कहानी- आस्था और विश्‍वास

प्रांजलि की आस्था और विश्‍वास की चमक के आगे मेरा चेहरा निस्तेज पड़ गया. एक ही मां की बेटियां होते हुए भी उसकी सोच इतनी सकारात्मक और मेरी… ग्लानि हो रही थी मुझे स्वयं पर. बड़ी होने के बावजूद मैं स्वयं को प्रांजलि से छोटा महसूस कर रही थी.
“सही और ग़लत की कोई निश्‍चित परिभाषा नहीं होती है, न ही बातों को तोलने का कोई निर्धारित मापदंड होता है. जो बात एक इंसान के लिए सही होती है, हो सकता है वही बात दूसरे इंसान को ग़लत लगे.”

हल्के-फुल्के ढंग से कही हुई मेरी इस बात पर विनीत चिढ़ गए थे और न जाने कितनी नसीहतें दे डाली थीं. फिर मेरे सब्र का बांध भी टूट गया था. न जाने कितने दिनों का संचित आक्रोश सतह पर आ गया था. दरअसल, यह कोई एक दिन का आक्रोश नहीं था. जब से मेरे देवर रजत की शादी हुई थी और घर में पायल आई थी, तभी से मेरे मन में एक चिंगारी-सी सुलग रही थी, जो धीरे-धीरे अग्नि का रूप लेती जा रही थी. डरती हूं, कहीं यह अग्नि रिश्तों को ही न जला दे, इसलिए ख़ामोश रहती हूं. पायल को सारा घर हाथोंहाथ ले रहा है. मम्मी उसके रूप-गुणों की प्रशंसा करते नहीं अघातीं. पापाजी उसकी कुकिंग के दीवाने हैं. विनीत उसकी इंटेलीजेंसी, उसके सलीके, बातचीत के ढंग के कसीदे पढ़ते हैं. यहां तक कि ढाई साल का नन्हा रिंकू भी अपनी चाची के आगे-पीछे डोलता है.

मैं पिछले चार साल से इस घर में खट रही हूं, किंतु मेरा किया किसी को दिखाई नहीं देता. शादी के समय एमए, बीएड की डिग्री मेरे पास थी. चाहती तो टीचिंग आराम से मिल जाती, किंतु पहले मम्मीजी का ऑपरेशन आ गया था. कई माह लग गए थे, उन्हें पूरी तरह स्वस्थ होने में. उसके बाद रिंकू का जन्म हो गया. गृहस्थी की रेलपेल में पिसती ही चली गई. कभी स्वयं के लिए कुछ नहीं कर पाई, जिसका ख़ामियाज़ा मुझे अब तक भुगतना पड़ रहा है. दूसरी ओर पायल, जो शादी से पहले से ही बैंक में नौकरी कर रही है, मुफ़्त में स्पेशल ट्रीटमेंट बटोर रही है. पायल की याद आते ही मन न जाने कैसा हो गया. कुछ लोग क़िस्मत के धनी होते हैं. थोड़ा-सा भी करें, तो ढेर सारा यश मिलता है और कुछ अपनी जान भी निकालकर रख दें, तो भी किसी के मुंह पर प्रशंसा के दो बोल नहीं आते, मान-सम्मान मिलना तो बहुत दूर की बात है.

उस दिन भी ऐसा ही कुछ तो हुआ था. मेरी ननद निमी को देखने संदीप के घरवाले आए थे. संदीप पहले से ही निमी को पसंद करता था. बस, औपचारिकता पूरी करने अपने घरवालों को ले आया था. उनकी आवभगत करने में सुबह से शाम हो गई थी. पायल उनके पास बैठी थी. चलते समय उन्हें देने के लिए किचन से मिठाई के डिब्बे लेकर मैं ड्रॉइंगरूम में जा रही थी, मैंने सुना, संदीप की मां मम्मीजी से बोली थीं, “आप बहुत भाग्यशाली हैं, जो आपको पायल जैसी बहू मिली. बैंक में इतनी बड़ी ऑफिसर है, किंतु घमंड छूकर नहीं गया.” सुनते ही मेरे तन-बदन में आग लग गई थी.

