कहानी - शोकेस में कैद ज़िंदगी
उसे लगा अभि ने उसके सामने ज़िंदगी का दूसरा पहलू तमाचे की तरह रख दिया हो, ‘दीदी, तुम्हें बहुत नाज़ है न अपने दृष्टिकोण पर? लो देखो, ज़िंदगी तो बस भौतिक सुखों के भोग के लिए है. रिश्ते, एहसास, संवेदना, मूल्य, आदर्श ये सब फ़लस़फे बहस के लिए अच्छे हैं, मगर इनके सहारे ज़िंदगी नहीं जी जा सकती.’
मीतू की ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. इस बार छोटी मामी के यहां जो जा रहे हैं, वरना हर बार गर्मी की छुट्टियों में बड़ी मामी के ही घर जाना होता था. हालांकि ऐसा नहीं है कि मीतू को बड़ी मामी के यहां अच्छा न लगता हो. उसका भाई मोनू और मामा के बच्चे मिनी-चीनू दिनभर साथ खेलते,
लड़ते-झगड़ते. झगड़ा हो, तो रूठकर अलग-अलग बैठ जाते, पर कितनी देर? पलभर में ही फिर दोस्ती हो जाती. पता ही नहीं चलता कि कैसे एक महीना बीत गया. वापस लौटते समय चारों बच्चों की आंखें भर आती थीं.
पर जो भी हो, छोटी मामी की तो बात ही अलग है. मामा-मामी दोनों ही शहर के जाने-माने डॉक्टर हैं. जब भी मम्मी-पापा छोटे मामा-मामी की बातें करते, तब आठ साल की मीतू उनकी बातें सम्मोहित होकर सुनती. बड़ी मामी के मकान से बड़ा तो छोटी मामी के घर का लॉन ही है. प्लाज़्मा टीवी, डिशवॉशर, कारें और न जाने क्या-क्या है उनके पास, जबकि बड़े मामा के पास तो केवल साधारण टीवी, कूलर और बाइक ही है.
मीतू की मां हमेशा गर्मियों की छुट्टी में मायके जाती थीं. नाना-नानी तो रहे नहीं, लेकिन बड़ी मामी मायके का सारा उत्तरदायित्व अपनेपन से निभाती आ रही हैं. इस बार प्रोग्राम यूं ही बदल गया. हुआ यूं कि बड़ी मामी का क्षमा मांगते हुए फोन आया कि इस बार भाई की शादी में उन्हें बनारस जाना पड़ रहा है. इस पर पापा यूं ही मज़ाक में बोले, “अरे विनीता, तुम्हारे छोटे भाई डॉक्टर साहब भी तो हैं. वहां क्यों नहीं हो आती?” मम्मी कई सालों से वहां नहीं गई थीं. छोटे मामा-मामी शिकायत भी करते कि आप कभी हमारे यहां नहीं आतीं. बस, पापा ने मम्मी, मीतू और मोनू का रिज़र्वेशन कराकर मामा को बता दिया. मीतू अपने ख़्यालों में ही खोई थी कि पीछे से विनीता की आवाज़ आई, “बेटा, क्या सोच रही हो? चलो, स्टेशन आ गया.”
विनीता की निगाहें प्लेटफॉर्म पर अभि को ढूंढ़ रही थीं. तभी एक व्यक्ति हाथ में मिसेज़ विनीता का प्लेकार्ड लिए दिखा. विनीता पास गई, तो उसने पूछा, “मिस़ेज विनीता?”
“हां! पर आप?” उसने एक काग़ज़ बढ़ा दिया. ‘दीदी, मैं बिज़ी हूं, इनके साथ आ जाना- अभि.’ घर पहुंचकर मीतू क्या, विनीता की भी आंखें खुली की खुली रह गईं. पहलेवाले सामान्य मकान की जगह एक विशाल बंगला खड़ा था.
“अभि और अनीता कहां हैं?” कार से उतरते ही विनीता ने पूछा.
“सर और मैम नर्सिंग होम में हैं.” फिर वह हमें एक एयरकंडीशंड गेस्टरूम में पहुंचा गया. एक आया कोल्ड ड्रिंक्स और स्नैक्स रख गई. मीतू बोली, “मामी कब आएंगी?”
“थोड़ी देर में आ जाएंगी बेटा.” कहकर विनीता सोचने लगी कि बच्चों को तो उसने बहला दिया, पर ख़ुद को कैसे बहलाए? दीवार पर लगे प्लाज़्मा टीवी पर कार्टून देखकर बच्चे उत्साहित थे, पर विनीता ऊब रही थी. लगभग ढाई बजे एक नौकर ने आकर कहा, “सर डाइनिंग हॉल में आपको बुला रहे हैं.”
