मोहल्ला शुरू होने के पहले ही उसे रोक दिया था और शुक्रिया कहकर आगे बढ़ गई थी. जानती थी कि रफ़ीक उम्मीद कर रहा था कि मैं उसे घर चलने को कहूंगी. कह ही देती तो घर में बैठाती कहां? परिवार के सदस्यों के हज़ारों प्रश्न शूल की तरह मुझे चुभते. मैं चुपचाप आगे की गली से मुड़कर अपने घर में आ गई.

आज मुझे अपना घर छोटा, गंदा और बहुत ही अस्त-व्यस्त लग रहा था. सच कहूं तो मैं अपने आप को भी बहुत गंदा अनुभव कर रही थी. कपड़े मुझे पुराने और ना जाने किस ज़माने के फ़ैशन के बने लग रहे थे. रात जब हम सब एक कमरे में सोए तो मुझे सलमा का अलग से बना कमरा याद हो आया-कितना साफ़, सुंदर था! मुझे रफ़ीक के साथ लौटना याद हो आया. पता नहीं कौन-सा परफ़्यूम लगा रखा था, जो पूरे रास्ते हवा में अपनी ख़ुशबू बिखेरता रहा था. मैं संकोच में दूर बैठी थी. कोई अंग ना छू जाए. हमारे मोहल्लेवालों की मानसिकता मुझे मालूम है. ऐसी बातें बन जाएंगी कि मेरी पढ़ाई भी छूट जाएगी. फिर मेरा और रफ़ीक का क्या मेल? वो मुसलमान है. मैं हिंदू. मैं अकेली, चुपचाप करवटें बदलती रही और कब सो गई पता नहीं चला. उठी तो लगा रात मैंने बहुत बड़े-बड़े सपने देख लिए थे, जिनका बोझ आंखों पर कम, मन पर अधिक था.

एक सप्ताह के अंतराल पर सलमा ने मुझे फिर घर आने का निमंत्रण दिया, लेकिन मैंने बहाना बना दिया कि ‘मैं आज बाहर जा रही हूं.’

मुझे अचानक एक शाम रफ़ीक बाज़ार में मिल गया,‘अरे आप तो यहीं हैं?’

‘क्या मतलब?’ मैं चौंक गई थी.

‘सलमा बता रही थी आप बाहर जानेवाली हैं.’

‘कार्यक्रम कैंसल हो गया,’ मैंने चोरी पकड़ी जाने पर झूठ बोला. मैं चाह रही थी कि रफ़ीक जल्दी से सामने से हट जाए, ताकि मैं आगे बढ़ सकूं.

‘जानती हैं आपको क्यों बुलाया था?’

मैंने आंखों में सवाल लिए रफ़ीक को देखा.

‘मैं बाहर जा रहा हूं, जॉब पर, इसलिए पार्टी देने को बुलाया था.’

‘कहां जा रहे हैं?’

‘पूना. फिर उसके बाद...’ कहकर उसने हवाई जहाज़ के उड़ने का इशारा किया.

‘बधाई हो,’ मेरे मुंह से निकला.

‘सिर्फ़ बधाई? मिठाई, चाय-कॉफ़ी कुछ भी नहीं?’

मेरे पास सब्ज़ी भर के रुपए थे. मैं क्या कहती,‘फिर कभी.’

‘ना अभी. पेमेंट भी आप ही करेंगी. अगर ना हों तो उधार दे देता हूं.’

‘नो थैंक्स,’ मैंने कहा. सामने ही बने रेस्तरां में जाने को वह आगे बढ़ गया. कांच का दरवाज़ा हटते ही एक ठंडी हवा का झोंका आया.

बाहर गर्मी और उमस थी. ठंडक ने बहुत तसल्ली दी. हम एक ओर टेबल पर बैठ गए थे. उसने पास्ता, मंचूरियन का ऑर्डर दे दिया था. मुझे तो कभी भी यह डिश पसंद नहीं है. सो मैंने कहा,‘मेरे लिए मत बुलाओ.’

‘क्यों?’

‘मुझे पसंद नहीं है.’

‘तो ठीक है, जो आपको पसंद हो, वह बुला लें,’ कहकर उसने मीनू मेरी ओर बढ़ा दिया. मैं सस्ती से सस्ती खाने की चीज़ खोज रही थी, कोई भी सौ से कम नहीं थी.

