कहानी: जिंदगी

पटना का गांधी मैदान. ‘‘हां, यही तो बोला था महेंद्र ने,’’ वह ट्रेन से उतर कर बुदबुदाया.

मंगरू पहली बार पटना आया था. महेंद्र ने उसे गांव में समझाया था, ‘देख मंगरू, दिनभर ठेला ले कर घूमते हुए 500 रुपए कमाते हो तुम. और यहां तो खाली घूमनेफिरने के 500 रुपए मिल रहे हैं. चायनाश्ते और खाने का भी बढि़या इंतजाम है. मतलब, जेब से कुछ खर्च नहीं, फोकट में घूमना हो जाएगा. बस, पार्टी का झंडा भर साथ में ले कर चलना है. मंत्रीजी के प्रताप से मुफ्त में रेलगाड़ी में जाना है.’

मंगरू कुछ कहता, उस से पहले महेंद्र ने उस के कान में मंत्र फूंका था, ‘लगे हाथ किशना से भी मिल लेना. सुना है, गांधी मैदान में कोई होटल खोले बैठा है.’

बात तो ठीक थी. कितने दिन से मंगरू का मन कर रहा था कि बेटे किशना से मिल आए. मगर मौका ही हाथ नहीं लग रहा था, इसलिए वह नेताजी की रैली में शामिल होने के लिए तैयार हो गया था.


गाड़ी से उतरते वक्त मंगरू ने जेब में से परची निकाल कर देखी. हां, यही तो पता दिया था किशना का. मगर टे्रन कमबख्त इतनी लेट थी कि दोपहर के बजाय रात 7 बजे पटना स्टेशन पहुंची थी. अब इस समय उसे कहां खोजेगा वह कि उस की जेब में रखा मोबाइल फोन घनघनाने लगा.

मंगरू ने लपक कर मोबाइल फोन निकाला और तकरीबन चिल्लाने वाले अंदाज में बोला, ‘‘हां बबुआ, स्टेशन पहुंच गया हूं. अब कहां जाना है?’’

‘स्टेशन से बाहर निकल कर आटोस्टैंड पर आ जाइए,’ किशना बोल रहा था, ‘वहीं से गांधी मैदान के लिए आटोरिकशा पकड़ लेना. 5 मिनट में पहुंचा देगा.’

अपना झोला, लाठी और पोटली संभाल कर मंगरू बाहर निकला. बाहर रेलवे स्टेशन दूधिया रोशनी से नहाया हुआ था. हजारोंलाखों की भीड़ इधरउधर आजा रही थी. उस ने झोले को खोल कर देखा. पार्टी का झंडा सहीसलामत था. एक जोड़ी कपड़ा, गमछा और चनेचबेने भी ठीकठाक थे. किशना की मां ने कुछ पकवान बना कर उस के लिए बांध कर रख दिए थे.

आटोरिकशा में बैठा मंगरू आंख फाड़े भागतीदौड़ती, खरीदारी करती, खातीपीती भीड़ को देखता रहा कि ड्राइवर ने उसे टोका, ‘‘आ गया गांधी मैदान. उतरिए न बाबा.’’

आटोस्टैंड की दूसरी तरफ गांधी मैदान के विशाल परिसर को उस ने नजर भर निहारा, ‘बाप रे,’ इतना बड़ा मैदान. बेटे किशना का होटल किधर होगा.’

एक बार फिर मोबाइल घनघनाया, ‘हां, आप गेट के पास ही खड़े रहिए…’ किशना बोल रहा था, ‘मैं आप को लेने वहीं आ रहा हूं.’

मंगरू मैदान के किनारे लोहे के विशाल फाटक के पास खड़ा ही था कि उसे किशना आता दिखा. उसे देख वह लपक कर उस के पास पहुंचा. पैर छूने के बाद किशना ने उसी मैदान में रखी हुई एक बैंच पर बिठा दिया.

‘‘कहां है तुम्हारा होटल?’’ अधीर सा होते हुए मंगरू बोला, ‘‘बहुत मन कर रहा है तुम्हारा होटल देखने का.’’

‘‘वह भी देख लीजिएगा,’’ किशना कुछ बुझे स्वर में बोला, ‘‘चलिए, पहले कुछ चायनाश्ता तो करवा दूं आप को.

‘‘और हां, वह रहा आप की पार्टी का पंडाल. सुना है, तकरीबन 20 लाख रुपए खर्च हुए हैं पंडाल बनाने में. भोजनपानी और रहने का अच्छा इंतजाम है.’’

एक जगह पूरीसब्जी का नाश्ता करा और चाय पिला कर किशना बोला, ‘‘अब चलिए आप को पंडाल दिखा दूं.’’

