कहानी: वह शाम

आप बता सकते हैं कि सातवां आसमान क्या होता है? नहीं ना? सेम हियर. मैं भी नहीं बता सकती. लेकिन कई बार होता है ना, जब आप चीज़ों को जाने बग़ैर भी उन्हें बहुत गहराई से महसूस कर पाते हैं. तो समझ लीजिए कि पिछले बीस मिनट से मुझे भी ऐसा ही कुछ महसूस हो रहा है. लग रहा है जैसे मैं यमुना के किनारे पर नहीं उसी सातवें आसमान पर बैठी हूं. मतलब हद्द होती है भई. पता है एक तो मैं यहां पूरे आधे घंटे से सड़ रही हूं, ऊपर से मेरा फ़ोन भी डिस्चार्ज है. व्हाट्सऐप, फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम तक का सहारा नहीं. उस पर इन बंदरों के डर से पिछले तीस मिनट में छत्तीस जगह बदल चुकी हूं. मुझे मालूम था यहां का हाल, इसीलिए मैंने कहा था कि यमुना की क्या पड़ी है, केरला कॉफ़ी हाउस में मिलते हैं.

तो ज़िद करने लगा,‘नहीं...प्लीज़... बहुत अच्छा लगता है बहती नदी के किनारे बैठना...’

चलो, कोई नहीं, मैं मान गई. पर ग़लती तो मेरी ही है न. मैं मान क्यों गई? अरे कॉफ़ी हाउस में बैठी होती तो कम से कम एक कॉफ़ी ही पी लेती. यहां तो मुंह सिए बैठी हूं. ठेलेवाले से मूंगफली ली थीं वो भी बंदर छीन ले गया. मेरी ऐसी चीख निकली कि अभी तक सांसें नॉर्मल नहीं हो पाई हैं. पर इन महोदय का कहीं कोई अता-पता नहीं है. एक तो ये जो अपने कंधे पर बैग के नाम पर किताबों का पिटारा लाद के चलता है न, उसका लॉजिक मुझे आज तक समझ में नहीं आया... ठीक है भई कॉलेज में तो समझ में आता है, पर यहां... यमुना किनारे अपनी दोस्त से मिलने आते समय तो उस बेताल को छोड़कर आया जा सकता है? और मत छोड़ो, कम से कम जल्दी से उठाकर चल तो दो! 

कोई एक किताब कम रह जाएगी तो कंधा उठाने से मना नहीं कर देगा... पर नहीं... मुझे मालूम है यही आदत है उसकी. तभी तो मैं सुकृत की बजाय सुकरात कहती हूं उसे. रवैया ही ऐसा है उसका. सच बोल रही हूं, फ़ोन में अगर एक कॉल लायक़ भी चार्जिंग होती न तो अभी सुनाती. तुम बस ये बताओ कि मैं ही फालतू हूं क्या? कहा था कि भई आज नहीं संडे को मिल लेते हैं आज मुझे ज़रूरी काम है, अपना लैपटॉप ठीक कराना है. पर नहीं...  ‘लैपटॉप का क्या है, संडे को करा लेना ना... प्लीज़.’

ऊफ्फ जब ये सुकरात ‘प्लीज़’ कहता है न, तो जाने क्या मंत्र फिरता है कि मैं मना नहीं कर पाती. पर लो... लूटो नरम दिल होने का मज़ा. करो इंतज़ार... लेकिन... अब कसम खा के कह रही हूं अगर पांच मिनट के अंदर नहीं आया न तो वापस चली जाऊंगी सच में...

ये देखो यहां मारे इंतज़ार में कुढ़-कुढ़ के पूरे फ़ेस की शाइनिंग चौपट हो गई और ये महाशय बड़े टूरिस्ट बने मुस्कुराते हुए चले आ रहे हैं... बड़ी स्टाइल में आंखों पर काला चश्मा और कंधे पर बैग की जगह कैमरा टांगे...
‘‘देखो बताए दे रही हूं. मेरा फ़ोटो मत लो...’’ मैंने अपने ग़ुस्से का पूरा आसमान इस एक वाक्य में उड़ेल देना चाहा, पर लगा कि ठीक से उड़ेल नहीं पाई. ये सुकरात ऐसी बुद्ध मुस्कान फेंक रहा था कि मेरा सातवां आसमान ठीक उसी तरह से सिर के ऊपर से खिसक गया, जैसे मुहावरों में पैरों के नीचे से ज़मीन सरक जाती है.

