कहानी: ख़ुशबू

पिछले कई दिनों से वह सुबह-शाम उसके रूम के चक्कर लगा रहा था. बेड पर लेटी अधखुली आंखों से वह उसे आते-जाते देखती रहती. वह आता, ख़ामोशी से उसे कुछ पल निहारता और चला जाता. क़रीब 34-35 वर्ष का होगा वह. चेहरे पर सौम्यता और आंखों में ग़ज़ब का आकर्षण. क्यों आता है वह उसके रूम में? पूछेगी आज वह उससे. क्या वह उससे परिचित है? किंतु वह तो नहीं जानती उसे. उसने अपनी स्मृति पर ज़ोर डाला. नहीं, वह क्या, उससे मिलती-जुलती शक्ल के किसी इंसान तक को वह नहीं जानती. फिर कौन है वह और क्या चाहता है? किंतु आज तो वह अभी तक आया ही नहीं है. 

रोज़ सुबह 11 बजते ही वह उसके रूम में होता है, किंतु आज तो 12 बज गए हैं और वह अभी तक आया नहीं है. कहीं उसकी तबीयत तो ख़राब नहीं हो गई या फिर कोई अन्य अप्रिय घटना... नहीं नहीं, मन ही मन वह सिहर उठी. क्या करे वह, किससे पूछे? क्या नर्स से पूछना उचित होगा? मन में उसके कशमकश चल रही थी कि अचानक वह उसके रूम में दाख़िल हुआ तो उसने राहत की एक गहरी सांस ली. वह चेयर खींचकर उसके क़रीब आ बैठा और उसे देख मुस्कुराया,‘‘हैलो, आज तुम्हारी तबीयत बेटर लग रही है. आज मैं आने में लेट हो गया. मेरा इंतज़ार कर रही थीं न तुम,’’ बेतकल्लुफ़ी से उसने पूछा और न चाहते हुए भी सहमति में उसकी गरदन हिल गई. ‘‘मेरा नाम रजत है. इसी हॉस्पिटल में रूम नंबर 108 में एडमिट हूं. और तुम?’’

‘‘मैं रिया,’’ बेसाख़्ता उसके मुंह से निकला फिर वह तुरंत संभल गई और बोली,‘‘इस हॉस्पिटल में बहुत पेशेन्ट्स एडमिट होंगे. हर किसी को कोई न कोई तक़लीफ़ होगी. आप क्या हर एक के रूम में...’’ 

उसके चेहरे पर एक स्निग्ध मुस्कान तैर गई,‘‘नहीं सिर्फ़ तुम्हारे रूम में.’’ 

‘‘पूछ सकती हूं ऐसा क्यों?’’ 

वह गम्भीर हो उठा,‘‘सात दिन पहले जब तुम इस हॉस्पिटल में आई थीं, तुम बेहोश थीं, किंतु तुम्हारे चेहरे पर इतना दर्द सिमट गया था, तुम इतनी परेशान और बेचैन दिखाई दे रही थीं मानो असंख्य नागफनी के कांटे तुम्हारी आत्मा को लहुलुहान कर रहे हों. तभी मेरी अंतरात्मा से आवाज़ आई कि मुझे तुम्हारी पीड़ा को जानना चाहिए और उसे दूर करने में तुम्हारी मदद करनी चाहिए. पूछ सकता हूं, किस दर्द से गुज़र रही थीं तुम? ऐसा क्या हो गया था, जो बेहोश हो गईं थीं.’’ 

‘‘यूं तो मैं अजनबियों से बात करना पसंद नहीं करती, पर पता नहीं क्यों आपसे बात करने में सहज फ़ील कर रही हूं.’’ 

‘‘फिर बताओ तुम्हें क्या तक़लीफ़ है? क्यों तुम्हें हॉस्पिटल आना पड़ा?’’ 

वह कुछ पल उसे देखती रही. उसकी आंखों में नमी तैर गई. वह बोली,‘‘मैं मरना चाहती थी इसीलिए मैंने आत्महत्या करने का प्रयास किया था फिर भी बच गई.’’ 

