कहानी: कौन थी वह अजनबी?
मिस्टर विनोद श्रीवास्तव बोले,“मैं इसे सही मानता हूं.”
मिस्टर चौहान बोले,“क्या आप इस तरह के प्रेम को सही मानते है?”
असली कहानी, जो इस डायलॉग के आगे से शुरू होती है पर आने से पहले हम बता देना चाहते हैं कि आख़िर बात कहां, क्यों और किसके बीच हो रही है.
मजलिस क़रीब-क़रीब दो घंटे से लगी हुई थी. वैसे तो बैंक सुबह दस बजे ही खुलता था, परंतु नोट बंदी की वजह से बैंकों में काफ़ी भीड़ होने लगी थी, अपनी बारी आते-आते पैसे ख़त्म हो जाते थे, इसलिए लोगों ने सुबह पांच बजे से ही लाइन लगानी शुरू कर दी थी.
गनीमत यह रही की आज के दिन सरकार ने वरिष्ठ नागरिकों को ही नोट बदलने की छूट दी थी इसलिए भीड़ थोड़ी कम थी. तक़लीफ़ों के बावजूद कुछ लोग सरकार के क़दम की सराहना ही कर रहे थे, तो कुछ विरोध.
मिस्टर विनोद श्रीवास्तव, मिस्टर चौहान, मिस्टर अय्यर और मिस्टर बशीर सभी जयपुर स्टेट के रिटायर्ड अफ़सरान हैं. रोज़ सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए साथ निकलना तथा तरह-तरह की बातचीत, टीका-टिप्पणी करने के बाद फिर सब अपने-अपने घर लौट जाते थे. नोट बंदी की मार से भला वे अछूते कैसे रहते. सब के बच्चे अजमेर से बाहर रहते थे. आज का दिन उन सभी ने नोट बदलने के लिए निर्धारित किया था.
रुपया जमा करने भी वे साथ ही आए थे, परन्तु नोट बदलना तो एक युद्ध जैसा ही लग रहा था. सुबह छह बजे से मंडली जमा रखी थी, सोचा था नंबर जल्दी आ जाएगा परन्तु लोग तो उनसे भी पहले से आ रखे थे.
चर्चा नोट बंदी से हटकर प्रेम पर आ गया था. अजमेर के एक होटल में एक प्रेमी जोड़ा पकड़ा गया था. पुरुष और स्त्री दोनों ही विवाहित थे और अलग-अलग शहर से कुछ वक़्त साथ बिताने अजमेर आए थे. फिर न जाने कैसे पुलिस वहां आ गई. दोनों को पकड़कर हवालात ले गई. फिर सुबह औरत का पति आकर उसे अपने साथ ले गया था.
“क्या हो रहा इस समाज को? मनुष्य के चरित्र का और कितना पतन होगा. विवाह जैसी संस्था के लिए कोई इज़्ज़त नहीं है आज की भौतिकवादी पीढ़ी के पास. उफ्फ...” मिस्टर चौहान बोले.
“उस औरत को तलाक़ दे देना चाहिए था अपने पति को... बेवकूफ़ साथ ले गया उसे...” मिस्टर बशीर का कहना था.
“उस लड़के की पत्नी भी तो उसका साथ दे रही है,” मिस्टर अय्यर बोले.
“सही मायनों में स्त्री है वो... स्त्रियां ऐसी ही होनी चाहिए. पुरुष की बात और है. वह स्वछंद होता है परन्तु स्त्री...”
“जी इस पुरुषसत्तात्मक समाज से ऐसी ही सोच को उम्मीद की जा सकती थी. पुरुष और स्त्री के लिए अलग-
अलग नियम बनाने का अधिकार किसने दिया आपको,” मिस्टर बशीर की बात काटकर पास ही खड़ी एक बुज़ुर्ग महिला चर्चा में शामिल हो गई थी. वह एक स्कूल की रिटायर्ड प्रिंसिपल थी.
