कहानी: ग़लत किया क्या?
मोहन बाबू की इच्छा हुई, लोगों के बीच से निकल, किसी खुली जगह, किसी चौराहे पर चले जाएं. चौराहे पर ट्रैफ़िक के सिपाही के लिए बनी चौकी पर बैठें, अपना जूता निकालें और फटाक-फटाक सिर पर मारते हुए कहें,‘‘तू यहां आया तो क्यों आया?’’ फिर जूते मार कर थक जाएं तो जो हुआ, सब भूलकर घर चले जाएं, लेकिन पैर जवाब दे रहे हैं, करें तो क्या करें? देवीशरण की बचपन से चली आ रही गहरी, बल्कि पारिवारिक कही जानेवाली दोस्ती का सवाल है. सिर्फ़ दोस्त की बात होती तो भी शायद इतनी रात घर से निकलने से मना कर चुके होते, पर जिगरी दोस्त के बड़े भाई का लिहाज पालना पड़ा. रात तीन बजे सतत ‘घर्र-घर्र’ ने जगा दिया था. पत्नी की नींद न टूटे इसलिए पिछले कुछ सालों से रात को मोबाइल सायलेंट पर रखकर सोते हैं. ऑन करते ही मुनिशरण भइया का अनुरोध भरा स्वर सुनाई दिया,‘‘भाई मोहन माफ़ करना, इतनी रात जगा दिया. बात ही कुछ ऐसी है.’’
‘‘कोई बात नहीं भइया, कहिए ना क्या हो गया, बताइए?’’ दोस्त के भाई के प्रति अपेक्षित लिहाज के साथ मोहनबाबू ने बिस्तर पर बैठते हुए कहा और सुनने को मिला,‘‘तकलीफ़ दे रहा हूं, पर क्या है कि उधर गुड़गांव की तरफ़ अपना कोई दूसरा पहचान का भी तो नहीं है.’’
‘‘अरे आप पहेली न बुझाओ मुनि भइया, बताओ हुआ क्या?’’ कहते हुए बिस्तर छोड़ दिया मोहनबाबू ने. समझ चुके थे मामला गंभीर है. मुनिशरण ने बताया,‘‘सुनो, वो अपना हरिशरण है ना, वो वहां गुड़गांव के अस्पताल में भर्ती है.’’
‘‘हरि कौन अपने मुन्नन?’’ मोहनबाबू ने याद करते हुए पूछा. कोई दस बरस पहले मुनि भइया के छोटे बेटे पुत्तन की शादी में गांव गए थे, तभी मुन्नन यानी हरिशरण को देखा था. कोई बारह-चौदह साल के रहे होंगे तब. मुन्नन यानी मुनि भइया के पोते, अब तो बाईस-पच्चीस के हो गए होंगे. देवीशरण ने साल भर पहले ही सूचना दी थी कि मुन्नन को उधर नोएडा में जॉब मिल गया है और कहा था,‘‘कभी कोई ज़रूरत पड़े तो देख लेना यार.’’
गुड़गांव से नोएडा न तो जाने का काम पड़ा और न मुन्नन ने ही आकर मिलने की औपचारिकता निभाई. लेकिन उस दिन दोस्त ने जो अनुरोध किया था, आज उसे निभाने का अवसर आ गया. स्लीपर पहन बालकनी में आ गए, मुनिशरण का कथन जारी था,‘‘अस्पताल से किसी पुलिसवाले का फ़ोन आया था. उसी ने बताया, रात को कुछ ऐक्सीडेंट-वेक्सीडेंट हो गया, मारा-पीटी भी हुई है. घायल होकर पहुंचे हैं. हां, पुलिस केस भी बना है. भैया मोहन, ज़रा देख लो जाकर. मदद कर दो हमारी. ऐसे में अब तुमसे न कहें, तो किससे कहें? ’’
‘‘उसकी फिकर न करें भइया. हम ख़ुद अभी जा रहे हैं. वहां पहुंचकर सब पता करके अपको फ़ोन करते हैं.’’ मोहन बाबू ने पूरे आदर के साथ आश्वस्त कर दिया तो मुनिशरण भइया ने आख़िरी अनुरोध किया,‘‘देखो, हम तुम्हारे फ़ोन का इंतज़ार करेंगे. तुम कहोगे, उसके बाद ही हम इधर से पुत्तन के या किसी ओर के साथ निकलेंगे, अब इस उमर में...’’