‘‘आयएम सॉरी थिया... वो... दरअसल मुझे ये कैमरा ख़रीदने की वजह से देर हो गई. जानती हो कितनी दुकानों पर मशक्कत करनी पड़ी, तब मिला है ये... मेरा ड्रीम पीस!’’ ये कहते-कहते उसने मुझे देखा,‘‘लेकिन तुमको वेट करना पड़ गया... आयएम रियली सॉरी. अचानक ही प्रोग्राम बन गया था कैमरा ख़रीदने का...’’

मेरा ग़ुस्सा फूटा,‘‘क्यों... संडे को नहीं ख़रीद सकते थे? मुझसे तो बड़ी जल्दी कहा कि संडे को बनवा लेना लैपटॉप.’’

वो मुस्कुरा दिया,‘‘हां, कहा था, पर ये ज़रूरी था.’’

‘‘और मेरा लैपटॉप फ़ालतू था?’’
‘‘नहीं... किसने कहा फ़ालतू था? देखो थिया ज़िंदगी में ना कुछ भी फ़ालतू नहीं होता. बस वक़्त के किसी लम्हे में कुछ चीज़ें ज़्यादा ज़रूरी हो जाती है, उनके ज़रूरी हो जाने से बाक़ी चीज़ों का महत्व घटता नहीं है. किसी को ऐसा लग ज़रूर सकता है, लेकिन ये बस देखने का फ़र्क़ है और कुछ नहीं...’’

‘‘प्लीज़...’’ मैंने भिनभिनाते हुए हाथ जोड़े,‘‘भगवान के वास्ते अब तुम अपनी फ़िलासफ़ी क्लास मत शुरू करो.’’ इस बीच मेरे मना करने के बावजूद वो मेरी कई तस्वीरें ले चुका था. ‘‘ये क्या कर रहे हो? पागल हो गए हो? कोई मूड होता है फ़ोटो-वोटो का... अरे... बाद में खिंचाऊंगी किसी दिन.’’

उसने कैमरे का स्क्रीन मेरे सामने किया,‘‘ये देखो कैसा मुंह बना रखा है तुमने.’’

मैंने उसे घूरा,‘‘सब तुम्हारी ही किरपा है... आधा घंटे इन बंदरों के बीच वेट कराओगे तो मुंह नहीं बनेगा तो क्या होगा?’’

‘‘दिस इज़ कंडीशनिंग...’’ इस बार उसने चश्मा हटाकर अपनी बुद्ध मुस्कान फेंकी,‘‘ज़रूरी नहीं कि मुंह ही बने. पर क्या करें हमने प्रतीक्षा के पलों को ऐसे ही कुढ़-कुढ़ के जीना सीखा है.’’

मैं उसी के अंदाज़ में बोली,‘‘यथार्थ महानुभाव, किन्तु आप हम सांसारिक जीवों से और क्या अपेक्षा करते हैं?’’

‘‘जीने की...’’ ये दो शब्द उसने ऐसे कहे जैसे किसी गीत की लाइन दोहराई हो.

‘‘तो क्या मैं यहां मर रही थी?’’

‘‘दिल पर हाथ रख के बोलो ज़िंदा थीं?’’

मैं हंस पड़ी,‘‘नहीं... बाई गॉड नहीं थी... अच्छा सुनो... केरला कॉफ़ी हाउस चलें थोड़ी देर के लिए?’’

उसने कहा,‘‘हां श्योर.’’

मैं स्कूटी मोड़ने लगी, तो उसने कहा,‘‘सुनो थिया...’’

‘‘हां?’’

‘‘पीछे देखो ज़रा.’’

‘‘पीछे क्यों?’’

