कहानी - संदेह के बादल

सारी रात सुरभि सो नहीं पाई थी. बर्थ पर लेटेलेटे ट्रेन के साथ भागते अंधकार को कभीकभी निहारने लगती. इतने समय बाद अपने पति प्रारूप से मिलने की सुखद कल्पना से उस के शरीर में सिहरन सी दौड़ गई थी. गाड़ी ठीक सुबह 5 बजे स्टेशन पर आ गई थी. कुली बुलवा कर उस ने सामान उतरवाया और उनींदे मृदुल को गोद में ले कर स्टेशन पर उतर कर अपने पति प्रारूप को ढूंढ़ने लगी. चिट्ठी तो समय पर डाल दी थी उस ने, फिर क्यों नहीं आए? कहीं डाक विभाग की लाखों चिट्ठियों में उस की चिट्ठी खो तो नहीं गई? वरना प्रारूप अवश्य आते.

हवा में काफी ठंडक थी. सर्दी अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी. उस शीतल बयार में भी पसीने के कुछ कण उस के माथे पर उभर आए थे. नया शहर, नए लोग, अनजान जगह. ऐसे में अपना घर ढूंढ़ भी पाएगी या नहीं. उस ने पर्स खोल कर पते की डायरी निकाली और पास खड़े रिकशे वाले को कस्तूरबा गांधी मार्ग चलने का निर्देश दे कर पहले रिकशे में सामान रखवाया और फिर गोद में मृदुल को ले कर खुद भी बैठ गई. कैसी अजीब सवारी है यह रिकशा भी? उस ने सोचा, हर समय गिरने और फिसलने का डर बना रहता है. 2 लोग भी कितनी मुश्किल से बैठ पाते हैं. दिल्ली में होती तो अपनी गाड़ी को दौड़ाती हुई अब तक कई किलोमीटर की दूरी तय कर चुकी होती.

शहर की सुनसान सड़कें लांघता हुआ रिकशा एक बंगले के पास आ कर रुक गया था. बाहर नेमप्लेट पर अधिशासी अभियंता प्रारूप कुमार का नाम पढ़ कर उसे अपने गंतव्य तक पहुंचने की सूचना मिल गई थी. चारों ओर से भांतिभांति के पेड़ों से घिरे छोटे से बंगले तक पहुंचने के लिए उस ने रिकशे वाले को बाहर गेट पर ही पैसे दे कर विदा किया और हाथ में बैग पकड़ कर बंगले के बाहर आ कर खड़ी हो गई थी. पहले का समय होता तो सीढि़यां लांघती हुई, संभवतया धड़धड़ाती हुई अब तक घर के अंदर पहुंच चुकी होती, पर इस समय एक अव्यक्त संकोच उस के पांव जकड़ रहा था. घर तो उस का ही है. प्रारूप के घर को वह अपना ही तो कहेगी, लेकिन पिछले कई दिनों से उन के बीच एक दीवार सी खिंच गई थी, जिसे बींघने का प्रयत्न दोनों ही नहीं कर पा रहे थे. अब तो काफी दिनों से न तो कोई पत्रव्यवहार उन दोनों के बीच था और न ही बोलचाल. उस ने अपने आगमन की सूचना भी मृदुल से करवाई थी. वह बेला, चमेली की झाडि़यों के बीच काफी देर तक यों ही सूटकेस थामे खड़ी रही.

‘‘सुरभि.’’

चिरपरिचित आवाज पर वह पीछे मुड़ गई थी, जैसे मुग्धावस्था से चौंकी हो. इतने समय बाद प्रारूप को देख कर वह किसी अमूल्य निधि को पा लेने की सुखद अनुभूति से अभिपूरित हो उठी थी. उन्हें एकटक निहारती रह गई थी. रंग पहले से अधिक खिल उठा था. शरीर छरहरा पर चुस्तदुरुस्त. हां, कनपटियों पर चांदी के तार खिल आए थे. सुबह की सैर से लौटे थे  शायद.

‘‘चलो, अंदर चलो. यहां क्यों खड़ी हो?’’ अपने कंधे पर कोमल स्पर्श पा कर वह चौंकी.

‘‘शीतला, सामान उठा कर अंदर रखवा दो,’’ आदेश दे कर उन्होंने मृदुल को गोद में उठा लिया और पत्नी से प्रश्न किया, ‘‘चिट्ठी लिख देतीं, मैं तुम्हें लेने स्टेशन आ जाता.’’

‘‘लिखी तो थी, फोन भी करवाया था. पता चला दौरे पर गए हुए थे तुम,’’ उस ने रुकरु क कर कहा.