‘‘अरे-अरे, ऐसा क्यों कह रहे हैं आप, हम कोई पराए हैं क्या? देखें तो हुआ क्या है, ज़रूरी हुआ, तो ज़मानत भी करवा देंगे. निश्चिंत रहें.’’ दो-तीन बार और मुनि भइया को आश्वस्त कर मोबाइल ऑफ़ करते-करते पत्नी भी उठ चुकी थी और बेटा अशोक भी. मोहनबाबू ने घटना बयान की तो अशोक ने कहा,‘‘मैं चला जाता हूं, इतनी रात में आप कहां भटकेंगे?’’
उन्होंने मनाकर दिया,‘‘पास ही तो है, अस्पताल मेरा देखा हुआ है. अभी दो महीने पहले तो गया था. दस दिन रहकर आया हूं. काफ़ी लोग जानते हैं, डॉक्टर-वॉक्टर भी. फिर तुम्हें दुकान भी तो जाना है. कुछ होगा, तो बुलवा लूंगा.’’
‘‘दादाजी, हम चलें?’’ बिट्टो यानी अशोक की बड़ी बेटी क्षमता का उनींदा स्वर सुनाई दिया. कॉलेज जाने लगी है, तब से दादाजी को गाड़ी पर बैठाकर यहां-वहां ले जाना उसी की ड्यूटी है. शायद इसी इरादे से प्रस्ताव किया था उसने. तुरन्त भड़के मोहनबाबू,‘‘रहने दो लछमीबाई. वहां मेला लगा है. हम चलें! ऐसे काम में तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं.’’
सब जानते हैं, मोहन बाबू वो इंसान हैं, जो सड़क चलते किसी का ऐक्सिडेंट देख लें तो मदद के लिए रुक जाते हैं, फिर ये मामला तो दोस्त से जुड़ा था. बिट्टो सहम गई और बेटे ने भी ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया. असल में मोहनबाबू जानते थे, बेटा इस उमर में भी गरम मिजाज़ है, शायद मुन्नन के साथ मारपीट करनेवाले गुंडे वहीं हों. बात बिगड़ भी सकती है. बूढ़े होने के कारण गुंडे उनका लिहाज करेंगे. और फिर मुनिशरण परिवार से रिश्तों की गहराई ने उन्हें ज़्यादा सोचने का समय ही कहां दिया? जैसा कि तय हुआ था, अस्पताल पहुंचकर उन्होंने पत्नी को फ़ोन पर बता दिया,‘‘पहुंच गया हूं. अब और चिन्ता मत करना. सोने की कोशिश करना.’’
लेकिन इस स्थिति की कल्पना नहीं थी. रात साढ़े तीन बजे के हिसाब से ज्यादा ही लोग जमा थे. मेन गेट के सामने सड़क के दूसरी ओर कुछ लोग बड़ी-सी कार को घेरे खड़े थे. भीड़ के बीच से बस इतना देख पाए कि कार के सारे कांच टूट चुके हैं. घबराहट-सी हुई. उन्होंने अनुमान लगा लिया, इसी कार से ऐक्सिडेंट हुआ है. कैसे हुआ? चोट किसे लगी, जानना चाहते थे. कुछ सोचकर बेटे को फ़ोन किया. लोग सुन न लें इसलिए फुसफुसाते स्वर में बोले,‘‘बेटा, ज़मानत की ज़रूरत पड़ सकती है. ज़रूरी का़गज़ात निकाल लो, मैं कहूं, तब आ जाना.’’ जेब में रखे सौ-सौ के पांच और पांच सौ के तीन नोट टटोलते हुए, सबको अनदेखा कर अन्दर प्रवेश कर गए. काउंटर पर पूछताछ कर ही रहे थे कि चार-पांच हट्टे-कट्टे लड़कों ने घेर लिया. रिसेप्शन से कोई जवाब मिले, उससे पहले ही लड़कों में से सबसे सीनियर ने सवाल किया,‘‘आप उस लड़के के, हरिशरण के पिताजी हैं?’’