‘‘क्योंकि आगे जाते हुए कभी-कभी देख लेना चाहिए पीछे.’’

जब उसने यह वाक्य कहा तब मेरी नज़र उसके चेहरे पर नहीं थी पर मुझे पता था कि उसकी बुद्ध मुस्कान अब पूरे चेहरे पर एक शांत भाव बनकर फैल गई होगी. मैंने हेलमेट हटाकर पीछे देखा और देखती रह गई. यमुना की सांवली लहरों पर ढेरों रंगीन नावों के बीच हंसिनी जैसी एक सफ़ेद नाव तैर रही थी. उस छोर के मंदिर में कोई गा रहा था. लग रहा था जैसे वो आवाज़, भजन के वे सुर लहरों में घुलते जा रहे हों. या इन नावों की गति बनकर पानी की सतह पर हौले-हौले सरक रहे हों. मैं हैरान रह गई.

‘‘सुकरात... अब से बस कुछ पल पहले भी मैं यहीं थी. इसी जगह पर, लेकिन तब नदी के पास बिखरा ये सारा जादू मुझे छू भी नहीं पाया. क्यों?’’

‘‘क्योंकि तब तुम जी कहां रही थीं.’’

मैं हंसने लगी,‘‘नहीं महाशय... जी तो रही थी, पर इस जादू को नहीं अपने ग़ुस्से को...’’
‘‘हां...’’ उसने कहा और मैंने स्कूटी स्टार्ट कर ली. सूर्यास्त से पहले के सिंदूरी रंग में लिपटा वो पूरा आलम पीछे छूटने लगा. एक दूसरे के पास-पास खड़े, सटकर बतियाते से लगते उन पुराने मंदिरों के रंगीन झुंड, घाट पर आंख बंद किए बैठे वे लोग, उंगलियों में फिरती हुई वे सुमरनियां, वे हंस गति से थिरकती हुई नावें, वो सांवला पानी... सब कुछ... जैसे ही स्कूटी मुड़ी, यमुना का नज़ारा नज़रों से ओझल हो गया. मानो उसी नम रोएंदार सिंदूरी रंग ने उसे अपने भीतर समेट लिया हो. हम दोनों चुप थे. और हमारी उस गुनगुनी ख़ामोशी में केवल स्कूटी के पहियों का संगीत बज रहा था.   

उसने पूछा,‘‘पर... हम कॉफ़ी हाउस क्यों जा रहे हैं?’’

‘‘इसलिए जा रहे हैं, क्योंकि वहां की कॉफ़ी बहुत बढ़िया होती है और वहां एक अदद डिस्चार्ज फ़ोन को चार्ज भी किया जा सकता है. मालूम है, तुमने ऐसे अर्जेंट नोटिस पर बुलाया कि लगा पता नहीं क्या मसला है? तो देखो फ़ोन तक चार्ज नहीं कर पाई.’’

‘‘हां... तो उससे क्या? कोस तो लिया न मुझे पूरे आधा घंटे...’’

‘‘तुमको कैसे पता मैंने तुमको कोसा?’’ जवाब में वो मुस्कुरा दिया.

कुछ ही पलों बाद कॉफ़ी हाउस में हम कॉर्नर की टेबल पर जा बैठे. मैं जैसे ही बैग से अपना चार्जर निकालने लगी, उसने झट उसे छीनकर अपने बैग के हवाले कर दिया.

‘‘अरे ये क्या? फ़ोन डिस्चार्ज है मेरा...’’ मैं बोली?

वो हंसा,‘‘मालूम है...’’

‘‘तो दो न?’’

उसने कहा,‘‘नहीं...’’

‘‘क्यों नहीं?’’

जवाब में उसने मेरी कुर्सी के पीछे खड़े होकर एक सेल्फ़ी ली और बोला,‘‘बस नहीं दूंगा... अभी तो कम से कम नहीं.’’