इडली मंगवाई गई और रफ़ीक की पसंद कसाटा आइसक्रीम आ गई थी. हम आमने सामने बैठे थे, लेकिन बातचीत का कोई क्रम कहीं से पकड़ में नहीं आ रहा था. औपचारिक बातें-सलमा कैसी है? अम्मी कैसी हैं? सलमा की कोचिंग कैसी है? इतनी कम बातें वह भी फालतू की बातें, जो कहने-सुनने में बोर लग रही थीं. रफ़ीक बिना बताए कहे जा रहा था. पूना में आठ लाख का पैकेज मिला है. दुबई या सऊदी अरब चला गया तो एक करोड़ से कम नहीं मिलेगा.

‘आख़िर इतना कमाकर करोगे क्या?’

‘ऐश रुचि जी ऐश,’ उसकी आवाज़ में एक अजीब-सी चहक थी, आंखों में चमक. मैं अपने आप में ही नीचे देखकर शर्मिंदगी अनुभव कर रही थी. बिल लेकर बैरा आया तो उसने पर्स खोलकर पेमेंट कर दिया. मैंने कुछ हल्का अनुभव किया. अगर मैं पेमेंट करती तो घर क्या जवाब देती? बैरे को उसने पचास रुपए की टिप दी. ये सबकुछ मेरे लिए नया था.

मैं इससे निकलकर बाहर भाग जाना चाहती थी. मैं मोह जाल से निकल जाना चाहती थी. बाहर जब आए तो वही गर्मी और उमस थी. मैं जाने को मुड़ी तो रफ़ीक ने कहा,‘अब कब मिलोगी?’

‘क्यों?’

‘रुचि तुम बहुत कंजूस हो.’

‘क्या मतलब?’

‘कुछ भी अपने विषय में नहीं बताती. हंसती भी इतना हो कि मानो रुपए लग रहे हों. दिल पर वज़न रखा हो. आख़िर क्यों?’

‘कुछ नहीं. मैं चलती हूं.’ कहकर मैं जल्दी-से आगे बढ़ गई. जानती थी कि दो आंखें घूर रही होंगी, लेकिन जिस रास्ते जाना नहीं, क्यों उसका पता जानूं?

मेरे जीवन का उद्देश्य हो गया था अपनी ग़रीबी को हिम्मत के साथ काट फेंकूं-अत: मैं केवल पढ़ाई में जुटी हुई थी, लेकिन परिवार ने आगे पढ़ाने से मना कर दिया, क्योंकि इतना रुपया नहीं था कि प्रतियोगिता परीक्षा में मुझे बैठा पाते. ऐसी स्थिति में सलमा ने मेरी बहुत मदद की. उधारी के नाम पर लेकिन मैं जानती थी यह उधारी नहीं है, सीधी मदद है. सलमा से कई बार मिली. हमेशा उसने रफ़ीक की बात उठाई. मैंने कोई रुचि नहीं ली. मेरा एक मात्र लक्ष्य था किसी भी स्थिति में ग़रीबी से मुक्त होना.

परिवार मुझे समझने को तैयार नहीं था. पिताजी सोच भी नहीं पाते थे कि मैं क्या करने की सोच रही हूं. मां तो हमेशा यही कहती रही,‘बेटी अपनी इज़्ज़त बचाए रखना.’

वह इज़्ज़त क्या है पता नहीं? लेकिन शरीर पर किसी को ना चढ़ने देना ही उनकी इज़्ज़त का मापदंड होगा. मैं जीवन की दौड़ में बहुत तेज़ भागी, इतना तेज़ कि सबकुछ बहुत पीछे छूट गया.

परिवार की हालत सुधर गई. छोटे का विवाह हो गया. पूरे परिवार में मेरी बहुत इज़्ज़त थी. उस छोटे लोगों के मोहल्ले से निकलकर एक कॉलोनी में मकान ले लिया था. मैं महीने में एक बार कभी-कभी दो महीनों में आ जाती थी. अकेलेपन को अपने चारों ओर ऐसा घेर दिया था कि किसी का प्रवेश उसमें नहीं था. समय की धूप ने सिर के बालों को सफ़ेद कर दिया था, लेकिन इस तपती धूप ने मन की उमंगों को नहीं सुखाया था. परिवार में मेरे विवाह को लेकर कभी कोई चर्चा नहीं होती थी. छोटा भैया कहीं प्राइवेट कंपनी में डेटा एंट्री करने के पद पर था और पिताजी सेवानिवृत्त हो गए थे. मां और पिताजी कुछ दिन मेरे पास आकर ठहरे और अपनी अप्रत्यक्ष कामनाएं प्रकट कर दीं कि चारों धाम की यात्रा पर जाना है. मैंने उसकी भी व्यवस्था करवा दी, लेकिन कहीं से भी मेरे लिए उनके मन में कुछ नहीं था कि मैं जीवन में क्या करूंगी?

