कहानी: दो चेहरे
उस दिन रविवार था. मैं सुबह पांच बजे बिस्तर से उठ गई थी. सुबह नौ बजे रितु दीदी की फ़्लाइट आनेवाली थी. उससे पहले मैंने ब्रेकफ़ास्ट और लंच दोनों की तैयारी कर ली. मैंने घर में किसी को कुछ नहीं बताया था. यहां तक कि समीर को भी दीदी के आने की ख़बर नहीं होने दी. मैं नहाकर जल्दी से तैयार हो गई और समीर से कहा,‘‘मुझे अपनी फ्रेंड से कुछ काम है. एक घंटे में आ जाऊंगी.’’ इससे पहले कि समीर कुछ पूछते, मैं जल्दी से घर से बाहर निकल गई. लिफ़्ट से नीचे पहुंची, तभी ख़्याल आया, स्कूटर की चाबी तो मैंने ली ही नहीं. मैं वापस ऊपर आई. फ़्लैट का दरवाज़ा खुला हुआ था. ज्यों ही मैं अंदर आई, मम्मी की आवाज़ कानों में पड़ी,‘‘देख समीर, संध्या इस घर की लड़की नहीं बहू है. यह भला कोई क़ायदा है जींस टॉप पहना, स्कूटर उठाया और चल दी. न बड़ों का लिहाज, न आंख में शर्म.’’
‘‘मम्मी, आप किस ज़माने की बात कर रही हैं. आजकल हर लड़की जींस टॉप पहनती है. दीदी भी सब कुछ पहनती हैं, उन्हें तो आप कुछ नहीं कहतीं.’’
‘‘दीदी दूसरे घर की हो गई है. वह कुछ भी करे मुझे क्या? और यह तुझे आज कल हो क्या गया है? चार दिन शादी को हुए नहीं, हरदम बीवी की तरफ़दारी करता रहता है.’’
इतने में पापा की आवाज़ आई,‘‘गीता, ख़ामोश हो जाओ. क्यों व्यर्थ में अपने साथ-साथ सबका दिमाग़ ख़राब कर रही हो. पढ़ी-लिखी हो. ज़माने के साथ चलना सीखो. इतनी अच्छी बहू मिली है, उसकी क़द्र करो.’’
मैंने चुपचाप चाबी उठाई और बाहर निकल आई. पापा ने मेरा ढेरों ख़ून बढ़ा दिया था. मैं एयरपोर्ट पहुंची. दीदी की फ़्लाइट आधा घंटा लेट थी. मैं लॉबी में जा बैठी और आंखें बंद कर विचारों के सागर में डूबने उतरने लगी. समीर से मेरी मित्रता बीटेक के अंतिम वर्ष में हुई थी. चंद दिनों में ही दोस्ती की सीमा लांघकर हम प्यार की ओर बढ़ गए. हम दोनों को बैंगलोर की दो अलग कंपनियों में जॉब मिली थी. जॉब लगते ही कब समीर अपने मम्मी-पापा के साथ मेरा हाथ मांगने आए और कब हम दोनों का विवाह हो गया, पता ही नहीं चला. पलकों पर सतरंगी सपने संजोए मैं समीर के घर आ गई. चौथे दिन हम दोनों को हनीमून के लिए निकलना था. शाम का समय था. मैं अपने कमरे में पैकिंग में व्यस्त थी तभी मेरी सास ने समीर को अपने कमरे में बुलवाया. कुछ देर बाद समीर लौटे तो उनका चेहरा उतरा हुआ था. वो कुछ परेशान दिखाई दे रहे थे. मैंने वजह जाननी चाही. झिझकते हुए वह बोले,‘‘संध्या, मम्मी हनीमून पर जाने के लिए मनाकर रही हैं.’’
‘‘क्यों?’’ मैं हैरान रह गई.
‘‘उनका कहना है बैंगलोर में तो हम अकेले ही रहेंगे फिर हनीमून पर जाने की क्या तुक है? इतने दिन उनके पास दिल्ली में ही रहें तो उन्हें अच्छा लगेगा.’’
‘‘समीर, बैंगलोर में अकेले रहने और हनीमून पर जाने में तो फ़र्क़ है न? फिर हमारा रिज़र्वेशन भी हो चुका है. होटल भी पहले से बुक है.’’ मेरे स्वर की निराशा ने समीर को बेचैन कर दिया था.
वे आहत स्वर में बोले,‘‘मेरे साथ-साथ पापा ने भी मम्मी को समझाया था, लेकिन...’’
