कहानी - कारवां


कौन से भगवान को पूजें, सोचते हैं हम

मंदिर में बैठा या दरगाह में सोया है

शायद बिजी है वो, तभी उसे पता न चला

कि तू रोया है, बहुत रोया है.

‘‘मौसीमौसी गाड़ी आ गई.’’ गुडि़या की आवाज ने मेरी कलम की रफ्तार को रोक दिया था.

‘‘थोड़ी देर से चले जाएंगे तो...’’

‘‘राधा... उन का फोन आया तो.’’

राधा ने इस आयोजन के लिए बहुत मेहनत की थी. इन 10 सालों में कितनी बदल गई थी राधा.

 ‘‘मौसी, फिर खो गईं आप, माना कि आप लेखकों को कल्पनालोक की यात्रा कुछ ज्यादा ही पसंद है किंतु यथार्थ में रहना उतना भी बुरा नहीं है, क्यों?’’

‘‘चलो.’’ कलम नीचे रख कर सौंदर्या चल पड़ी. आज उस की पुस्तक ‘कारवां’ के लिए उसे सम्मानित किया जाना था.

पूरा हौल खचाखच भरा था. कार्यक्रम संचालक तथा बाकी साथी लेखक उस की किताब व उस के बारे में मधुर बातें बोल रहे थे. जब सौंदर्या से दो शब्द बोलने को कहा गया तो वह बहुत पीछे चली गई थी, अपनी स्मृतियों के साथ. उस ने बोलना शुरू किया-

‘‘मध्य प्रदेश का एक छोटा सा शहर ‘सागर’, जहां मेरा बचपन बीता था. सागर का वास्तविक नाम सौगोर हुआ करता था. ‘सौ’ यानी एक सौ, ‘गोर’ यानी किला, असंख्य किलों का शहर सागर. परंतु कालांतर में लोगों ने सौगोर का सागर कर दिया.

‘‘मेरे पिता एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे और माता एक गृहिणी. 3 भाईबहनों की सूची में, मैं आखिरी नंबर में आती थी. भैया व दीदी दोनों की लाड़ली हुआ करती थी मैं. परंतु धीरेधीरे यह प्यार ईर्ष्या में बदलने लगा. इस का प्रमुख कारण था मेरा सुंदर होना. साधारण रूपरंग वाले परिवार में मैं न जाने कहां से आ गई थी.

‘‘दीदी को मेरी सुंदरता से ईर्ष्या थी, तो भैया को मेरी बुद्घि से. जहां भैया इंटरमीडिएट से ज्यादा नहीं पढ़ पाए वहीं मैं हर साल अपनी कक्षा में प्रथम आती थी.

‘‘‘यह लड़की तो डायन लगती है मुझे, सारे मंतर जानती है. इसी ने कुछ कर के मेरे बेटे से विद्या चुराई होगी. वरना औरत जात में इतनी बुद्घि कहां होती है,’ मां कहा करती थीं.

‘‘एक दिन स्कूल से लौटने पर पता चला, दीदी को लड़के वाले देखने आ रहे हैं. पड़ोस की रमा काकी रिश्ता लाई थीं. दीदी 18 वर्ष की होने वाली थीं, मां को उन की शादी की जल्दी थी.

‘‘‘सोनू की मां, इस राजकुमारी को छिपा कर रखना. पता चला कि देखने बड़ी को आए हैं और पसंद छोटी को कर लिया. बाद में न कहना कि रमा ने बताया नहीं.’

‘‘‘क्या काकी, मैं क्यों छिपूं,’ मैं ने कहा था.

‘‘‘चुप कर छोटी, अंदर जा.’ मां ने मुझे डांट कर अंदर भेज दिया था. ‘अरे बहन, यही तो रोना है. इतना रूप ले कर मुझ गरीब के घर में आ गई है. इस खुले खजाने को देख कर लूटने वाले भी तो पीछे आते हैं.’

‘‘फिर उस रात मां, पापाजी तथा भैया में मंत्रणा हुई और उस की परिणति मेरी कैद से हुई. अगला पूरा दिन मैं कमरे में बंद रही. कहीं अपनी बालसुलभ जिज्ञासा के वशीभूत हो कर मैं बाहर न निकल जाऊं, इस के लिए कमरे के बाहर ताला लगा दिया गया था. दीदी की शादी तय हो गई थी.

‘‘शादी से 3-4 दिनों पहले से ही रिश्तेदारों का आना शुरू हो गया था. एक दिन जब मैं दीदी की साड़ी में गोटे लगाने का काम कर रही थी तो मौसी को कहते सुना, ‘जीजी, छोटी भी तो 13 वर्ष की हो गई होगी?’

‘‘‘हां, और क्या, 14 वर्ष की हो जाएगी इस साल तो. पिछले महीने तो महीना भी शुरू हो गया इस का,’ मां ने कहा था.