‘‘अच्छा, शायद शीतला डाक देना भूल गई है. पिछले दिनों काफी व्यस्त रहा,’’ वे अपने विभाग के कई किस्से सुनाते रहे थे, पर उसे लगा, प्रारूप जानबूझ कर टाल गए हैं. तभी शीतला ट्रे में प्रारूप के लिए नीबूपानी, उस के लिए चाय और मृदुल के लिए गिलास में दूध व कुछ बिस्कुट रख गई थी. पितापुत्र बातों में ऐसे व्यस्त हो गए जैसे सबकुछ एक ही दिन में जान, समझ लेंगे. चाय की चुस्कियां लेते वह झाड़ू लगाती हुई शीतला को देखने लगी. सांवला चेहरा, कुमकुम की बिंदी, लाल बौर्डर की तांत की साड़ी और कोल्हापुरी चप्पल, छरहरा शरीर जैसे उस की अपनी थुलथुल काया का परिहास कर रहा था. गजब का आकर्षण है इस तरुणी में, चेहरे पर कुटिल मुसकान घिर आई थी. मां को काफी जतन करना पड़ा होगा इसे ढूंढ़ने में? सुरभि ने मन ही मन सोचा था.

चाय की चुस्कियां लेते हुए उस ने चोर दृष्टि से घर के हर कोने की टोह ले ली. घर का हर हिस्सा साफसुथरा और सुव्यवस्थित था. कमरे में नीले रंग के परदे और बरामदे में रखे सुंदर क्रोटोन विगत के कई दृश्यों को सजीव कर गए थे. लाल रंग सुरभि को पसंद था, जबकि प्रारूप को हलका नीला आसमानी रंग भाता था. वे कहते, खुले उन्मुक्त आकाश का परिचय देता है यह रंग, पर उन की कहां चली थी. सुरभि ने ज्यों ही लाल रंग के परदों से अपनी बैठक को सजाया, प्रारूप ने वहां बैठना बंद कर दिया था. उन्होंने खुद को अपने कमरे में कैद कर लिया था. एक बार यों ही रंगबिरंगे क्रोटोन के कुछ गमले ला कर प्रारूप ने बरामदे में सजाए, तो भी सुरभि का पारा 7वें आसमान पर पहुंच गया था, ‘छोटी सी बालकनी है, 2 आदमी तो ढंग से खड़े नहीं हो सकते, गमले कहां रखोगे?’

पौधे बेचारे खादपानी के बिना यों ही मुरझा गए थे. इस समय शीतला यत्नपूर्वक छोटी कैंची से क्रोटोन के सड़ेगले पत्ते काट कर फेंकती जा रही थी. गुड़ाई करते समय, उस के हिलतेडुलते शरीर को देख कर सुरभि की भृकुटी तन गई. उस ने सोचा, कैसी बेशर्म औरत है, कम से कम प्रारूप दफ्तर चले जाते तब कर लेती यह सारसंभाल. लेकिन नहीं, मालिक के सामने अच्छा बन कर दिखाएगी, तभी तो कुछ दिन टिकेगी और चार पैसे भी ज्यादा मिलेंगे. इन्हीं हावभावों का प्रदर्शन कर के तो मर्दों के आकर्षण का केंद्र बनती हैं. ‘नीच,’ वह कुड़बुड़ाई. फिर प्रत्यक्ष में प्रारूप से प्रश्न किया, ‘‘माली देखभाल नहीं करता क्या पौधों की?’’

‘‘करता है मेमसाहब, पर साहब को उस का काम पसंद नहीं है.’’ शीतला के उत्तर से उस के मन में खीझ सी उत्पन्न हुई थी. पतिपत्नी की बातों में यह क्यों दिलचस्पी ले रही है? दोएक बार उस ने प्रारूप का ध्यान अपनी ओर खींचने का प्रयास किया, पर वे मृदुल की ही बातों में उलझे रहे थे. कहीं उस का यों अचानक आना उन्हें बुरा तो नहीं लगा? मन में संदेह का बीज अंकुरित हो उठा था.

उस ने घड़ी की ओर दृष्टि घुमाई. 9 बजने को आए थे. प्रारूप के दफ्तर जाने का समय हो गया था. यह सोच वह नाश्ता बनाने के लिए उठने लगी तो उन्होंने सबल रोक दिया, ‘‘जब से बीमार हुआ हूं, गरिष्ठ भोजन सुबहसुबह पचता नहीं है. शीतला को मां सब समझा गई हैं. वही बना कर ले आएगी, तुम आराम से बैठो.’’ मेज पर रखे बरतनों की खनखनाहट सुन कर उस की नजर उस ओर चली गई थी. इलायची का छौंक लगा कर बनी खिचड़ी की सोंधी महक कमरे में फैल गई थी. नाश्ता कर के दफ्तर जाते समय प्रारूप उस से कहते गए, ‘‘जो भी काम हो, शीतला से कह देना. यह सब काम बड़े सलीके से करती है.’’ अनायास कहे पति के वाक्य उसे अंदर तक बींध गए. वह खुद पर तरस खा कर रह गई थी. ब्याह के बाद कुछ ही दिनों में पतिपत्नी के बीच संबंधों की खाई इसी बात पर ही तो गहराती गई थी. प्रारूप ऐसी सहभागिता, सहधर्मिणी चाहते थे जो ढंग से उन की गृहस्थी की सारसंभाल करती, उन की बूढ़ी मां की सेवा करती और जब वे थकेहारी दफ्तर से लौटे तो मृदु मुसकान चेहरे पर फैला कर उन का स्वागत करती. लेकिन सपनों की दुनिया में विचरण करने वाली, स्वप्नजीवी सुरभि के लिए ये सब बातें दकियानूसी थीं. वह तो पति और सास को यही समझाने का प्रयत्न करती रही कि औरत की सीमाएं घरगृहस्थी की सारसंभाल और पति व सास की सेवा तक ही सीमित नहीं हैं. नौकरी कर के चार पैसे कमा कर जब वह घर लाती है, तभी उसे पूर्णता का एहसास होता है.