मम्मीजी के कहे शब्द कि ‘स़िर्फ पायल ही नहीं, मेरी बड़ी बहू भी बहुत अच्छी है’ पर मैंने ध्यान नहीं दिया. मिठाई के डिब्बे वहीं टेबल पर रख, बिना किसी से कुछ कहे-सुने ग़ुस्से में मैं छत पर जाकर बैठ गई थी.

घरवालों के साथ-साथ विनीत को भी मेरा इस तरह चले जाना बुरा लगा था. मेहमानों के चले जाने पर उन्होंने मुझसे इस बारे में बात करनी चाही. मन ही मन मुझे अपनी ग़लती का एहसास था, किंतु विनीत के आगे उसे क्यों स्वीकार करूं? इसलिए हल्के-फुल्के ढंग से सही-ग़लत की परिभाषा उन्हें समझाने लगी, जिस पर वे चिढ़ गए. फिर मैं भला क्यों ख़ामोश रहती? “सुबह से मैं किचन में लगी हुई थी. आधे से ज़्यादा काम मैंने किया. पायल को पिछली रात बुख़ार था, इसलिए उससे ज़्यादा मदद भी नहीं ली, फिर भी प्रशंसा की पात्र वही बनी और यह कोई नई बात नहीं है.

पायल कुछ भी करती है, तो उसकी प्रशंसा होती है. मैं जो पिछले चार सालों से इस घर में पिस रही हूं, सब मिट्टी हो चुका है. मैं कमाती नहीं हूं, इसीलिए आप लोगों को मेरी कद्र नहीं है. मैं भी नौकरी करती होती, तब पता चलता.” एक घंटे तक अनवरत बोलती रही थी और विनीत चुपचाप सुनते रहे थे. जब मेरा आवेश कुछ कम हुआ, तो शांत स्वर में बोले, “नियति, इस घर के लिए तुमने जो कुछ भी किया, उसे सब जानते हैं. तुम्हारी प्रशंसा भी करते हैं, किंतु तुम्हारे सामने कोई कुछ कह नहीं पाता, क्योंकि तुमने वैसा माहौल ही नहीं बनने दिया. तुमने जो कुछ भी किया. उसमें मात्र कर्त्तव्यबोध था, आस्था नहीं थी.

तुमने अपना समय दिया, श्रम दिया, किंतु अपनत्व नहीं दिया, जबकि पायल ने वही दिया, जिसके लिए इस घर के लोग तरसते रहे हैं. उसने भरपूर प्यार दिया है. अपनापन दिया है. नियति, किसी से दो मीठे बोल बोलने में पैसे नहीं लगते हैं. हां, इससे सुननेवाले की आत्मा तृप्त अवश्य हो जाती है. तुम एक क्षण के लिए भी इस घर से जुड़ नहीं पाई. क्या कभी मम्मी-पापा को मनुहार करके तुमने कुछ खिलाया? तबीयत ख़राब होने पर मम्मी को दवाई तो दी, किंतु स्नेह से कभी उनके माथे पर हाथ नहीं रखा. रजत और पायल के हास-परिहास का कभी प्रत्युत्तर नहीं दिया.

निमी के साथ कभी सहेली का-सा बर्ताव नहीं किया, तभी तो निमी ने संदीप के साथ अपने अफेयर की बात तुम्हें न बताकर पायल को बताई, जबकि तुम इस घर में पहले आई हो. कभी-कभी तो मुझे लगता है, हम दोनों के बीच भी एक औपचारिकता है. अंतरंगता का कोई क्षण शायद ही कभी आया हो.” इस कड़वी सच्चाई को मैं बर्दाश्त नहीं कर पाई और ग़ुस्से में बोली, “ठीक है विनीत, जब मैं आप लोगों को कुछ दे ही नहीं पाई, तो फिर मेरा यहां रहना व्यर्थ है. कल सुबह मैं रुड़की चली जाऊंगी, प्रांजलि के पास.”