मीतू-मोनू को लिए विनीता उनके साथ दो गैलरी पारकर पहुंची. अभिजीत वहीं बैठे-बैठे बोला, “आओ दीदी, कैसी हो?” अनीता ने भी बड़े
औपचारिक तरी़के से नमस्ते किया. बच्चों ने मामा को नमस्ते किया और अपरिचित व औपचारिक माहौल के कारण मीतू विनीता की गोद में बैठ गई, तो मामी नमस्ते का जवाब देने की बजाय डांटते हुए बोली, “व्हाट आर यू डूइंग? तुम बड़ी हो गई हो, हैव ए सेपरेट सीट.” बेचारी मीतू को अपनी क्लास टीचर याद आ गई.
“दीदी, अभी आराम कर लो. मैंने एक गाड़ी तुम्हारे लिए रिज़र्व कर दी है. जहां घूमना हो, चली जाना.” अभि खाते हुए बोला.
“कल तुम्हारा क्या प्रोग्राम है अभि?” विनीता अनमने ढंग से बोली.
“क्या बताएं दीदी, कल सारा दिन बिज़ी हूं. छह ऑपरेशंस हैं. वैसे कल ही क्या, सच बताऊं तो अपनी ज़िंदगी में तो फुर्सत नाम की चीज़ ही नहीं है. देखो, कल लंच या डिनर पर मिलते हैं.”
विनीता का मन हुआ कि पूछ ले कि अपने लिए समय नहीं है या अपनों के लिए? मगर चुप रही. तभी उसे बंटू याद आया. पिछली बार दो साल का बंटू उसके साथ कितना खेलता था, अब तो क़रीब दस साल का हो गया होगा.
“अच्छा, बंटू कहां है? सुबह से दिखा नहीं?”
“अच्छा ऋत्विक?” अनीता ऐसे बोली जैसे बंटू नाम अपमानजनक लगा हो. “उसे हमने बहुत पहले बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया. आजकल बच्चों को साथ रखकर उनकी लाइफ बना पाना तो इम्पॉसिबल है ही, अपनी लाइफ भी स्पॉइल करना है. हम लोग तो जैसे अर्न कर रहे हैं, वैसे ही बर्न भी कर रहे हैं. वहां उसका करियर बन रहा है, यहां हमारा. क्यों अभि?” अनीता क्या कहना चाह रही है, विनीता सहज ही समझ गई.
“अच्छा दीदी रेस्ट कर लो, फिर शाम को गाड़ी लेकर हज़रतगंज घूम आना. मेकओवर होने से एकदम बदल गया है.” कहकर अभि उठा, तो
विनीता का मन हुआ कि कह दे- मेकओवर से तुम भी तो कितने बदल गए हो अभि.
विनीता फिर उस गेस्टरूम में आ गई, तो सोचने लगी कि व्यस्त होना दूसरी बात है और परस्पर अपनत्व बनाए रखना दूसरी. दिलों में प्यार और रिश्तों में अपनापन हो, तो दो पल की मुलाक़ात में ज़िंदगी कितनी संवर जाती है. माना इनकी ज़िंदगी व्यस्त है, पर क्या सफलता इंसान को इतना बदल देती है? एक लक्ष्य लिए इतना भी क्या शुष्क हो जाना कि रिश्ते, संवेदनाएं और अपनापन तक भूल जाओ.
‘क्या यह वही अभि है, जो बचपन में दीदी-दीदी करता आगे-पीछे घूमता और कितना प्यार करता था मोटिवेट और गाइड करनेवाली अपनी दीदी को और वो भी कितना प्यार करती थी उसे. एक बार मौसी ने यूं ही हंसी में कह दिया था, ‘चाहे जितना प्यार कर ले इसे, शादी हुई नहीं कि भूल जाएगा तुझे.’ इस पर अभि उनसे कितना नाराज़ हो गया था.
आज विनीता का एकाकी मन जाने कहां-कहां भटक रहा था. अभि को डॉक्टर बनाने का सपना उसका ही था. अभि मेडिकल की तैयारी कर रहा था तो उसकी वजह से वो रात-रातभर जागती. चाय-कॉफी देती. अभि ने सिलेक्शन का सारा श्रेय उसे ही दिया था. इधर अभि का सिलेक्शन, उधर विनीता का विवाह विनय से तय होने से पापा बहुत ख़ुश हुए. विनीता की विदाई के समय अभि कितना फूट-फूटकर रोया था.