प्रारूप समझाते रह गए थे कि उन की खासी कमाई है, सिर पर छत है, जिम्मेदारी कोई खास नहीं, और जो है भी, उस का निर्वहन करने में वे पूर्णरूप से सक्षम हैं. ?पर महत्त्वाकांक्षी सुरभि के ऊपर से सबकुछ जैसे चिकने घड़े पर पड़े पानी सा उतर गया. अम्मा सोचतीं कि एक बार मातृत्व बोध होने पर खुद ही घरगृहस्थी में रम जाएगी पर वहां भी निराशा ही हाथ लगी. मृदुल की किलकारियां दादी और पिता ने ही सुनी थीं. उन्हीं दोनों की छत्रछाया में वह पलाबढ़ा था. कुछ समय बाद प्रारूप को पदोन्नति मिली जिस से तनख्वाह भी बढ़ी और रहनसहन का स्तर भी. उन्होंने मृदुल का दाखिला एक अच्छे पब्लिक स्कूल में करवा दिया था. कभी किसी चीज की कमी नहीं थी. एक बार फिर उन्होंने सुरभि को नौकरी छोड़ने के लिए कहा था, समझाया था कि बच्चे की सही परवरिश के लिए मां का घर पर होना बहुत जरूरी है. पर भौतिकवाद में विश्वास करने वाली पत्नी ने उन्हें यह कह कर चुप करवा दिया कि यह परवरिश तो आया और शिक्षिका भी कर सकती हैं. और फिर, दोहरी आय से ये सुविधाएं तो आसानी से जुटाई जा सकती हैं.

नन्हें मृदुल के मुंह में जब आया निवाला डालती तो प्रारूप क्षुब्ध हो उठते. बूढ़ी अम्मा को घर के काम में जुटा देखते तो मन रुदन कर उठता कि उन्होंने ब्याह ही क्यों किया? इस बात का जवाब अपने मन में ढूंढ़ना खुद उन के लिए बहुत बड़ा संघर्ष था. एक बोझ की मानिंद सारे कार्यकलाप निबटाते रहते, पर अपनी सहधर्मिणी से वे कभी लोहा नहीं ले पाए. उन में अपने बिफरते मन को संभालने की अद्भुत क्षमता थी. उन के मन की गहराइयों में जब भी उथलपुथल मचती, लगता ज्वालामुखी फट पड़ेगा, लावा निकलने लगेगा. मनप्राण जख्मी हो कर छटपटाने जरूर लगते थे, पर उन के मुंह से बोल नहीं फूटते थे. शायद समझ गए थे, कुछ भी कह कर अपमानित होने से अच्छा है होंठ सी कर रहा जाए.

उन्हीं दिनों उन का स्थानांतरण दार्जिलिंग हो गया. प्रारूप वहां जाना नहीं चाहते थे. इसलिए नहीं कि उन्हें दिल्ली से विशेष लगाव था, बल्कि इसलिए कि वे जानते थे कि सुरभि कभी भी उन के साथ चलने को तैयार नहीं होगी और न ही नौकरी से त्यागपत्र देगी. ऐसे में अम्मा और मृदुल को अकेले भी नहीं छोड़ सकते और स्वयं रुक भी नहीं सकते. इसलिए अकेले ही जाने का निश्चय कर के उन्होंने अपना यह निर्णय जब अम्मा को सुनाया तो उन के धैर्य का बांध ढहने लगा. वे उन्हें वहां अकेले कैसे जाने देतीं? कौन उन की देखभाल करेगा? मां ने सुरभि को समझाया था, ‘पतिपत्नी को एक ही देहरी में रहना होता है. जनमजनम का साथ होता है दोनों का,’ पर सुरभि ने मां की बात समझने के बदले, समझाना उचित समझा था. अपनी ओर से खुद ही सफाई दे कर उस ने पलभर में अपना निर्णय सुना दिया था, ‘3 ही बरस की तो बात है, पलक झपकते ही गुजर जाएंगे. अब तो मृदुल भी अच्छे स्कूल में जाने लगा है. अच्छे स्कूलों में दाखिले आसानी से तो मिलते नहीं. एक बार पूरा तामझाम समेटो और फिर वापस आओ, मुझ से नहीं होगा यह सब.’