मन की उलझनों के जाल ऐसे होते हैं कि उनमें उलझो तो निकलना दूभर होता है. मैं कभी-कभी बहुत अकेलापन अनुभव करती थी. सलमा से कभी-कभी फ़ोन पर बातें हो जाती थीं. रफ़ीक की शादी हो गई थी और सलमा भी शादी करवाकर एक बच्चे की अम्मी बन चुकी थी.

‘एकाध दिन आऊंगी,’ हमेशा कहती, लेकिन वह आई कभी नहीं.

आख़िर मेरा भी तो जीवन है. मैं क्यों नहीं जी सकती अपने तरीक़े से? विदेशों में तो इस उम्र में लोग जीना शुरू करते हैं, क्योंकि उनके पास जीवन जीने का अनुभव होता है. हम भारतीय लोगों से मिलने को केवल चरित्र से, बिस्तर से जोड़कर ही देखते हैं. मैं सोचती अगर ऐसा कुछ जीवन में हो ही जाए तो क्या उससे चरित्र, ईमानदारी पर प्रभाव पड़ता है? क्यों इतनी सारी वर्जनाओं के मध्य जीवन जीने को बाध्य किया जाता है?  

 मेरे ही कार्यालय में एक युवक था. उम्र मुझसे छोटी ही होगी. हमेशा कुछ न कुछ गुनगुनाता रहता था या फिर पुस्तक पढ़ता रहता था. परिवार बहुत अधिक अमीर न था, पर थोड़े स्वतंत्र दिमाग़ का था. मैं अनुभव करती थी कि वो मुझमें रुचि थोड़ी अधिक ही लेता था. हमेशा मेरी पसंद का ध्यान रखता था. दो-तीन बार उसने मुझे दीदी कहने की चेष्टा भी की, जिसे मैंने सिरे से नकार दिया था. मैं उसके रंग रूप में उसकी बौद्धिकता में ना जाने क्यों रफ़ीक को खोज रही थी, क्योंकि अनजाने में ही रफ़ीक जीवन में आया, भले ही मैंने उसे मुसलमान होने के कारण या अपने परिवार के निम्न जीवन जीने के चलते स्वीकार नहीं किया था. 

मैं जानती थी कि वह दैहिक आकर्षण है. रफ़ीक सही मायने में सैपियोसेक्शुअल है. ऐसे व्यक्ति हमेशा बु‌‌द्धिमान व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी के प्रति आकर्षित नहीं होते. यह दैहिक आकर्षण खत्म होते ही रफ़ीक मुझसे तलाक़ ले लेता, क्योंकि अक्सर वह इतने विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करता था कि मैं चकरा जाती थी और उस समय मैं समझ नहीं पाती थी, लेकिन आज मुझे लगता है कि मुझे सच में ही रफ़ीक की ही ज़रूरत है, जिससे मैं बहस करती या तर्क करती. क्या इस युवक के पास कहीं इतनी बौद्धिकता होगी? मात्र और केवल मात्र दैहिक आकर्षण के अतिरिक्त सबकुछ शून्य होगा.

तो क्या पढ़ी-लिखी और अधिक उम्र की महिला खुलकर प्यार नहीं कर सकती? क्या वह ऐसे टूटकर प्यार करने की कामना नहीं रख सकती? क्यों मुझसे यह उम्मीद की जाए कि मैं पढ़ी-लिखी और सभ्य हूं तो मात्र ऐसे ही समर्पण करूं, जो विधि सम्मत सीमा रेखाओं में हो. सोचा उस युवक से मैं विवाह कर लूं, लेकिन विवाह ही क्यों? प्रेम क्यों नहीं कर सकती? वह मेरा प्रेमी क्यों नहीं बन सकता? जो मुझे स्वतंत्र रखे और मैं उसे बंधनमुक्त रख सकूं. ये समाज क्या कहेगा?

क्या कहेगा? मेरा जीवन है, मुझे मेरे तरीक़े से जीने का पूरा अधिकार है.