मैं सोचने लगी कि ये बंदा भी न मुझे कभी समझ नहीं आने वाला. कभी एकदम से सुकरात टाइप बिहेव करता है, कभी एकदम सलमान टाइप. पूरे साल भर से जानती हूं इसे. कॉलेज के बेस्ट बडी हैं हम, पर कभी-कभी लगता है कि मैं इस बंदे को कभी नहीं जान पाऊंगी. ख़ैर, चार्जर हासिल करने की मैंने एक ओर कोशिश की. इस बार मिन्नत वाले मोड में,‘‘दे दो भई, प्लीज़.’’

‘‘क्यों?’’

मैंने झुंझलाकर कहा,‘‘क्या बचपना है ये? अब ये भी कोई सवाल हुआ, क्यों? अरे कोई ज़रूरी इन्फ़ॉर्मेशन हुई तो?’’

‘‘क्या ज़रूरी इन्फ़ॉर्मेशन हुई तो? फ़ेसबुक के लाइक्स या इंस्टाग्राम के फ़ोलोअर्स या व्हाट्सऐप के गुड मॉर्निंग-गुडनाइट मैसेजेज़?’’

‘‘कुछ भी हो उससे क्या? बहुत से बेकार मैसेजेज़ में कुछ अच्छे भी होते हैं कि नहीं?’’

‘‘होते हैं... माना. पर कुछ घंटे गैजेट्स से दूर रहोगी तो पिछड़ी हुई नहीं कहलाओगी. इन्फ़ॉर्मेशन का ये समंदर क्या हाथ लग गया हम सही-ग़लत, झूठ-सच, असली-नक़ली सब कुछ डाइजेस्ट करने लगे हैं... जानती हो सायकोलॉजिस्ट क्या कह रहे हैं?’’

मैंने पलटकर पूछा,‘‘क्या कह रहे हैं?’’

‘‘कह रहे हैं कि हम लोग गैजेट्स को गैजेट्स की तरह नहीं, एज़ अ ह्यूमन ट्रीट करने लगे हैं. असहज हो जाते हैं हम उनके बिना. अकेलापन फ़ील करते लगते हैं, पर जब कोई पास में हो, तो उसके होने को, साथ के उन गुनगुने पलों को हम फ़ील ही नहीं कर पाते और ज़िंदगी के जादू से भरे कितने ही पलों को यूं ही बीत जाने देते हैं. यूं ही... माने अन-नोटिस्ड.’’

मैंने ठोड़ी पर हाथ रखकर उसे घूरा,‘‘अच्छा, तो तुमको ये लगता है कि मुझे गैजेट्स का एडिक्शन है?’’

‘‘नहीं...’’ वो मुस्कुराया. फिर वही बुद्ध मुस्कान!

‘‘मुझे बस ये लगता है कि ये कुछ पल तुम इन गैजेट्स के साथ नहीं, मेरे साथ जियो.’’

मैंने चिढ़कर कहा,‘‘क्यों कुछ पलों बाद तुम मरने वाले हो?’’

‘‘नहीं... पर तुम्हें नहीं लगता कि मरने से बड़ा सवाल ये है कि हम जी रहे हैं या नहीं? जानती हो थिया मैं कई बार सच में यह सोचता हूं कि हम आगे बढ़ रहे हैं या पीछे छूट रहे हैं?’’
मैंने हाथ जोड़े,‘‘तुम्हारा तो पता नहीं, पर इस वक़्त तुम न तो मुझे आगे बढ़ने दे रहे हो न पीछे.’’

वो हंसा. धीमी सहज हंसी,‘‘अच्छा छोड़ो ये बताओ तुमने इस प्याला भर कॉफ़ी को जिया या नहीं?’’

मैं उसे देखने लगी,‘‘स्मैल द रोजेज़, स्मैल द कॉफ़ी. व्हाटएवर मेक्स यू हैप्पी...’’

जवाब में वो भी मुस्कुराया,‘‘अच्छा तो कॉफ़ी तो हो गई... अब गुलाबों की ओर चलें?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘तुमने ही तो कहा अभी-अभी... स्मैल द रोजेज़, स्मैल द कॉफ़ी. व्हाटएवर मेक्स यू हैप्पी...तो ये लो, ये रही तुम्हारी स्कूटी की चाबी और अब हम वहां जा रहे हैं, जहां शायद गुलाब भी हैं और ख़ुशी भी.’’