वे अपनी अर्धांगिनी से इस से अधिक आशा कर भी नहीं सकते थे. प्रारूप ऐसे मौकों पर गजब की चुप्पी इख्तियार कर लेते थे. वैसे भी, जहां मन की संधि न हो, पतिपत्नी साथ रह कर भी एक दूरी पर ही वास करते है. अम्मा परेशान हो उठी थीं. बेटे से बहू के अलग रहने का खयाल उन्हें सिर से पैर तक हिला गया, पर क्या कर सकती थीं सिवा चुप्पी साधने के.

‘‘बीबीजी, दोपहर में क्या खाना बनाऊं?’’

शीतला के प्रश्न पर अतीत की खोह से निकल कर वह वर्तमान में लौट आई थी.

‘‘साहब क्या खाते हैं इस समय?’’

‘‘आज तो साहब बाहर गए हैं, इसीलिए डब्बा साथ में ही दे दिया. वैसे तो घर में ही आ कर खाते हैं.’’ उसे उस की मासूमियत पर चिढ़ हो आई. वह चिढ़ते हुए सोचने लगी कि अपने पति की पसंदनापसंद भी इस गंवार से पूछनी पड़ रही है. उसे अपना अधिकार छिनता सा लगा. फिर भी शीतला को आलूमटर की सब्जी बनाने का आदेश दे कर वह अपने शयनकक्ष में आ कर लेट गई. थकान से पलकें बोझिल थीं, पर नींद कोसों दूर थी. शीतला मटर छील रही थी. मृदुल उस की पीठ पर झूला झूल रहा था. वह ज्यों ही झुकती, गहरे गले की चोली में से उस का गदराया शरीर दिखाई देता, जिसे लाख प्रयत्न करने के बावजूद उस की साड़ी का झीना आवरण छिपाने में असमर्थ था. सुरभि के मन में कई प्रश्न कुलबुलाने लगे कि कहीं शीतला के मदमाते यौवन और गदराए शरीर ने प्रारूप की संयमित चेतना को छितरा तो नहीं दिया? जब विश्वामित्र जैसे तपस्वी की चेतना को मेनका ने भंग कर दिया था तो प्रारूप तो साधारण पुरुष है. अम्मा ने बताया था. शीतला का पति अपाहिज है, उधर प्रारूप भी तो इतने बड़े बंगले में एकाकी जीवन बिता रहे हैं. 2 युवा प्राणी क्या स्वयं को संयमित कर पाए होंगे.

जब से अम्मा ने उसे प्रारूप के यहां शीतला की नियुक्ति की बात बताई थी, वह परेशान हो उठी थी. उस के मन में शंकाओं के जाल फैलने लगे थे. अपनी कल्पना में कभी वह शीतला और प्रारूप को आलिंगनबद्ध देखती तो कभी उसे मृदुल और प्रारूप के बीच बैठे देखती. कई दिनों से कोरे पड़े दिमाग पर जैसे भावों और विचारों का रेला आ गया हो. ‘यह क्या कर गईं अम्मा?’ उस ने मन ही मन सोचा था. किसी पुरुष को नियुक्त करतीं. आदमी आखिर आदमी होता है और औरत, औरत. इनके आदिम और मूल रिश्तों पर किसीकिसी का ही बस चलता है. उस के पिता ने भी तो यही किया था. मृत्युशय्या पर पड़ी हुई उस की मां की सेवा के लिए नियुक्त नर्स को अपनी अर्धांगिनी बना  कर अपनी वफादारी का सुबूत दिया था. अम्मा बाबूजी का कितना ध्यान रखती  थीं, उन्हें खिलाए बगैर नहीं खाती थीं. जब तक वे सोते नहीं थे, तब तक खुद भी नहीं सोती थीं और अगर वह देर से उठते तो क्या मजाल, घर में जरा सा भी शोर कर दे कोई. कहतीं, बाबूजी की नींद में खलल पड़ेगा. उन की कितनी सेवा करती थीं, पर एक बार बिस्तर पर पड़ीं तो बाबूजी की सारी ईमानदारी आंधी में उड़ने वाले तिनके समान उड़ गई थी. मां लाख सिर पटकती रही थीं, पर मुट्ठी में बंद रेत की तरह सबकुछ फिसल कर रह गया था.