सचमुच अगले दिन मेरी अटैची तैयार थी. जानती थी रिंकू आराम से अपनी दादी, चाची के साथ रह लेगा, इसलिए बेफ़िक्र होकर अपनी छोटी बहन के पास आ गई. विनीत ने भी मुझे नहीं रोका. घर में उन्होंने प्रांजलि की तबीयत ख़राब होने का बहाना बना दिया था, किंतु यहां आकर भी क्या अपेक्षित ख़ुशी हासिल हुई थी? दरवाज़े पर ही प्रांजलि की सास का ठंडा व्यवहार मन को कचोट गया था. कहीं यहां आकर भूल तो नहीं कर दी, इससे पहले कि निराशा मन पर हावी होती, प्रांजलि की स्नेहिल मुस्कान ने मन को कुछ राहत दी. रवि गरमागरम समोसे ले आए थे. चाय और समोसे खाकर प्रांजलि डिनर की तैयारी में लग गई थी. मैं भी उसके पीछे किचन में उसकी मदद के लिए चली आई. पांच मिनट भी नहीं बीते होंगे कि उसकी सास ने आकर कहा, “अरे प्रांजलि, नियति से मटर क्यों छिलवा रही हो?”

“इसमें क्या हर्ज़ है आंटी, काम के साथ-साथ हमारी गपशप भी चल रही है.” मैंने हंसते हुए कहा.

“नहीं नियति, तुम इस घर में मेहमान हो. दो दिन के लिए आई हो. तुम काम करो, मुझे अच्छा नहीं लगेगा.” कहते हुए मेरा हाथ पकड़ वे मुझे ड्रॉइंगरूम में ले आईं और टीवी के आगे बैठा दिया. मेरा मन बुझ गया.

रात तक प्रांजलि काम में व्यस्त रही और मैं बोर होती रही. बीच-बीच में रवि ने अवश्य कुछ बातें कीं. रात में प्रांजलि मेरे साथ सोना चाहती थी, किंतु मम्मी की भावभंगिमा देख उसने इरादा बदल दिया और अपने कमरे में चली गई. मेरा बिस्तर आंटी ने अपने कमरे में लगवाया. दो माह पूर्व की घटना मेरे ज़ेहन में ताज़ा हो गई थी. एक सेमिनार अटेंड करने प्रांजलि मेरे पास देहरादून आई थी. उस दौरान पूरे घर ने उसे सिर-आंखों पर रखा था. मम्मीजी कितने लाड़ से उसे खिलाती-पिलाती थीं. हरदम उसे एहसास करवातीं कि यह उसका अपना घर है. पायल ने तो बिना मुझसे पूछे पिक्चर की टिकटें बुक करवा दी थीं. हंसते-खिलखिलाते चार दिन कैसे गुज़र गए, पता ही नहीं चला था, किंतु यहां आते ही मुझसे कहा गया कि मैं यहां मेहमान हूं. दो दिनों में ही मैंने देख लिया, प्रांजलि कितने कठोर अनुशासन के बीच रह रही थी. नौकरी, घर की समस्त ज़िम्मेदारी, उस पर भी सास की टोकाटाकी की आदत, क्या यही सब झेलने के लिए प्रांजलि ने मम्मी-पापा के विरोध का सामना करके रवि से शादी की थी? इतना सब होते हुए भी उसके चेहरे पर रत्तीभर शिकन नहीं थी. हरदम एक मधुर मुस्कान लिए काम करती. हर सुबह एक नई ऊर्जा, एक नए उत्साह से भरी होती. मुझे लगा, कहीं अपने मन की पीड़ा को मुझसे छिपाने का यह प्रयास तो नहीं है. अपने चेहरे पर ख़ुशी का यह झूठा आवरण तो उसने नहीं ओढ़ रखा है?

तीसरे दिन आंटी रवि के साथ डेन्टिस्ट के पास गईं, तो मुझे राहत के पल नसीब हुए. चाय का कप लिए हम दोनों लॉन में बैठ गए. उत्तेजित होकर मैंने पूछा, “प्रांजलि, यह सब क्या है? इतने दिनों बाद मैं तेरे पास आई हूं और आंटी हैं कि बात ही नहीं करने देतीं. हरदम साए की तरह पीछे लगी रहती हैं.” प्रांजलि सहजता से मुस्कुराई और बोली, “दरअसल दी, मम्मी को वहम रहता है, कहीं मैं उनकी बुराई तो नहीं कर रही.”