उफ़्फ़... पता नहीं इस सुकरात को आज हो क्या गया था? कैसी पहेलियां बुझा रहा था. एक तो वहां बंदरों के बीच बैठकर ग़ुस्से में उबलने से पहले ही मेरा दिमाग़ सेंटर से थोड़ा सरक गया था, उस पर ये दार्शनिक उसे पूरी तरह अपनी जगह से बेदख़ल कर देने पर उतारू था. मैं बोली,‘‘देखो वैसे भी तुम अक्सर सिर के ऊपर से निकल जाते हो, पर आज तो स्पेशली पल्ले नहीं पड़ रहे हो.’’

वो हंस पड़ा,‘‘तो ज़रूरत क्या है? मत समझो. तुम ना, बस कुछ पल के लिए अपनी ये सारी समझदारियां किसी पोटली में बांध के कहीं दूर पटक दो और अभी बस जियो... और सुनो एक-एक पल को जीना.’’ फिर बोला,‘‘अच्छा ज़रा उधर देखो... अरे पीछे नहीं आगे.’’

हम जहां बैठे थे, वहां सामने एक बड़ा-सा आईना था. उस आईने में हम थे. माने हमारे प्रतिबिंब. उसने कहा,‘‘देख रही हो... ये वर्तमान है. वो पल जिसमें हम-तुम हैं. ये पल हमेशा ऐसे ही नहीं रहेगा थिया. लेकिन जानती हो डूबकर जिया गया हर लम्हा कहीं जाता नहीं, वो हममें ही कहीं छूट जाता है.’’

उसकी इन बातों से जाने क्यों मुझे अजीब-सा लगने लगा. मैंने कहा,‘‘हे सुकरात... व्हाट्स रॉन्ग विद यू.’’

‘‘व्हाट्स रॉन्ग विद मी?’’ उसने मेरा सवाल मुझ पर ही थोप दिया, ऐसे जैसे मैंने कोई बड़ा भारी इल्ज़ाम लगा दिया हो. वो भी झूठा. बोला,‘‘फ़ोन की वजह से तुम परेशान हो और पूछ मुझसे रही हो व्हाट्स रॉन्ग विद यू?’’

मैंने भी कहा,‘‘मेरा चार्जर छीन के ख़ुद जाने क्या ज़िद लगाए पड़े हो और कह मुझसे रहे हो व्हाट्स रॉन्ग विद यू?’’

इस बीच उसने बिना कुछ बोले लगातार कई क्लिक कर डाले.

‘‘ये क्या किए जा रहे हो?’’

‘‘गॉड पार्टिकल का परीक्षण कर रहा हूं... अरे यार कैमरे से फ़ोटो ही खींचूंगा ना? ऐसे सिली सवालों की कम से कम तुमसे उम्मीद नहीं करता मैं?’’

मैंने कहा,‘‘लेकिन मैं तो तुमसे ऐसी ही अजीबोग़रीब हरक़तों की उम्मीद करती हूं... क्या करूं और कोई रास्ता नहीं हैं मेरे पास.’’ मैं फिर मिन्नत वाले मोड में आई,‘‘अरे यार क्यों सता रहे हो, लौटा भी दो मेरा चार्जर.’’

‘‘अच्छा ये लो.’’ उसने चार्जर निकालकर मेरी ओर बढ़ाया, लेकिन मैं जैसे ही लेने को हुई झट से वापस बैग में ठूंस लिया,‘‘नहीं... अभी नहीं...’’

वो लगातार बुद्ध मुस्कान फेंक रहा था, मेरी घूरती हुए आंखों में देखते हुए धीमे से बोला,‘‘प्लीज़...’’
लो फिर वही मारक मंत्र! चिढ़ को साइड में रख मैं मुस्कुरा दी,‘‘बाय द वे व्हाट इज़ दिस मिस्टीरियस साइड ऑफ़ यू? ये क्या सस्पेंस लगा रखा है सुकरात?’’