“चलिए स्त्री-पुरुष की बात जाने देते हैं, परन्तु आप लोग ही बताएं प्रेम में अंधा हो जाना क्या सही है? सोच-समझकर निर्णय नहीं लेना चाहिए था उन्हें? प्रेम में परिवार तथा स्वयं की प्रतिष्ठा को दांव पर लगा देना क्या आप सही मानते हैं? कोई इतनी बड़ी मूर्खता कैसे कर सकता है?” मिस्टर चौहान बोल पड़े.
इसी बात के उत्तर में काफ़ी देर से चुप बैठे मिस्टर विनोद ने जो कहा, उसे सुनकर सब अपने कानों पर विश्वास न कर सके. सवाल अब यह नहीं था की प्रेम में सब भुला देना मूर्खता है या नहीं? सवाल था मिस्टर श्रीवास्तव की उस बात का. मिस्टर विनोद श्रीवास्तव अब तक एक गुरु-गंभीर गणितज्ञ के रूप में जाने जाते थे. सुबह पूजा-पाठ करके, तिलक-टीका लगा कर ऑफ़िस के काम में जुट जाते, लौटते शाम के बाद. जितने दिन नौकरी में थे किसी ने उन्हें बाहर के समाज में शामिल होते नहीं देखा. बड़े आदमी हैं, हंसते कम और डांट-फटकार ज़्यादा लगाते हैं. अपनी पत्नी के मृत्यु के बाद भी वे अपने एकमात्र पुत्र के साथ दिल्ली नहीं गए थे. उन्हें अपनी दिनचर्या के साथ किसी तरह का समझौता पसंद नहीं था.
अब पहाड़ों के पीछे बने अपने बंगले में दो पुराने नौकरों और उनके परिवार के साथ अकेले रहते थे. ऐसे पुरुष के मुंह से प्रेम की बात सुनकर सब स्तब्ध रह गए थे.
पहले भी बहुत दिन तक तरह-तरह की चर्चा होती थी उन सबके बीच, लेकिन बातचीत अधिकतर गंभीर विषयों पर ही होती थी. पॉलिटिक्स, सोसायटी, फ़िलॉसफ़ी, धर्म, वर्ल्ड अफ़ेयर्स से लेकर उपनिषद, वेद, गीता और कुरान तक पर बातचीत होती थी. आज एक नया प्रसंग उपस्थित हुआ था.
“आप यह क्या बोल गए विनोद भाई जान...?” मिस्टर बशीर ने कहा.
“बशीर भाई... और मेरे मित्रों, जो सोच-समझकर किया जाए वह प्रेम नहीं व्यापार होता है. विवाह-सोच समझकर किया जाता है, प्रेम नहीं. कम से कम मेरा अनुभव तो यही कहता है.”
“तो श्रीवास्तव साहब अपना अनुभव हमसे भी साझा करें, मौक़ा भी है और नोट बंदी की दुआ से पर्याप्त समय भी है हम सब के पास,” मिस्टर चौहान बोले.
हां, हां, हां, हां... भीड़ से भी आवाज़ उठने लगी थी.
अब तक भीड़ में से कई लोग कौतुहलवश उनके आसपास जमा हो गए थे. उन्हीं में से एक ने कहा,“अब समय काटने को यह क़िस्सा भी अच्छा है ग़ालिब... क्यों...? और क्या पता सभी को अपने सवालों का जवाब भी मिल जाए.”
हां, हां, हां, हां... एक आवाज़ आई.
“ठीक है, ठीक है... लेकिन मेरी भी एक शर्त है. जहां पर मैं अपना अनुभव समाप्त करूंगा, उसके बाद आप मुझसे कोई सवाल नहीं करेंगे. वैसे भी अनुभव कहानी की तरह होता है. कहानी का जहां अंत होता है, जीवन का वहीं अंत नहीं होता. जीवन व्यापक होता है. कहानी के बाद भी पात्रों के जीवन में बहुत कुछ घटता है परन्तु फिर भी कहानी का तो क्लाइमेक्स देना ही होता है. जीवन का क्लाइमेक्स तो आप सभी को पता है मृत्यु ही है. और मैं विनोद श्रीवास्तव जीवित आपके बीच बैठा हूं. तो कहिए मंजूर है...”
