कहानी: एकालाप

"उमस...! सच कहूँ, मौसम का यह मिज़ाज़ मुझे कभी पसंद नहीं आया। सारा दिन मैं गर्मी में घुटकर पड़ी रह जाती हूँ। यह कमरा भी तो देखो, यहाँ एक रोशनदान तक नहीं है जहाँ से हवा, रोशनी या कुछ भी अंदर आ सके। इतनी भी गर्मी कहीं पड़ती है भला ! बिजली के क्या कहने ! आती है, जाती है। बस यही लगा रहता है। हाथ का पंखा एक पल भी हाथ से छूटता नहीं। छोड़ो तो मक्खियाँ मुझे खा जाने को आ जाती हैं। हिकारत - सी होती है मुझे कभी - कभी। ज़िंदगी में बहुत गड़बड़ है। आजकल तो मुझे लगता है, ज़्यादा ही झोल - मोल रहती है। तुम भी तो जब देखो पेट में इधर - उधर चैन से नहीं बैठती। कभी यहाँ घूम जाती हो तो कभी वहाँ। मुझे ऐसा लगता है कि मध्यम आकार की कोई मछली मस्ती कर रही हो। ओह ! मुझे ऐसे ख़याल नहीं लाने चाहिए। तुम पर खराब असर हो सकता है। पर मैं क्या करूँ ? मेरे आसपास का माहौल मुझे अच्छा सोचने भी नहीं देता। 

इसी बीच बिजली आने से पंखा धीमे - धीमे चलता हुआ तेज़ी से चलने लगा।

ओह ! अब मैं राहत की सांस ले सकती हूँ। अब पलंग पर जाकर लेट सकती हूँ। मेरा रंग कॉफी की तरह हो रहा है। चेहरे पर पसीने की बूंदें इस समय सो रही हैं। चेहरे पर एक अजीब - सा खिंचाव, हताशा, चिड़चिड़ाहट और असंतोष रहने लगा है। कमरे ने भी मेरे इस भाव के मुताबिक अपनी ऐसी ही रंगत बना ली है।

मैंने पीले रंग की ढीली - ढाली मैक्सी पहन रखी है। सोने का बिस्तर महकदार है। इस पर मैली और फटी हुई गहरे हरे रंग की चादर बिछी है। मैं अपनी इस दशा में काम नहीं कर पा रही हूँ। पलंग की वजह से कमरे में अधिक जगह नहीं बच पाती। बची हुई जगह में एक बर्नर वाला गैस स्टोव और छोटा सिलेन्डर दुबका पड़ा हुआ है, देखो तो। पास ही दीवार में ईंटों की एक रद्दी छोड़ी हुई अलमारी थी जिसमें रोते हुए दो कप दिख रहे हैं, उधर देखो। कुछ तश्तरियाँ और गिलास हैं। एक प्लास्टिक की मैली बाल्टी है। इसी में कपड़े धुलते हैं और नहाना भी इसी से होता है। मुझे याद है, जब यह बाल्टी खरीदकर लाई गई थी तब इसका रंग लाल था। चमकदार लाल !

कितना अच्छा हो चीज़ें बदले ही न। मैं ज़्यादा पढ़ी - लिखी तो नहीं पर कभी - कभी बहुत अजीब तरह से सोचने लगती हूँ। जैसे कोई दार्शनिक सोचता होगा। जब करने - धरने के लिए कुछ न हो तब दिमाग को करने के लिए बहुत कुछ मिल जाता है। सारा झोल दिमाग का ही है। दिल तो सिर्फ एक मांस का लाल लोथड़ा है। फिल्म वालों ने दिल को इस तरह पेश कर दिया है कि कल का पैदा हुआ बच्चा भी आशिक़ी के नगमें दिल से शुरू करता दिख रहा है। मुझे तो लगता है कि जीवन में सब कुछ, हमारा शरीर भी अपने - अपने हिस्से का काम करते हैं। बाहर के माहौल से टकराहट ही जीवन है। और अंतरंग मन का क्या ? हमारे अंदर भी कितनी टकराहटें होती हैं हर पल।

सुनो, तुम पेट में मचलो मत। तुम्हारे ऐसा करने से मेरे ख़याल बिखर जाते हैं। ऐसा लगता है पेट में कुछ घुमड़ - घुमड़कर हवा चल रही है। 


मैं भी कितनी पागल हुई जा रही हूँ। तुम मेरे पेट में से कैसे देख सकती हो यह दशा ? लेकिन तुम्हें पता है, तुम और मैं अलग नहीं हैं। तुम मेरे शरीर से जुड़ी हो। यह बहुत अद्भुत बात है कि मुझे हूबहू अपने जैसे इंसान बनाने की कला आती है। सभी औरतें ऐसा कर सकती हैं। और जो नहीं कर सकते वे कला के ज़रिये अपने को पेश कर लेते हैं। इसलिए तुम मेरी कला हो। कला के पास वह दिव्य शक्ति होती है जो सबकुछ देख सकती है और जीवन में बहा करती है। तुम कहोगी मैं फिर अजीब - सी दार्शनिक बातें कर रही हूँ। अच्छा है न तुम सुनती भी तो हो। तुम मेरे लिए सुनने वाले दो कान हो।