‘‘मुझे बड़ी शर्म आ रही थी मां के इस तरह से यह बात कहने पर. ऐसा लग रहा था जैसे मैं ने कोई गलती कर दी हो.

‘‘‘अच्छा, तभी इस का रूप और निखर आया है’ मौसी ने अपनी सोच जाहिर की थी.

‘‘‘उसी का तो रोना है. बड़ी की दिखाई में बंद कर के रखा था इसे,’ मां बोली थीं.

‘‘‘जीजी, शादी के दिन क्या करोगी? मर्द जात है, शादी के दिन मना कर दिया तो क्या करोगी? मेरी बात मानो, शादी तक इसे कहीं भेज दो,’ मौसी ने कहा तो मैं बोल पड़ी थी, ‘मैं कहीं नहीं जाऊंगी. मैं सुंदर हूं इस में मेरा क्या गलती है?’

‘‘‘नहीं, हमारी है? चुप कर. बात तो सही है. मेरा बस चले तो इस का चेहरा गरम राख से जला दूं,’ मां ने कहा तो मैं बोली, ‘तो जला क्यों नहीं देतीं. मैं भी हमेशा की...’

‘‘फिर मां ने मेरा मुंह हमेशा की तरह थप्पड़ से बंद कर दिया. निरपराध रोतीबिलखती मुझे नानी के घर भेज दिया गया. विवाह में बनने वाले पकवान, नए कपड़ों का लोभ मैं विस्मरण नहीं कर पा रही थी. परंतु वहां मेरी कौन सुनने वाला था?

‘‘जब मैं दीदी की शादी के बाद घर आई, सारे मेहमान जा चुके थे. दीदी अपने पगफेरों के लिए घर आई हुई थीं. मैं ने पहली बार उस आदमी को देखा जिस से छिपाने के लिए मुझे सजा दी गई थी. मेरे जीजाजी की नजर जब एक बार मुझ पर पड़ी, फिर वह हटी ही नहीं. आंखों ही आंखों में वे मुझे जैसे उलाहना दे रहे थे कि कहां थी अब तक...

‘‘‘कौन है यह, आभा?’ वह पूछ तो दीदी से रहे थे परंतु उन की नजर मुझ पर ही थी.

‘‘‘मैं, आप की इकलौती साली, जीजाजी,’ मैं ने कहा तो वे बोले ‘कहां थी अब तक?’

‘‘‘आप से बचाने के लिए मुझे यहां से दूर भेजा गया था. आप क्या इतने बुरे हो? लगते तो नहीं हो,’ मैं ने कह दिया.

‘‘‘कुछ अज्ञानता और कुछ नाराजगी में मैं और न जाने क्याक्या बोल जाती, अगर दीदी मुझे वहां से खींच कर मां के पास न ले जातीं.’

‘‘‘मां, इस छोटी को संभाल लो वरना अपनी बड़ी बहन की सौतन बनने में देर न लगाएगी,’ दीदी ने शंका जाहिर की.

‘‘‘यह सौतन क्या होता है?’ मैं ने जिज्ञासावश कहा था.

‘‘‘क्या हो गया?’ मां बोली थीं.

‘‘‘कुछ कांड कर देगी तब समझोगी क्या?’ दीदी ने कहा.

‘‘‘अब मैं ने क्या किया? अपने दूल्हे को देखो. कैसे घूर रहा था मुझे. मां, वह अच्छा आदमी नहीं है,’ मैं ने स्पष्ट कह दिया.

‘‘चटाक... मां के थप्पड़ ने बता दिया कि गलती मेरी ही थी. फिर जब तक दीदी व जीजाजी चले नहीं गए, मुझे कमरे में नजरबंद कर दिया गया.

‘‘स्कूल तथा कालेज के रास्ते में भी मैं ने इन नारीलोलुप नजरों का सामना कई बार किया था. कुछ नजरों में हवस होती थी, कुछ में जलन तथा कुछ में कामना. इस पुरुषदंभी समाज का सामना कई लड़कियों ने किया था. शिक्षा पाने की यह कीमत मान ली हो जैसे उन्होंने. उस रास्ते से जाने वाली किसी नारी ने कभी भी मुड़ कर उन पुरुषों का प्रतिवाद नहीं किया था. परंतु यह गलती एक दिन मुझ से हो गई थी.

‘‘मेरे कालेज का पहला दिन था. रोज की तरह मैं पैदल ही घर आ रही थी. उस दिन वह रास्ता खाली था. मैं खुश थी, तभी पीछे से मोटरसाइकिल की आवाज सुनाई दी. मैं तो किनारे पर चल रही थी, इसलिए मैं ने ध्यान नहीं दिया. वह मोटरसाइकिल मेरे पास आ कर थोड़ी धीमी हो गई. एक हाथ आगे बढ़ कर मेरे वक्षों को इतनी जोर से खींचा कि मैं गिर पड़ी. दर्द और शर्मिंदगी के ज्वार ने मुझे घेर लिया. अपने सीने पर हाथ रख कर मैं कई घंटे बैठी रही थी.