“बुराई करनेवाले काम तो वे करती ही हैं. प्रांजलि, तू माने या न माने, रवि से शादी करना एक ग़लत फैसला था. घर में सदैव तूने यही बताया कि तू सुखी है. कितनी सुखी है, पिछले दो दिनों से मैं देख रही हूं. नौकरी के साथ-साथ सारे काम का दायित्व, उस पर उनकी टोकाटाकी, क्यों बर्दाश्त करती है ये सब? आख़िर क्या कमी है तुझमें, जो उनसे इतना दब रही है.”

प्रांजलि गंभीर हो उठी, “दी, सुख का अर्थ केवल कुछ पा लेना ही नहीं है, अपितु जो है, उसमें संतोष कर लेना भी है. अपनों के लिए कुछ करना, उनकी बात सुन लेना उनसे दबना नहीं होता, बल्कि उनका सम्मान करना होता है. तुम जानती हो दी, रवि ने अपनी मम्मी की इच्छा के विरुद्ध जाकर मुझसे शादी की थी. इस नाते घर में, उनके दिल में जगह बनाने का प्रयास मुझे ही करना है. मैं मम्मी को यक़ीन दिलाना चाहती हूं कि रवि ने मुझे उनकी बहू बनाकर कोई ग़लती नहीं की है. मैं हर तरह से उनके योग्य हूं.”

“प्रांजलि, कोई फ़ायदा नहीं होगा, वे इसे तेरी कमज़ोरी समझेंगी.”

“नहीं दी, मैं ऐसा नहीं सोचती. कर्त्तव्य के साथ-साथ आस्था जुड़ी हुई हो, तो उसका असर अवश्य होता है. सास होने के साथ-साथ वे एक मां भी हैं. उनके हृदय में भी ममता और करुणा का सागर छलकता होगा. सास मां का ही प्रतिरूप होती है और बहू बेटी का. इस नाते सास-बहू के साथ-साथ हमारा मां-बेटी का भी रिश्ता हुआ न. समर्पण में बहुत शक्ति होती है दी. पूर्णतया समर्पित हो जाना चाहती हूं मैं अपने घर के प्रति, अपने रिश्तों के प्रति. अपने इस प्रयास में मैं सफल भी होने लगी हूं, इसका एहसास मुझे कल रात हुआ, जब सिरदर्द होने पर मैंने मम्मी के माथे पर हाथ रखा और मेरा हाथ थामे वे देर तक आंखें बंद किए लेटी रहीं. डॉक्टर से अपॉइंटमेंट परसों का था, किंतु वे आज ही चली गईं, शायद मुझे और आपको स्पेस देने के लिए.”

प्रांजलि की आस्था और विश्‍वास की चमक के आगे मेरा चेहरा निस्तेज पड़ गया. एक ही मां की बेटियां होते हुए भी उसकी सोच इतनी सकारात्मक और मेरी… ग्लानि हो रही थी मुझे स्वयं पर. बड़ी होने के बावजूद मैं स्वयं को प्रांजलि से छोटी महसूस कर रही थी. मां-पिता के समान स्नेहिल सास-ससुर, छोटी बहन सरीखी ननद और देवरानी, भाई जैसा एक देवर और टूटकर चाहनेवाला पति और क्या चाहिए था मुझे? विनीत सच कह रहे थे. कमी मुझमें थी, मेरी निष्ठा में थी. आज पहली बार मेरे मन में अपने घर के प्रति, घरवालों के प्रति अपनत्व की भावना जागी थी. मन में भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा था. आज तक सबसे अपेक्षा ही रखती आई थी मैं. आज जीवन में पहली बार कुछ देने की इच्छा बलवती हो रही थी. अपना प्रेम और समर्पण न्योछावर करना चाहती थी मैं अपनों पर. इस देने की भावना में भी कितना सुख निहित है. हृदय की गहराइयों में महसूस कर रही थी मैं. अब मैं जल्द से जल्द अपनों के पास पहुंच जाना चाहती थी. आंटी और रवि के कहने के बावजूद फिर मुझसे वहां रुका नहीं गया. सुबह होते ही आस्था और विश्‍वास की डोर थामे एक नए उत्साह के साथ मैं अपने घर लौट आई.

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.