अम्मा तो दोषी नहीं थीं. हारीबीमारी पर किसी का जोर नहीं चलता है, पर सुरभि ने तो खुद मुसीबत को न्योता दिया था. ब्याह के बाद से आज तक उस ने पति की सेवा करना तो दूर, कभी उस के दिल में झांकने की भी चेष्टा नहीं की थी. यहां आने के लिए अम्मा ने उस पर कितना जोर डाला था. पर वही नहीं मानी थी. प्रारूप जब भी अपनी परेशानियों की चर्चा उस से करते, वह सुनीअनसुनी कर देती. अम्मा के कानों तक ये बातें न पहुंचें, यही प्रयत्न रहता था उस का. डरती थी कि अम्मा उसे जबरन प्रारूप के पास भेज देंगी, फिर उस की नौकरी का क्या होगा, उज्जवल भविष्य का क्या होगा? धीरेधीरे प्रारूप दिल्ली कम आने लगे थे. एक तो लंबा सफर उन के तनमन को शिथिल करता, ऊपर से पत्नी की तटस्थता और अवहेलना आहत कर जाती थी. बस, मां का प्यार और मृदुल का दुलार ही उन्हें शांति प्रदान करता था. फोन पर अकसर बात कर लेते थे. वह भी ज्यों ही सुरभि फोन उठाती, उन्हें कई काम याद आ जाते थे. कहनेसुनने को रहा भी क्या था? उन का भावुक मन कहां आहत हुआ था, इस की तो महत्त्वाकांक्षी सुरभि कल्पना भी नहीं कर पाई होगी.

पिछली बार उन्होंने अम्मा को फोन पर बताया था कि वे काफी दिनों से बीमार थे, उन्हें अतिसार हो गया था. अन्न का एक दाना भी नहीं पचता था. बेटे की बीमारी की खबर सुन कर मां सुलग उठी थीं. उन्होंने अपने जमाने की कई पतिव्रता औरतों के उदाहरण दे डाले थे कि ऐसे समय में पत्नी ही तो पति की सेवा करती है. बीमार इंसान दवा के साथसाथ प्यार व सहानुभूति की भी आशा रखता है. पर सुरभि के समक्ष सुनहरा भविष्य और शानदार कैरियर एक बार फिर मुंहबाए खड़ा हो गया था. उन दिनों दफ्तर में पदोन्नति की नई सूची बन रही थी. ऐसे में उस का कहीं भी जाना नामुमकिन था. यों उस ने फोन पर पानी उबाल कर पीने और समय पर दवा लेने की हिदायतें दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी थी. बेटे के पास अम्मा ही पहुंची थीं. अम्मा ने ही पूरी तरह से उन की देखभाल की थी. जब लौटने लगीं तो शीतला को प्रारूप की देखभाल के लिए नियुक्त कर आई थीं.

घर लौट कर उन्होंने शीतला की प्रशंसा में जमीनआसमान एक कर दिया था. अब यह प्रशंसा बहू को कुढ़ाने के लिए करती थीं या उस के मन में पति के प्रति प्रेम का बीज अंकुरित करने के लिए, यह तो वही जानें, पर सुरभि इस अनदेखी महिला के प्रति ईर्ष्यालु हो उठी थी. शीतला के रूप में उस के समक्ष मानो एक पत्थर की दीवार खड़ी हो गई थी. ठोस, ठंडी और पथरीली दीवार जिस पर वह मुट्ठियां पटकती रहती, पर कोई उत्तर नहीं मिलता था. पतिपत्नी के अंतरंग संसार को नष्टभ्रष्ट करता कोई तीसरा वहां पसर जाए, इस से पहले ही वह यहां आ पहुंची थी.

उसे यहां आए हुए 8 दिन हो गए थे, पर वह पूरी तरह से अपनी गृहस्थी संभाल नहीं पा रही थी. दैनिक दिनचर्या की छोटीछोटी परेशानियों में उस ने कभी दिलचस्पी नहीं ली थी. सभी शीतला कर रही थी. उस दिन रविवार था. सभी बाहर आंगन में बैठ कर सर्दी की कुनकुनाती धूप का आनंद ले रहे थे. शीतला कपड़े धो रही थी. मृदुल बालटी में से पानी निकाल कर शीतला पर उलीचता जा रहा था और खिलखिलाता भी जा रहा था.  प्रारूप मंत्रमुग्ध से पूरे दृश्य का आनंद ले रहे थे. बोले, ‘‘कुछ ही दिनों में शीतला ने मृदुल को अपने वश में कर लिया है.’’

