कहानी: अर्हम

कार्तिक पूर्णिमा की उज्ज्वल रात, गंगा के वक्षस्थल पर आस्था, प्रेम, समर्पण और भक्ति से भरे दोनों के बीच प्रज्वलित तैरते हुए अनगिनत दिये. असंख्य दियों से जगमगाते हरिद्वार के घाट. नदी की बीच धारा में जाकर उसने आसमान को गले लगाया. अचानक ज़ोर-ज़ोर से शंख, घंटों, घड़ियालों की सुमधुर ध्वनि से गंगा के घाट कम्पित होने लगे. दसों दिशाओं में आरती की पवित्र अनुगूंज गूंजने लगी. परंतु एलिस को महज़ एक फुसफुसाहट सुनाई दी.

‘अकेले में अस्तित्व की खोज बेहतर होती है या फिर अकेले में ही होती है. किस से भागकर तुम भारत भाग रही हो? मुझसे? अपने आप से या उस ऐश्वर्य से, जिससे तुम अब ऊब चुकी हो?’ कोई अनबोला शब्द, कोई अनकहा एहसास आकाश की नीरवता में खो गया.  

अचानक उसके पैर से आकर किसी मृत महिला की साड़ी टकराई और उसी के साथ लौट आई उसकी चेतना. पानी से निकलकर वह घाट की सीढ़ी पर बैठ गई. सन्नाटे और अकेलेपन की गहरी पदचाप सुनाई दी उसे.

कितनी रंगीनियों से भरपूर जीवन जिया है उसने, जहां आध्यात्म के लिए कोई जगह नहीं थी. थी तो सिर्फ़ अल्हड़ता, उमंग, जोश, कलरव और मस्तियां. चिड़ियों की आवाज़ निकालना कोई उससे सीखे. वन्य हिरणी-सी वह जंगलों में भागती रहती.

अमेरिका में एक चिड़िया होती है रॉबिन. हूबहू उसकी आवाज़ निकालती थी एलिस. जब वह रॉबिन की आवाज़ निकालती तो देखते-देखते अनगिनत चिड़िया उसके पास आकर चहचहाने लगतीं. यह उसका रोज़ का क्रम बन गया था. वह चिड़ियों की आवाज़ निकालती और उसके चारों तरफ़ जैसे नीलिमा छा जाती. नीले रंग की चिड़िया उसके पास आकर ऐसे बोलतीं, जैसे उसकी बात का उत्तर दे रही हों.


उसी बगीचे की एक बेंच पर बैठकर एक और व्यक्ति मंत्रमुग्ध होकर उसकी ध्वनि सुनता है, उसे पता ही न था और जब उसे पता चला, उसका सुमधुर गान उसके कंठ में ही अटककर रह गया.

धीरे-धीरे मौसम बदला, मेपल के पीले पत्ते लाल होने लगे और उसी के साथ एलिस के गालों का रंग भी. उस बेंच पर बैठे हुए इवान को देखते-देखते उसे इवान से प्यार हो गया. वह भागती रही इवान के पीछे, इवान भागता रहा औरों के पीछे.

‘‘मैं तुमसे प्यार करती हूं.’’

‘‘मैं भी तो.’’

‘‘सिर्फ़ मुझसे तो नहीं!’’

‘‘सिर्फ़ तुमसे.’’

‘‘तो वह सब क्या है, जो मैं देखती हूं.’’

‘‘अय्याशी, यहां यह सब चलता है एलिस, ये तुम भी जानती हो. ये कोई भारत नहीं है, जहां सिर्फ़ एक से ही जुड़कर रहते हैं. भारत यानी यम-नियम, योग, साधना, तप, जप, साधु-संतों से भरा हुआ देश.’’

‘‘तुम गए हो कभी भारत?’’

‘‘हां, दो बार. अच्छा छोड़ो यह सब. मैं सबकुछ छोड़ दूंगा, सिर्फ़ तुम्हारा बन कर रहूंगा, बस एक वादा करो.’’


‘‘क्या?’’ उसकी आंखें जलते दियों-सी दिपदिपा उठीं.

‘‘मुझे भी रॉबिन की आवाज़ निकालना सिखा दो.’’

‘‘क्या करोगे तुम, एक चिड़िया की आवाज़ सीखकर?’’

‘‘व्यापार. एक साथ इतनी चिड़िया जब तुम्हारे बुलाने से इकट्ठी हो जाती हैं तो जब मैं बुलाऊंगा तब भी आएंगी ना! सोचो जब उनको पकड़कर बेचूंगा तो कितना धन मिलेगा. ज़्यादा कुछ करे-धरे मैं पैसेवाला
बन जाऊंगा.’’

