कहानी: होली के रंग

वह होली का दिन था जब सुबहसवेरे नितिन ने सुजाता से कहा था, ‘मां, मैं अन्नू के घर जा रहा हूं.’ ‘आज और अभी? क्या तुम्हारा अभी जाना ठीक रहेगा?’ सुजाता ने नितिन से पूछा.

‘हां, मां, अभी होली का हुड़दंग शुरू नहीं हुआ है, अभी रास्ते में परेशानी नहीं होगी,’ नितिन ने एक पुरानी कमीज पहनते हुए कहा.

‘लेकिन, आज त्योहार है, बेटा,’ सुजाता यह सोच कर घबरा उठी थी कि अगर नितिन चला गया तो उस के सिवा इस घर में कौन बचेगा? सूना घर उसे काटने को दौड़ेगा. कैसे झेल सकेगी वह इस सूनेपन को? घर के बाहर की दुनिया होली के उत्साह भरे कोलाहल में डूबी रहेगी मगर घर के भीतर श्मशान का सन्नाटा छाया रहेगा. नहीं…नहीं, उस से यह सब सहन नहीं होगा. सुजाता ने घबरा कर नितिन को एक बार फिर रोकने का प्रयास किया.

‘बेटा, अन्नू तो अपने मायके में होली मनाना चाहती थी इसलिए मैं ने उसे नहीं रोका लेकिन अब तू भी उस के पास चला जाएग तो तेरी यह बूढ़ी मां यहां अकेली रह जाएगी. अगर तू रुक सके तो…’

‘नहीं मां, अन्नू का फोन आया था वह चाहती है कि मैं उस के साथ उस के मायके में होली मनाऊं…और मां, अन्नू की छोटी बहन वीनू भी जिद कर रही थी कि जीजाजी, आप चले आइए. अब, अगर मैं नहीं जाऊंगा तो वे लोग नाराज हो जाएंगे,’ नितिन ने अपने जूते का तस्मा बांधते हुए उत्तर दिया.

‘ठीक है बेटा, जैसे तेरी इच्छा,’ सुजाता ने धीरे से स्वीकृति में अपना सिर हिलाते हुए कहा.

‘बात इच्छा की नहीं मां, और फिर तुम होली खेलती ही कहां हो जो मेरा यहां रहना जरूरी है,’ नितिन की कही यह बात सुजाता की दुखती रग को छू गई थी.

नितिन अन्नू के घर चला गया. अब सूना घर और सुजाता एकदूसरे से जूझने लगे. नितिन का आखिरी वाक्य सुजाता के मन में बारबार कौंध रहा था… ‘और फिर तुम होली खेलती ही कहां हो…’

लगभग 12 साल पहले, उस दिन भी होली के हुड़दंगी सड़कों पर ‘होली है.’ ‘होली है’ का शोर मचाते हुए घूम रहे थे. उस समय नितिन 14 साल का था और सुनीति 10 साल की थी. दोनों बच्चे बहुत छोटे तो नहीं थे लेकिन होली का त्योहार बड़ेबूढ़ों को भी बच्चा बना देता है.

नितिन और सुनीति सेवेरे से उत्साहित थे. सुजाता जानती थी कि उस की भाभी को उन दोनों बच्चों का यों खेलनाकूदना रास नहीं आता है. फिर भी वह बच्चों को मना नहीं कर पाई. जब बच्चे होली के रंग से सराबोर हो कर घर लौटे तो सब से पहले दौड़ कर अपनी मां सुजाता से लिपट गए. सुजाता के कपड़े भी उन के शरीर पर लगे रंगों से रंग गए. उसी समय भाभी आ धमकीं. भाभी अपनी सहेलियों के साथ होली खेल कर चली आ रही थीं लेकिन वे सुजाता और उस के बच्चों को देख कर भड़क उठीं.

‘यह देखो, कैसा जमाना आ गया है…अब तुझे इतना भी धरम- करम याद नहीं रहा कि विधवाएं रंग नहीं खेलती हैं. जैसे तू वैसी तेरी औलादें. मैं तो तंग आ गई हूं तुम सब से. इतना ही होली खेलने का शौक है तो दूसरा घर बसा ले, फिर जी भर कर होली खेलना,’ भाभी ने कहना शुरू किया और फिर देर तक अपने मन की भड़ास निकालती रहीं.