‘‘जब मैं घर पहुंची, दीदी भी आई हुई थीं. मुझे रोता देख कर दीदी व मां दोनों मेरे पास चली आईं. मां को मुझे गले लगाना चाहिए था, परंतु... ‘अरी, रो क्यों रही है? कुछ करवा कर आ रही है क्या?’ कह कर मुझ पर आरोप लगाने की कोशिश की.

‘‘मैं ने रोतेरोते मां को सब बताया, ‘मां, मैं ने मोटरसाइकिल का नंबर देखा था, चलो पुलिस के पास. मैं उसे नहीं छोड़ूंगी.’

‘‘‘लो, अब यही दिन रह गए थे. सुन, तूने ही कुछ किया होगा,’ मां ने मेरे स्पष्टीकरण को नजरअंदाज किया तो दीदी भी मुझे ही दोषी ठहराने लगीं.

‘‘‘और नहीं तो क्या मां, हमारे साथ तो ऐसा कभी न हुआ. पहले मर्दों को ऐसे कपड़े पहन कर भड़काओ, फिर वे कुछ कर दें तो उन का क्या दोष?’

‘‘‘दीदी, सूट ही तो पहना है,’  मैं ने साफ कहा तो उन्होंने कहा, ‘सीना नहीं ढका होगा.’

‘‘‘चुप करो तुम दोनों. और सुन छोटी, यह बात यहीं भूल जा. तेरे भाई को पता चला तो तुझे काट कर रख देगा. तुझे ही ध्यान रखना चाहिए था,’ मां बोलीं.

‘‘‘और पढ़ाओ इसे, मां. अभी तो शुरुआत है,’ दीदी ने ताना सा मारा.

‘‘औरत की इज्जत औरत के पास ही सब से कम है. वह नहीं जानती कि इसी वजह से घरघर में उस की उपेक्षा होती है. दीदी और मां भी इस के इतर नहीं थीं. इस घटना का नतीजा यह हुआ कि मेरी पढ़ाई छुड़ा दी गई और मेरे लिए लड़का ढूंढ़ा जाने लगा, जैसे कि विवाह हर समस्या का समाधान हो. वैसे भी, बोझ जितना जल्दी उतर जाए उतना अच्छा, यह समाज का नियम है. और इस नियम को बनाने वाले भी पुरुष ही होंगे. जब तक हम किसी क्रांति को पैदा करने में असमर्थ हैं, तब तक समाज के विधान को सिर झुका कर स्वीकार करना ही होगा. यही मैं ने भी किया.

‘‘अजय एक सरकारी बैंक में कार्यरत थे, शादी कर के मैं भोपाल आ गई. गहन अंधकार में ही प्रकाश की किरणें घुली रहती हैं, यह सोच कर मैं ने अपने नवजीवन में प्रवेश किया. परंतु शादी की पहली रात मैं अजय के व्यवहार से दुखी हो गई.

‘‘‘सुनो, अपनी सुंदरता का घमंड मुझे मत दिखाना. मेरी पत्नी हो, अपनी औकात कभी मत भूलना. और हां, ज्यादा ताकझांक करने की जरूरत नहीं है. मेरी नजर रहेगी तुम पर. समझ गईं,’ पति महोदय ऐसा बोले तो मैं बोली, ‘यह क्या कह रहे हैं आप? मैं आप की पत्नी हूं.’

‘‘‘चलचल, बाकी बात कल कर लेंगे. पत्नी है न, तो पत्नी का फर्ज पूरा कर.’

‘‘मेरे सारे स्वप्न सुहाग सेज पर जल कर राख हो गए. मेरा कहीं भी अकेले आनाजाना बंद था, फोन उठाना भी मना था. औफिस की पार्टियों में भी वे अकेले ही जाते. मेरा मेकअप करना भी अजय को पसंद नहीं था. कपड़े भी मुझे उन से पूछ कर पहनने पड़ते थे. एक बार दुकान में उन के एक सहकर्मी मिल गए थे.

‘‘‘अरे अजय, क्या हाल हैं, अच्छा, भाभीजी भी साथ हैं, नमस्ते, भाभीजी.’

‘‘‘जी नमस्ते,’ मैं ने नमस्ते का जवाब दिया.

‘‘‘आज पता चला, भाभीजी, अजय आप को छिपा कर क्यों रखता है. कई बार कहा मिलाओ भाभी से. पर यह तो...’

‘‘‘अच्छा भाई रमेश, कल औफिस में मिलते हैं, आज थोड़ा जल्दी है,’ कहते हुए पति ने अपने साथी से पीछा छुड़ाया.