‘‘क्या कहा, आत्महत्या?’’ वह बुरी तरह चौंका और उसे देखता रहा फिर बोला,‘‘मेरे ख़्याल से तुम्हारी उम्र 20-21 साल से अधिक नहीं है और अभी से तुम जीवन से हार बैठीं!’’ 

‘‘मैं तो प्रारम्भ से ही जीवन से हारे बैठी हूं. सच पूछो तो एक हारी हुई बाज़ी लड़ रही थी मैं. जब हिम्मत जबाब दे गई तो मैंने मौत को गले लगाना चाहा, किंतु यहां भी मैं हार गई. मौत भी मुझे दगा दे गई.’’ 
‘‘शुरू से बता सकती हो अपनी कहानी?’’ उसका स्वर बेहद नम्र था. 

वह बोली,‘‘दरअस्ल, अपने मम्मी-पापा की मैं अनवॉन्टेड चाइल्ड हूं. मुझसे पहले उनकी एक बेटी थी यानी कि मेरी दीदी. दूसरी बार वे बेटा चाहते थे किंतु मैं पैदा हो गई. अपने बचपन की वह घटना मैं कभी नहीं भूल पाई. घर में एक परिचित आए हुए थे. उन्होंने मम्मी से पूछा था,‘दोनों बेटियां हैं आपकी. कोई बेटा नहीं है?’ मम्मी के बदले दादी ने जवाब दिया था,‘अरे, हम तो बेटा ही चाहते थे. पता नहीं ईश्वर ने किन कर्मों की सज़ा दी कि इसे भेज दिया. बताओ भला, अब कौन बुढ़ापे का सहारा बनेगा? वंश का नाम आगे कैसे बढ़ेगा?’ आप ही बताओ, क्या इस दुनिया में आना या मेरा लड़की होना, मेरे वश की बात थी? फिर इसके लिए मुझे क्यों कुसूरवार ठहराया गया? लड़की होने की सज़ा मैंने हमेशा भुगती. दीदी के लिए नए कपड़े बनवाए जाते, किंतु मुझे उनके छोटे पुराने कपड़े दिए जाते. यही हाल खिलौनों और दूसरी चीज़ों का भी था. दीदी मुझसे अधिक गोरी-चिट्टी ख़ूबसूरत थी. घर में जो भी आता, उसी की प्रशंसा करता. एक तो भगवान ने मुझे लड़की बनाकर नाइंसाफ़ी की, उसपर रंगत भी सांवली दी. मुझे लगता था, घर में कोई मुझे प्यार नहीं करता. इसी एहसास के चलते धीरे-धीरे मैं अंतरमुखी होती जा रही थी.’’

‘‘बस इतनी-सी बात के लिए आत्महत्या?’’ रजत ने प्रश्नवाचक नज़रों से देखते हुए पूछा.

यह सुन वह अचकचा गई और दोबारा कहना शुरू किया,‘‘इतनी-सी बात नहीं है. मैं और दीदी बड़े हो गए थे. दीदी का बीटेक का लास्ट ईयर था और मैं बीए इकोनॉमिक्स ऑनर्स कर रही थी साथ ही साथ कैट की तैयारी भी चल रही थी. मेरा इरादा आईआईएम से एमबीए करने का था. मम्मी अपने सोशल वर्क में बिज़ी रहती थीं और पापा जॉब में. कुल मिलाकर घर में बेहद शांति थी. उस समय गुमान भी नहीं था कि यह तूफ़ान आने से पहले की शांति थी. एक दिन पापा घर आए तो बेहद ग़ुस्से में थे. उन्होंने दीदी को एक लड़के के साथ घूमते देख लिया था. पूछने पर दीदी ने निडरता के साथ स्वीकारा कि उनका अनिल नाम के उस लड़के के साथ अफ़ेयर चल रहा था और वह उसी के साथ शादी करेंगी. पापा-मम्मी शादी के लिए बिल्कुल सहमत नहीं थे क्योंकि अनिल की जॉब कुछ ख़ास नहीं थी साथ ही फ़ैमिली का स्टेटस भी बेहद साधारण था. मम्मी ने दीदी को बहुत समझाया किंतु दीदी पर उनकी बातों का कोई असर नहीं पड़ा और एक दिन उन्होंने घर से भागकर शादी कर ली. दीदी के इस क़दम से पूरा घर हिल गया. परिचितों और अड़ोस-पड़ोस में बदनामी तो हुई ही, मम्मी-पापा का विश्वास भी खंडित हो गया. उनकी प्रत्येक इच्छा पूरी करते आए थे. 

