कहानी: मां जब काम पर जाती है

इस साल सिंहस्थ होने के बावजूद बहुत सारी शादियों में शामिल होने के निमंत्रण मिले हैं. ऐन वक़्त पर भूल न जाऊं इसलिए डायरी में सबकी तारीख़ें क्रमवार नोट करती जा रही हूं.

पुराने समय में उज्जैन और नासिक में बारह वर्ष में एक बार होनेवाले सिंहस्थ के दौरान गोदावरी नदी और शिप्रा नदी के मध्य क्षेत्र में शादियों के मुहूर्त नहीं रहते थे. पर अब ऐसा नहीं है. धड़ल्ले से शादियों के मुहूर्त निकलते हैं. अब तो लोग देव उठने का इंतज़ार भी नहीं करते.

हां, तो मैं आई हुई निमंत्रण पत्रिकाओं में से डायरी में नाम, तारीख़, समय और स्थान नोट करती जा रही थी, ताकि एक नज़र में जान सकूं कि कब और कहां जाना है. एक बार मुझे विशेष रूप से देखने में आई कि अधिकांश पाणिग्रहण संस्कार गोधूलि वेला में संपन्न होनेवाले हैं, क्योंकि यह स्वयंसिद्ध मुहूर्त होता है.

गोधूलि वेला के बारे में सोचते ही मन हमेशा उस अतीत में दौड़ जाता है, जब मैंने स्वयं इस वेला में एक नए संसार में पदार्पण किया था, जब विवाह के मंडप के नीचे समवेत स्वर में उच्चारित मंगलाष्टक के श्लोक गूंज रहे थे. अग्नि की साक्षी में लिए गए सात फेरे और पति के साथ दोहराए गए सप्तवचन भी याद आते हैं. उस समय भी उज्जैन में सिंहस्थ का अंतिम शाही स्नान संपन्न हुआ था.

साथ ही बड़ी शिद्दत से याद आती है उस बात की, जब गोधूलि वेला में शुभलग्न संपन्न कराने के बाद पंडितजी ने एक रस्म के बतौर हमें आदेश दिया था,‘‘अब नव वर-वधू बाहर जाकर आसमान में अरुंधति के तारे का दर्शन करेंगे. विवाह के बाद अरुंधति के तारे का दर्शन अखंड दाम्पत्य का प्रतीक होता है.’’ मैं पति के उत्तरीय से गठबंधन में बंधी हुई उनके पीछे-पीछे बाहर आंगन में आई. गहराते सलेटी आसमान में छिटपुट तारे झिलमिलाने शुरू हुए थे. मैंने अंदाज़ा लगाया, हम शायद पूर्व दिशा की ओर मुंह करके खड़े थे. पति ने आकाश में तर्जनी से इंगित कर कहा,‘‘इतने तारों के बीच अरुंधति का तारा कौन-सा है. अपने आप छांट लो और दर्शन करो.’’

मैं नववधू थी. मुझे उन्हें टोकना नहीं चाहिए था फिर भी मैं अपनी हंसी नहीं रोक पाई. मैंने कहा,‘‘सुनोजी, पूर्व दिशा में अरुंधति का तारा कहां से लाओगे? क्या इतना भी नहीं मालूम कि सप्तर्षि के तारे,जो उत्तर दिशा में होते हैं और उनके साथ नन्हा-सा टिमटिमाता तारा अरुंधति का होता है, जो सप्तर्षि में से एक ऋषि वशिष्ठ की पत्नी थीं.’’
‘‘मैं ठहरा साहित्य का विद्यार्थी. मैं धरती पर विचरता हूं, आकाश में नहीं. मुझे तारामंडल का कोई ज्ञान नहीं है. मैं तो बस इतना ही जानता हूं कि आज मेरे पहलू में चांद ज़रूर उतर आया है,’’ उन्होंने मेरे कान में फुसफुसाकर कहा था. बस, ये शब्द ही मुझे गुदगुदाने के लिए काफ़ी थे. इतना सुनकर ही अखंड दाम्पत्य के प्रतीक अरुंधति के तारे के दर्शन अपने अन्तर्मन के आकाश में करना सार्थक हो गया.