मेडिकल कॉलेज से भी जब-तब उसके फोन आते. वो दीदी से ही सलाह लेता, जो उसकी निगाह में सबसे जीनियस थीं. धीरे-धीरे फोन जन्मदिन, सालगिरह, नववर्ष तक सीमित होने लगे. फिर अभि ने अनीता से विवाह का निर्णय लिया और शायद यह पहला निर्णय था, जिसमें विनीता कहीं भी शामिल न थी. एक दिन अभि का फोन आया, “दीदी, मेरा एमएस पूरा होनेवाला है. अनीता गाइनिक में एमएस कर ले, तो हम विवाह कर लेंगे. तुम तो जानती ही हो आजकल ख़ुद को सेटल करने में कितना स्ट्रगल करना पड़ता है. पापा की आदर्शवादी ज़िंदगी के कारण उनसे तो क्लीनिक की भी उम्मीद नहीं है, जबकि अनीता के चीफ इंजीनियर पिता हम लोगों के लिए एक बढ़िया नर्सिंग होम खुलवा रहे हैं. देखना, मैं किस मुक़ाम तक पहुंच जाऊंगा. बस, तुम्हारा आशीर्वाद चाहिए.”
बिना उससे डिस्कस किए अभि ने इतना बड़ा ़फैसला कर लिया? विनीता तो सोच रही थी कि अभि से बात नहीं करेगी, पर विनय ने समझाया, “आपका भाई अब कोई बच्चा नहीं है, जो दीदी-दीदी करता आपके आगे-पीछे घूमे. अपनी ज़िंदगी किसके साथ और कैसे बितानी है वह आपसे बेहतर जानता है. अपना ईगो छोड़कर उसे आशीर्वाद देने चलो.”
अनीता का साथ क्या मिला, दोनों पर बस एक ही धुन सवार हो गई कि नर्सिंग होम को कैसे बढ़ाया जाए. विनीता को किसी से पता चला कि अभि ने पैसे कम होने के कारण पेशेंट को ऑपरेशन के लिए एडमिट करने से मना कर दिया था, तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ. बचपन में कितना संवेदनशील था उसका अभि. एक दिन फोन पर यूं ही पूछने पर अभि हंसकर लापरवाही से बोला, “आप भी किस ज़माने की बात कर रही हो दीदी. हम लोग क्या परोपकार करने के लिए नर्सिंग होम चला रहे हैं? हमारी भी कितनी ज़रूरतें हैं, जो अफोर्ड कर सकें वो आएं, वरना ये सरकारी अस्पताल किसलिए खुले हैं?”
धीरे-धीरे विनीता घर-परिवार की बढ़ती ज़िम्मेदारियों में उलझती गई और अभि अपनी महत्वाकांक्षाओं के सहारे आकाश को छूने में बिज़ी हो गया. विनीता के जीवन में अगर कुछ नहीं बदला था, तो वो था बड़ी भाभी का अपनापन. उसे याद है, अंतिम तीन महीने मां बिस्तर पर रहीं, पर भाभी ने उ़फ् तक नहीं की. रोज़ बिस्तर पर नित्यकर्म कराना, अपने हाथों से खिलाना-पिलाना. जाते-जाते मां की आंखों में कितना संतोष था. मां की आंखों के कोरों से बहते आंसुओं में दुख की जगह संतुष्टि और भाभी के लिए आशीर्वाद ही दिखता. घर के सारे रीति-रिवाज़ों को ख़ूबसूरती से आत्मसात कर चुकीं, एमएससी टॉपर भाभी ने मां की बीमारी के बाद नित्य आरती से लेकर सारे कामों को इस कुशलता से संभाला कि बुआ और चाची तक को उनसे ईर्ष्या होने लगी.
मां के न रहने से गुमसुम पापा सालभर में ही चले गए, तो विनीता रो-रोकर पागल-सी हो गई थी. उसके मन में कहीं यह बात आ गई कि अब मायका नहीं रहा, यह भांपकर भाभी बोलीं, “दीदी, आप नहीं जानतीं अब मैं कितनी अकेली हो गई हूं. यह घर पहले की ही तरह आपका है और एक वचन दीजिए, आप हर बार गर्मी की छुट्टियों में यहां आती रहेंगी.” विनीता भाभी की समझदारी और व्यावहारिकता पर हैरान रह गई. तब से शुरू हुआ सिलसिला, आज तक चला आ रहा है.