‘‘फिर घर आ कर अजय ने मुझ पर पहली बार हाथ उठाया था. परंतु वह आखिरी बार नहीं था. उस के बाद तो यह उन की आदत में शुमार हो गया. अब सोचती हूं तो लगता है कि मुझे मार कर, मेरे चेहरे पर निशान बना कर अजय अपने अहं को संतुष्ट करते थे. अजय का साधारण नैननक्श का होना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी. परंतु उन्हें कौन समझाता?

‘‘जब मेरे दोनों बच्चों नमन और रजनी का जन्म हुआ, मेरी जिंदगी बदल सी गई. मुझे लगा ये दोनों मेरा दर्द समझेंगे. परंतु जैसेजैसे बच्चे बड़े होते गए, उन का व्यवहार मेरे प्रति बदलता चला गया. उन्होंने अपने पिता का रूपरंग ही नहीं उन की सोच तथा उन का व्यवहार भी ले लिया था. दोनों की जिंदगी में दखल सिर्फ उन के पिता का था. रजनी और नमन के 15वें जन्मदिन पर तो कुछ ऐसा हुआ जिस ने मुझे मानसिक रूप से तोड़ दिया.

‘‘नमन तो अपना जन्मदिन किसी होटल में मनाने चला गया था परंतु रजनी का प्लान कुछ और था. उस दिन रजनी की कुछ सहेलियां घर आई थीं. उन सब को मेरा बनाया खाना बड़ा पसंद आया था. एक सहेली बोल पड़ी,‘रजनी, आंटी तो ग्रेट हैं. जितनी सुंदर हैं, खाना तो उस से भी स्वादिष्ठ बनाती हैं. लगता ही नहीं, इन के इतने बड़े बच्चे होंगे और तू तो आंटी की बेटी लगती ही नहीं.’

‘‘‘ऐसा नहीं है बेटा, सुमन,’ मैं ने कहा था.

‘‘‘मम्मी, आप अंदर जाइए,’ रजनी ने मुझे निर्देश दिया.

‘‘बाद में  क्या होने वाला था, उस का कुछकुछ एहसास मुझे हो गया था. अपने पापा और भाई के आने पर रजनी ने कुहराम मचा दिया था.

‘‘‘पापा, इन से कह दीजिए, अपनी सुंदरता की नुमाइश करने के लिए कोई और जगह ढूंढ़ लें. हमेशा मुझे नीचा दिखाने के तरीके ढूंढ़ती रहती हैं.’

‘‘‘रजनी, मां हूं मैं तुम्हारी,’ मैं बोली थी.

‘‘‘तो मां बन कर रहो, अक्ल तो ढेले बराबर कि नहीं है. मेरे बच्चों की जिंदगी से दूर रहो समझी या दूसरी तरह समझाऊं?’ इतना कह कर पति अजय बेटी रजनी को ले कर उस के कमरे में चले गए.

‘‘बेटा नमन जो अब तक चुपचाप सब तमाशा देख रहा था, मेरे पास आया और बोला, ‘चुपचाप रह नहीं सकतीं, पिटने की आदत हो गई है क्या?’

‘‘अजय के रोजरोज के अपमान ने मेरे बच्चों को भी मुझे अपमानित करने का हक दे दिया था. हर पल मैं यही सोचती कि काश, ऐसा हो कि मेरी सुंदरता नष्ट हो जाए. मैं ने अपनेआप को अपने अंदर ही कैद कर लिया था. मानसिक व्यथा को दूर करने के लिए मैं ने अपनेआप को दूसरे कामों में लगा लिया. इसी दौरान मेरी मुलाकात स्वामीजी से हुई.

‘‘जीवन में पहली बार मैं ने इतनी बात किसी से की थी. हमेशा श्रोता रही थी मैं. अपनी पड़ोसिन गीता के घर में उन से पहली बार मेरी मुलाकात हुई थी. उस के बाद तो मैं गुरुजी की परमभक्त हो गई. दर्द से भरे हुए मेरे हृदयरूपी रेगिस्तान

में गुरुजी ठंडी फुहार के रूप में बरसने लगे थे. लगातार उन के आश्रम में मेरा आनाजाना होने लगा. धीरेधीरे मुझे यकीन होने लगा था कि मेरा जन्म ही गुरुजी की सेवा के लिए हुआ है.

‘‘मैं ने संन्यास लेने का निर्णय ले लिया. अजय गुस्से से पागल हो गए थे. बच्चे मजाक बना रहे थे. अपनेअपने तरीके से सब ने समझाने की कोशिश की, परंतु मैं रुकती भी तो किस के लिए, अजय और बच्चों के जीवन में तो मेरा अस्तित्व घर में रखे हुए फर्नीचर से ज्यादा कभी रहा नहीं था. गुरुजी में ही मुझे अपना वर्तमान तथा भविष्य दोनों नजर आ रहे थे.