बस एक बार उनकी ग़लत डिमांड को नकारा तो उन्होंने मां-बाप को ज़िंदगीभर का आघात दे दिया. मेरी बदक़िस्मती देखिए, दीदी की इस भूल की सज़ा भी मुझे ही मिली. मम्मी-पापा का मुझपर से भी विश्वास उठ गया. वे दोनों अब मुझे भी संदेह की दृष्टि से देखने लगे थे. कॉलेज से लौटने में ज़रा भी देर होने पर सवाल-जबाब किए जाते. वे दोनों भयभीत थे कि कहीं मैं भी दीदी की तरह प्यार-व्यार के चक्कर में पड़कर कोई ग़लत फैसला न ले लूं. पर सच कहूं तो दीदी के बारे में सुनकर मेरा दोस्ती, प्यार, शादी इन सभी रिश्तों पर से विश्वास उठ गया था. न तो अब मैं किसी से प्यार कर सकती थी और न ही शादी. आईआईएम से एमबीए करके ज़िंदगी में ऊंचा मुक़ाम हासिल करना चाहती थी मैं, किंतु अब पापा कोई रिस्क लेना नहीं चाहते थे. उन्होंने मेरी भावनाओं को अनदेखा कर मेरे लिए रिश्ते तलाशने प्रारम्भ कर दिए. इसी निराशा में आकर मैंने एक दिन नींद की गोलियों की ओवरडोज़ ले ली, किंतु ऐन वक़्त पर मम्मी-पापा मुझे हॉस्पिटल ले आए और मैं बच गई,’’ फिर रिया ख़ामोश हो गई. 

गम्भीरतापूर्वक उसकी आपबीती सुन रहा रजत कुछ सोचने लगा. इससे पहले कि वह कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करता, उसने कहा,‘‘अब आप अपने बारे में बताइए.’’ यह सुन ख़्यालों की दुनिया से बाहर आते हुए रजत ने कहना शुरू किया,‘‘वैसे मेरी ज़िंदगी बिल्कुल सीधी-सपाट है. पापा शहर के नामी वक़ील हैं. आईआईटी रुड़की से इंजीनियरिंग करके मैं पूना की एक मल्टिनैशनल कंपनी में जॉब करता था. दो वर्ष बाद ही कंपनी ने मुझे अमेरिका भेज दिया. छह वर्षों तक वहां रहा. ख़ूब पैसे कमाया, फिर मन उचटने लगा. रात-दिन यह विचार मथने लगा कि क्या जीवन का मक़सद सिर्फ़ पैसे कमाना और सुख-सुविधाएं अर्जित करना है? 

व्यर्थ है यह जीवन, अगर किसी के काम न आ सके. बस फिर क्या था, मन ही मन एक निर्णय लिया, जॉब छोड़कर इंडिया आ गया. मम्मी-पापा की सहमति से एक स्कूल खोला, जिसमें टीचर्स बहुत डेडिकेशन के साथ बच्चों को पढ़ाते हैं. साथ ही निर्धन ज़रूरतमंद बच्चों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं. धीरे-धीरे मेरा स्कूल चल निकला. मेरा इरादा उसी स्कूल की दूसरी ब्रांच खोलने का था. उन्हीं दिनों मेरी तबीयत ख़राब रहने लगी थी. सिर में बेहद दर्द रहता था. टेस्ट करवाए तो पता चला, मुझे ब्रेन ट्यूमर है. ऑपरेशन के लिए यहां एडमिट होना पड़ा.’’ 

कुछ देर रुककर रजत ने एक गहरी सांस ली,‘‘प्रकृति के खेल भी निराले हैं रिया, मैं जीना चाहता हूं ताकि लोगों के काम आ सकूं, किंतु विडम्बना देखो, मौत मेरे सिरहाने खड़ी है. इतने नामी वक़ील होते हुए भी पापा ईश्वर की अदालत में मेरा केस जीत नहीं पा रहे हैं. दूसरी ओर तुम, जो ज़िंदगी से हार मानकर मर जाना चाहती हो.’’ 
‘‘पहली बात तो मैं आपको बता दूं, आपको कुछ नहीं होगा और रही मेरी बात तो मेरे हालात ही ऐसे थे कि मेरी जगह कोई भी होता तो हार मान लेता.’’ 