भावना में बहकर कहना चाहते थे ‘हां’ लेकिन सम्हलकर बोले,‘‘जी नहीं, बस ऐसे ही.’’
‘‘रिश्तेदार हैं?’’ तुरन्त दूसरा सवाल आया. तब तक कुछ और लोग आसपास आकर खड़े हो गए थे. उन्होंने कहा,‘‘नहीं भाई, मैं उनका कोई नहीं. दोस्त का बेटा सुबह से ग़ायब है. पास ही रहता हूं, सुना ऐक्सिडेंट हुआ है, सो देखने चला आया. तुम बोलो तो वापस चला जाऊं?’’
जवाब में उन लोगों ने उन्हें कुछ ऐसे घूरा, जैसे तय कर रहे हों कि झूठ तो नहीं बोल रहे. इस तरह देखा जाना पीड़ा दे गया. उन्हें लगा, बुद्धिमानी की जो समय रहते झूठ बोल गए. संयत सवाल किया,‘‘क्यों भइया, क्या बात हो गई?’’ रास्ते में ही सोच लिया था, जो नुक़सान हुआ होगा उसकी भरपाई करके पुलिस केस बनने से रोकने की कोशिश करेंगे. उसी की शुरुआत करने के हिसाब से उन्होंने नाराज़ दिखाई दे रहे समूह से सवाल किया था. लड़कों ने कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि कुछ पीछे हट गए. कारण क्षण भर बाद समझ में आया. रिसेप्शन काउंटर के पीछे आकर पुलिस का सिपाही खड़ा हो गया था. इतनी देर से चुप रिसेप्शनिस्ट ने उसे देखकर मुंह खोला, ‘‘उसको, हरिशरण को पूछने आए हैं?’’
‘‘आप कौन? बाप हैं उसके?’’ पुलिसिया शिष्टाचार के साथ प्रश्न हुआ. मोहनबाबू ने ज़रा ज़्यादा ही धीमे स्वर में परिचय दिया, मुन्नन के पिता के फ़ोन आदि के बारे में बताया. पुलिसवाले पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन शायद दया आ गई. उसने कहा,‘‘चलिए मेरे साथ.’’ वे एक क़दम भी नहीं चले होंगे कि उसने मुड़कर कहा,‘‘नहीं, आप लोग वहीं रहिए. इधर नहीं आना.’’ जिस अनुशासन के साथ वे सब रुके मोहन बाबू ने महसूस किया, गुंडे नहीं हैं, लेकिन नाराज़ बहुत हैं. उनकी चुप्पी डरानेवाली है. घबराहट बढ़ गई. ऐसा क्या किया होगा मुन्नन ने? कोई अनुमान नहीं लगा पाए. फिर भी इतना तो सोच ही लिया कि टक्कर मारकर किसी की गाड़ी को नुक़सान पहुंचाया होगा और अपनी ग़लती न मानते हुए अकड़ लिए होंगे. आजकल के लड़कों की यही तो आदत है. देवीशरण भी तो जवानी में ऐसे ही थे, पांच आम तोड़ने बगीचे में घुसते, तो पचास का नुक़सान करते. किसी की साइकल उठाकर दो-चार घंटे के लिए ग़ायब हो जाना तो उनकी प्रिय शरारत थी. कई बार तो जिसकी सायकल उठाते, उसकी मार भी खाते.
‘‘ज़माना कितना बदल गया ना! अब बच्चे शरारत नहीं, वारदात करते हैं. बल्कि शरारत के नाम पर वारदात करते हैं.’’ उन्होंने एक क़दम आगे चलते जवान से कहा. किसी भी तरह बात शुरू करके वे पहचान बढ़ा लेना चाहते थे. जवाब में जवान ने जो निगाह उन पर डाली, उसमें असहमति तो थी ही, यह भी था कि उन्होंने कोई बड़ी बेहूदी बात कर दी है. उसके इस व्यवहार ने घबराहट बढ़ा दी. कुछ न सूझा तो दो क़दम तेज़ चले और पुलिसवाले की हथेली पीछे से पकड़ ली. जवान के रुकते ही उन्होंने लगभग गिड़गिड़ाकर पूछा,‘‘ऐ भइया, बता तो दो, हुआ क्या है, मामला क्या है?’’