उस गोधूलि वेला में संपन्न अपने विवाह की स्मृति जीवनभर के लिए हृदयपटल पर अंकित हो गई. उसके बाद मैंने कई बार अपने जीवनसाथी को उत्तरदिशा में सप्तर्षि तारों के पार्श्व में स्थित अरुंधति के तारे के दर्शन कराए हैं, परंतु उस दिन उनके पहलू में उतरा यह चांद वक़्त के थपेड़ों में अपनी कलाओं में घटता रहा, बढ़ता रहा, कई बार उस चंद्र को ग्रहण भी लगा और कई बार शरद पूर्णिमाएं भी आईं और गईं. फिर भी मन के किसी कोने में बसी उस गोधूलि वेला की स्मृति आज भी अमिट है.

वैसे सच तो यह है कि आज शहरों की सिमेन्टीकृत सड़कों और उसपर दौड़ते हुए वाहनों की भीड़ में गोधूलि वेला का वास्तविक अर्थ और सौंदर्य न जाने कहां खो गया है. हर किसी को कहीं न कहीं पहुंचने की जल्दी और चौराहों के रेड सिग्नल पर रुके अनगिनत वाहनों की कतारों से निकलता डीजल-पेट्रोल का कड़वा धुंआ अनचाहे ही फेफड़ों में उतारने को अभिशप्त मन आज भी उस गोधूलि को ढूंढ़ता है.

ख़ैर, गोधूलि का मनोहारी दृश्य तो गांवों में ही देखने को मिलता था, जब हम छुट्टियों में ननिहाल जाते थे. पर बचपन में एक प्रश्न मुझे हमेशा मथता था कि संझाकाल को ही गोधूलि वेला क्यों कहते हैं. गाएं जब सुबह झुंड में जंगल की ओर चरने जाती हैं, उस समय भी उनके खुरों से धूल तो उड़ती ही है फिर उस समय को गोधूलि वेला क्यों नहीं कहते?

नानी से पूछा तो वे मेरी मूर्खता पर हंस पड़ी,‘‘अरे बुद्धू, इतना भी नहीं समझती? आज ध्यान से देखना, जब गाएं सुबह चरने के लिए जंगल जाती हैं, तब वे अपने नन्हे-नन्हे छौनों को भरपेट दूध पिलाकर, जंगल में चरने के लिए आराम से जाती हैं. इसलिए उस समय ऐसी धूल नहीं उड़ती है. पर शाम को घर लौटते समय, अपने भूख से बेहाल नन्हे छौनों की याद उन्हें ऐसा विह्वल, अधीर कर देती है कि वे गले में बंधी घंटियों को बेसब्री से टुनटुनाते हुए, एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ मचाती हुई घरों की ओर दौड़ लगाती हैं. तब उनके खुरों के आघात से गांव की कच्ची सड़कों पर धूल का अंबार छाने लगता है इसलिए इसे गोधूलि कहते हैं. गाय के खुरोंके स्पर्श से यह धूल भी इतनी पवित्र हो जाती है कि इसे धूल न कहकर रज कहकर, गोरज नाम भी दिया गया है.

उस समय गोधूलि से जुड़ा यह भावनात्मक अर्थ मेरी बाल बुद्धि में स्पष्ट नहीं हुआ था. पर बहुत बाद में, तब समझ में आया, जब मेटर्निटी लीव ख़त्म होने पर तीन महीने की नन्ही किन्नी को घर छोड़कर नौकरी पर जाना पड़ा. सुबह उसे नहला धुलाकर, दूध पिलाकर, सासू मां के पास छोड़कर जाते समय दिमाग़ में समय पर, ऑफ़िस पहुंचने की जल्दी, ताकि रोज़-रोज़ बॉस की डांट न सुननी पड़े, साथ ही ऑफ़िस के कामों से संबंधित विचार चक्र तेज़ी से घूमता रहता था. फिर सारा दिन ऑफ़िस के कामों को निपटाते हुए निकल जाता.
पर शाम होते न होते दिमाग़ की एक दूसरी ही खिड़की खुल जाती. आंखों के सामने अबोध किन्नी का भोला-सा मुखड़ा कौंधने लगता. बस, उस समय मेरे अंदर पूंछ फटकारती, घर की ओर विह्वल होकर दौड़ती गाय बेसब्री से रंगाने लगती थी. उस वक़्त बस यही सोचती थी कि राह में आई हर बाधा को लांघकर किसी तरह पलभर में अपने छौने के पास पहुंच कर उसे अपने सीने से लगा लूं. उस समय गोधूलि का वास्तविक अर्थ बहुत गहराई से मेरे अंन्तस्थल में समा गया था.