‘‘नहीं रिया, यहां मैं तुमसे सहमत नहीं हूं. लोगों की परिस्थितियां इससे भी बदतर होती हैं, फिर भी वे जज़्बा कायम रखते हैं और हालात को अपने अनुकूल बनाते हैं. तुम्हारी दादी पुराने समय की थीं. घर में एक पुत्र का होना उन्हें सहारे और वंश वृद्धि की दिलासा देता था इसलिए दादी की बातों को तुम्हें दिल से नहीं लगाना चाहिए था. रिया, क्या अपने पापा-मम्मी के व्यवहार से तुम्हें लगा कि वे तुम्हें प्यार नहीं करते हैं? जहां दो बेटों या बेटियों में उम्र का अधिक अंतर नहीं होता वहां बड़े बच्चे के कपड़े छोटे पहनते ही हैं. इसमें क्या बुराई है? तुमने व्यर्थ ही यह भ्रम पाल लिया. तुम्हारी दीदी के घर से चले जाने पर मम्मी-पापा की शंका और भय स्वाभाविक था. यह पता चलने पर कि बेटी सुखी नहीं है, उनके भय को बल मिला. ऐसे हालात में तुम्हारा फ़र्ज़ बनता था कि तुम किसी भी तरह उन्हें विश्वास दिलातीं कि तुम कभी कोई ग़लत क़दम नहीं उठाओगी. किंतु तुमने ऐसा नहीं किया. निराशा और अवसाद में आकर आत्महत्या जैसा जघन्य कदम उठा लिया. तुमने यह भी नहीं सोचा कि तुम्हें मरणासन्न अवस्था में देखकर तुम्हारे मां-बाप के दिल पर क्या गुज़रेगी? 

रिया, जब हम किसी जानवर को पालते हैं तो उससे कितना लगाव हो जाता है फिर मां-बाप ने तो हमें जन्म दिया है. पालपोस कर बड़ा किया है. उनके शरीर और आत्मा का हिस्सा हैं हम. ऐसा कैसे हो सकता है कि वे हमें प्यार न करते हों. जिस दिन से तुम हॉस्पिटल में एडमिट हुई हो, मैंने तुम्हारे घरवालों को बुरी तरह रोते-बिलखते देखा है. ईश्वर से तुम्हारे लिए प्रार्थना करते देखा है. इतनी तड़प और दर्द उसी के लिए होता है, जिसके विछोह को हम सहन नहीं कर पाते इसलिए यह भ्रम अपने मन से निकाल दो कि तुम्हारे अपने तुम्हें प्यार नहीं करते. रिया, जब हम दुखी होते हैं, प्र्रॉब्लम में होते हैं तो हमारे मन में नकारात्मक विचार अपना डेरा जमा लेते हैं जिससे हमें सिर्फ़ नेगेटिवटी ही नज़र आती है. पॉज़िटिव सोच न होने के कारण अपने आसपास कुछ भी अच्छा दिखाई नहीं देता. जैसा अपना दृष्टिकोण बनाओगी, वैसा ही तुम्हें दिखाई देगा. पॉज़िटिव सोचने और अच्छे कार्य करने से चीज़ें ख़ुद-ब-ख़ुद अच्छी होने लगेंगी.’’

रजत की कही एक-एक बात उसके दिलोदिमाग़ को झकझोर रही थी और उसे उसकी भूल का एहसास करा रही थी. मंत्रमुग्ध दृष्टि से रजत को निहारते हुए वह बोली,‘‘रजत, आपकी बातों ने मेरे हृदय के आईने पर पड़ी नेगेटिवटी की धूल को पोंछकर बिल्कुल साफ़ कर दिया है. पिछला सब कुछ भुलाकर आज से मैं वर्तमान में जिऊंगी.’’ 