जब कामनाएं बलवती हो जाती हैं तो प्रकट हो जाती हैं. यही हुआ भी-लगने लगा कि मैं अपने लिए कब जी पाऊंगी? लेकिन जिस पद पर हूं, उसपर मैं किसी से स्पष्ट कह भी नहीं सकती. जो नवयुवक ऑफ़िस में काम करता था, वह फ़ाइल लेकर किसी विषय पर मुझसे चर्चा करने आया तो मैं कल्पना करती रही कि यह मुझसे रिश्ता बनाएगा तो इसका व्यवहार कैसा होगा? मैंने प्रोजेक्ट पर अपनी सलाह दी, वह जाने लगा, फिर कुछ देर रुक कर पूछा,‘आपकी तबीयत कैसी है?’

‘ठीक हूं, लेकिन बहुत अच्छी नहीं.’

‘कोई मेरे लायक काम हो तो बताएं,’ उसने शालीनता से प्रश्न किया.

‘रॉबर्ट यदि शाम को...’

‘मैं फ्री हूं. कहां मिलना है?’ उसकी आवाज़ में आशा और आंखों में तेज़ चमक आ गई.  

‘ऑफ़िस के बाद. मैं गेलार्ड में ६ बजे मिलती हूं,’ मैंने यूं कहा मानो उम्र के बीस बरस पूर्व रफ़ीक से मिलती तो कहती.

‘मैं मिल जाऊंगा.’

‘ओके,’ मैंने कहा. वह चला गया.

मेरे मन में विचार आया. कहीं यह पहल इतने बरसों से बनी इज़्ज़त मिट्टी में ना मिला दे? कहीं ये बाद में इसका दुरुपयोग न करे. फिर दूसरा विचार आया-ना वह ऐसा नहीं कर सकता. ना जाने क्यों मन डोल रहा था. घड़ी देखी. २ बज चुके थे, लेकिन समय बहुत धीमे-धीमे कट रहा था. मैं आजभर या हो सकता है जीवनभर के लिए अपने तरीक़े से भरपूर प्यार के साथ जी लेना चाहती हूं-कितने बरसों तक अपनी कामनाओं को चट्टानों के बांध से रोककर रखा. प्रेम सीने में दबे-दबे पूरा गंदला हो गया, लेकिन अब मैं स्वयं एक एक चट्टान को तोड़कर अंदर के स्रोत को बहने दूंगी.

शाम को मैं ज़रा जल्दी घर के लिए निकल गई. तैयार होकर गेलार्ड पहुंची तो बाहर ही मुझे रॉबर्ट मिल गया. मैंने उसे ध्यान-से देखा. नाटे क़द का, गठीला शरीर, गौर वर्ण था. नाटा इतना भी नहीं कि बुरा लगे. छाती चौड़ी थी, छाती के बाल टीशर्ट के बाहर दिख रहे थे. मुझे देखकर वह ख़ुश हो गया. हम दोनों अंदर गए. कॉफ़ी का ऑर्डर दिया. वह चकित दृष्टि-से चारों ओर देख रहा था, जैसे कभी रफ़ीक के साथ कॉफ़ी हाउस में जाने के बाद मैं देखती थी. कॉफ़ी पीकर मैंने ही कहा,‘समय हो तो फ़िल्म देख लें?’

‘क्यों नहीं?’

सीधे हमने गेलार्ड में ही लगी मिनी थिएटर में एक फ़िल्म देखी, जो एक लव स्टोरी थी. कई बार अनजाने में या जानबूझकर हाथ छू भी गया तो मैंने हाथों को हटाया नहीं. वह भी इतने बढ़िया हॉल में पहली बार मूवी देख रहा था. पिक्चर के बाद डिनर लिया और फिर उससे बिदा लेने की जब बारी आई तो उसने कहा,‘बस इतना ही कुछ?’

‘क्यों?’

‘मैं चाह रहा था आपको घर तक छोड़ देता,’ उसकी आवाज़ में अजीब-सा नशा था.

‘चलो,’ मैंने कोई आपत्ति नहीं की. मैं स्वयं आज सारी सीमाएं लांघना चाह रही थी. हम दोनों आगे बढ़े. मैं ड्राइव कर रही थी. वह मेरे साथ आगे बैठा था.

‘रुचि जी आज की शाम ज़िंदगी की एक यादगार शाम हो गई.’

‘अच्छा.’

‘जी हां. कभी जहां मैं जाने की सोचता था, जिस होटल को बाहर से देखता था, वहां आज मैंने डिनर किया. थैंक्यू!’
‘वेलकम. लेकिन रॉबर्ट प्लीज़ अब मुझे थैंक्यू मत कहना.’