जैसे किसी ने एलिस को पहाड़ की चोटी पर से ज़ोर से धक्का दे दिया हो.

‘इवान, इवान क्या कह रहे हो तुम? इतनी सुंदर, मासूम, आज़ाद चिड़ियों का व्यापार करोगे तुम? और इस काम के लिए मुझसे मेरे जीवन की अनमोल धरोहर मांग रहे हो?’

असंख्य प्रश्न एलिस के मन में कुलबुलाने लगे. जिनके उत्तर देते-देते वह निढाल हो गई.

मेपल के पत्ते भूरे होने लगे. भूरे होते-होते सूखकर नीचे गिर पड़े. उसी के साथ उसका प्यार भी. एलिस ने इवान से प्यार किया था, पर सौदा न कर सकी. भाग गई वह. भाग गई अपने अंतर का विस्तार करने, अपनी आत्मा में चल रहे अनसुलझे प्रश्नों को सुलझाने.

भाग आई वह वहां, जहां योग, साधना, तप से इंसान देवता को भी अपने वश में करने की ताक़त रखता है. जहां सहानुभूति, दया, त्याग ये गुण इंसान के पर्याय हैं. भाग आई वह खुली सांस लेने वृंदावन, कृष्ण की मीरा बनने, पर क्या पा सकी अपने प्रश्नों के उत्तर? बन सकी कृष्ण की मीरा? कर सकी आत्मा से परमात्मा को एकाकार?

वह इवान को छोड़कर भाग आई थी, यहां तो पग-पग पर साधुओं के वेश में असंख्य इवान बैठे थे. लालची, कुटिल, कामी, कुत्सित, व्यभिचारी. बंगाल की विधवाओं के साथ होते हुए अनैतिक आचरण को देखकर वह कांप उठी थी. भाग गई वहां से भी. कहां-कहां न भटकी-बनारस, उज्जैन, नासिक. कहीं चित्त को ठौर न मिला. अंत में पहुंची ऋषिकेश. गंगा की उछलती, किलकती लहरों के सानिध्य में उसका मन शांत हो गया. लगा बस यही है वह देवभूमि, जहां उसे उसके प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा. जिस आश्रम में रुकी, वहां उसे गुरु के रूप में मिले अस्सी बरस के स्वामी आत्मस्वरूपानंदजी. आध्यात्मिकता की दीप्ति से दिपदिपाती, गहन विचारों में डूबी आंखें, रेशम-सी सफ़ेद दाढ़ी और बाल. उनका पूरा व्यक्तित्व ही जैसे परमात्मामय था.


अब वह एलिस नहीं, वैष्णवी माया थी. ये उसके गुरु का दिया नाम था. माया अब आश्रम की वन्य-हिरणी थी, जहां उसे न किसी का भय था और न कोई मोह शेष रहा था. गुरु के सानिध्य में सराबोर उसके दिन गुज़र रहे थे. सबकुछ नहीं, पर बहुत कुछ पा चुकी थी माया. मोह-माया, वासना से परे प्रभु के प्रेमरस में डुबकियां लगा रही थी. दस सालों में एक अनोखे तेज से उसकी आत्मा देदीप्यमान हो चुकी थी. अमेरिका, इवान, सुख-संपत्ति, ऐश्वर्य की चमक आत्मा की ज्योति के सामने धुंधली पड़ चुकी थी. बस चिड़ियों को देखकर उसे रॉबिन की याद कभी-कभी आ जाती.

फिर क्या हुआ, जो आज उसे गंगा की शरण में, उसकी गोद में समा जाने की प्रबल इच्छा हो आई?

बहुत दिनों से स्वामीजी की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. रात-दिन उनके आसपास आश्रमवासी भजन-कीर्तन करते रहते. किसी भी समय प्रकाश पुंज धूम्र-रेखा में विलीन हो सकता था. आश्रम के एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई वह मौलश्री के छोटे-छोटे फूल न जाने किन विचारों में खोई हुई बीन रही थी. संध्या घनीभूत हो रही थी. दूर किसी मंदिर में शंख की पावन ध्वनि गूंजी और मंत्रमुग्ध-सी वह स्वामीजी की कुटिया की तरफ़ बढ़ी. किसी भी समय स्वामी महाप्रयाण कर जाएंगे और वह अकेली रह जाएगी. बच्चे की तरह जिन्होंने उसकी देखभाल की, साधना-पथ का मार्ग दिखाया, उसके जीवन को एक नई दिशा दी. विदा के क्षणों में उनसे कुछ कहने को उसका मन मचलने लगा. स्वामीजी शांतचित्त धरती पर लेटे हुए थे. घुटनों के बल बैठकर माया ने धीरे से उनके शीतल ललाट को छुआ. गहरी पलकें उठीं, सम्मोहनपूर्ण दृष्टि से उन्होंने उसे देखा. दो आंसू पलकों की कोरों से फिसले और उन्होंने धीरे से माया की कलाई थाम ली.

