कहानी: सर्प्राइज़
‘‘कहां चलें?’’ मंदिरा ने अरनब की ओर मुंह घुमाते हुए उल्लास से पूछा.
अरनब ने मंदिरा की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘जहां...तुम कहो.’’
वह बोली,‘‘आरू, तुम बताओ कहां जाना चाहिए?’’
‘‘जान! यू डिसाइड. यू आर द सुपरबॉस.’’ मंदिरा यह जवाब सुनते ही तिलमिला गई. ‘‘हमेशा मुझसे ही क्यों पूछते हो? ख़ुद कुछ डिसाइड क्यों नहीं करते?’’ ग़ुस्से में बोलते वक़्त जो सांसें गले में ही अटक गई थीं उन्हें जल्दबाज़ी में नाक से खींचते हुए वह अपनी अधूरी बात को पूरी करने लगी,‘‘तुम हर बार जान-बूझकर ऐसा करते हो, ताकि हर निर्णय सिर्फ़ मैं ही लूं और तुम्हें कुछ न सोचना पड़े.’’
अरनब, मंदिरा के ग़ुस्से को समझ गया था. उसे शांत करने के लिए उसने अपना बायां हाथ स्टेअरिंग से उठाकर मंदिरा के हाथ पर रख दिया. थोड़ी दूर गाड़ी चलने के बाद मंदिरा ने अपने ग़ुस्से को सहज ही शांत किया और फिर राजधानी होटल चलने का प्रस्ताव रख दिया. अरनब ने झट-से थर्ड गियर डाला और मुस्कुराते हुए गाड़ी तेज़ी-से बढ़ा दी.
मंदिरा को अरनब के फ़ैसले न लेने की आदत से बहुत चिढ़ थी. वह हमेशा उससे लड़ती कि कभी तो तुम कुछ डिसाइड किया करो, लेकिन अरनब होटल के मेन्यू से लेकर घुमने जाने की जगह तक सब मंदिरा को निश्चित करने के लिए कहता. कभी-कभार जब मंदिरा बहुत झल्लाती तो अरनब दो विकल्प देकर चर्चा शुरू करता. फिर मंदिरा की पसंद उसके मुंह से निकलवा लेता. इसके उलट मंदिरा को सर्प्राइज़ बहुत पसंद थे. वह हमेशा सोचती कि कभी तो अरनब अपनी पसंद से, अपनी सोच और समझ से उसके लिए कुछ करे. मंदिरा की चाहत के विपरीत अरनब जन्मदिन का तोहफ़ा तक उसे अपने साथ ले जाकर पसंद करवाकर ही ख़रीदता. मंदिरा उसे बार-बार कहती,‘‘आरू, तुम अपनी पसंद से मेरे लिए कुछ भी ले आओ. यक़ीन मानो वह चीज़ चाहे जो भी हो, जैसी भी हो मुझे पसंद आएगी. आई वांट यू टू थिंक अबाउट मी.’’ अरनब हर बार मंदिरा के समझाने पर सॉरी कहकर अगली बार इस बात का ध्यान रखने का वादा करता. दोनों गले लगते और दोनों के प्यार के बीच यह मामला कहीं पीछे छूट जाता. दरअसल अरनब बेहद सरल स्वभाव का था. गिफ्ट्स और सर्प्राइज़ेज़ के मामले में उसकी समझ बिल्कुल शून्य थी. मंदिरा हमेशा उसे छेड़ती,‘‘इंजीनियर साहब, कॉलेज में कभी कोई लड़की नहीं पटाई क्या?’’ अरनब भी मंदिरा की टांग खींचते हुए जवाब देता,‘‘अगर पटाना आता तो तुमसे शादी क्यों करता.’’ और दोनों ज़ोरदार ठहाके के साथ बात ख़त्म कर देते.