उसने पूछा,‘‘क्यों अच्छा नहीं लग रहा सस्पेंस?’’

उसने स्कूटी स्टार्ट कर दी. बोला,‘‘चलो बैठो... बैठोगी ना?’’

‘‘और कोई ऑप्शन है मेरे पास?’’ मैंने फिर कहा,‘‘अच्छा भई इतना तो बता दो कि हम जा कहां रहे हैं?’’

‘‘कहां जा रहे हैं... आं... टु बी ऑनेस्ट आय डोंट नो.’’

मैंने कहा,‘‘क्या? लेकिन क्यों?’’

वो बोला,‘‘क्योंकि ये ज़रूरी नहीं कि ज़िंदगी को हर बार प्लान बनाकर दौड़ाया जाए? थिया कई बार ज़िंदगी के सबसे अच्छे पल वे होते हैं, जिनकी आहट हम नहीं सुन पाते. समटाइम्स अनसीन इज़ द मोस्ट ब्यूटिफ़ुल थिंग टु बी सीन...’’ उसने एक गहरी सांस ली,‘‘दिस इज़ सो नाइस... सांसों में घुली ये हवा, आंखों में ठहरी ये शाम और मेरे पास बैठी हुए ये तुम...’’

मैंने कहा,‘‘तुम तो सच में बच्चों जैसा बिहेव कर रहे हो.’’

उसने चहककर कहा,‘‘मैं चाहता हूं कुछ पल के लिए तुम भी बच्ची बन जाओ.’’

‘‘नहीं भई... मुझे तो माफ़ ही करो तुम. पहले ही इतनी मुश्क़िल से तो बड़ी हुई हूं डांट खा-खा के, अब इतिहास नहीं दोहराना चाहती...’’

इस बात पर हम दोनों एक साथ हंसे. शहर की परिधि में दूर उस हरे जंगल में धंसते हुए हम वहां चले जा रहे थे, जहां ढलती शाम के बावजूद धरती का धानी रंग गहराया न था. उसने कदंब के घने पेड़ों के बीच ले जाकर स्कूटी रोक दी और ढेर सारी सेल्फ़ियां और फ़ोटो लेने के बाद बोला,‘‘इन पेड़ों को ग़ौर से देखो थिया जिनके बीच से होकर हम गुज़र रहे हैं. पहियों के इस संगीत को सुनो, जो हमारी रफ़्तार के संग लय बदलते हुए बज रहा है. इन लोगों को, इन नज़ारों को, इन आंखों को, इन मुस्कानों को, इन उदासियों को... हर चीज़ को जी लो. जी लो क्योंकि हर लम्हा बीत रहा है. कभी न लौटने के लिए बीत रहा है.’’

मिट्टी, खेत, धुआं और मूंगे जैसे रंग में खोया पूरा आलम. हम दोनों वहीं बैठ गए. लग रहा था, जैसे धरती हरे रंग में घुल गई हो. कहने को और भी अनेक लोग थे, पर उस ढलती शाम में साथ की धूप को इस तरह जीने वाले शायद हम ही थे.

सुकरात धीमे से बोला,‘‘तो कैसा लगा?’’

मैंने सामने देखा. जैसे न नीचे धरती हो न ऊपर आकाश. जैसे मैं... जैसे हम उस सांवलाती हुई सूरज की नारंगी रेख में समा गए थे. मैंने कहा,‘‘सम टाइम्स अनसीन इज़ द मोस्ट ब्यूटिफ़ुल थिंग टु बी सीन...’’

वो मुस्कुराया. हां, वही बुद्ध मुस्कान, बोला,‘‘तो ये लो अपना चार्जर...’’ साथ में स्कूटी की चाबी भी थी.

वे डूबकर जिये हुए पल थे. शायद इसलिए उस शाम का एक-एक पल मुझे याद रह गया... सबसे ज़्यादा उसका वो आख़िरी मैसेज जो व्हाट्सऐप पर मिला...
Would you like to know your future? If your answer is yes, think again. Not knowing is the greatest life motivator. So enjoy, endure and survive each moment as it comes to you in its proper sequence-a surprise.

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