‘‘दस साल में तुम मोह-माया के चक्र में से निकलकर परमात्मा के निकट होती गईं और मैं तुम्हारा दास बनकर दलदल में धंसता गया. तुम्हारा गोरा गुलाबी रंग, मक्खन-सी काया, सुनहरे बाल, गहरी नीली समुद्र-सी आंखों में मैं डूब गया. दिन-प्रतिदिन मेरी भक्ति क्षीण होती गई और मैं... सुनो राधे.’’

राधे? जैसे तप्त जलता अंगारा किसी ने उसके दिल पर रख दिया हो. आगे वह कुछ न कह सकी और भाग आई गंगा के सान्निध्य में. ख़त्म कर देगी इस देह को. यदि वह साड़ी आकर उससे न टकराती तो आज उसने भी जल-समाधि ले ली होती.

आश्रम से आती हरि-बोल, हरि-बोल की ध्वनि सुनकर वह समझ गई कि दिया बुझ चुका था. उन्होंने उसे जो समझा हो, उसने तो उन्हें गुरु माना था. अश्रुओं के पावन जल से उसने तट पर खड़े-खड़े ही श्रद्धांजलि दी.

एक पल में सारा जीवन चक्र आंखों में साकार हो उठा. अमेरिका, बड़ा-सा घर, ऐश्वर्य में डूबा बचपन, जवानी, जंगल, रॉबिन पक्षी, इवान, पहला प्यार, वृंदावन, उज्जैन, नासिक, ऋषिकेश... क्या करे अब वापस चली जाए अमेरिका? इवान अब भी उसका रास्ता देख रहा होगा या फिर अभी भी बहुत कुछ बाक़ी रह गया है, उसे पाने के लिए? चली जाए हरे कृष्णा आश्रम? किसी ने कहा था, आश्रम में एक बहुत बड़े ज्ञानी संत हैं, किसी से बात नहीं करते, पर उनका सान्निध्य ही तेजस्वपूर्ण है. एक बार तो मिलेगी माया. फिर सोचेगी क्या करना है? इवान के पास लौटेगी या यहीं रुकेगी और कौन जाने इवान अब होगा भी या नहीं?

घाट पर बैठे-बैठे बहुत देर हुई. चलने के लिए जैसे ही उसने क़दम बढ़ाए माया ने देखा, दूर एक सन्यासी उसकी ओर पीठ करके कुछ जप रहा है. संवेदना में भीगा ऐसा स्वर, जैसे उज्ज्वल, धवल पहाड़ी नदी रेशा-रेशा सब घायल करती हुई वेदना के प्रपात के रूप में टूट पड़ी हो. पास खड़े व्यक्ति से उसने पूछा,‘‘कौन हैं यह?’’


‘‘अरे, इन्हें नहीं जानती? कृष्णा आश्रम के गौर चैतन्य स्वामी.’’

ओह, जिन्हें इतने समय से खोज रही थी आज अनायास उसके सामने ही हैं. पकड़ लेगी इस क्षण को माया, जाने न देगी. उसके गुरु कहते थे,‘जब, जिस पल कोई सुनहरा पल तुम्हारे सामने आकर खड़ा हो जाए, उसे जाने न देना माया, छूट गया तो वापस नहीं आएगा. भटकाव की आशंका भी बढ़ जाती है.’

धीरे क़दमों से वह उनके निकट पहुंची. पीछे खड़े रहकर उसने मंत्रों के अस्पष्ट स्वरों को सुनने की चेष्टा की. ध्यान से सुनने पर वह उस स्वर को पहचान गई. उससे तो माया का बचपन का नाता था. ये मंत्र नहीं रॉबिन की चहचहाट थी. भागकर वह उसके सामने पहुंची. शून्य नेत्रों में पहचान का एक भी चिन्ह लिए बिना उसके सामने इवान खड़ा था, परम पूज्य स्वामी चैतन्य गौर महाराज के रूप में.

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