‘‘बताएं? ... बलात्कार किया है ... चलती कार में. नोएडा से किसी स्कूली लड़की को उठा लाए थे. तीन घंटे में चार लौंडे निपटे. एक भाग गया, दो थाने में हैं. इनको लोगों ने घेर लिया और ख़ूब अच्छा कूटा है. शायद हड्डियां टूटी हैं. और कुछ जानना है? वो रहे, देख लो.’’
पुलिसवाले के स्वर की तल्ख़ी ने शरीर में ब्लडप्रेशर की झुरझुरी ला दी. सहमे हुए से उन्होंने ऑपरेशन थिएटर के दरवाज़े से नाक चिपका दी. कांच के पीछे दिखाई दी बिल्कुल मुनिशरण और देवीशरण जैसी नाक. सिर पर बंधी पट्टी के बावजूद पहचानने में देर न लगी. शरण लोगों की नाक की बनावट ही ऐसी है. पुलिस जवान का बयान अब भी जारी था, ‘‘मार ही डालते. एक टांग तो गई समझो.’’
तभी दरवाजा खुला और डॉ मणी ने आश्चर्य के स्वर में पूछा,‘‘अरे दादाजी, आप?’’
डॉ मणी ने ही उनका ऑपरेशन किया था. परिचित के मिलते ही कुछ आश्वस्त स्वर में बोले,‘‘कुछ नहीं डॉक्टर बेटा, देखने आया था, कौन है?’’
‘‘देख लीजिए, अपना कोई है क्या?’’ कहते हुए डॉक्टर ने दरवाज़ा पूरा खोल दिया. डॉक्टर की पहचान का असर यह हुआ कि पुलिस जवान पीछे हट गया. ऑपरेशन थिएटर में दो क़दम धरते ही वे रुक गए. ध्यान से देखते रहे. शादी में देखे निष्कलंक चेहरे का कलंकित रूप उनके सामने था. सारा शरण परिवार याद आ गया. उस परिवार की प्रतिक्रिया की तो वे कल्पना भी नहीं कर सके, वे स्वयं जो प्रतिक्रियाविहीन हो चुके थे. डॉक्टर का प्रश्न कानों में गूंज रहा था.
वे अभी भी जवाब के लिए उनकी ओर देख रहे थे. उन्होंने गहरी सांस ली, फिर निर्णायक स्वर में बोले,‘‘नहीं, ये वो नहीं है. वो क्या है बेटा कि हमारे दोस्त का बेटा सुबह से लापता है. इधर ऐक्सीडेंट की ख़बर मिली तो भागे चले आए.’’
चलने में असमर्थता जताते क़दमों से वे बाहर निकल आए. चार बजने को थे, दिन का समय होता तो डॉक्टर मणी चाय पिए ब़गैर आने नहीं देते. उनके अभिवादन का जवाब भी बस हाथ हिलाकर दे दिया. इच्छा हो रही थी, भागें, दूर भागें. खुले चौराहे पर चले जाएं. लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया. पूरे समय उन्हें उस पुलिस जवान की आंखें अपनी पीठ कुरेदती महसूस हो रही थी. आश्चर्य कर रहा होगा वह. कह रहा होगा,‘‘कैसा आदमी है, अभी तो कह रहा था, हरिशरण हमारे दोस्त का बेटा है!’’
डेढ़ घंटे में तीन कप चाय पी चुके. पूरी स्थिति बताकर पूछे जा रहे हैं,‘‘मैंने कुछ ग़लत किया क्या?’’
पत्नी, बेटा यहां तक कि पोती बिट्टो यानी क्षमता भी बार-बार कह चुके,‘‘आपने कुछ ग़लत नहीं किया, जो किया, सही किया. बलात्कारी की कोई मदद नहीं करनी चाहिए. सड़ने दो उसे.’’
लेकिन मोहनबाबू कुछ तय नहीं कर पा रहे हैं, मुनि भइया को कैसे फ़ोन करें? क्या कहें? दिमाग़ सुन्न है.
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