कहानी: जहां से चले थे

मातापिता की मौत के बाद उस का झूठा दंभ फीका पड़ने लगा था. पढि़ए दिल को छूती कहानी.
संध्या बचपन से ही दबंग और दंभी स्वभाव की लड़की थी, इसलिए शादी के लिए आए अच्छे घरों के रिश्तों में मीनमेख निकाल कर बड़ी बेरुखी से ठुकरा देती.

मां को अग्नि के सुपुर्द कर के मैं लौटी तो पहली बार मुझे ऐसा लगा जैसे मैं दुनिया में बिलकुल अकेली रह गई हूं. श्मशान पर लिखे शब्द अभी भी मेरे दिमाग पर अंकित थे, ‘यहां तक लाने का धन्यवाद, बाकी का सफर हम खुद तय कर लेंगे.’ मां तो परम शांति की ओर महाप्रस्थान कर गईं और मुझे छोड़ गईं इस अकेली जिंदगी से जूझने के लिए.

मां थीं तो मुझे अपने चारों ओर एक सुरक्षा कवच सा प्रतीत होता था. शाम को जब तक मैं आफिस से न लौटती, उन की सूनी आंखें मुझे खोजती रहतीं और मुझे देख कर अपना सारा प्यार उड़ेल देतीं. मैं भी मां को सारे दिन के कार्यक्रमों को बता कर अपना जी हलका कर लेती. आफिस में अपनी पदप्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए मुझे एक चेहरा ओढ़ना पड़ता था पर घर में तो मैं मां की बच्ची थी, हठ भी करती और प्यार भी. पर अब मैं बिलकुल अकेली पड़ गई थी.

कुछ दिन बाद आफिस के केबिन में बैठ कर मैं सामने दीवार पर देखने लगी तो मन में खयाल आया कि पापा के फोटो के साथ मां की भी फोटो लगा दूं, इतने में दरवाजा खोल कर मेरे निजी सचिव ने आ कर बताया कि कुछ जरूरी कागज साइन करने हैं, जो टेबल पर ही रखे हैं.

‘‘मिश्राजी, मेरी मानसिक हालत अभी ठीक नहीं है. मैं अभी कोई भी निर्णय नहीं ले सकती. अभी तो मां को गुजरे 4 दिन भी नहीं हुए हैं और…’’ इतना कह कर मैं भावुक हो गई.

‘‘सौरी, मैडम, मुझे इस समय ऐसा नहीं कहना चाहिए था,’’ कह कर वह वापस जाने लगे.

‘‘मिश्राजी, एक मिनट,’’ कह कर मैं ने उन्हें रोका और पूछा, ‘‘अच्छा, ब्रांच मैनेजर का इंटरव्यू कब है?’’

‘‘मैडम, चेयरमैन साहब खुद इस इंटरव्यू में बैठना चाहते हैं. आप कोई भी डेट…मेरा मतलब है जब भी आप कहेंगी मैं उन्हें बता दूंगा,’’ कह कर मिश्राजी चले गए.

हमारी मल्टीनेशनल कंपनी देश की 5 बड़ी ब्रांचों के लिए कुशल मैनेजर रखना चाहती थी. 6 महीने से चल रहे ये महत्त्वपूर्ण इंटरव्यू अब निर्णयात्मक दौर में थे. उन का वार्षिक पैकेज भी 10 लाख रुपए का था. यानी मुझ से आधा. चेयरमैन को तो इस इंटरव्यू में आना ही चाहिए.

मैं अनमने और भारी मन से एकएक पत्र देखने लगी. मन कहीं भी टिक नहीं रहा था. मां की भोली सूरत बारबार आंखों के सामने तैर जाती. मैं ने सारी फाइलें बंद कर दीं और अपने सचिव को बता कर घर चली आई.

रिश्तेदार, सगेसंबंधी सब एकएक कर के जा चुके थे. महरी अपना काम समेट कर टीवी देख रही थी. शायद उसे इस का एहसास नहीं था कि मैं घर जल्दी आ जाऊंगी. उसे टीवी के पास बैठी देख कर मैं एकदम झल्ला गई और अपना सारा गुस्सा उस पर ही उतार दिया, फिर निढाल हो कर पलंग पर पसर गई.