हां, हां, हां, हां बिल्कुल... भीड़ का सम्मिलित स्वर.
मेरी नौकरी तब तीन साल की हो चुकी थी. बिलकुल जवान उम्र. गणित के एक सेमिनार में हिस्सा लेने दिल्ली गया हुआ था. सेमिनार के बाद आयोजक ने एक पार्टी रखी थी.
जो मुझे जानते हैं, उन्हें पता है कि मैं कितने स्ट्रिक्ट प्रिंसिपल्स का आदमी हूं. यह आज की बात नहीं, ऐसा प्रायः बचपन से ही है. बचपन से ही मेरी आदत है सबेरे चार बजे उठने की. फिर स्नान करता हूं, तिलक-छाप लगता हूं, निरामिष भोजन करता हूं. यह मेरी हमेशा की चर्या है. अब ऐसे व्यक्ति के लिए पार्टी में जाना मजबूरी हो जाए तो क्या होगा?
थोड़ी देर बाद ही मैं हॉल से बाहर आकर खड़ा हो गया था. जिस होटल में पार्टी थी, उसी होटल में सभी दूर से आने वाले मेहमानों के रहने का प्रबंध किया गया था. पार्टी में उपस्थिति तो दर्ज करा ही दी थी मैंने, अभी अपने कमरे में जाने की सोच ही रहा था की सिगरेट का धुंआ मैंने अपने पीछे महसूस किया. पलटकर उस आदमी को मना करने ही वाला था कि मैं रुक गया. मेरे पीछे एक स्त्री बड़े ही दिलकश अंदाज़ में सिगरेट पी रही थी.
आज के आधुनिक युग में भी अगर कोई महिला या युवती सिगरेट पीती हुई नज़र आती है तो हम एक पल को ठिठक जाते हैं, यह घटना तो आज से 32 साल पहले की बता रहा हूं. झूठ नहीं कहूंगा आप सबसे वह बहुत ख़ूबसूरत लगी थी मुझे. परन्तु यह भी बात सच थी की वह कोई पहली ख़ूबसूरत महिला नहीं देखी थी मैंने. मेरी पत्नी उस स्त्री से कही ज़्यादा ख़ूबसूरत थी. मुझे उसकी ख़ूबसूरती ने नहीं उसके बेफ़िक्र और बेबाक अंदाज़ ने आकर्षित किया था.
मुझे अपनी तरफ़ देखते हुए वह बोली...
‘माफ़ कीजिएगा... मेरा इरादा आपको डिस्टर्ब करने का नहीं था. वो बस भीड़ में बहुत अकेली हो जाती हूं मैं. जैसे ख़ुद को भी खो देती हूं. तो बस...’
‘तो बस सिगरेट को साथी बनाने बाहर आ गईं आप... नहीं...’
‘जी बिल्कुल ऐसा ही कुछ... पर यह बताइए आप बाहर क्या कर रहे हैं?’
‘बस यूं ही...’
‘यूं तो कुछ भी नहीं होता सर... हर बात के पीछे कुछ मक़सद होता है.’
‘ऐसा कुछ भी नहीं है... आप ग़लत...’
‘तो फिर आपकी आंखों में इतना सूनापन क्यों है? ऐसा क्या है जो आप इतनी शिद्दत से अपने इस कठोर चेहरे के पीछे छुपाने की कोशिश कर रहे हैं?’ यह कहते हुए वह मेरे काफ़ी क़रीब आ गई थी.
‘आप ग़लत समझ रही हैं मिस...’
‘मिस... मिसेज़ क्यों नहीं?’
‘जी... जी... वो वो वो कोई सुहागचिन्ह नहीं है... मतलब सिंदूर या...’
‘मंगलसूत्र... बिछुए... वगैरह... वगैरह... है ना? हा हा हा हा’
‘इसमें हंसने की क्या बात है?’
‘आपकी शादी हो गई है मिस्टर या... ओह मैं तो भूल ही गई थी समाज ने पुरुषों के लिए तो कोई शब्द ही निर्धारित नहीं किया...’