सुजाता ने उसी दिन तय कर लिया था कि चाहे जो भी हो मगर वह अपने भाई के घर किसी शरणार्थी की भांति जीवन नहीं व्यतीत करेगी और न ही कभी होली खेलेगी. जब उस के जीवन में ही सुहाग का रंग नहीं रहा तो वह रंग खेल कर करेगी भी क्या? वह छोटीमोटी कोई भी नौकरी कर लेगी मगर अपने बच्चों को अपने दम पर पढ़ाएगी, पालेगी.

सुजाता ने उसी शाम को अपने भाई का घर छोड़ दिया था और अपने दोनों बच्चों को ले कर अपनी एक सहेली के घर जा पहुंची थी. उस की सहेली ने उसे दूसरे दिन ही एक सिलाई सेंटर में काम दिला दिया था. अपनी मेहनत और लगन के दम पर सुजाता ने जल्दी ही अपना स्वयं का सिलाई सेंटर खोल लिया. इस तरह सुजाता के जीवन की गाड़ी चल निकली थी. उस ने अपने दोनों बच्चों को पढ़ाया और एकएक कर के दोनों का विवाह भी कर दिया. पहले नितिन की शादी हुई और अन्नू बहू के रूप में घर आई. इस के बाद सुनीति की शादी हुई और वह अपने ससुराल चली गई.

कुछ ही महीने बाद सुनीति के पति को विदेश में नौकरी मिल गई और सुनीति भी अपने पति के साथ विदेश चली गई. सुजाता के लिए लेदे कर नितिन और अन्नू का ही सहारा बचा लेकिन अन्नू को सुजाता का सादा जीवन बिलकुल रास नहीं आया. ऊपर से तो वह कुछ कहती नहीं है लेकिन भीतर ही भीतर नितिन को भड़काती रहती है कि वह अपनी मां से अलग रहने लगे.

सुजाता सबकुछ देखती, समझती हुई भी मौन रह जाती है. कहे भी तो क्या? अपने भाई का घर छोड़ने के साथ ही मानो वह जीवन के रंगों को भी छोड़ आई. अब उसे कोई भी रंग नहीं भाता है. अन्नू का भी इस में उसे कोई दोष नजर नहीं आता. आखिर नई उम्र की अन्नू रंगों से, जीवन के उल्लास से नाता रखना ही चाहेगी. भला वह क्यों नीरस, बेरंग जीवन जिए?

सुजाता, अन्नू और नितिन को किसी बात के लिए कभी मना नहीं करती. जब नितिन को हनीमून पर जाने के लिए छुट्टियां नहीं मिल पा रही थीं तो उस ने खुद ही नितिन से कहा था कि वह प्रतिदिन शाम को दफ्तर से घर लौटने के बाद अन्नू को कहीं घुमाने ले जाया करे ताकि उसे हनीमून पर न जा पाने का दुख न हो.

सुजाता की तमाम अभिलाषाएं मानो मर चुकी थीं. वह न तो कभी सिनेमा देखने जाती और न कहीं घूमने. सुजाता के रूप में घर के वातावरण में एक अव्यक्त उदासी छाई रहती और इसी उदासी से अन्नू को चिढ़ होती. परिवार का एक व्यक्ति हमेशा एक उदासी ओढ़े रहे तो बाकी सदस्य भला कैसे हंस बोल सकते हैं? एक मर्यादा उन्हें भी हंसने, चहकने से रोकती. इसीलिए अपने विवाह के बाद की यह तीसरी होली अन्नू ने अपने मायके में मनाने का निश्चय किया. सुजाता चाह कर भी उसे रोक न सकी. रोकती भी तो भला किस आधार पर? सभी को अपनी खुशियां अपने ढंग से मनाने का अधिकार होता है, अन्नू को भी है.

अन्नू अपने मायके गई, वह तो ठीक है लेकिन अब नितिन भी अन्नू के पास चला गया है. पति छूटा, मायका छूटा और अब बच्चे भी उस से दूर होते जा रहे हैं, यह सोच कर सुजाता की आंखें डबडबा गईं. अकेलापन उसे चुभने लगा. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? तभी दरवाजे की घंटी ने उसे चौंका दिया.