अभी सोने का समय नहीं हुआ है तुम्हारा। तुम सुनती हो तो लगता है कि मेरे साथ कोई है। तुम पेट में तैरती हो तो लगता मैं ज़िंदा हूँ। मैं मर नहीं सकती, क्योंकि तुम मेरे अंदर हो। 

अच्छा एक बात कहूँ ? मैं दार्शनिक नहीं हूँ। मुझे इस बात का अफ़सोस नहीं है, शायद है भी ! मैं एकालाप बहुत करती हूँ।"

महिला लंबी सांसें ले रही थी। ऐसी जो शायद वे कभी भूल गई हो। उसका पेट उभरा हुआ था। गर्भ के चलते ही वह सिकुड़कर और छोटी दिख रही थी। बाल बेढब थे। कंघी किए शायद काफी समय हुआ था। दयनीय स्थिति की उस समय मालकिन थी। अगर कोई भी व्यक्ति उसे देखता तो शायद उसे अच्छा खाना बनाकर तुरंत खिलाता। कमरे की एक दीवार पर दो कमीज़ें भी थीं जिससे पता चलता है कि उस महिला के साथ कोई रहता भी है। घर की स्वामिनी तो वह नहीं ही लग रही थी। पर कमीज़ें चिल्ला - चिल्लाकर बता रही थीं कि वे ही इस घर की मालिक हैं। शाम होते ही वे कमीज़ें बता देंगी कि वे सही हैं। सौ फीसदी सही।

उसने पलंग पर बाईं ओर करवट बदलते हुए फिर कहना शुरू किया -

"उस रात मैंने अजीब - सा सपना देखा। मैं भी कितनी मूर्ख हूँ। सपने तो अजीब होते ही हैं।तुम बहस कर रही थी मुझसे। बहस से मेरा रक्तचाप बहुत बढ़ गया था। मैंने कहा, देखो ज़रा, अभी खुद तो नाल से टिकी है और मुझसे ज़ुबान चला रही है ! मैं सांस न लूँ न, तो मर जाओगी तुम ! बेमौत...।

लेकिन तुम कुछ न बोली। तुम्हारी तो सूरत भी अभी विकसित नहीं हुई होगी। अजीब - सी पीली और भूरी शक्ल थी तुम्हारी। शरीर के नाम पर पिलपिला मांस। तुम बहुत ही दयनीय लग रही थी। मुझसे भी अधिक दया करने लायक प्राणी। मुझे किसी शक्ति से यह बात पता थी कि तुम लड़की हो...एक लड़की ! मैंने आँखें बंद कीं तो एक तरह के रंग के छींटें दिखाई देने लगे। शायद ये सब मेरे ज़्यादा सोचने का नतीजा है।

तुम चूंकि जन्मी नहीं हो इसलिए मैं तुमसे अच्छे से और मुनासिब बातें कह पाती हूँ। मैं अधिक पढ़ी - लिखी तो नहीं। पर लिखना जानती हूँ। मैं डायरी लिखती पर इस तरह का खर्च और रचना करना भी हम गरीबों के लिए भारी है। इसलिए मैं तुमसे ही बात कर लेती हूँ और सोचती हूँ कि मेरी बातें ही मेरी रचना है। और तुम, जिसने अभी जन्म नहीं लिया उस रचना की क़द्रदान। तुम मेरी डायरी ही हो। तुम्हें मैं एक तरह से रच ही तो रही हूँ।

अभी मेरी उम्र बत्तीस के पड़ाव पर है। जब मैं बाईस या तेईस की रही होउंगी, तब मैं कुछ - कुछ अंतराल में एक सपना देखा करती थी। बाईं ओर सीने की जगह पर कुछ चलता रहता था। बाद के बरसों में पता चला इस मांस के अंदरूनी लोथड़े को ही दिल कहते हैं। कुछ लोग मन भी कहते हैं। लेकिन एक बात कहूँ, जब दिल कहती हूँ तो ठोस चीज़ का अहसास होता है और जब मन कहती हूँ, तब अदृश्यता ही समझ आती है। मुझे दोनों से ही प्रभावित होने की मनाही थी। मैंने सपने में देखा, मैंने दिल को एक क़ैदखाने में ले जाकर रख दिया है। तुम कहोगी मैं पागल हूँ। पर मैं कहूँगी, नहीं ! यह सपना है। सपने अजीब ही होते हैं। 