मेरी आंखों में क्रोध और पीड़ा का मिलाजुला भाव तैर गया. खीझकर मैं अटैची से कपड़े निकालने लगी. तभी ज़ेहन में शादी से पूर्व अपनी मम्मी के कहे शब्द आ गए. उन्होंने कहा था,‘संध्या, शादी के बाद लड़की ससुराल में कितनी जल्दी ऐडजस्ट होती है, यह ससुरालवालों के साथ-साथ लड़की की स्वयं की सोच और व्यवहार पर निर्भर करता है. थोड़ा-सा सब्र और धैर्य रिश्तों को मज़बूत बनाने में मदद करता है.’ मैंने ख़ुद को सहज करने का प्रयास किया और फीकी मुस्कुराहट के साथ बोली,‘‘तुम टेंशन मत लो, हम बैंगलोर से ऊटी घूम आएंगे.’’ लेकिन बैंगलोर पहुंचकर भी हम लोग ऊटी नहीं जा पाए. शादी में ली गई छुट्टियों के कारण ऑफ़िस में काम बहुत था. हनीमून पर जाने का रोमांच और उसकी मादकता के एहसास से मैं वंचित ही रही. दिल्ली से आए दो माह हो चुके थे.मेरी और समीर की गृहस्थी धीरे-धीरे व्यवस्थित हो रही थी.
समीर बहुत कोऑपरेटिव थे. हम दोनों में अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी. एक दिन दिल्ली से पापा यानी मेरे ससुरजी का फ़ोन आया कि वो और मम्मी बैंगलोर आ रहे हैं. मैं ख़ुश थी. मुझे ख़्याल आया, क्यों न चुपचाप अपनी ननद रितु दीदी को भी पूना से बैंगलोर आने का निमंत्रण दे दूं. उनके अचानक चले आने से समीर और मम्मी-पापा सरप्राइज़्ड हो जाएंगे. मैंने दीदी को फ़ोन मिलाया. उन्होंने दस दिन बाद आने का आश्वासन दिया. मम्मी-पापा आ गए. मैंने दो दिन की छुट्टी ले ली, ताकि आते ही वे दोनों अकेले न पड़ जाएं. मैं ख़ुश थी. उनका ज़्यादा-से-ज़्यादा ख़्याल रखकर अपना इम्प्रेशन जमा लेना चाहती थी. पर मम्मी का टिपिकल सास वाला रवैय्या मेरी समझ से परे था. उनकी पैनी दृष्टि हरदम मेरा निरीक्षण करती रहती थी. ज़रा-सा मौक़ा हाथ आया नहीं कि उपदेश देना शुरू कर देती थीं. यही नहीं, समीर का घर के कामों में हाथ बंटाना भी उन्हें खटकता था. एक सुबह ऑफ़िस जाने से पहले मैं सबके लिए नाश्ता बना रही थी. समीर वॉशिंग मशीन से कपड़े निकालकर सुखा रहे थे, मम्मी से रहा नहीं गया. बालकनी में जाकर बोलीं,‘‘समीर यह क्या, कपड़े तू सुखा रहा है?’’
‘‘इसमें हर्ज ही क्या है मम्मी? संध्या भी बहुत बिज़ी रहती है. जब कमाते दोनों हैं तो घर का काम भी दोनों को मिलकर करना चाहिए,’’ समीर बोले.
‘‘अच्छा अब तो बड़ा समझदार हो गया है, पर पहले कभी तूने ऐसी समझ नहीं दिखाई. अपनी मां का हाथ तो तूने कभी नहीं बंटाया.’’
‘‘ओह मम्मी कैसी बातें करती हो? चलो इस बार दिल्ली आऊंगा तो सारा काम मैं करूंगा. तुम बस पलंग पर बैठकर हु़क्म चलाना.’’ मां के गले में बांहें डालकर समीर हंस दिए थे.
मुझे बहुत बुरा लग रहा था. मम्मी के इस ऐटिट्यूड ने उनके आने की सारी ख़ुशी काफ़ूर कर दी थी. अब मुझे अफ़सोस हो रहा था, क्यों मैंने रितु दीदी को इन्वाइट कर लिया. अकेली मम्मी का यह हाल है तो जब बेटी भी साथ होगी, तब क्या होगा? वो तो मम्मी को और भी मेरे ख़िलाफ़ भड़काएंगी. आख़िर ननद जो ठहरीं. लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था. तीर कमान से निकल चुका था. फ़्लाइट आ चुकी थी. बाहर आने पर रितु दीदी ने मुझे गले लगा लिया. दीदी को देख घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई. समीर मुस्कुराते हुए बोले,‘‘संध्या ने मुझे भी कुछ नहीं बताया.’’
‘‘तुम दोनों लड़कियों ने हमें अच्छा सरप्राइज़ दे डाला,’’ पापा ने कहा.
‘‘पापा, ये प्लान आपकी बहू का था. इसी ने चुपके से मुझे इन्वाइट किया था.’’