‘जी... मतलब... कैसा शब्द?’
‘जैसे कुंवारी लड़की हो गई मिस... शादीशुदा हो जाती है तो बन जाती है मिसेज़. परन्तु पुरुष पर उसके शादीशुदा होने का कोई असर नहीं होता. वह पहले भी मिस्टर रहता है और बाद में भी. ऐसा क्यों? चलिए छोड़िए... मेरे पहले प्रश्न का उत्तर ही दे दीजिए.’
‘जी कौन-सा प्रश्न...?’ बिल्कुल ही खो गया था उसके शब्दों में मैं.
‘हा हा हा... यही कि आपकी शादी हुई है या नहीं?’
‘जी हो गई है...’
‘तो फिर आपका सुहागचिन्ह कहां है?’
‘जी... क्या कह रही हैं आप... पुरुष कहां सुहाग चिन्ह पहनते हैं?’
‘अच्छा हां... पुरुषों के लिए तो ऐसी कोई पाबंदी ही नहीं है. ख़रीदने के बाद जैसे गाय, कुत्ता, बिल्ली के गले में पट्टा डाल देते हैं, ठीक वैसे ही स्त्री के गले में भी एक मंगलसूत्र नाम का पट्टा डाल दिया जाता है, अथवा सिन्दूर की लम्बी रेखा डाल दी जाती है. आज से तू इस फला-फला की प्रॉपर्टी हो गई. उसकी लम्बी उम्र के लिए व्रत करेगी, उसके घर का सारा काम करेगी. जब पुरुष की मर्ज़ी होगी उसके साथ सोएगी भी. कष्ट सहकर बच्चे पैदा करेगी, जिन बच्चों को नाम भी उनके पिता के नाम से जुड़ा होगा. औरत जैसे मनुष्य न होकर जानवर अथवा वस्तु हो... कभी-कभी सोचती हूं की विवाह जैसी संस्था बनाई ही गई है स्त्रियों को ग़ुलाम बनाए रखने के लिए. कितने रिश्ते प्रेम पर आधारित होते हैं? शायद बहुत कम...’
‘तो आप कहना चाहती हैं कि विवाह जैसी संस्था बंद कर देनी चाहिए? संसार में व्यभिचार नहीं फ़ैल जाएगा?’
‘जी नहीं... संसार में केवल वही लोग इस रिश्ते में बंधेंगे जिनके बीच प्रेम होगा. और शादी का मतलब बंधन नहीं होगा. एक ऐसा रिश्ता होगा, जो स्त्री-पुरुष दोनों को समान अधिकार देगा. आज ऐसा सोचना भी मूर्खता है परन्तु शायद आनेवाले 40-50 वर्षों में स्थिति बदल जाए.’
आज के इस आधुनिक युग में भी हम जैसे लोग स्त्री स्वतंत्रता, प्रेमविवाह जैसे मुद्दे पर नकारात्मक हो जाते हैं, तो सोचिए आज से क़रीब 32 साल पहले एक स्त्री की ऐसी सोच सुनकर मुझ पर क्या बीती होगी.
उस स्त्री की हर बात मेरी सोच के ख़िलाफ़ थी, परन्तु कहीं न कहीं मैं यह भी महसूस कर रहा था की वो सही थी. एक स्त्री के नज़रिए से तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था.
‘आपने कभी प्रेम किया है...’ इतनी आसानी से एक अनजान परपुरुष से ऐसा प्रश्न वह ही कर सकती थी.
‘जी नहीं.’
‘क्यों आप क्या अपनी पत्नी से प्रेम नहीं करते?’
‘देखिए विवाह मेरे लिए प्रेमवश बनाया गया सम्बन्ध नहीं है. यह एक ज़रूरत है, जैसे पैसा एक ज़रूरत है. माता-पिता की इच्छा और अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए बनाया गया अनुबंध समझ लीजिए.’
‘आप के अनुसार प्रेम क्या ख़राब चीज़ है?’