अरनब और मंदिरा की शादी को डेढ़ साल हो चुके थे. उनकी अरेंज्ड मैरिज थी. दोनों के बीच अच्छी समंजन होने की वजह से बहुत कम समय में वे एक-दूसरे के बेहद क़रीब आ गए थे. अरनब बेहद शांत स्वभाव का था. मंदिरा को भी अरनब से कोई ख़ास शिकायत नहीं थी, लेकिन अरनब हर छोटे-बड़े फ़ैसले के लिए मंदिरा पर ही निर्भर रहता था. जबकि मंदिरा अपनी सहेलियों के पतियों द्वारा दिए गए सर्प्राइज़ की तरह अरनब से भी वैसी ही उम्मीद रखती. रीना के पति ने उसे डिज़ाइनर बैग गिफ़्ट किया. कविता के मंगेतर ने उसके नाम का टैटू गुदवाया. वह इशारों ही इशारों में अरनब को अपने मन की बात समझाने की कोशिश करती. बार-बार अरनब को समझाने के बावजूद अपनी उम्मीदों को टूटते देख मंदिरा चिढ़ जाती थी. अरनब के हर छोटे-बड़े ख़ुशी के मौ़के पर मंदिरा उसकी पसंद के अनुसार उसे कुछ न कुछ सर्प्राइज़ ज़रूर देती. अरनब से छिपाकर उसके लिए कुछ न कुछ स्पेशल प्लैन करती. साथ ही उससे भी ऐसी ही कुछ उम्मीद रखती. लाख कहें की प्यार में उम्मीद नहीं होती, फिर भी हम हर रिश्ते से एक उम्मीद रखते हैं, जो पूरी न हो तो हमारे भीतर स्वभाविक रूप से ग़ुस्सा पैदा होता ही है.
हर संडे की तरह इस संडे भी डिनर के लिए दोनों बाहर जा रहे थे. गाड़ी में बैठते ही अरनब ने हमेशा की तरह पूछा,‘‘कहां चलना है? क्या खाने का मन है?’’ मंदिरा ने सहजता से उत्तर दिया, ‘‘जो तुम्हारा खाने का मन हो, वहां चलो.’’ अरनब ने ड्राइव करते-करते फिर से पूछा,‘‘जान! यू से...चाइनीज़, इंडियन या इटैलियन क्या खाने का मन है?’’
मंदिरा यह सुनते ही अपना आपा खो बैठी. अरनब की ओर ग़ुस्से से देखते हुए उसने अपनी आवाज़ चढ़ाकर कहा,‘‘मुझे कुछ नहीं खाना. गाड़ी घुमा लो. वापस घर चलो. बाहर खाने का प्लैन तुम्हारा था ना, फिर मुझसे क्यों पूछते हो?’’ अरनब ने हमेशा की तरह मंदिरा को शांत करने की कोशिश की. लेकिन मंदिरा का मन आहत हो चुका था. अरनब ने गाड़ी को सड़क के किनारे लगाकर मंदिरा को एकाध बार समझाने की कोशिश की. लेकिन मंदिरा बहुत दुखी हो गई थी. वह सिसक-सिसककर रोने लगी. किसी छोटे बच्चे की तरह जिसे न तो मनचाही चॉकलेट मिली हो और ना ही मिलने की उम्मीद बची हो. अरनब को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. उसने चुपचाप गाड़ी घर की तरफ़ मोड़ ली.
इस घटना के बाद मंदिरा बुझी-बुझी सी रहने लगी. अरनब के किसी भी साधारण से सवाल पर वह चिढ़ने लगी थी. अरनब बेहद असहाय महसूस कर रहा था. मंदिरा के मन को कुछ हद तक भांपने के बावजूद वह उसके अनुरूप चलने का रास्ता खोज नहीं पा रहा था. अरनब को प्रेमिका को खुश करने के दांव-पेंच नहीं आते थे. वह सीधे-सीधे प्यार के इज़हार में विश्वास करता था. यही बात मंदिरा को पसंद नहीं थी. उसे प्यार में दीवानगी और मस्ती का हल्का चटकारा लगाना लुभाता था. उस रात के बाद भी अरनब के कुछ न करने से उन दोनों के बीच तनाव रहने लगा. हफ्ता बीत गया. चंचल मंदिरा एकदम शांत और भावुक हो गई थी. हर छोटी-छोटी बात पर रोने लगती. घर का माहौल एकदम नीरस हो गया था. अरनब की समझ में नहीं आ रहा था कि वह ऐसा क्या करे कि मंदिरा फिर मुस्कराने लगे. इस बीच मंदिरा २-४ दिनों के लिए अपने मायके चली गई. अरनब ने भी सोचा शायद मम्मी से मिलने के बाद उसका मूड ठीक हो जाए.