थोड़ी देर में महरी चाय बना कर ले आई. मुझे इस समय सचमुच चाय की ही जरूरत थी. वह चाय मेज पर रख कर बोली, ‘‘मेम साहब, आप ही बताइए, मैं सारा दिन यहां अकेली क्या करूं. मांजी और मैं इस समय टीवी ही देखा करते थे. आप को पसंद नहीं है तो अपना घर खुद ही संभालिए,’’ कह कर वह तेजी से चली गई.

मेरे क्रोध और धैर्य की सीमा न रही. इस की इतनी हिम्मत कि मुझे कुछ कह सके, मेरी बात काट सके. वह इस बात पर मेरा काम छोड़ भी देती तो मैं उसे रोकती नहीं, चाहे बाद में मुझे कितनी ही परेशानी होती. झुक कर बात करना तो मैं ने कभी सीखा ही नहीं था. बचपन से आज तक मैं ने वही किया जो मेरे मन को भाया. जिस से सहमति नहीं बन पाती, उस से मैं किनारा कर लेती.

चाय पीने के बाद भी मुझे चैन नहीं आया. मैं बदहवास एक कमरे से दूसरे कमरे में बिना मकसद घूमती रही. मुझे लग रहा था कि मां की आकृति कहीं आसपास ही तैर रही है. मैं ने मां की तसवीर पापा की तसवीर के साथ लगा दी. उन की फोटो पर लगे गेंदे के फूल मुरझा कर पापा की तसवीर पर लगे नकली फूलों की शक्ल ले रहे थे.

मैं मां की तसवीर के पास जा कर उन्हें देखती रही और फिर बीते दिनों के ऐसे तहखाने में जा पहुंची जहां बहुत अंधेरा था. पर अंधेरा भी मैं ने ही किया हुआ था, वरना ये दोनों तो मेरे जीवन में उजाला करना चाहते थे.

मुझे अपना खोया हुआ बचपन याद आने लगा और मैं अपने ही अतीत के पन्नों को एकएक कर पलटने लगी.

इकलौती संतान होने के कारण मां और पापा का सारा प्यार मेरे ही हिस्से में था. जब भी पापा को कोई मेरे लड़की होने का एहसास करवाता, पापा हंस कर कहते कि यही मेरा बेटा है और यही मेरी बेटी भी. उन्होंने मेरी परवरिश भी मुझे बहुत सी स्वतंत्रता दे कर अलग ढंग से की थी. मां जब भी मुझे किसी लड़के के साथ देखतीं या देर शाम को घर आते देखतीं तो अच्छाबुरा समझाने लगतीं और पापा एक सिरे से मां की बात को नकार देते.

स्कूल की पढ़ाई खत्म होते ही मैं ने प्रोफेशनल कोर्स ज्वाइन कर लिया, साथ ही दूसरे वह सभी काम सीख लिए जो पुरुषों के दायरे में आते थे. मैं किसी भी तरह खुद को लड़कों से कम नहीं समझती और न ही उन को अपने ऊपर हावी होने देती थी. मेरे इस दबंग और अक्खड़ स्वभाव के कारण कई लड़के तो मेरे पास आने से भी डरते थे.

एक बार मैं कालिज टीम के साथ टेबलटेनिस का मैच खेलने सहारनपुर गई थी. रात को खाने के समय बातोंबातों में मुझे एक लड़के ने प्रपोज किया तो उस लड़के के कंधे पर हाथ रख कर मैं बोली, ‘एक बात तुम्हें साफसाफ बता दूं कि मैं ऐसीवैसी लड़की नहीं हूं और न ही मुझे आम लड़कियों की तरह हलके में लेना. दोबारा मेरे साथ नाम जोड़ने की कोशिश भी मत करना.’