सवाल सुनकर मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया. जिस चीज़ का मेरी नज़रों में कोई अस्तित्व ही नहीं है, उसके भले-बुरे के बारे में सोचने से क्या फ़ायदा? कुछ सोचकर मैंने सवाल के जवाब में सवाल कर दिया,‘प्रेम कहां होता है?’
इस सवाल के जवाब में वह मुस्कुराई और अचानक ही मेरा हाथ थाम लिया, फिर मेरी आंखों में झांकते हुए बोली,‘प्रेम की आंधी जब चलती है, दिल पत्ते की तरह उड़ जाता है. लाख न चाहो सब अपने आप प्रेमवश होता जाता है.’
‘मैं नहीं मानता...’
‘जिस पल जानोगे... उसी पल मानोगे भी... अभी बिना सवाल किए मेरे साथ नीचे चलो.’
फिर हम दोनों नीचे गार्डन में चले गए.
‘क्या दिख रहा है आपको?’
‘लाल गुलाब के फूल.’
‘आपने अपने मन को इतनी बेड़ियों में क्यों बांध रखा है? ज़रा मुस्कुराए और इन फूलों से आती ख़ुशबू को हवाओं में महसूस करिए.’
वह उन फूलों के क़रीब चली गई थी. चांद की तरफ़ उसका चेहरा था.
‘ध्यान से देखिए... पूनम के इस चांद की रौशनी जब इन लाल गुलाबों तक आ रही है तो ऐसा नहीं लग रहा जैसे कोई प्रियतम अपनी प्रेयसी के होंठों का चुम्बन ले रहा हो.’
सच कहूंगा दोस्तों, उस रात पहली बार मैंने पूनम के चांद की ख़ूबसूरती का एहसास किया था.
‘चलिए अपनी आंखें बंद कीजिए.’
‘जी...’
‘बंद करिए न... मुझ पर भरोसा तो है ना आपको?’
‘बिल्कुल...’
एक अनजान स्त्री जिसे कुछ घंटों पहले मैं नहीं जानता था, उस पर स्वयं से भी ज़्यादा भरोसा क्यों और कैसे करने लगा था, इसका कारण भी मैं तब नहीं समझ पाया था. मैंने अपनी आंखें बंद कर ली थीं.
मेरी अंगुलियों को अपनी लम्बी अंगुलियों में क़ैद करके वह थोड़ी दूर तक ले कर गई और फिर बोल,‘अब खोलिए अपनी आंखें.’
सामने का नज़ारा इतना ख़ूबसूरत था, जिसे शब्दों में बयां करना चाहूं भी तो नहीं कर पाऊंगा.
चांद की रौशनी में उससे भी ख़ूबसूरत चांद उसकी तरफ़ चेहरा किए, बांहें फैलाए खड़ा था. चांद की चांदनी उसके लम्बे काले केशों में बंधी हुई लग रही थी.
‘आपके केशों में चांदनी गुथ गई है, ज़रा संभलकर... धरती पर गिरकर कहीं ये टूट न जाए.’
अचानक अपने मुख से निकले इन शब्दों से मैं स्वयं चौंक पड़ा था.
‘नॉट बैड... साहित्य तो मैं पढ़ाती हूं. साहित्यिक आप हो रहे हैं!’
बगीचे में पड़े झूले पर बैठ गए थे हम दोनों. उसके हाथों में क़ैद थे मेरे हाथ, और मैंने भी उन्हें छुड़ाने की कोई कोशिश नहीं की थी. एक दूसरे की सांसों की आवाज़ भी सुनाई दे रही थी हमें.
‘आप ही बताइए हममें से कितने लोग स्वतंत्र हैं? देखा जाए तो हम सब ग़ुलाम हैं. कुछ ग़ुलाम हैं समाज के बनाए नियमों के, कुछ स्वयं के लिए बनाए गए अपने नियमों के. कुछ अपने विवेक के, कुछ बुद्धि के, कुछ अपनी ज़रूरतों के तो कुछ अपनी चाहतों के. एक प्रेम ही है जो स्वतंत्र है... स्वछंद है... प्रकृति के कण –कण में प्रेम छुपा है. तभी तो प्रकृति इतनी ख़ूबसूरत है.’