‘ओके,’ उसने खिड़की के कांच खोल दिए. हवा की ठंडक अंदर तक आ गई थी.

मैंने घर की जगह एक बाहरी सड़क पर कार को मोड़ दिया, जहां चारों तरफ़ सुनसान था. हवा में अजीब-सा नशा था. रॉबर्ट ने मुझसे पूछा,‘रुचि जी, मैं आपके कांधे पर हाथ रख दूं?’

‘ऊंह,’ मैंने कहा.

उसने हाथ को आगे बढ़ाया और कांधे पर रख दिया. तेज़ गति से कार सुनसान सड़क पर चल पड़ी थी, मंज़िल को जाने बिना. अनजाने रास्ते पर मंज़िल की खोज में. मैंने अनुभव किया उसके हाथ की उंगलियां गर्दन को छू रही थीं, हल्के-हल्के. अजीब-सी सिहरन हो रही थी. कार तेज़ गति से चल रही थी. एक मोड़ पर मैंने कार को रोका और रॉबर्ट को देखा. उसकी आंखों में नशा था मुझे पा लेने का. इस समय रॉबर्ट में ना जाने कौन सा आकर्षण था? शायद, मात्र पुरुष होने का ही आकर्षण था. मैंने उसके बिना कहे मन के भावों को समझ लिया और कार को अपने घर की ओर मोड़ लिया.

पूरे रास्ते मैं पाप-पुण्य, उम्र के अंतर, समाज के बंधनों के अतिरिक्त जाने क्या-क्या सोचती रही. मैंने कार गैरेज में खड़ी की तो उसने मुझसे चाबी लेकर दरवाज़ा खोला. मैंने लाइट ऑन की.

‘वॉव कितना सुंदर कमरा है,’ उसके मुंह से अनायास निकला.

 मैं ख़ुश हो गई. रॉबर्ट मिडिल क्लास या शायद जिस स्थिति में हमने जीवन काटा था, उसी तरह के परिवेश का प्रतीत हो रहा था. आंखों में चमक थी, उसने बड़े विश्वास और अपने अधिकार से फ्रिज को खोला और उसमें से सॉफ़्ट-ड्रिंक की एक बॉटल निकालकर टेबल के पास बैठ गया. मैं फ्रेश होने चली गई. ड्राइंग रूम से लगा ही बेडरूम था, उसी के बाजू में किचन था. मैं जब लौटी तब तक रॉबर्ट ने टीवी चालू कर दिया था. पूरे अधिकार के साथ वह देख रहा था. मुझे भी अच्छा लगा. फिर अचानक मन में पाप-पुण्य जैसे भाव आने जाने लगे, लेकिन उम्र का पूरा ही हिस्सा निकल गया, अपने लिए कभी सोचा ही नहीं. रफ़ीक की आंखों के भावों को जानकर भी अनजान बनी रही.

रात के ११ बज चुके थे, आंखों में नींद आने लगी थी. मैंने वैसे ही कहा,‘रॉबर्ट तुम ड्रॉइंग रूम में सो जाओ.’

‘क्यों?’ वह बुरी तरह से चौंक गया,‘मैं तो तुम्हारे साथ ही रहूंगा. मुझे अकेले में डर लगता है,’ कहकर उसने शरारत से मुझे देखा.

‘ठीक-उठो चलो,’ कहकर मैं बेडरूम में चली आई. रॉबर्ट सब बड़े आश्चर्य से देख रहा था. उसे इस तरह देखते हुए मुझे सुखद अनुभूति हो रही थी, लेकिन वह पुरुष है, इसलिए कहीं से अपने को कम नहीं आंक रहा था. जबकि मैं सलमा के घर पर शर्म से गड़ी जाती थी. बार-बार एहसास होता था कि हम कितने ग़रीब हैं.

रॉबर्ट बेडरूम से लगे बाथरूम में फ्रेश होकर लौटा, कमरे में कम रौशनी कर दी थी. वह मेरे पास आकर लेट गया. उसकी सांसें तेज़ एवं गर्म थीं. मैं उसकी पहल की प्रतीक्षा कर रही थी, क्योंकि मेरे लिए जीवन का यह प्रथम अनुभव था. रॉबर्ट उन्माद से भर गया, उसका इस तरह उन्मादी होना मुझे अच्छा लग रहा था. जैसे तेज़ आंधी जब आती है तो पेड़ के पास लगी लता वृक्ष के तने से और ज़ोरों से लिपट जाती है, ठीक उसी तरह से मैं रॉबर्ट के गले लग गई. मुझे लगा कि मैं रॉबर्ट से ५ साल छोटी हो गई हूं. 

