हास्य: भ्रष्टमेव जयते
भ्रष्टाचार के भरोसे कैसे होती है मौजा ही मौजा?
शासकीय सेवा में मैं ने 35 वर्ष गुजारे हैं और इतने लंबे कार्यकाल के अनुभव के बाद यही समझ में आया कि सफलता की कुंजी हमेशा परिश्रम, लगन और निष्ठा नहीं है, बल्कि खुराफाती दिमाग, स्कीमिंग में माहिर, चाटुकारिता में पीएचडी हासिल हो तो वही आज रेस का अपराजित घोड़ा बन सकता है. वैसे भी हमारा समाज नेताओं और नौकरशाहों के आसरे चलता है, पर अभी मैं उच्चतर सेवा की बात कर रहा हूं. आईसीएस का नाम बहुत था और गोरी सरकार के योजनाकार यह बखूबी जानते थे कि हिंदुस्तान में राज करने के लिए सेवा में ऐसे भारतीय चुने जाएं जो पश्चिमी सभ्यता से खासे प्रभावित रहते हों, फिर वे चाहे मध्यवर्गीय परिवार के ही क्यों न हों. घर में ‘बाबूजी’, ‘अम्माजी’ में कम आत्मीयता बल्कि ‘मम्मी’, ‘डैडी’ संबोधन में अधिक निकटता पाते हों.
वर्ष 1970 तक यह आईसीएस ब्रीड खत्म होने लगी और आला अधिकारी का चयन यूपीएससी के द्वारा होने लगा. पर चयनकर्ता भी पुराने आईसीएस से खासे प्रभावित थे, इसलिए प्रारंभ में ऐसे अधिकारी चुने गए जो न तो पूरी तरह भारतीय परिवेश में ढले थे, न ही अंगरेज अफसरों की तरह अनुशासित ही थे. पर हां, वे चयनित अधिकारी अकसर निष्ठावान व ईमानदार थे. वे न तो कानून व नियमों की अनदेखी करते थे और न ही मंत्री महोदय के गलत फैसले में साथ देने में कोई रुचि रखते थे. ऐसे अफसर यह समझते थे कि राजनीतिक दखल, बल्कि कहें स्वार्थपूर्ण दखल, को नजरअंदाज करने पर अधिक से अधिक उन का स्थानांतरण अन्यत्र कर दिया जाएगा.
समय ने करवट बदली और लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल के बाद इंदिरा गांधी का दौर आया, जहां नौकरशाही और कौर्पोरेट सैक्टर के कंपनी मालिकों को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा. कौर्पोरेट जगत का भी सोचना था कि यदि उन के हित की पालिसी बनती है और शासनतंत्र उस में अघोषित भागीदारी धन के लालच में, सहज में करने को तैयार है तो फिर सब आसान ही होता है.
मंत्रीगण और नौकरशाह जुट गए कि कैसे होशियारी से शासन को चूना लगाया जा सकता है. इस दौड़ में जो बाधाएं आईं, उन्हें निबटाया गया, कुछ अर्थ लालच से, कुछ अपने प्रभाव से, रास्ते आसान हो गए. मानसिकता इतनी बदली कि सही और गलत में कोई सीमारेखा नहीं बची जो लांघी न गई हो.
मुझे याद है, एक बड़े अधिकारी द्विवेदीजी थे जो वर्ष 1975 के आसपास सेवा में आए थे. उन का काम करने का तरीका अलग था. अधिकतर फाइल की नोटिंग में लिख देते थे, ‘कृपया चर्चा करें’ अथवा ‘इस नस्ती पर चर्चा की जाए जब मैं अपेक्षाकृत कम व्यस्त रहूं’. एक ऐसी फाइल जिसे अपर सचिव महत्त्वपूर्ण मानते थे पर चर्चा करने के लिए समय लेने हेतु वे 2-3 माह तक साहब के पीए और गंगाराम (चहेता चपरासी) को चाय व कोल्डडिं्रक पिलाते रहते यह पता करने के लिए कि साहब कब कम व्यस्त रहेंगे. किंतु मुहूर्त नहीं आया और द्विवेदीजी का ट्रांसफर किसी अन्य मलाईदार महकमे में हो गया.
ऐसा नहीं था कि द्विवेदीजी सभी नस्तियों पर ऐसा नोट लिख देते थे. कुछ पर विशेष कृपा भी होती है. उदाहरण के लिए उन के खास परिचित के फोन आने के बाद ऐसी नस्ती प्राथमिकता की श्रेणी में आ जाती थी. अथवा मंत्री महोदय के कोड वर्ड के कारण ‘अर्जेंट’ हो जाती थी, और फिर ऐसी फाइलें 2-3 घंटे में ही निबट जाती थीं.
द्विवेदीजी की बिदाई हो गई. उन के एक नजदीकी मित्र टहलते हुए मिल गए. पूछने पर पता चला कि द्विवेदीजी के काम करने का यही ढंग था. वे दिनभर औफिस में या तो फोन पर बतियाते रहते थे या रंगीन उपन्यास पढ़ते रहते थे. फाइल में टीप देना कि ‘व्यस्त’ हैं, उन के गुरु का गुरुमंत्र था.
उन के ही बैच के एक अन्य आला अधिकारी थे मीणाजी. वे राजस्थान के सुदूर अंचल से आते हैं. बचपन में ही विवाह हो गया था, किंतु उच्च सेवा में आने के बाद ‘राम प्यारी’ उन्हें रास नहीं आती थी. एक दूसरा विवाह कर लिया जिस का कोई रिकौर्ड नहीं था. घर पर 8-10 विदेशी कुत्ते थे जिन की सेवाटहल के लिए 4-5 चपरासी लगे रहते थे. पहली पत्नी से 2 लड़के आस्टे्रलिया में पढ़ रहे थे. मीणाजी बहुत समय ‘खनिज विभाग’ में थे. नीचे वालों पर रोब गांठना उन का प्रिय काम था. अपने साथ आचारसंहिता की पुस्तक रखते थे. कोई कर्मचारी नेता यदि पान चबाते हुए जोरजोर से बतिया रहा हो या दांत निपोर रहा हो तो फौरन ‘अनुशासनात्मक कार्यवाही’ हेतु सिफारिश कर देते थे.
3 साल पहले वे रिटायर हुए. पहली पत्नी गांव में रहती है. दोनों बेटे विदेश में अध्ययन करने के बाद माइनिंग विभाग (खनिज) का बड़ा ठेका लेते हैं. परंतु पिताजी से बेटों की आएदिन गालीगलौज होती है. महल्ले में उन्हें कोई नमस्कार नहीं करता. न तो अब विलायती कुत्तों की आवाज आती है और न ही आचारसंहिता का भय बेटों को अनुशासन में बांधता है.
यह आज का राज दरबारी है- ‘भ्रष्टमेव जयते’.
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