अरनब का मन मंदिरा के बिना घर में बिल्कुल नहीं लग रहा था. वह रोज़ दोपहर उसे फ़ोन करता. मंदिरा खाने-पीने से जुड़े कुछ ज़रूरी सवाल कर, हाल-चाल पूछकर, अरनब के उत्तरों में बगैर किसी दिलचस्पी के फ़ोन रख देती. अरनब देर रात घर आता और सुबह जल्दी ही ऑफ़िस के लिए निकल जाता. मानो घर उसे काटने को दौड़ता था. मंदिरा को गए तीन दिन बीत चुके थे. वह रात को अपने कमरे में तकिए की आड़ में बैठकर फ़ोन पर मंदिरा की फ़ोटो देख रहा था. रह-रहकर एक से दूसरे फ़ोल्डर में उसके कई फ़ोटोज़ को स्लाइड करता रहा. इनमें अपने हनीमून की फ़ोटोज़ देखकर अरनब के गोरे चेहरे पर मुस्कान खिल गई. मंदिरा की याद अरनब को कचोटने लगी. वह जल्द से जल्द मंदिरा को अपनी बांहों में भरना चाहता था. उसकी हंसी की गूंज को कमरे में कंपित होते सुनना चाहता था. आख़िर वो मेरा इतना ख़्याल रखती है. मेरे हर फ़ैसले में साथ देती है. मैं क्यों उसे नहीं ख़ुश रख पा रहा? वो भी तो नहीं समझ पा रही. मेरी आदत में जो चीज़ है, मैं उसे ऐसे एक झटके में कैसे बदल सकता हूं. नहीं, शायद शी इज़ राइट. मुझे उसे समझने की कोशिश करनी होगी. मेरी एक आदत की वजह से ना जाने और कितने मुश्क़िलें हमारे बीच आएंगी. नहीं, मैं इससे पहले ही कु छ न कुछ ज़रूर करूंगा. उसने सोच लिया था कि मंदिरा के वापस आने के बाद वह उसे कुछ न कुछ सर्प्राइज़ ज़रूर देगा. अरनब ने निश्चय कर लिया कि कल ही वह मंदिरा को लेने उसके मां के घर जाएगा. उसे मनाकर घर लाएगा.
यहां लंबे समय बाद मंदिरा अपने मायके में थी. उसकी मां और भाभी ज़्यादा से ज़्यादा समय मंदिरा के साथ गुज़ारते. भाभी लतिका और उसकी उम्र में कोई ज़्यादा अंतर न था. दोनों का एक-दूसरे से दोस्ताना था. मंदिरा, भाभी को अपने और अरनब के झगड़े के बारे में बताना चाहती थी, लेकिन उसे लगा कि वे बेवजह परेशान होंगी और यदि उन्होंने ये बात भइया को बता दी तो मां को भी मालूम हो जाएगा. इसलिए वो चुप रही. एक दिन मंदिरा और लतिका दोपहर में बैठे बतिया रहे थे. लतिका उससे उसके भाई की खट्टी-मीठी बातें साझा कर रही थी. बीच-बीच में अरनब का नाम आया तो मंदिरा कहीं खो-सी गई. लतिका ने उसे छेड़ते हुए गुनगुना शुरू कर दिया,‘‘याद आ रही है, तेरी याद रही है...’’ मंदिरा मुस्कुरा दी. लतिका अपनी अलमारी जमाती जा रही थी और मंदिरा उसमें मदद कर रही थी. एक लाल रंग की सुंदर-सी वन पीस ड्रेस पर लतिका की निगाह पड़ी.
‘‘वॉव भाभी! वे तो बहुत प्यारी ड्रेस है,’’ मंदिरा ने उसे उलट-पलटकर देखते हुए कहा.
‘‘ड्रेस तो प्यारी है, लेकिन...’’
‘‘लेकिन क्या?’’