वह लड़का तो चुपचाप वहां से चला गया पर मेरी अंतरंग सहेली वंदना ने मुझ से कहा, ‘इतना गुस्सा भी ठीक नहीं है संध्या. उस ने कौन सी तेरे साथ बदसलूकी की है, प्रपोज ही तो किया है. तू विनम्रता से इनकार कर देती, बातबात पर ऐसा रौद्र रूप दिखाना ठीक नहीं है.’ यह बात हमारे कालिज में दावानल की तरह फैल गई. मेरा कद 2 इंच और बढ़ गया. उस के बाद फिर किसी लड़के ने मेरी ओर आंख उठाने की भी हिम्मत नहीं की.

एम.बी.ए. करने के बाद मुझे एक से एक अच्छे आफर आने लगे. मैं भी दिखा देना चाहती थी कि मैं किसी से कम नहीं हूं. पापा का वरदहस्त तो सिर पर था ही. जहां मेरे साथ पढ़े लड़कों को 20 हजार के आफर मिले, मुझे 45 हजार का आफर मिला था.

पापा को अब मेरी शादी की चिंता सताने लगी, पर मैं अभी ठीक से सेटल नहीं हुई थी. वैसे भी मुझे अपने लिए एक ऐसा घरवर ढूंढ़ना था जो मेरी बराबरी और विचारों के अनुकूल हो. मैं पापा के अनुरोध को टालना भी नहीं चाहती थी और शादी कर के अपना आने वाला सुनहरा कल गंवाना भी नहीं चाहती थी. इसलिए पापा जब भी कोई रिश्ता ले कर आते मैं कोई न कोई कमी निकाल कर इनकार कर देती.

एक दिन मांपापा ने मेरी पसंद और नापसंद के बीच झूलते हुए दुखी मन से कहा, ‘शादी तो तुम्हें करनी ही पड़ेगी. यही समाज का नियम है. तुम अपनी नहीं तो हमारी चिंता करो. लोग कैसीकैसी बातें करते हैं.’

पापा की जिद के सामने मुझे झुकना ही पड़ा और मैं विनम्रता से बोली कि जो आप को उचित लगे और मेरे विचारों के अनुकूल हो, आप उस से मेरा विवाह कर सकते हैं.

जल्दी ही एक जगह बात पक्की हो गई. लड़का भारतीय सेना में डाक्टर था. मुझे इस बात से संतोष था कि वह मेरे साथ नहीं रहेगा और मैं मनचाही नौकरी कर सकूंगी.

शादी के दिन मैं बड़े अनमने मन से तैयार हो रही थी. मुझे चूड़ा और कलीरें पहनना, महंगे लहंगे के साथ ढेर सारे जेवर और कोहनी तक मेहंदी रचाना आदि आडंबर लगे. मैं सोचती रही कि जल्दी से किसी तरह यह निबटे तो इस से मुक्ति मिले. हर शृंगार पर मैं पूछती कि इस के बाद तो कुछ नहीं बचा है.

‘क्यों, पति से मिलने की इतनी जल्दी है क्या?’ सहेलियों ने पूछा. कोई और अवसर होता तो मैं कभी का उन्हें भगा चुकी होती पर यह सामाजिक व्यवस्था थी उस पर मांपापा की इच्छा का भी खयाल था. जितनी देर होती रही मेरा धैर्य चुकता रहा.

उसी समय बरात आ गई. मेरी सहेलियां बरात देखने चली गईं और मैं अकेली कमरे में बैठी थी. तभी मेरे पास वाले कमरे से पापा की आवाज आई, ‘भाई साहब, हम से जो बन पड़ा है हम ने किया. कोई कमी रह गई हो तो हमें माफ कर दीजिए,’ मैं ने देखा, पापा हाथ जोड़ कर विनती कर रहे थे, ‘कार का इंतजाम इतनी जल्दी नहीं हो पाया वरना उसी में बिठा कर बेटी को विदा करता.’

‘कार की तो कोई बात नहीं, भाई साहब. बस, अपनी बेटी के महंगे गहने शादी के फौरन बाद ही उतरवा दीजिए.’