रॉबर्ट वर्षा की बूंदों की तरह पूरे शरीर पर चुम्बनों की बरसात कर रहा था. प्रेम का यह भी एक आनंद होता है. मैं आज जान पा रही थी. ना जाने क्यों लगा रॉबर्ट इतना खोया हुआ है कि वह प्रत्येक चुम्बन के साथ प्रत्येक क्षण निकट आने की प्रक्रिया में हांफ रहा था और बुदबुदा रहा था ‘अनु-अनिता-जान’ मैं तो रुचि हूं, यह अनु कौन है? मैंने सुनकर भी अनसुना कर दिया, लिपटी रही, उसके प्रत्येक प्रेम का प्रति उत्तर देती रही. मैं धीमे-धीमे थक रही थी. मैं लाख कोशिश कर रही थी ना कुछ कहूं फिर भी मुंह से कुछ निकल ही रहा था-वह क्या था?

आंधी समाप्त हो गई. सबकुछ ठहर गया. थककर पस्त हम दोनों लेटे हुए थे. कुछ-कुछ बेहोश लगा ये रात ख़त्म ना हो.

मैंने ही रॉबर्ट से प्रश्न किया,‘रॉबर्ट ये अनीता कौन है?’

‘तुम्हें कैसे मालूम?’ उसने आश्चर्य से पूछा.

‘बताओ ना.’

‘वाइफ़ है मेरी. वह बहुत प्यार करती है...’

‘और तुम?’

‘कुछ समय अनजान इंसान भी पास रहे तो प्यार हो जाता है, लेकिन तुमने क्यों पूछा?’ रॉबर्ट ने फिर सवाल किया.

‘क्योंकि तुम उसका नाम लेकर मेरे साथ थे.’ मैंने दो टूक शब्दों में कहा.

‘ओह नो,’ उसने मुझसे कहा. फिर अचानक बिस्तर छोड़कर तैयार होते हुए कहने लगा,‘मैं अब जाऊं. शी मस्ट बी वेटिंग फ़ॉर मी.’

मैंने सुना तो धक्क रह गई. वह जो प्यार दे रहा था वह मेरे हिस्से का नहीं था. वह तो किसी और का था. मुझे उपकृत करने के लिए उसने दे भर दिया था.

मैंने कुछ नहीं कहा, मेरा अधिकार था भी क्या? वह उसकी ब्याहता थी, सामाजिक बंधन में बंधी. मैं तो पलभर के लिए या कुछ समय के लिए...शायद रखैल थी उसकी. फिर मुझे ख़ुद पर ही हंसी आई. सच तो ये है कि वह रखैल था, मैं नहीं!

दरवाज़े तक मैं उठकर छोड़ने आई. उसने दरवाज़े की चौखट पर मुझे हल्के-से पास खींचा और होंठों का चुम्बन लेकर कहा,‘रुचि जी जान सकता हूं ये रफ़ीक कौन था?’

‘क्या...?’ मैं चौंक गई.

‘आपने मुझे रॉबर्ट कहां समझा? जो भी प्यार में कह रही थीं, प्रतिउत्तर दे रही थीं रफ़ीक-रफ़ीक कहकर दे रही थीं. क्या इतना प्यार करती थीं? क़ाश रॉबर्ट मानकर ही करती तो मेरी रात अमर हो जाती...’ रॉबर्ट कुछ
पल ठहरा, कोई उत्तर सुनने के लिए, कोई उत्तर ना पाकर ‘बाय. गुड नाइट’ कहकर वह निकल गया.

मैं घर में आई. बिस्तर पर अभी-भी किसी के होने का एहसास था. कौन था रॉबर्ट या रफ़ीक? उसने उसके हिस्से का प्यार नहीं दिया और मैंने अपने हिस्से का प्रेम उसे नहीं दिया...हिसाब बराबर हो गया. लेकिन ज़िंदगी का हिसाब इतना सरल और सहज थोड़े ही होता है. मन उलझे धागों के समान होता है, जिसका एक सिरा कहीं होता है और दूसरा मन की गहराइयों में कहीं छिपा होता है. मैं उलझे मन के धागों को लिए बिस्तर पर ना जाने कब से जाग रही हूं. धागे का एक सिरा भी मेरे हाथों में नहीं आ पा रहा है...

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