‘‘अरे, रात में तो वहीं रहना है…’’ मंगरू जोश में था, ‘‘आखिर उसी के लिए तो आया हूं. बाकी तुम्हारा गांधी मैदान बहुत बड़ा है.’’

‘‘शहर भी तो बहुत बड़ा है बाऊजी,’’ किशना बिना लागलपेट के बोला, ‘‘इस शहर में ढेरों मैदान हैं. मगर उन में रात के 10 बजे के बाद कोई नहीं रह सकता. पुलिस पहरा देती है. भगा देती है लोगों को.’’

‘‘देखो, तुम्हारी माई ने तुम्हारे खाने के लिए कुछ भेजा?है…’’ मंगरू झोले में से पोटली निकालते हुए बोला, ‘‘वह तो थोड़े चावलदाल भी दे रही थी कि लड़का कुछ दिन घर का अनाज पा लेगा. लेकिन मैं ने ही मना कर दिया कि इसे ढो कर कौन ले जाए.’’

‘‘अच्छा किया आप ने जो नहीं लाए…’’ किशना की आवाज में लड़खड़ाहट सी थी, ‘‘यह शहर है. यहां सबकुछ मिलता है. बस, खरीदने की औकात होनी चाहिए.’’


‘‘सब ठीक चल रहा है न?’’

‘‘सब ठीक चल रहा है. कमाई भी ठीकठाक हो जाती है.’’

‘‘तभी तो हर महीने 2-3 हजार रुपए भेज देते हो.’’

‘‘भेजना ही है. अपना घर मजबूत रहेगा, तो हम बाहर भी मजबूत रहेंगे. जो काम मिला, वही कर रहा हूं. बाकी नौकरी कहां मिलती है.’’

‘‘अरे, यह क्या,’’ मंगरू चौंका. एक ठेले के पास 2-4 लड़के कुछकुछ काम कर रहे थे और वहां ग्राहकों की भीड़ लगी थी. एक कड़ाही में पूरी या भटूरे तल रहा था. दूसरा उन्हें प्लेटों में छोले, अचार और नमकमिर्चप्याज के साथ ग्राहकों को दे रहा था. तीसरा जूठे बरतनों को धोने में लगा था, जबकि चौथा रुपएपैसे का लेनदेन कर रहा था. इधर एक तरफ से अनेक ठेलों की लाइनें लगी हुई थीं, जिन पर इडलीडोसा, लिट्टीचोखा, चाटपकौड़े, मोमो, मैगी, अंडेआमलेट और जाने क्या कुछ बिक रहा था.

‘‘यही है हमारा होटल बाऊजी…’’ फीकी हंसी हंसते हुए किशना बोल रहा था, ‘‘ठेके के साइड में पढि़ए. लिखा

है ‘किशन छोलाभटूरा स्टौल’. इसी होटलरूपी ठेले से हम 5 जनों का पेट पल रहा है.

‘‘इतना बड़ा गांधी मैदान है. थक जाने पर यहीं कहीं आराम कर लेते हैं. और रात के वक्त चारों तरफ सूना पड़ जाने पर यह सड़क, यह जगह बहुत बड़ी दिखने लगती है. सो, कहीं भी किसी दुकान के सामने चादर बिछा कर सो जाते हैं.’’

‘‘यह भी कोई जिंदगी हुई?’’ मंगरू ने पूछा.

‘‘हां बाऊजी, यह भी जिंदगी ही है. बड़े शहरों में लाखों लोग ऐसी ही जिंदगी जीते हैं.’’

‘‘और वह तुम्हारी पढ़ाई, जिस के पीछे तुम ने पटना में रह कर 7 साल लगाए, हजारों रुपए खर्च हुए.’’


‘‘आज की पढ़ाई सिर्फ सपने दिखाती है, नौकरी या कामधंधा नहीं देती. मैं ने आप की जिंदगी को नजदीक से देखाजाना है. बस उसे अपनी जिंदगी में उतार लिया और जिंदगी आगे चल पड़ी. यही नहीं, मेरे साथ मेरे 4 साथियों की जिंदगी भी पटरी पर आ गई, नहीं तो यहां लाखों बेरोजगार घूम रहे हैं.’’

मंगरू एकटक कभी किशना को तो कभी गांधी मैदान को देखता रहा.

‘‘यह एक कार्टन है बाऊजी, जिस में आप लोगों के लिए नए कपड़े हैं. छोटे भाईबहनों के लिए खिलौने हैं. इसे साथ ले जाना.’’

थोड़ी देर के बाद किशना मंगरू को गांधी मैदान के पास लगे पार्टी के पंडाल में पहुंचा आया. वहां एक तरफ पुआल के ऊपर दरियां बिछी थीं, जिन पर हजारों लोग लेटे या बैठे हुए थे. पर मंगरू को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. वह वहीं अनमना सा लेट गया, चुपचाप.

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.