कौन आया होगा? सुजाता सोचती हुई दरवाजे के पास पहुंची. उस ने ‘स्पाईआई’ से झांक कर देखा. बाहर 1-2 चेहरे नजर आए लेकिन रंगों से पुते हुए. पहचानना कठिन था. दरवाजा खोले या न खोले? पल दो पल सुजाता ने सोचा, फिर उसे एक परिचित सी आवाज सुनाई दी. शायद यह उस के पड़ोस में रहने वाली मनोरमा की बेटी दिव्या की आवाज थी. सुजाता ने दरवाजा खोल दिया. दरवाजा खुलते ही 7-8 लड़केलड़कियां भीतर चले आए.

‘‘होली मुबारक हो, आंटी,’’ वे समवेत स्वर में बोल उठे. उन में से एक लड़के ने आगे बढ़ कर सुजाता के माथे पर गुलाल लगाया और झुक कर पैर छू लिया. उस के बाद एक लड़की आगे आई. उस ने सुजाता के माथे पर गुलाल लगातेलगाते गालों को भी रंग दिया. चंद ही पलों में वहां का दृश्य बदल गया. वे सारे लड़केलड़कियां सुजाता को खींच कर बाहर ले गए और उस के साथ होली खेलने लगे. पहले तो सुजाता ने झिझकते हुए कहा, ‘‘नहींनहीं, रंग मत लगाओ. मैं विधवा हूं.’’

‘‘ओह आंटी, आप भी कैसी दकियानूसी बातें करती हैं,’’ दिव्या ने सुजाता को झिड़क दिया और बाकी लड़कियां उसे रंग लगाने लगीं. सुजाता भी अपनेआप को रोक नहीं सकी, वह भी उन के चेहरों पर रंग लगाने लगी.

होली के रंगों ने उस के भीतर घिरे हुए अंधेरे को मानो साफ कर दिया. वह अपने भीतर हलकापन महसूस करने लगी. अचानक उसे झटका सा लगा. वह अवाक् खड़ी सी रह गई. नितिन और अन्नू उस के सामने खड़े थे. अब क्या अन्नू भी कहेगी कि ‘विधवाएं रंग नहीं खेलतीं.’

तभी अन्नू और नितिन ने आगे बढ़ कर उस के पैर छू लिए.

‘‘मुझे क्षमा कर दीजिए, मां. जो काम इन लोगों ने किया वह मुझे करना चाहिए था. मगर मैं आप के अकेलेपन को समझ नहीं सकी. हर इनसान के भीतर उत्साह के स्रोत पाए जाते हैं, यह तो परिस्थितियां हैं जो उन्हें दबाए रहती हैं. मैं आप की परिस्थितियों को समझ नहीं पाई और आप को उत्साहहीन मानती रही, जबकि आप के भीतर उत्साह जगाना तो हमारा कर्तव्य था न,’’ अन्नू ने सुजाता से कहा.

‘‘हां मां, आज मुझे भी अपनी गलती का एहसास हुआ और इसीलिए हम दोनों लौट आए. मैं ने आप को हमेशा ताना मारा कि आप होली नहीं खेलती हैं मगर मैं ने भी तो आप के साथ कभी होली नहीं खेली. अब तक होली के रंग भले ही आप से दूर थे लेकिन अब ये आप से दूर नहीं रहेंगे,’’ यह कहते हुए नितिन ने ढेर सारा गुलाल मां के सिर में डाल दिया.

‘‘गलती मेरी भी है. मुझे भी किसी बात को यों पकड़ कर नहीं बैठ जाना चाहिए था. भाभी ने जो भी कहा था वह उन का अपना विचार था, उन के विचारों को आत्मसम्मान का प्रश्न बना कर मुझे भी जीवन के रंगों से यों मुंह नहीं मोड़ना चाहिए था. कम से कम तुम बच्चों की खुशियों को ध्यान में रखते हुए तो हरगिज नहीं,’’ सुजाता ने भी मुट्ठी भर गुलाल अन्नू के चेहरे पर मल दिया. अन्नू खुशी से खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘होली है’ के स्वर से सारा वातावरण गूंज उठा. सुजाता के जीवन में खुशियां एक बार फिर झूम उठीं.

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