‘‘ये ड्रेस तुम्हारे भइया ने मुझे पिछले महीने मेरे बर्थडे पर सर्प्राइज़ गिफ़्ट दी थी. दो साल हो गए हमारी शादी को और उन्हें मेरा साइज़ भी पता नहीं है, ये मुझे आ ही नहीं रही है...’’ लतिका थोड़ी नाराज़गी से बोली,‘‘तुम्हारे भइया हमेशा मुझे सर्प्राइज़ देकर ख़ुश करना चाहते हैं और अक्सर मेरी पसंद का ध्यान रखे बिना चीज़ें ले आते हैं. फिर बाद में हर बार मैं उनके साथ जाकर चीज़ें बदलवाती हूं और अपनी पसंद की लाती हूं. कभी-कभी लगता है कि चीज़ों के मामले में मेरी पसंद समझ ही नहीं पाते.’’ उस ड्रेस को मंदिरा से लेकर अलमारी में रखते हुए लतिका और भी बहुत कुछ कहती रही मंदिरा से, पर उसे तो जैसे कुछ और सुनाई ही नहीं दे रहा था. वो सोच रही थी मैं कितनी बेवकूफ़ हूं. अरनब मेरी ख़ुशियों का कितना ख़्याल रखते हैं. मैं ये क्यों नहीं समझ पा रही कि उन्हें हर छोटी-बड़ी बात मेरे साथ डिस्कस करने की आदत है. मैं बेवजह ही एक ही बात पर अड़ी हुई हूं. लेकिन अरनब अब नहीं सीखेंगे तो कभी-भी वो फ़ैसले ख़ुद नहीं ले पाएंगे. पर वे कई ज़रूरी फ़ैसले तो ख़ुद ही लेते हैं...नहीं क्या? सिर्फ़ मुझसे जुड़े फ़ैसले नहीं लेते, शायद वो मुझे स्पेस देना चाहते हों...शायद उनका ख़्याल रखने का तरीक़ा ही ये हो.
‘‘कहां खो गई थी मैडम?’’ लतिका की आवाज़ ने उसे अपनी सोच से बाहर निकाला.
मंदिरा सकपका गई,‘‘अहह...कुछ नहीं वो...’’
मंदिरा को बीच में ही काटते हुए लतिका बोली,‘‘चलो, अब बाहर चलते है. वर्ना मम्मीजी सोचेंगी न जाने ये दोनों कितना बतिया रही हैं.’’
दूसरे दिन ऑफ़िस से जल्दी निकलकर अरनब सीधे मंदिरा के घर पहुंच गया. उसने मंदिरा को सुबह ही फ़ोन करके अपने आने की बात बता दी थी. चाय-नाश्ते और मंदिरा के माता-पिता और भाभी के साथ थोड़ी-बहुत गपशप के बाद मंदिरा ने अपने मायके से बिदाई ली. निकलते-निकलते सात बज चुके थे. अरनब ने पहले ही सोच लिया था कि वह मंदिरा की पसंदीदा जगह उसे मनाने के लिए ले जाएगा. वहां उससे माफ़ी मांगेगा. उसने मंदिरा के लिए गाड़ी में लाल गुलाब के फूलों का बुके तो पहले से ही छिपा रखा था. जो वह उसे मरीन ड्राइव पहुंचने के बाद देनेवाला था.
अरनब ने सभी से विदा लेकर गाड़ी स्टार्ट की और मंदिरा से बात करने की कोशिश करने लगा. मंदिरा ने बेमन से अरनब के सवालों का नपा-तुला जवाब दिया. दोनों के बीच औपचारिक बातें चलती रही. मंदिरा का ध्यान रास्ते की ओर गया. उसने कहा,‘‘ये हम किस रास्ते जा रहे हैं?’’ अरनब ने ड्राइव करते हुए शरारती मुस्कान के साथ कहा,‘‘क्यों, मैं जहां ले जाना चाहूंगा, वहां मेरे साथ नहीं चलोगी?’’ अरनब के जवाब को मंदिरा समझ नहीं पाई. वह कुछ सोच पाती उससे पहले अरनब बोल पड़ा,‘‘डोंट वरी जान...शादी के बाद तुम्हें कहीं भगाकर ले जाने का इरादा बिल्कुल नहीं है. ऐंड यू कैन ट्रस्ट मी. आख़िर मैं तुम्हारा पति हूं.’’ मंदिरा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. अरनब की बातों पर ज़्यादा ध्यान दिए बिना वह खिड़की की तरफ़ अपने चेहरे को मोड़कर बाहर सड़क की ओर देखने लगी. उसकी नज़रें भले ही सड़कों पर थीं, लेकिन उसका ध्यान बिल्कुल भी वहां नहीं था.