‘‘हां, बच्चों के साथ बड़ों को भी अपने वश में करने की अद्भुत क्षमता है इस में,’’ प्रारूप तल्खीभरे स्वर में छिपे पत्नी के व्यंग्य को भली प्रकार समझ गए थे. जब पति की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला तो क्रोधावेश में उस ने रस्सी पर प्रारूप की कमीज फैलाते हुए शीतला के हाथों से कपड़े छीन लिए और उसे अंदर जा कर रसोई का काम संभालने का आदेश दिया था. इस अप्रत्याशित व्यवहार से शीतला कांप कर रह गई थी. वह सोचने लगी थी कि न जाने क्या अपराध हो गया उस से? मालकिन के मन में उठ रहे अंतर्द्वंद्व से पूर्णतया अनिभज्ञ शीतला अंदर जा कर हैंगर उठा लाई और सुरभि से बोली, ‘‘बीबीजी, यह साहब की कमीज हैंगर पर फैला दीजिए.’’ ईर्ष्या का नाग जैसे फन फैला कर खड़ा हो गया. न जाने कितनी देर तक उस की गिद्धदृष्टि शीतला के शरीर पर रेंगती रही. फिर उस के हाथ से हैंगर ले कर सुरभि ने जमीन पर पटक दिया.

प्रारूप कुछ परेशान हो उठे थे, बोले, ‘‘क्या बिगाड़ा  है इस गरीब अबला ने तुम्हारा, जो उसे यों अपमानित करने पर तुली हो?’’

‘‘तुम्हारी देखभाल किस तरह करनी है, यह क्या मुझे इस से सीखना पड़ेगा?’’

वह यों अकस्मात उमड़ आए पत्नीप्रेम पर विस्मित रह गए थे. सुरभि का तीव्र स्वर दोबारा सुनाई पड़ा, ‘‘अब मैं यहां आ गई हूं. शीतला की क्या जरूरत है यहां?’’ उस की आवाज में दांपत्य के दर्पभरे अधिकार का बोध था.

‘‘तुम चली जाओगी, फिर कौन संभालेगा यह घर?’’ प्रारूप का स्वर कहीं दूर से आता लगा.

‘‘मैं दीर्घावकाश ले कर आई हूं. जब तक तुम्हारा तबादला वापस दिल्ली नहीं हो जाता, मैं और मृदुल यहीं रहेंगे, तुम्हारे पास.’’ ‘‘तुम्हारे कैरियर और मृदुल के स्कूल का क्या होगा?’’ फिर अपनी तरफ से सही निर्णयात्मक ढंग से बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘गरीब, लाचार औरत है बेचारी, आदमी कमाता नहीं है, 3-3 बच्चों का भरणपोषण इसी के जिम्मे है. यहीं काम करने दो इसे. बेचारी तुम्हारी मदद भी करती रहेगी.’’ ‘‘दुनियाभर के गरीबों का जिम्मा हम ने तो नहीं ले रखा?’’ बड़बड़ाती हुई पैर पटकती वह घर के अंदर चली गई थी. प्रारूप शायद सुन नहीं पाए थे या सुन कर भी अनसुना कर गए थे. ‘कितनी हमदर्दी है शीतला से,’ सुरभि बड़बड़ाती रही. उस के मन में शंका की लहरें फिर से हिलोरें लेने लगीं कि कहीं उन के हृदय के साम्राज्य पर यह शीतला अपना आधिपत्य तो नहीं जमाती जा रही? संदेह के बीज ने उसे ऐसा कुंठित किया कि वह दिग्भ्रमित सी हो उठी.
रसोई में आ कर उस ने ऊंचे स्वर में शीतला को पुकारा तो बेचारी कांप कर रह गई. हाथ में पकड़ा विदेशी कांच का गिलास धम्म से जमीन पर गिर कर चटक गया. 

अब तो सुरभि की पराकाष्ठा देखने के काबिल थी. जैसे बेचारी से ड्राइंगरूम का कोई कीमती फानूस टूट गया हो. शीतला की दबीसहमी सिसकियां सुन कर प्रारूप को यह समझते देर नहीं लगी थी कि वह आक्रोश अपरोक्ष रूप से उन पर ही बरसाया जा रहा है. शीतला की श्रद्धा और स्वामिभक्ति को उस ने दैहिक संबंधों के पलड़े पर ला पटका था. आत्मिक अनुभूतियों का मोल सुरभि कभी नहीं समझ पाएगी क्योंकि यह अनुभूति चेष्टा कर के नहीं लाई जा सकती. इन का संबंध मन की गहराई से होता है. तभी तो कभीकभी अपने, पराए बन जाते हैं और पराए, अपनों से भी अधिक प्रिय लगने लगते हैं. प्रारूप यह सब जानतेसमझते थे. उस के बाद तो जैसे दोषारोपों का सिलसिला ही शुरू हो गया था. इस घटना को घटे हफ्ताभर भी नहीं बीता था कि एक दिन जब प्रारूप औफिस से शाम को कुछ जल्दी घर लौट आए तो देखा कि घर में कुहराम मचा हुआ था. सुरभि ने रोरो कर पूरा घर सिर पर उठा रखा था. मृदुल सहमा सा खड़ा था. पूछने पर पता चला कि सुरभि की सोने की चेन गुम हो गई थी. सुन कर वे हतप्रभ रह गए.