‘‘आरंभ में सबकुछ अच्छा लग रहा था. लगभग एक महीने के बाद एक रात गुरुजी ने कुछ व्यक्तिगत मसलों पर चर्चा करने के लिए मुझे बुलाया था.

उस रात का मेरे इस जीवन पर सब से ज्यादा प्रभाव पड़ा था, सबकुछ बदल

गया था.

‘‘वहां जब मैं पहुंची, 2 सज्जन पहले से मौजूद थे. शायद गुरुजी के भक्त होंगे, सोच कर मैं अंदर आ गई थी. परंतु उन की नजरों में छिपी हुई भावना को मैं चाह कर भी नजरअंदाज नहीं कर पाई. इस नजर से मेरा सामना कई बार मेरे जीवन में हुआ था.

‘‘‘जैसा कि आप ने कहा था गुरुदेव, साध्वीजी तो उस से भी ज्यादा...’ उन में से एक बोला.

‘‘‘साध्वी सौंदर्या, क्या हुआ? डरें नहीं, अपने ही लोग हैं,’ गुरुजी ने प्यार से कहा.

‘‘जहां सब से ज्यादा विश्वास होता है, विश्वासघात भी वहीं होता है. विश्वास करना सही है, परंतु अंधविश्वास पतन की ओर ले जाता है.

‘‘गुरुजी की बात सुन कर मैं बैठ गई.

‘‘गुरुजी बोले, ‘साध्वीजी, आश्रम में दुखियारी स्त्रियों के लिए जो भवन बनने वाला था, उस के बारे में तो आप को बताया था.’

‘‘‘देखो, आप के कदम हमारे आश्रम के लिए कितने लाभकारी हैं. ये

2 परोपकारी मनुष्य सहयोग करने को तैयार हैं.’

‘‘‘अरे वाह, गुरुदेव,’ मैं ने खुशी जाहिर की.

‘‘‘अब, आप लोग आपस में बात कर लो. क्योंकि इस प्रोजैक्ट की पूरी जिम्मेदारी मैं आप को देना चाहता हूं, साध्वीजी,’ गुरुजी ने गेंद मेरे पाले में डाल दी.

‘‘‘क्या बात कह रहे हैं आप गुरुजी? मुझ में कहां इतनी काबिलीयत है?’ मैं ने दिल की सचाई को बयान कर दिया.

‘‘‘आप तो कमाल की हैं. हम से पूछिए अपनी काबिलीयत दूसरा आदमी बोला.’

‘‘‘आप चुप रहें, लालजी, हम बात कर रहे हैं न,’ गुरुजी ने उसे चुप कराया.

‘‘‘साध्वी सौंदर्या, यह तो एक शुरुआत है. बहुत जल्द पूरे आश्रम की जिम्मेदारी मैं आप को देना चाहता हूं.’

‘‘मैं तो भावविभोर हो गई, ‘गुरुजी, शब्द नहीं हैं मेरे पास आप का आभार व्यक्त करने के लिए, मेरे जीवन को एक दिशा देने के लिए.’

‘‘‘परंतु उस के लिए आप को...’ उन दो में से एक व्यक्ति बोला तो गुरुजी ने ‘चुप रह रामदास’ कह कर उसे चुप करा दिया, फिर मेरी तरफ मुखातिब हुए, ‘साध्वीजी को पता है सामाजिक उत्थान के लिए यदि थोड़ा व्यक्तिगत नुकसान भी उठाना पड़े तो उस में कोई बुराई नहीं है.’

‘‘‘जी, मैं मेहनत करने से कभी पीछे नहीं हटती.’ मैं उत्साहित हो गई थी.

‘‘‘अरेअरे, आप को मेहनत कौन करने देगा? मेहनत तो हम कर लेंगे. आप तो बस...’ एक व्यक्ति बोला तो गुरुजी ने कहा, ‘चुप रह भगत, मैं बात कर रहा हूं न.’

‘‘मेरे अंदर संशय का नाग फन उठा चुका था, परंतु मेरी अंधश्रद्घा ने उसे कुचल दिया.

‘‘‘आप को कुछ नहीं करना, साध्वीजी. बस, जगत कल्याण का कार्य करना है,’ गुरुजी के शब्द थे.

‘‘‘जी,’ मैं ने धीरे से कहा, तो फिर उन्होंने इशारा किया, ‘आप को तो पता ही है, पुराने समय में देवदासी होती थीं. वे होती तो भगवान की ब्याहता थीं, परंतु जगतकल्याण के लिए ईश्वर के सभी भक्तों को सुख प्रदान करती थीं.’

‘‘‘जी, क्या?’ मैं कांप गई थी.

‘‘‘जी, बस, वही सुख आप को मुझे तथा परमपिता के भक्तों को प्रदान करना है.’

‘‘‘आप पागल हो गए हो क्या?’ क्रोधित हो कर मैं बोली.