रितु दीदी के जवाब पर पापा ने मम्मी की तरफ़ इस अंदा़ज से देखा मानो कह रहे हों. देखी अपनी बहू की क़ाबिलियत?
दोपहर में सभी डाइनिंग टेबल पर बैठे लंच कर रहे थे. समीर को करेले की सब्ज़ी खाते देख मम्मी से रहा नहीं गया. बोल ही दिया,‘‘यह क्या समीर, तू करेला खा रहा है? शादी से पहले तो छूता भी नहीं था. संध्या को करेला पसंद है शायद इसलिए...’’
मम्मी का व्यंग्यात्मक स्वर पापा को बुरा लगा. वो झट से बोले,‘‘समीर बेटे, मुझे तुम दोनों का कोऑपरेशन और ऐडजस्टमेंट देखकर बहुत ख़ुशी हो रही है. अपने पार्टनर की छोटी-छोटी बातों को अपनाना रिश्तों को मज़बूत और सौहार्दपूर्ण बनाता है.’’
मम्मी बुरी तरह झेंप गई थीं. मैं मुस्कुरा दी.
दीदी एक सप्ताह के लिए बैंगलोर आई थीं इसलिए मैंने और समीर ने ऑफ़िस से छुट्टी ले ली, ताकि सब आराम से घूम सकें. एक सुबह दीदी मेरे साथ किचन में पूरी बनवा रही थीं. गप्पें मारते हुए उन्होंने अचानक बातों का रुख़ मम्मी की ओर मोड़ दिया. वह बोलीं,‘‘संध्या, जब से मैं आई हूं, देख रही हूं मम्मी तुम्हें कुछ-न-कुछ बोल देतीं हैं, पर तुम उनकी बातों को दिल से मत लगाना. वो मन की बहुत अच्छी हैं.’’
‘‘दीदी, मैं किसी के मन को तो नहीं जानती हूं. जैसा व्यवहार मेरे साथ होगा, मेरा मन उसी के अनुसार रिऐक्ट करेगा. कभी-कभी मुझे मम्मी की बातों का बहुत बुरा लगता है. फिर सोचती हूं, आख़िर जो मां इतने अरमानों से अपने बेटे की शादी रचाती है, वही बहू की सबसे बड़ी आलोचक, उसकी प्रतिद्वंदी कैसेबन जाती है? शायद इसकी वजह उसके पूर्वाग्रह या फिर उसके अवचेतन मन में दबी हुई असुरक्षा की भावना है. कहीं बेटा उससे दूर न हो जाए. इसी शंका के चलते वह चाहे-अनचाहे नहीं चाहती कि बेटा बहू की ज़्यादा केयर करे...’’ अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मम्मी की चीख सुनाई दी. हम बाहर भागे. बाथरूम से आते हुए मम्मी का पांव फिसल गया था. दरवाज़े से टकराने के कारण माथे से ख़ून बह रहा था. हम लोग बुरी तरह घबरा गए. पापा ने सहारा देकर उन्हें सोफ़े पर बिठाया. डिटॉल लाकर मैंने मम्मी का घाव साफ़ किया और पट्टी बांध दी. मैंने कहा,‘‘मम्मी घबराइए मत, मेरे साथ डॉक्टर के पास चलिए. मैं स्कूटर निकाल रही हूं.’’
‘‘समीर आ जाए तो मैं उसके साथ चली जाऊंगी.’’
‘‘मम्मी, समीर कार की सर्विसिंग के लिए गए हैं. पता नहीं कब तक आएंगे. आप मेरे साथ चलिए.’’
डॉक्टर से पट्टी करवाकर मैं लौटी तभी समीर आ गए. ‘‘अरे मम्मी को क्या हुआ?’’ समीर घबरा उठे.
‘‘कुछ भी तो नहीं, मामूली-सी चोट है. दरवाज़ा लग गया था.’’ अपने प्रति बेटे की चिंता को देख मम्मी प्रसन्न हो गईं.
‘‘मम्मी, आप आराम कीजिए. घूमना कैंसिल,’’ समीर बोले.
‘‘घूमना कैंसिल नहीं होगा. मैं बिल्कुल ठीक हूं. रितु क्या रोज़-रोज़ बैंगलोर आएगी?’’