जब मैंने उसे एक ऐसी जगह रखा जहाँ उसके मरने की अधिक संभावना थी तब मुझे डर भी लगा कि इसके बिना मैं जी भी पाऊँगी या नहीं। मुझे समझाया गया, खूब समझाया। इसके बिना लड़कियों की उम्र ज़्यादा होती है। मैं मान भी गई। कुछ दिनों बाद दिमाग भी निकालकर मैंने उसी तय क़ैदखाने में जा रख छोड़ा। इस बार मैं बहुत डर गई। घर आकर मैं बेहद परेशान रहने लगी। हालांकि मुझे यह बताया जाता रहा कि तुम ऐसी ही रहती आई हो सदियों से। लेकिन मेरी बेचैनी ने मुझे चैन न लेने दिया। मुझे लगा मैं मर रही हूँ। मुझे खुद को मरने से रोकना था। कैसे भी करके दोनों को वापस अपनी जगह सेट करने का खयाल था।

क़ैदखाने के गेट पर अजीबोगरीब जल्लाद बैठा करता था। अजीब इसलिए कि वह पूरा सामान्य - सा इंसान था। बिल्कुल सामान्य। मुझे हैरत हुई।

...तुम सुन तो रही हो न ? बोर हो जाओ तो बताना !

मैंने एक हफ्ते तक उस जगह के बारे में जानकारी जुटाई। इस काम में जोखिम था। लेकिन जोखिम ही ज़िंदगी की सच्चाई और सिंचाई है। मैं यह जोखिम नहीं उठाती तो मर सकती थी। फिर मुझे आगे आने वाली पीढ़ियों का भी खयाल आया। 

मैंने घड़ी के समय के मुताबिक रात एक बजे का समय चुना। मैं गई। जल्लाद से बोली कि एक झलक लेनी है दोनों की। बाहर से ही देखकर वापस आ जाऊँगी। उसे बहुत मनाना पड़ा। तब जाकर वह माना। जहाँ दोनों क़ैद थे, उस कमरे में एक आदमक़द खिड़की थी। मैंने बाहर से देखा। तुम यकीन नहीं करोगी। एक अजब रोशनी से वह जगह गुलज़ार थी। हरी लताएँ, ढेरों ताज़ा पत्तियाँ, फल, सबकुछ !

ऐसा लगा कि ज़िंदगी यहीं गुलज़ार है। मैंने नज़रें घुमाई तो देखती हूँ कि ढेरों किताबें, डायरियाँ और कलम वहाँ पड़ी थीं। मुझे बहुत हैरत हुई।

मुझे ऐसा अद्भुत दृश्य कभी नहीं दिखा था। एक पल को लगा कि दीवार टूट जाये और मैं वहाँ घुसकर इस नज़ारे को पास से निहार लूँ। इस खूबसूरती को देखने के दौरान अपने दिल और दिमाग की खबर के लिए नज़रें घुमाईं तो वे नहीं दिखे। मुझे फिर हैरत हुई। बाहर जल्लाद से पूछा कि कमरे में किताबें, लताएँ, पेन आदि के क्या कारण है ? तब वह घूरते हुए बोला इनसे दूर रहो। हिम्मत भी नहीं करना इनको देखने या छूने की। मैं घर आई। कई दिन सोई नहीं। इसी दौरान अपने कॉलेज के किताबघर गई। मैं अब भी सांस लेने की कमज़ोरी से गुज़र रही थी। पर जैसे ही किताब घर गई और उन्हें छूआ तब मेरा दर्द और रोग जाता रहा। मैं ठीक - सा महसूस कर रही थी। अब मुझे यह डर था कि अगर मैं इस जगह से निकलूंगी तब फिर सांस कम होगी और शायद मैं मर जाऊँगी। इसलिए काफी देर बैठी रही।

किताबघर बंद करने का समय हुआ तब मेरा डर और बढ़ा कि अब क्या होगा। मैंने आनन - फानन में जितनी किताबें जारी की जा सकती थीं, उतनी करवाकर अपने बैग में रख लीं। अपने संग ले आई। रात भर बैग अपने पास ही रखा। नज़रों से ओझल नहीं होने दिया। उनके पास होने से मुझे क़ैदखाने का वही दृश्य दिखा। अच्छा लगा।

अब यह सपना नहीं आता। कुछ दिन बाद मेरी शादी हुई और मेरा नाता किताबों से कम हो चला। चोरी - चुपके से सिरहाने कुछ अखबार की कतरने रखती हूँ या फिर कोई दो रुपए का पतला पैन जिनसे मुझे ऊर्जा मिलती रहती है। तुम जब आओगी तब तुम मेरी जैसी गलती मत करना। हमारी सारी शक्ति इन्हीं किताबों में है। इसलिए तुम इनको अपने से चिपका कर रखना ! सुन रही हो न ? मैंने क्या कहा ? कहीं तुम सो तो नहीं गई ? तुम कभी भी अपना दिल और दिमाग अपने से जुदा मत करना। वरना तुम्हें भी सांस लेने की परेशानी होगी और हो सकता है...।"

- इतना कहकर वह औरत अपनी करवट बदल लेती है,

"...कि तुम्हारी जान पर भी बन आए। हाँ, मुझे याद ज़रूर करते रहना !"

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