‘‘मुझसे वादा करो रिया, ज़िंदगी में कभी निराश नहीं होगी. ख़ुशियों के रंगों से ज़िंदगी के कैनवास पर ख़ूबसूरत चित्र बनाओगी.’’ 

‘‘मैं वादा करती हूं,’’ आत्मविश्वास से भरपूर उसने रजत की ओर अपना हाथ बढ़ाया, जिसे रजत ने स्नेह से थाम लिया. रजत को छूते ही उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं और वह हांफने लगी. तुरंत उसकी आंखों के आगे एक तेज़ रौशनी छा गई. आंखें चुंधियाकर बंद हो गईं. फिर धीरे-धीरे उसने अपनी आंखें खोलीं तो वह अचम्भित रह गई. मम्मी-पापा, दीदी, डॉक्टर सभी उसके सामने खड़े हैं. रजत कहां गया? उसका हाथ तो अभी रजत के हाथ में था! परेशान-सी उसकी नज़रें रूम में रजत को तलाश रही थीं. उसे जगा हुआ देख मम्मी और दीदी उसके गले लग रो पड़ीं. पापा ने कसकर उसका हाथ थाम लिया. उनकी आंखों से भी अविरल आंसू बह रहे थे. डॉक्टर ने पापा के कंधे पर हाथ रख कहा,‘‘मिस्टर विनय, आपकी बेटी इतने दिनों बाद कोमा से बाहर आई है. आपका इस तरह रोना उसके माइंड पर स्ट्रेस डालेगा. उसे प्रसन्न रखने का प्रयास कीजिए.’’ 

‘‘कैसी तबीयत है रिया?’’ पापा ने स्नेह से पूछा. 

उसके होंठ धीरे से कांपे. कमज़ोर आवाज़ में वह बोली,‘‘आईएम सॉरी पापा!’’ यह सुनते ही पापा ने उसके माथे को चूम लिया. 

डॉक्टर आवश्यक हिदायतें देकर जाने लगे तभी वह बोली,‘‘डॉक्टर, रजत कहां है?’’ 

डाक्टर ने हैरानी से कुछ क्षण उसकी ओर देखा और कहा,‘‘कौन रजत?’’ 

‘‘वही रूम नंबर 108 वाला पेशेंट!’’ 

थोड़ा और चौंकते हुए डॉक्टर ने कहा,‘‘वो रूम नंबर 108 का रजत! तुम उसे कैसे जान सकती हो रिया, क्योंकि सात दिन पहले जब तुम हॉस्पिटल में लाई गई थीं, बेहोशी की हालत में ही तुम कोमा में चली गई थीं. उसी दिन रजत का ऑपरेशन था. ऑपरेशन के दौरान उसकी डेथ हो गई थी.’’

वह स्तब्ध, जड़वत् रह गई. तो फिर रजत के साथ गुज़रा वक़्त, उसकी वे बातें, वह सब क्या था? इससे पहले कि वह दोबारा अवसाद में चली जाती, रजत के कहे शब्द उसके कानों में गूंजे,‘मुझसे वादा करो रिया, ज़िंदगी में कभी निराश नहीं होगी.’ 

उसने अपनी आंखें मूंद लीं और मन ही मन ईश्वर का नमन किया. जैसे एक दिव्य लौ मन में जगी. नहीं उस दिव्यात्मा के प्रयास को वह विफल नहीं जाने देगी और उसने स्वयं पर नियंत्रण पा लिया. रजत और वह एक ही मंज़िल के दो अलग-अलग मुसाफ़िर थे, किंतु कितना अंतर था दोनों में. रजत ने जीते जी लोगों का भला किया और मरने के बाद भी उसे जीवन का पाठ पढ़ा गया. वह आश्चर्यचकित थी कि कभी-कभी ईश्वर हमारे जीवन में बदलाव लाने के लिए कैसी चमत्कारिक घटनाओं को अंजाम देता है. कुछ लोग चले जाते हैं किंतु फूलों की सुगंध की तरह उनकी ख़ुशबू बरक़रार रहती है. उसकी आत्मा में रच बस गई है रजत की ख़ुशबू. अब इस ख़ुशबू को बचाए रखेगी जीवनभर.

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