रितु दीदी की अनिच्छा के बावजूद मम्मी घूमने गईं. शाम को सब लोग घूमकर लौटे. चाय पीकर मैं और समीर अपने कमरे में आराम करने चले गए. समीर तो सो गए, पर मैं बिस्तर पर लेटी थी. पापा-मम्मी और दीदी ड्रॉइंग रूम में आराम से बैठे बातें कर रहे थे. उनकी आवाज़ें मुझे साफ़ सुनाई दे रही थीं. दीदी बोलीं,‘‘मम्मी, आपने देखा संध्या को? उसे आपकी कितनी फ़िक्र हो गई थी. फिर भी आप हमेशा संध्या में कमियां ढूंढ़ने की कोशिश करती हैं. उन दोनों पर व्यंग्य कसती रहती हैं. आपका यही ऐटिट्यूड रहा तो आपके रिश्ते में तो खटास आ ही जाएगी, समीर और संध्या के रिश्ते में भी तनाव पैदा हो जाएगा. तब क्या आपको अच्छा लगेगा?’’
पापा ने गहरी सांस ली. बोले,‘‘छोड़ो रितु, तुम्हारी मम्मी की समझ में कुछ नहीं आएगा. दरअसल तुम्हारी मम्मी के दो चेहरे हैं. अपनी बेटी के सामने उनका एक चेहरा है और बहू के सामने दूसरा. तुम्हारे हनीमून पर मलेशिया जाने से ये कितनी ख़ुश थीं, लेकिन बेटे-बहू का हनीमून प्रोग्राम ख़ुद कैंसिल करवा दिया. दामाद बेटी का ख़्याल रखे तो ख़ुश होती हैं, लेकिन बेटे का बहू की हेल्प करना इन्हें तनिक नहीं सुहाता. तब बेटा जोरू का ग़ुलाम की पदवी पा जाता है. तुम्हारे घर जाती हैं तो किचन में तुम्हें घुसने नहीं देतीं, जबकि यहां किचन में जाना ही नहीं चाहतीं. पूछो इनसे, इतने दिन हो गए यहां आए हुए, कभी बेटे बहू को उनकी पसंद का बनाकर कुछ खिलाया?’’
रितु दीदी कुछ रुककर बोलीं,‘‘मम्मी मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि आप ऐसा कर सकती हैं! अब वह ज़माना गया, जब सास-बहू के रिश्ते में कड़वाहट हुआ करती थी. जैसे-जैसे लेडीज़ एजुकेटेड होती जा रही हैं, रिश्तों के नए आयाम बनते जा रहे हैं. आज की सास ने वह टिपिकल ललिता पवार वाला चोगा उतार फेंका है और उसकी जगह ले ली है, एक पढ़ी-लिखी समझदार औरत ने, जो अपनी बहू के लिए भी उतनी ही स्नेहिल है, जितनी अपनी बेटी के लिए, यही वजह है कि आजकल सास और बहू के बीच दोस्ताना रिश्ते हैं. मम्मी, छोटी-छोटी बातें जीवन में बहुत महत्व रखती हैं. इनसे रिश्तों में नज़दीकियां भी आती हैं और दूरियां भी पैदा हो जाती हैं.’’
पापा बोले,‘‘तुम्हारा यही रवैय्या रहा गीता तो न तो संध्या दिल्ली आना चाहेगी और न तुम्हें बैंगलोर बुलाना चाहेगी. हम आज की युवा पीढ़ी को दोष देते हैं कि वे संयुक्त परिवार में रहना ही नहीं चाहते, पर क्या इसकी एक वजह हम लोगों का दोषपूर्ण व्यवहार नहीं है? गीता, नारी के कितने रूप होते हैं. वह किसी की आज्ञाकारी बेटी है, तो पतिव्रता पत्नी भी है. ममतामयी मां है तो अनुशासनप्रिय सास भी है. जिसे एक पराए पौध को अपनी बगिया में इस तरह रोपित करना होता है, ताकि वह पौधा सिर्फ़ ज़मीन ही न पकड़ ले, बल्कि भली-भांति पल्लवित और पोषित भी हो. पर कुछ अपने पूर्वाग्रह और कुछ नासमझी के कारण महिलाएं इस भूमिका को निभाने में अक्सर चूक जाती हैं.’’
‘‘मैं तुम दोनों की बात अच्छी तरह समझ रही हूं. सच कहूं तो आज सुबह से मुझे इस बात का एहसास हो रहा है कि मैं ग़लत कर रही हूं,’’ मम्मी की आवाज़ रुआंसी हो आई थी.
अगली सुबह एक नए आगाज़ के साथ आई. अपने प्रति मम्मी का स्नेहिल व्यवहार देखकर मैं सोच रही थी, स्वयं को बदलना कोई कठिन काम नहीं है. ज़रूरत है बस, अपने ऩजरिए और इच्छाशक्ति में बदलाव लाने की. रितु दीदी को बुलाना कितना सार्थक सिद्ध हुआ था, ये मुझे अब महसूस हो रहा था. उन्होंने अपनी समझदारी से यह साबित कर दिया था कि आज की पढ़ी-लिखी ननद-भाभी का रिश्ता जीवन में कितनी मिठास घोल सकता है.
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