यह सिलसिला अनवरत चलता रहा और आगे न जाने कितने सालों चलता रहनेवाला था. तीन साल बाद मिन्नी हुई और फिर तो हर शाम घर लौटते समय अपनी दोनों बेटियों के पास पहुंचने की बेहाली में मेरे अंदर गोधूलि के समय घर की ओर दौड़ लगाती गाय रंभाती रही.

बस, किसी तरह एक-एक दिन गुज़रता रहा. किन्नी-मिन्नी बड़ी हो रही थीं. अब सासू मां भी नहीं रहीं. किन्नी आठवीं क्लास में पढ़ रही थी और मिन्नी छठी में. स्कूल सेआते समय दोनों बहनें बस से सोसायटी के गेट पर उतर जातीं. पास-पड़ोस भी बहुत अच्छे मिले. वे भी दोनों का ध्यान रखते थे.

मेरी आदत थी कि रोज़ घर से निकलने के पहले दोनों बेटियों के लिए कोई न कोई मैसेज क्लिप बोर्ड पर लगा देती थी, जैसे-‘आज गाजर का हलवा या खीर बनाई है. रायता फ्रिज में रखा है. सब्ज़ी गर्म कर लेना. दूध पी लेना. होमवर्क कर लेना. लव यू. बाय. शाम को मिलते हैं.’. प्राय: मैसेज खाने-पीने संबंधी हिदायतों के होते थे.

एक दिन घर से निकलने के पहले जैसे ही क्लिप बोर्ड पर मैसेज लगाने लगी तो देखा वहां पहले से ही एक मैसेज मेरे लिए लिखा था. किन्नी ने लिखा था,‘ममा, हमारे पेट की चिंता मत किया करो. हमारे दिल की भी सुनो. रोज़ स्कूल बैग से चाबी निकालकर, घर का ताला खोलकर सूने घर में घुसना हमें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता.

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दरवाज़ा खोलकर तुम हमें रिसीव करो, फिर प्यार से खाना गरम करके हमें परोसो. ममा, क्या ऐसा नहीं हो सकता?’

पढ़ते-पढ़ते ही मेरी आंखें बरसने लगीं. ये बेबसी के आंसू थे. पति-पत्नी दोनों को मिलकर गृहस्थी की गाड़ी खींचने की बेबसी. इस नौकरी से इनकी उच्च शिक्षा का सपना साकार हो सकेगा. फिर एक दिन किन्नी, मिन्नी मेरा घोंसला सूना करके अपने-अपने नीड़ का निर्माण करने अलग-अलग दिशाओं में उड़ जाएंगी. किसी कॉरपोरेट सेक्टर मेंजॉब करेंगी (जहां जाने का समय तो निर्धारित रहता है, पर घर लौटने का नहीं) और तब इनकी भी कोई नन्ही-सी जान पलक बिछाए किसी क्रैश में या किसी नैनी के भरोसे इनकी राह तकेगीऔर तब गोधूलि वेला में आज मेरे अंदर रंभा रही गाय तब इनके अंदर दौड़ेगी. तब घर लौटने की बेसब्री और उत्कंठा से इन्हें भी ऐसे ही रूबरू होना पड़ेगा, जैसे आज मैं हो रही हूं. समय चक्र तो ऐसे ही चलेगा और चलता रहेगा. यह गोधूलि हर कामकाजी मां की नियति है.

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