‘‘गुरुजी थोड़ा नाराजगी के साथ बोले, ‘आप शब्दों का चुनाव सोचसमझ कर करें तो सही रहेगा. और वैसे भी, दुखीजनों के कल्याण से पुण्य ही मिलेगा. और आप की भी दबी हुई कामनाओं को...आखिर उम्र ही क्या है आप की?’

‘‘‘केवल 38 साल’ एक भक्त बोला.

‘‘‘गुरुजी, नहीं...नहीं,’ मैं सिसकते हुए बोली.

‘‘भक्त जब अपने भगवान का घिनौना रूप देख ले तो उस के जीने की रहीसही इच्छा भी दम तोड़ देती है. कई बार छली गई थी मैं, परंतु आज मैं टूट गई थी. मेरे आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. रोती हुई मैं आगे बोली, ‘मैं तो आप की पूजा करती थी, गुरुजी.’

‘‘‘मेरा प्रेम तो आप के साथ रहेगा ही, उस प्रेम को भी तो पूर्णरूप देना अभी बाकी है.’

‘‘आप जाइए, सोच लीजिए. आप के पास 2 दिनों का समय है,’ गुरुजी के शब्द थे.

‘‘मुझे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था. भाग कर जाती भी तो कहां, कोई दरवाजा मेरे लिए नहीं खुला था. किसी को मेरा इंतजार नहीं था. उस समय ही मैं ने आत्महत्या के विकल्प के बारे में सोचा. जहर खरीदने के लिए पैसे नहीं थे. नस काटने के लिए चाकू लाना होगा. साड़ी से फंदा लगा कर मरना ही मुझे सही लग रहा था. साड़ी तो मैं ने पहनी हुई थी, बस, उस का फंदा लगाना था. चादर का भी इस्तेमाल कर सकती थी. फंदा लगाने के लिए मैं ऊपर कील ढूंढ़ने लगी थी. परंतु तभी एक आवाज ने मेरे विचारों की शृंखला को तोड़ दिया.

‘‘‘कोई कील नहीं है इस कमरे में, पंखा भी नहीं है.’

‘‘मेरे सामने एक 15-16 साल की सुंदर लड़की थी. ऐसा लगा जैसे रजनी खड़ी हो. मां का दिल ऐसा ही होता है, चाह कर भी अपनी संतान से नफरत नहीं कर पाती. मैं ने उस से पूछा, ‘तुम, तुम्हें कैसे पता...?’

‘‘‘शुरुआत में सभी ऐसा करने की सोचते हैं. देखती नहीं, कमरे में एसी लगा हुआ है, पंखा नहीं है. बहुत जल्द कैमरा भी लग जाएगा. वैसे, कैमरा नहीं है तो क्या? नम्रता मैडम की आंखें उस से कम हैं क्या?’ वह लड़की बोली तो मैं ने कहा, ‘बेटा, तुम यहां कब...’ मेरा वाक्य खत्म होने से पहले वह बोल पड़ी,‘चुप कर, खबरदार, जो मुझे बेटा कहा. इस शब्द से छली गई हूं मैं. तू राधा मैडम बोलेगी मुझे, समझी.’

‘‘‘क्या?’ मैं हैरान रह गई.

‘‘मुझे डांटती हुई सी वह आगे बोली, ‘सीनियर की रिस्पैक्ट करना नहीं सीखा क्या? उम्र में भले ही तू मुझ से बड़ी होगी, पर इस लाइन में मैं तेरी सीनियर हूं. पढ़ीलिखी नहीं है क्या तू? सीनियर का मतलब तो पता होगा?’

‘‘ऐसे समय में भी अपनी हंसी नहीं रोक पाई थी मैं. ‘आप काफी पढ़ीलिखी लगती हैं, राधा मैडम?’ अपनी हंसी दबाते हुए मैं ने उस से पूछा था.

‘‘‘किताब नहीं मैडम, मैं ने जिंदगी पढ़ी है. तुम्हें भी तैयार कर दूंगी,’ वह बोली.

‘‘‘यहां, यह सब. मेरा मतलब है...’ मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बोली, ‘यहां जितनी साध्वियां दिख रहीं, वे सब...’ उस ने अपनी बात जारी रखी, ‘तेरे साथ एक नई लड़की भी आई है. नम्रता दीदी उसे ले कर आती होंगी. देखा तो है उसे तूने. क्या नाम है उस का? हां, गुडि़या, यही है उस का नाम.’

‘‘‘पर वह तो बहुत छोटी है,’ मैं ने चिंता प्रकट की.

‘‘‘छोटी, इस काम में क्या छोटी, क्या बड़ी? अब खुद को ही देख लें,’  राधा बोली थी.

‘‘‘सिर्फ 7 साल की है वह,’ मैं ने कहा था.

‘‘‘मैं 10 साल की थी जब इस लाइन में आई थी,’ राधा के शब्द थे.