वह अरनब और अपने बीच आई दूरी के बारे में सोच रही थी सोचते-सोचते उसका मन गहन निराशा से भरता, उससे पहले ही अरनब ने एक झटके से ब्रेक लगाया और मंदिरा अपनी चेतना में वापस आई. उसे सामने डूबते सूरज का नज़ारा दिखाई दिया. वह अरनब की ओर मुड़ी. अरनब गाड़ी से उतरकर पार्किंगवाले को पैसे दे रहा था. मंदिरा ने ख़ुद को संभालते हुए अपना पर्स हाथ में लिया और जैसे उसने गाड़ी खोलने की कोशिश की अरनब बाहर से दरवाज़ा खोलकर उसके सामने खड़ा था. इससे पहले कि वह कुछ पूछती, अरनब गाड़ी की डिक्की की ओर चला गया. मंदिरा वहीं खड़ी होकर समंदर की ओर देखने लगी. लौटा तो उसके हाथों में सुंदर गुलाबोंवाला बुके था. एक हाथ में बुके और दूसरे में मंदिरा का हाथ थामे वह रेलिंग तक पहुंचा. मंदिरा को वहां बिठाकर उसने बुके मंदिरा की ओर बढ़ाया और ख़ुद उसके बगल में आकर बैठ गया. मंदिरा का हाथ थामकर बोला,‘‘आई एम सॉरी मंदिरा. आई रियली लव यू. प्लीज़ तुम मेरी मंदिरा को वापस बुला लो.
आई प्रॉमिस कि अब मैं कोशिश करूंगा कि सारे डिसिज़न मैं लूं. ख़ुद ही चीज़ें प्लैन करूं...’’ अरनब की बात पूरी होने से पहले ही मंदिरा की आंखों से आंसू बहने लगे...किसी ने कुछ नहीं कहा. मंदिरा ने अरनब के कंधे पर अपना सिर टिका दिया और एक-दूसरे का हाथ पकड़े वे लंबे समय तक लहरों को निहारते रहे. फिर पिछले तीन दिनों की एक-एक बात एक-दूसरे से शेयर की. अंधेरे का एहसास होते ही मंदिरा का ध्यान मोबाइल पर गया,‘‘ओह माई गॉड आठ बज चुके हैं. अब चलो, मिस्टर...वर्ना आज तुम्हारे सर्प्राइज़ के चक्कर में भूखे ही रहना पड़ेगा. मुझे घर चलकर खाना भी बनाना है.’’ अरनब ने मंदिरा के हाथों का सहारा लेकर खड़े होते हुए कहा,‘‘डोंट वरी जान... आज हम बाहर ही खाना खाएंगे.
होटल भी मैंने डिसाइड कर लिया है.’’ यह सुनते ही मंदिरा ने आंखें फैलाकर मुस्कुराते हुए कहा,‘‘आई एम सर्प्राइज़्ड. तुमने तो आज सच में दिल ख़ुश कर दिया.’’ अरनब ने गाड़ी एक चायनीज़ रेस्तरां के बाहर लगा दी. इसी बीच अरनब के किसी दोस्त का कॉल आ गया. मंदिरा को अंदर जाने का इशारा करते हुए वह बात करने बाहर ही रुक गया. बात ख़त्म कर वह अंदर पहुंचा और मंदिरा के पास बैठ गया. तभी वेटर ने मेन्यू कार्ड रखते हुए अरनब से ऑर्डर के लिए पूछा. अरनब ने आदतन मेन्यू मंदिरा की ओर बढ़ाया और बोला,‘‘जान यू डिसाइ...’’ यह बोलते ही उसके चेहरे पर घबराहट के भाव उपजे और वो मंदिरा की ओर देखने लगा. मंदिरा ने अरनब को घूर कर देखा और ठठाकर हंस पड़ी. अरनब भी उसकी इस हंसी में शामिल हो गया.
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