सुरभि को शक निश्चित रूप से शीतला पर ही था, क्योंकि दूसरा कोई घर में आता ही नहीं था. उन्होंने लाख समझाना चाहा, उस से चेन ढूंढ़ने के लिए कहा, पर वह नहीं मानी थी. शीतला हर प्रकार से अपनी सफाई दे रही थी. पर उन्हें इस बात की जरूरत ही नहीं थी. जिस औरत ने कभी 4 पैसे की हेराफरी नहीं की वह इतना बड़ा अपराध कैसे कर सकती है, यह तो वे जानते थे. अपराधी के कठघरे में भयातुर, डरीसहमी सी शीतला के माथे पर उन्होंने ज्यों ही हाथ रखा था, वह बिलखबिलख कर रो पड़ी थी, ‘‘साहब, आप के घर का नमक खाया है. आप के साथ इतना बड़ा विश्वासघात मैं कैसे करूंगी?’’

पर सुरभि ने शीतला को जेल की चारदीवारी में बंद करवा कर ही चैन की सांस ली. आंख की किरच आंख से निकली ही भली. पर वह शायद यह नहीं समझ पाई थी कि झूठे अहं और संदेह के पलीते से भरा यह ऐसा भयानक विस्फोट था जिस ने पतिपत्नी के भावनात्मक संबंधों को हिला कर रख दिया. प्रारूप शीतला की जमानत करवा आए थे, अपने घर पर उन्होंने उसे फिर काम नहीं दिया था. उन के लिए उस की आंखों में तिरते उन अनुत्तरित प्रश्नों की शलाकाएं झेलना सहज नहीं था. उस के बाद वे अकसर दौरे पर रहते. घर पर रहते भी तो उदास से, बहुत कम बोलते थे. अपनी किताबों की दुनिया में ही खोए रहते. मृदुल के साथ जरूर बोलबतिया लेते थे. उस विद्रोहिणी नारी ने उन का चैन लूट लिया था. उस का सान्निध्य उन्हें वितृष्णा से भर देता था. शीतला के भूख से तड़पते बच्चे और अपाहिज पति की जब कभी कल्पना करते, मन तिरोहित हो उठता. उसे निकालना ही था, तो यों ही निकाल देती सुरभि, यों लांछन लगा कर तो उस ने उस बेचारी को कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. अपमानित तो वह हुई ही, अब तो कोई काम पर भी नहीं रखेगा उसे. मन खिन्न हो उठा था. वे खुद भी तो छटपटाने के सिवा कुछ नहीं कर सके. उन का अब घर पर जी नहीं लगता था. पत्नी कई बार रोकने का प्रयत्न करती, पर उन का हर प्रयत्न अकारथ सिद्ध होता, अब उन का मन बुरी तरह उचट गया था.

एक रात प्रारूप दौरे पर गए थे. सुरभि  और मृदुल बंगले में अकेले थे.  अचानक बत्ती गुल हो गई. एक तो अकेली, ऊपर से अंधेरा. गरमी और उमस से बचने के लिए उस ने खिड़की खोली और स्टोर में जा कर लालटेन में मिट्टी का तेल भरा. उसे ला कर वह ज्यों ही तिपाई पर रखने लगी थी कि लालटेन औंधेमुंह जमीन पर गिर पड़ी और पूरा तेल मेजपोश पर छलक गया और पलक झपकते ही आग ने मेज, परदों और फर्नीचर को अपने चुंगल में ले लिया. फिर देखते ही देखते आग ने विकरालरूप धारण कर लिया. अंधेरे  में जब वह पानी की बालटी लेने बाथरूम में पहुंची तब तक आधा कमरा आग की लपटों में जल गया. कृत्यअकृत्य के चक्रवात में फंसी सुरभि को यह भी समझ नहीं आया कि बेटे को उठा कर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दे. डर और दहशत से आवाज भी घुट कर रह गई थी. चीखतीचिल्लाती भी तो उस नई अनजान जगह में उस की चीखें दीवारों से ही टक्कर मार कर, उस के कर्णपटल को भेद जातीं. कौन आता उस की सहायता करने?

तभी उस ने झोंपडि़यों की ओर से कुछ लोगों को अपने बंगले की ओर आते देखा. उस ने सोचा, सभी शीतला के रिश्तेदार होंगे. प्रारूप की अनुपस्थिति में लूटखसोट कर के घर का सामान ले जाएंगे और उसे और मृदुल को मार भी डालेंगे. कलुषित मन और सोच भी क्या कर सकता था? घबराहट के मारे सुरभि गश खा कर जमीन पर गिर पड़ी. उस के बाद क्या घटा, उसे नहीं मालूम. आंख खुली तो वह अस्पताल में बिस्तर पर पड़ी थी. पास में बिस्तर पर मृदुल लेटा था. सामने प्रारूप खड़े थे. उन के सामने शीतला सपरिवार खड़ी थी. उसे होश में आते देख कर शीतला ने पूछा, ‘‘कैसी तबीयत है बीबीजी?’’ उस के हाथों की ओर सुरभि की नजर चली गई थी. दोनों हाथों पर पट्टियां थीं. पूरा चेहरा जगहजगह से झुलस गया था. उस ने क्षीण स्वर में पूछा, ‘‘तुम्हारे हाथों को क्या हुआ?’’ 