‘‘सचमुच, उम्र में बड़ी होते हुए भी मैं उस के सामने कितनी छोटी थी, मैं सोच रही थी.

‘‘‘देख, तेरा नाम क्या है?’ राधा ने पूछा तो मैं ने कहा, सौंदर्या.

‘‘‘अरे वाह, मांबाप ने नाम बड़ा चुन कर रखा,’ राधा ने अपनी सोच प्रकट की.

‘‘मैं कुछ न बोली.’’

‘‘‘देखो, ऐसा है, कुछ लोगों को तेरी जैसी अनुभवी औरतें पसंद आती हैं तो कुछ को हमारे जैसी. वहीं, कुछ लोगों को गुडि़या की उम्र की लड़कियां चाहिए होती हैं. डिमांड और सप्लाई का खेल है.’ उस ने बताया.

‘‘‘ढोंगी हैं ये सारे?’ मैं ने घृणा भरे लहजे में कहा.

‘‘‘सही कहा. चल सो जा, वरना नम्रता दीदी आ जाएंगी,’ राधा बोली थी.

‘‘‘वे कौन हैं?’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘‘इन सब से भी बढ़ कर,’ राधा ने कह कर ठहाका लगाया.’

‘‘राधा चली गई थी. वह मेरी बगल में सो रही थी. पता नहीं, कब मेरे आंसू बहने लगे. क्या हुआ मौसी? कहीं चोट लगी है? दर्द हो रहा है?’

‘‘अब क्या बताऊं उस मासूम को? कैसे दिखाऊं उसे अपनी चोट? खुद ही रिश्ता जोड़ लिया था उस ने. मौसी, ...मां सी... मेरा अपना बचपन कौंध गया था मेरे सामने. ‘नहीं, गुडि़या को मैं एक और सौंदर्या या राधा नहीं बनने दूंगी.’ मेरे लक्ष्यविहीन जीवन को एक लक्ष्य मिल गया था.

‘‘अपने अंदर आए इस बदलाव से मैं खुद ही आश्चर्यचकित थी. अगले दिन मैं खुद उस पाखंडी के पास गई थी.

‘‘‘जयजय गुरुजी.’

‘‘‘साध्वी सौंदर्या, आइए,आइए. जयजय.’

‘तो क्या सोचा आप ने?’

‘‘‘कुछ सोचने लायक कहां छोड़ा आप ने?’

‘‘जी?’

‘‘‘गुरुजी, आज तक मैं अपने सौंदर्य को अपना शत्रु मानती थी. परंतु आप की कृपा से मैं यह जान पाई हूं कि इस का इस्तेमाल कर के मैं कितना कुछ प्राप्त कर सकती हूं. इसी की माया है कि आप जैसा पुरुष भी मेरा दास बनने को तैयार है. कहिए गुरुजी, कुछ गलत कहा मैं ने.’

‘‘‘बिलकुल भी नहीं.’

‘‘‘मैं इस कार्य के लिए सहमत हूं, परंतु आप से एक विनती है?’

‘‘‘तुम तो हुक्म करो.’

‘‘‘मुझे आप अभी अपनी सेवा में ही रहने दें.’

‘‘‘देखो, वैसे तो भगत तुम्हें बहुत पसंद करता है परंतु...अच्छा, परसों समागम का आयोजन किया गया है. उस के बाद बात करते हैं.’

‘‘‘ठीक है.’

‘‘उस ढोंगी से अनुमति मिल चुकी थी. अब मुझे सिर्फ एक काम करना था, वह भी उस के चाटुकारों की फौज से छिप कर. इस काम में मेरी मदद की सुषमा ने. सुषमा एक इलैक्ट्रौनिक इंजीनियर थी. अंधविश्वास और अंधश्रद्घा एक मनुष्य का कितना पतन कर सकती है, इस का वह जीताजागता उदाहरण थी. एक बड़ी कंपनी में काम करने वाली सुषमा आज इस कामी के पिंजरे में बंद थी.

‘‘समागम का जम कर प्रचार हुआ था. वैसे भी इस देश में धर्र्म के नाम पर तो पैसे लुटाने के लिए लोग तत्पर रहते ही हैं. परंतु एक गरीब को उस के हक का पैसा भी देने में लोग सौ तरह के बहाने करते हैं. पंक्तियों के हिसाब से बैठने का रेट निर्धारित था. प्रथम पंक्ति वीआईपी लोगों की थी. जिस देश में भगवान के दर्शन में भी मुद्रा की माया चलती है, उस देश में भगवान के इन तथाकथित मैनेजरों के दर्शन आप मुफ्त में कैसे पा सकते हैं. ईश्वर से संवाद तो आखिर यही बेचारे करते हैं.