इतना सुनना था कि मेरे तेवर चढ़ गए. क्या मैं इतनी कमजोर और अनपढ़ हूं कि पापा को इतना कुछ देना पड़ रहा है. मैं ने वहीं पर तहलका मचा दिया कि इन दहेज के लालची लोगों के घर मैं नहीं जाऊंगी. चारों तरफ एक अफरातफरी का माहौल खड़ा हो गया. लड़के वालों को लोग अर्थपूर्ण नजरों से देखने लगे. पापा ने मुझे एक तरफ ले जा कर समझाने की कोशिश की, ‘बेटी, बात इतनी न बढ़ाओ कि संभालनी मुश्किल हो जाए,’ वे बोले, ‘लड़की की शादी में समाज और बिरादरी के भी कुछ नियम हैं. तुम क्या जानो कि क्या कुछ करना पड़ता है. बेटी पैदा होते ही अपना पिंजरा साथ ले कर आती है. इस में लड़के वालों की कोई गलती नहीं है.’

इतने में किसी ने पुलिस को खबर भेज दी. फिर क्या था, टीवी चैनल और प्रिंट मीडिया ने मुझे चारों तरफ से घेर लिया. मैं ने जो सुना, देखा था, थोड़ा बढ़ाचढ़ा कर कह दिया.

लड़के और उस के घर वाले तो सलाखों के पीछे पहुंच गए और मुझे रातोंरात लोग पहचानने लगे. मैं इंटरव्यू पर इंटरव्यू देती रही और वे इसे छापते रहे.

उस के बाद तो कई सामाजिक संगठन और समाजसेवी संस्थाएं आ कर मुझे मानसम्मान देने के लिए समय मांगती रहीं.

कुछ दिनों में यह बात ठंडी हो गई, पापा ने थाने में कई चक्कर लगा कर उन्हें दहेज के आरोप से मुक्त करवा दिया पर उन पर लांछन तो लग ही चुका था. पापा उस दिन के बाद अंतर्मुखी हो गए और मां भी जरूरत भर की बातें ही करतीं.

उस हादसे से पापा इतना टूट गए कि दुनिया से उन्होंने नाता ही तोड़ लिया. हां, मरने से पहले पापा बता गए थे कि लड़के वालों की तरफ से कोई दहेज की मांग नहीं थी. कार देने का वादा तो मैं ने ही किया था और गहने उतरवाने की बात पहले से ही तय थी. देर रात को मेरा इतना शृंगार कर के होटल में जाना अनचाहे तूफान से बचने का उपाय था, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

वक्त गुजरता गया और वक्त के साथसाथ मैं ऊंचाइयां छूती गई. पापा की मृत्यु के बाद तो मां ने भी चुप्पी साध ली थी. मैं उन के दुख को अच्छी तरह जानती थी. उन्हें एक ही चिंता थी कि उन के बाद मेरा कौन सहारा होगा. एक दिन मां ने समझाते हुए कहा, ‘संध्या, जवान और खूबसूरत लड़की समाज की नजरों में वैसे भी खटकती रहती है. औरत कितनी भी सबल क्यों न हो उसे मजबूत सहारे की जरूरत पड़ती ही है, जो उसे समाज की बुरी निगाहों से बचा कर रखता है…’

‘मां, छोड़ो भी यह सब बातें. मैं तुम्हें दिखा दूंगी कि मुझे किसी सहारे की तलाश नहीं है. बस, समाज को समझाने और टक्कर लेने की हिम्मत होनी चाहिए,’ यह कह कर मैं वहां से उठ गई थी.

मां के कहे शब्द दिमाग में कौंधे तो मैं चौंक कर उठ बैठी. मांपापा का जो रक्षा कवच मेरे चारों ओर था वह अब टूट चुका था, अपना झूठा दंभ कहां दिखाती. घर के सभी काम, जो सुनियोजित ढंग से चल रहे थे, अब मुझे ही संभालने थे. मुझे इन 4 दिनों में ही अपना अंधकारमय भविष्य नजर आने ले.

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