‘‘आप को और मृदुल को बचाने के प्रयास में इस के हाथ बुरी तरह झुलस गए हैं. समय पर अगर यह आप को न बचाती तो आप का बचना नामुमकिन था,’’ डाक्टर ने सुरभि को बताया तो एकाएक वह भयानक मंजर उसे याद हो आया था.

देर तक वह शीतला को निहारती रही. पश्चात्ताप के आंसुओं की अविरल धारा अपनी सारी सीमाएं तोड़ कर बह निकली थी, पर तब भी वह कुछ कह नहीं सकी थी. एक बार फिर अहं सामने आ गया. कुछ दिनोें तक अस्पताल में रहने के बाद सुरभि और मृदुल पूरी तरह से स्वस्थ हो घर आ गए थे. एक शाम प्रारूप के साथ सैर करते हुए वह शीतला की झोंपड़ी की ओर बढ़ने लगी तो प्रारूप ने उसे रोका, ‘‘उधर कहां जा रही हो?’’ ‘‘आज मत रोको मुझे. एक बार वहां जा कर प्रायश्चित्त कर लेने दो,’’ कह कर वह आगे बढ़ी और शीतला की झोंपड़ी के बाहर जा कर रुक गई. चिथड़ों में लिपट शीतला के चेहरे पर मुसकान दौड़ गई, दौड़ कर उस ने चारपाई बिछाई और नम्रतापूर्वक उन के बैठने की प्रतीक्षा करने लगी. भूखेनंगे बच्चों को देख कर सुरभि का मन ग्लानि से भर उठा. वह मन ही मन सोचने लगी कि ईर्ष्या और डाह की विषबेल बो कर कैसा बदला लिया था उस जैसी शिक्षित नारी ने उस गरीब से? उस के पास पति था, प्यारा बेटा था, ऐश्वर्य, समृद्धि सभी कुछ तो था. खुद ही तो सहेजसमेट नहीं पाई इस सुख को. इस में दूसरों का क्या दोष? गाज गिराई भी तो उस पर जिस ने उस के पति की सेवा की? शीतला के साथ उस के पूरे परिवार को उस ने अपने परिहास की परिधि में घसीट लिया?

शीतला को पास बुला कर उस ने उसे अपने पास बैठाया. फिर उस का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘तुम्हारे ऊपर मैं ने इतने आरोप लगाए, फिर भी मेरी और मेरे बेटे की रक्षा की तुम ने, तुम वास्तव में ही महान हो, शीतला.’’ ‘‘नहीं बीबीजी, मैं तो कुछ भी नहीं, महान तो बाबूजी हैं. इन्होंने मेरे बच्चों की भूख मिटाई. मेरे अपाहिज पति के इलाज के लिए ठेकेदार से पैसा दिलवाया और सब से बड़ा उपकार तो इन्होंने मेरी इज्जत बचा कर किया.’’ सुरभि समझ नहीं पा रही थी कि शीतला क्या कहना चाह रही है. शीतला फिर बोली, ‘‘बीबीजी, एक रात शराब के नशे में मेरे पति ने मुझे ठेकेदार के पास भेज दिया था. उस ने सोचा, इसी तरह से 4 पैसे का जुगाड़ भी हो जाएगा और बच्चों को रोटी, कपड़ा मिलता रहेगा. अब आप ही बताओ कि जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो उस औरत पर क्या बीतती होगी? तब बाबूजी ने ही मेरी रक्षा की थी. मैं तो अपना भाई, पिता सबकुछ ही इन्हें मानती हूं. मैं ने आप के घर का नमक खाया है और फिर जब मेहनत करने के लिए ये 2 हाथ दिए हैं तो इंसान कुकर्म करे ही क्यों?’’

सुरभि की नजरों में शीतला बहुत ऊपर उठ गई थी. आसमान से भी ऊपर. आज शीतला के कथन ने उसे इस अवधारणा से मुक्त कर दिया था कि औरत और मर्द के बीच हर रिश्ता शरीर तक ही सीमित नहीं, भावनाओं व संवेदनाओं का भी अपना स्थान है. प्रारूप कुछ कहना चाह ही रहे थे कि उस ने अपनी हथेली उन के होंठों पर रख दी. शीतला को अगले दिन ही काम पर आने के लिए कह कर वह लौट आई थी. अब नई सुबह, वह उस की प्रतीक्षा में खड़ी थी, जिस में संदेह और शंका के लिए कोई स्थान नहीं था.

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