‘‘प्रथम पंक्ति में कुछ खास लोगों तथा पत्रकारों को मुफ्त पास दिए गए थे. बाकी जो लोग उस पंक्ति में बैठना चाहते थे उन्हें 15 हजार रुपए देने पड़े थे. इसी प्रकार हर पंक्ति का अपना रेट फिक्स था. जो बेचारे मूल्य चुका नहीं सकते थे, परंतु गुरुजी को सुनने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे, वे आसपास के पेड़ों पर टंगे हुए थे.

‘‘नियत समय पर लोगों का आना शुरू हो गया. सुधाकर और नम्रता उन लोगों को समझा रहे थे जिन्हें गुरुजी भीड़ में से बीचबीच में उठाने वाले थे. उन्हें बस यही कहना था कि गुरुजी के उन के जीवन में आने से उन की जिंदगी में कितना सुधार हुआ है. किसी को नौकरी मिल गई थी, किसी के बच्चे की बीमारी ठीक हो गई थी. आखिर प्रोडक्ट का प्रचार भी तो करना होता है.

‘‘गुरुजी का समागम में आने का समय 12 बजे का था, उस के पहले उन्होंने राधा को बुलाया था. वह ढोंगी एक टोटके को मानता था. उस का मानना था कि समागम  के पहले अगर वह किसी लड़की के साथ संबंध बनाएगा तो उस का वह आयोजन काफी सफल होगा.

‘‘‘गुरुजी’ राधा पहुंच गई थी.

‘‘‘आ गई. चल, कपड़े उतार और लेट जा. क्या हुआ, खड़ी क्यों है,’ गुरुजी बोले.

‘‘‘गुरुजी वह...मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मेरा महीना...’ राधा बनावटीपन में कह रही थी.

‘‘‘क्या आज पहली बार कर रहा हूं, चल.’’

‘‘दर्द हो...’’

‘‘नाटक कर रही है. उतार साड़ी...’

‘‘‘नहीं उतारूंगी,’ राधा अब दहाड़ी थी.’

‘‘‘तेरी इतनी हिम्मत, भूल गई, पहली बार तेरा क्या हाल किया था. 10 दिनों तक उठ नहीं पाई थी.’

‘‘‘याद है भेडि़ए, सब याद है. पर अब तेरा खेल खत्म. अब किसी और लड़की को तू छू भी नहीं पाएगा?’

‘‘राधा ने यह कहा तो गुरुजी के भेष में वह घिनौना अपराधी जवाब में बोला, ‘‘‘अच्छा, कैसे भला, कौन बचाएगा उन्हें?’

‘‘‘मैं, दरवाजे पर मुझे देख कर वह ढोंगी चौंक गया.’

‘‘‘तू, वह मक्कारी का ठहाका लगा रहा था.’’

‘‘‘हां, मैं और ये सब लोग...’

‘‘उस कमीने और चाटुकारों की उस की फौज को पता ही नहीं चला था. एक रात पहले सुषमा ने समागम के लिए आए कैमरों में से 2 कैमरे गुरुजी के कमरे में लगा दिए थे. और अंदर का सारा नाटक, बाहर बैठे उस के भक्तगण देख चुके थे. और फिर उस भीड़ ने वही किया जिस की उम्मीद थी.

‘‘गुरुजी के प्राणपखेरु भीड़ की पिटाई से उड़ गए थे. सभी चाटुकारों तथा गुरुजी के सभी ग्राहकों के खिलाफ आश्रम की हर स्त्री ने गवाही दी थी.

‘‘जिंदगी ने मुझे सिखा दिया है, मेरी सुंदरता कभी भी मेरी दुश्मन नहीं थी. अगर कोई मुझे गलत नजर से देखता था, तो दोष उस की नजर का था. खुद से प्रेम करना हम सभी सीख गए हैं.

‘‘अब हम से कोई भी साध्वी नहीं है. सब अपनी इच्छानुसार चुने हुए क्षेत्रों में कार्यरत हैं. हमारा कोई आश्रम नहीं है. एक कारवां है हम सब पथिकों का जो एक ही राह के राही हैं. मेरी इस पुस्तक में इन सभी पथिकों के संघर्ष की कहानियां हैं.

‘‘मेरा और मेरी सखियों का सफर अभी समाप्त नहीं हुआ है, न कभी होगा. कई नए साथी आएंगे, कई पुराने हंसते हुए हम से विदा हो जाएंगे परंतु यह कारवां बढ़ता ही जाएगा, चलता ही जाएगा.

‘‘अपनी और अपने कारवां की सखियों की सभी कहानियों का निचोड़ इन पंक्तियों द्वारा व्यक्त कर रही हूं-

‘‘चले थे इस पथ पर खुशियों को खोजते

मगर इस तलाश में खुद को ही खो दिया

स्वयं को खो कर, ढूंढ़ना था मुश्किल

चल पड़े हैं यारो, शायद रस्ते में मिल जाएं.’?’      

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