सम्मोहित हो जाने वाला मनुष्य मैं न आज हूं, न तब था. परन्तु सम्मोहन शक्ति जब इतनी तीव्र हो तो क्या बुद्धिमान और क्या मूर्ख, दोनों एक समान.
वह भिन्न थी. जैसे मेरे हृदय के रिक्त स्थान को भरने आई थी वो. जैसे रेगिस्तान में भटकते प्यासे को मीठी नदी की झील मिल गई थी, परन्तु वह जितना ही अपनी प्यास मिटाता उतनी ही तीव्र गति से उसे दुबारा प्यास लग जाती.
अपने मन की कोई ख़्वाहिश जिसका पता आपको स्वयं न हो, वही अचानक पूरी हो जाए, तो अपनी उस अनुभूति को क्या आप शब्दों में परिवर्तित कर पाएंगे?
मेरा मन अलग ही लोक में विचरण कर रहा था, परन्तु स्वप्न तो हक़ीक़त की धरातल से टकराकर टूट ही जाते हैं.
मेरा स्वप्न भी तब टूटा, जब उसने मेरा हाथ अपने हाथों से आज़ाद कर दिया और बोली,‘काफ़ी वक़्त बर्बाद कर दिया मैंने आपका. अब चलूंगी...’
‘चलूंगी... क्यों और कहां...?’
‘जाना तो था ही... है ना...’
‘जी... वो तो है परन्तु आप यहां गणित के सेमिनार में कैसे आईं? आप तो साहित्य पढ़ाती हैं शायद...’
‘मेरे पति सरस्वती कॉलेज ग्वालियर में गणित विभाग के एचओडी हैं, उन्हीं के साथ आई हूं. अब चलती हूं.’
‘नहीं मैं आपको नहीं जाने दूंगा... आप... समझ नहीं रहीं...’
‘आप समझ गए लगता है...’
पता नहीं मुझे क्या हुआ, गले से अपनी शादी की मोटी चेन उतारी और बड़े अधिकार से उसे पहना दी.
‘ये क्या...?’
‘मना मत कीजिएगा... स्मृति चिन्ह समझ लीजिए.’
रहस्यमयी मुस्कान के साथ बोली,‘फिर तो मुझे भी आपको कुछ देना चाहिए.’
आगे बढ़ कर उसने अपने दोनों हाथों में मेरा चेहरा लिया और...
जिस तरह आई थी, उसी तरह चली गई, अपरिचित, अनायास और अद्भुत.
काफ़ी देर अकेला वहीं बैठा रहा था मैं. फिर जब होश में आया तो ऐसा लगा की पूरी उम्र जिस दिल को रक्त संचार के इतर किसी और काम के लिए नहीं जानता था, वही दिल अपनी जगह से जा चुका था. दिमाग़ जानता था ऐसा कुछ नहीं हुआ था, परन्तु इतना होश ही किसे था.
जीवन पर्यंत अनुशासन, नियम, प्रतिष्ठा को सर्वोपरि मानने वाला मैं, इन सबको छोड़ने को तैयार हो गया था. मैं किसी भी हाल में उसे अपनी दिल की बात बताने को आतुर हो गया था. मुझे पूरा यक़ीं हो गया था की वो भी मुझसे प्रेम करने लगी थी.
होटल में सरस्वती कॉलेज के गणित विभाग के एचओडी का रूम नंबर ढूंढ़ पाना कोई मुश्क़िल काम नहीं था. इरादा मज़बूत करके मैंने रूम पर दस्तक दी. दरवाज़ा एक 50 साल के प्रौढ़ व्यक्ति ने खोला.
‘जी कहिए... किससे मिलना है?’
‘वो कृपाशंकर जी...’
‘जी हां, मैं ही हूं. माफ़ कीजिए मैंने आपको पहचाना नहीं.’