अगली सुबह कार तैयार थी, जिसमें कोल्ड-ड्रिंक्स, चिप्स और कई रेडीमेड पैकेट्स रखे थे. हम लोग चिड़ियाघर गए, पर विनीता हैरान थी कि बच्चों को जिन चीज़ों से लगाव था, उन्हें वे छू भी नहीं रहे थे. बस, मिनी-चीनू की ही बातें करते रहे कि वे भी साथ होते तो यह करते, वह करते. विनीता को लगा जैसे वो किसी अजनबी दुनिया में आ गई है, जहां ऐशो-आराम के सारे साधन तो उपलब्ध हैं, मगर जीने का मक़सद नहीं है. ज़िंदगी जीने के लिए कुछ बहानों की ज़रूरत होती है, पर वे इतने खोखले व रस्मी होंगे, विनीता ने कल्पना भी नहीं की थी. उसे लगा अभि ने उसके सामने ज़िंदगी का दूसरा पहलू तमाचे की तरह रख दिया हो और कह रहा हो, ‘दीदी, तुम्हें बहुत नाज़ है न अपने दृष्टिकोण पर? लो देखो, ज़िंदगी तो बस भौतिक सुखों के भोग के लिए है. रिश्ते, एहसास, संवेदना, मूल्य, आदर्श ये सब फ़लस़फे बहस के लिए अच्छे हैं, मगर इनके सहारे ज़िंदगी नहीं जी जा सकती.’
शाम को फिर वही गेस्टरूम, वही आया और नौकर. ऊबकर मीतू-मोनू ड्रॉइंगरूम पहुंच गए. तरह-तरह के विदेशी खिलौने, कांच के सामान,
बनावटी चिड़िया, छोटी-सी साइकिल, मुखौटे पता नहीं क्या-क्या शोकेस में सजे थे. मीतू ने कांच के एक सारस को उठाया कि छोटी मामी का तेज़ स्वर कानों में टकराया, “डोंट टच. रखो उसे.”
घबराहट में उसके हाथों से सारस गिरकर टूट गया, तो मीतू ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी. मामी का चिल्लाना जारी था. “इतनी बड़ी हो गई हो, पर मैनर्स ही नहीं हैं. पता नहीं, दूसरे के घर कुछ भी नहीं छूते हैं.” रोते-रोते मीतू सोच रही थी कि यह किसी दूसरे का नहीं मेरे छोटे मामा का घर है.
तभी विनीता आ गई, तो छोटी मामी बोलीं, “आई कांट टॉलरेट दीज़ हैबिट्स. चिल्ड्रेन मस्ट नो मैनर्स एंड एटीकेट्स. ऋत्विक की मजाल है, जो कुछ भी छू ले? तुरंत सज़ा देती थी मैं. एनी वे डोंट माइंड.” कहकर वो चली गईं. सिसकती हुई मीतू को याद आया एक बार बड़ी मामी के घर उससे महंगी प्लेट टूटने पर मम्मी ने डांटा, तो बड़ी मामी ने उसे गोद में लेकर चुप कराते हुए कहा, “प्लेट मेरी बिटिया से क़ीमती थोड़े ही है. प्लेट तो टूट गई, पर आप उसका दिल क्यों तोड़ रही हैं?” मीतू को सब बुद्धू समझते हैं, पर वो प्यार और अपनापन ख़ूब समझती है.
रात को सपने में उसे छोटी मामी का शोकेस दिखा. तरह-तरह के ढेर सारे खिलौने, पर कैद में एकदम उदास लग रहे थे, जिनमें ज़िंदगी का नामो-निशान नहीं था. फिर वो बड़ी मामी के घर पहुंच गई. वहां न दिखावटी खिलौने थे, न बनावटी ज़िंदगी.
खिलौने महंगे तो नहीं थे कि छूना मना हो और शोकेस में सजे रहें. ज़िंदगी से भरे साधारण खिलौने चाहे जैसे खेलो न टूटने का डर, न डांट पड़ने का. वो, मोनू, मिनी-चीनू उन खिलौनों से खिलखिलाते हुए खेल रहे थे कि अचानक छोटी मामी ने आकर मीतू को उठाया और वो खिलौनेवाली डॉल बन गई, जिसे मामी ने शोकेस में सजा दिया.
बेचारी मीतू चिल्ला-चिल्लाकर रो रही थी, पर उसकी आवाज़ शोकेस से बाहर नहीं जा रही थी. आवाज़ सुनकर विनीता की आंख खुली, तो देखा मीतू नींद में रोते हुए घुटी-घुटी आवाज़ में चिल्ला रही थी, “मुझे इस शोकेस से बाहर निकालो, मुझे इस शोकेस से बाहर निकालो.” विनीता ने उसे गले लगाकर कहा, “हां, बेटा हम लोग कल ही यहां से लौट चलेंगे.” बस फिर क्या, मीतू सपने में शोकेस से बाहर आकर फिर खिलखिलाते हुए मोनू, मिनी-चीनू के साथ खेलने लगी.
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