उसका परिचय पाकर मैं बहुत प्रसन्न हो गया था. इस आदमी को वह पक्का छोड़ देगी, यही सोचकर मैं ख़ुश हो रहा था. परन्तु मुझे समझ नहीं आ रहा था उसने इतने बूढ़े आदमी से शादी क्यों कर ली थी?
‘हां जी, कहां खो गए? मुझसे ही मिलने आए हैं ना...’
‘जी ...’ अचानक मुझे झटका लगा की मुझे तो उसका नाम भी नहीं पता था जिसके पीछे दीवाना होकर मैं यहां तक आ गया था.
‘अरे फिर खो गए...’
‘जी देखिए, जो बात मैं आपको बताने वाला हूं, वो आपको कष्ट देगी, परन्तु ...देखिए मैं और आपकी पत्नी प्रेम... मेरा मतलब है... वो आप उनको बुला देंगे... मतलब...’
‘मेरी कौन?’
‘जी... आपने सही सुना...’
‘जी ज़रूर बुला देता... अगर वो यहां होती...’
“मतलब ...कहाँ है वो ?”
‘यंग मैन ब्यूटी हैज़ प्लेड विद योर हार्ट...’
‘जी...’
‘अरे बरखुरदार जब मेरी शादी ही नहीं हुई तो पत्नी कहां से आएगी. तुम्हे किसी ने बेवकूफ़ बनाया है. कोई पैसे-वैसे की तो चपत नहीं लगी ना... हा हा हा’
लड़खड़ाते क़दमों से अपने कमरे में वापस चला गया था मैं. आंखों के सामने दस तोले की चेन पेंडुलम की तरह घूम रही थी.
सोफ़े पर ही पसर गया था मैं. बरबस ही मेरा हाथ मेरे ललाट पर चला गया था, जहां उसने अपने मुलायम होंठों से स्मृति चिन्ह अंकित किया था. उस स्पर्श को अनुभव करते हुए न जाने कब मेरी आंख लग गई थी. सुबह दरवाज़े पर हुई दस्तक ने मेरी नींद तोड़ी थी. दरवाज़ा खोला तो देखा सामने रूमबॉय था.
‘हां बोलो...’
‘सर, वो एक मैडम ने आपको यह लिफ़ाफ़ा और यह डब्बा देने को कहा था.’
लपककर मैंने दोनों ही चीज़ें उसके हाथ से ले ली थी.
‘अभी कहां हैं वो मैडम? तुम उन्हें जानते होगे. कौन से रूम में रुकी थीं वो?’
‘नहीं सर... वो हमारे होटल में नहीं रुकी थीं. यह दोनों चीज़ें मुझे देकर बोलीं की आपको एक घंटे बाद दे दूं.’
‘बाहर से आई थीं... यहां नहीं रुकी थीं.’
‘जी... अब मैं जाऊं सर...’
‘हम्म...’
दरवाज़ा बंद करके मैंने पहले लिफ़ाफ़ा खोला था. लिफ़ाफ़े के अंदर एक पेपर था, जिसपर लिखा था...
होश खोना ही इश्क़ है तो
ऐ ख़ुदा हम बेहोश ही अच्छे
...है ना, ...विनोद जी
उसे मेरा नाम और रूम नंबर दोनों पता थे, पर पता नहीं कैसे.
‘‘श्रीवास्तव जी डब्बे में क्या था ?’’ भीड़ में से किसी ने पूछा.
‘‘मेरी चेन...”
चारों तरफ़ ख़ामोशी पसर गई थी. सबकी तरफ़ देखने के बाद हंसते हुए मिस्टर विनोद श्रीवास्तव बोले, किसी ने
सही कहा है मित्रों...
पूनम के चांद में दाग़ कहां दिखता है
इश्क़ में डूबे हुए को साहिल कहां दिखता है
ख़ुद को ख़ुश करने को तुझे बेवफा कह लेते हैं लेकिन
आज भी चांद में तेरा ही अक्स दिखता है
इससे पहले की कोई कुछ और कहता अथवा पूछता, आगे से एक आवाज़ सुनाई दी.
“बैंक खुल गया... बैंक खुल गया... लाइन सीधी कर लो आप सब.”
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