कहानी- स्नेह के सूत्र

“यूं तो हम समानता की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन बात जब अपने पर आती है, तो अक्सर हमसे चूक हो जाती है. हम भूल जाते हैं कि जिस तरह हमने बेटे को पढ़ा-लिखाकर बड़ा किया है, बहू की परवरिश भी उसी तरह हुई होगी. हमें अपने बेटे से अपेक्षाएं रहती हैं, तो बहू का भी अपने माता-पिता के प्रति कुछ फ़र्ज़ बनता है.”

रिचा का फोन आने से संध्या का मन और भी क्षुब्ध हो उठा. क्या समझते हैं ये बच्चे स्वयं को. ये जो कहेंगे, जैसा कहेंगे, हम करने को बाध्य होंगे. मानो हम लोग हाड़-मांस का शरीर न होकर कोई मशीन मात्र हों, जिसका काम बस बच्चों का हुक्म बजाना हो. नहीं…नहीं… वह रिचा के मायके हरगिज़ नहीं जाएगी. रिचा को उसकी भावनाओं की तनिक भी फ़िक़्र होती, तो घर में तनाव का माहौल न रखती. आख़िर ऐसा क्या कह दिया था उसने, जो वह इतने दिनों से मुंह फुलाए घूम रही है.

अकेले रिचा का दोष नहीं है. रजत भी उसी का साथ दे रहा है. उसे भी कहां फ़िक़्र है अपने माता-पिता की. कभी-कभी बहुत सोच-विचार कर लिए गए फैसले भी ग़लत साबित होते हैं. नवीन के रिटायरमेंट पर रजत व रिचा दिल्ली आए थे. उस समय दोनों ने अपनत्व भरे शब्दों में कहा था,

“मां-पापा, अब हम आपको अकेले नहीं रहने देंगे. आपको हमारे साथ पूना रहना होगा.” नवीन हंसे थे. “मैं रिटायर भले ही हो गया हूं, पर अभी बूढ़ा नहीं हुआ हूं.”

“पापा, हमें आपकी चिंता रहती है. अब आप फ्री हैं, आराम से पूना सेटल हो सकते हैं.”

संध्या व नवीन काफ़ी दिनों तक सोच-विचार करते रहे थे. नवीन का दिल्ली में अच्छा फ्रेंड सर्कल था.


“एक दिन तो हमें बच्चों के पास जाकर रहना ही पड़ेगा, तो क्यों न अभी जाएं. अभी वे हमें बुला रहे हैं. कल को उम्र बढ़ने पर शरीर अशक्त हो गया और बच्चों ने नहीं बुलाया, तब क्या करेंगे?” संध्या की बात से नवीन सहमत हो गए. पूना पहुंचकर उन्हें सुकून मिला. रजत और रिचा उनका ध्यान रखते थे. संध्या को लगा, उनका बुढ़ापा आराम से कट जाएगा, पर कुछ माह ही बीते होंगे कि कुछ बातें उन्हें बुरी तरह से खटकने लगीं.

रिचा व रजत की अपनी ही दुनिया थी. दोस्तों के यहां ख़ूब आना-जाना होता. रिचा का मायका कुछ ही दूरी पर था. घर में उसकी मम्मी मीना व छोटी बहन अनु थे. पापा का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो चुका था. उनकी जगह पर मीना को बैंक में नौकरी मिल गई थी. घर में कोई पुरुष मेंबर न होने के कारण मीना अपने हर काम में रजत की राय लेती. अनु भी अपने जीजू के साथ खुली हुई थी. यह सब देखकर संध्या और नवीन मन ही मन कुढ़ते.

नवीन अक्सर कहते, “पहले ये लोग जैसे भी रहते हों, कम से कम हमारी उपस्थिति में तो इन्हें अपना रवैया बदलना चाहिए.” उस दिन तो हद ही हो गई. संध्या को सुबह से बुख़ार व सिरदर्द था. शाम को रजत ऑफिस से लौटा, तो अपने साथ मीना को भी लेता आया. उन्हें देख संध्या उठने लगी, तो मीना बोली, “आपकी तबीयत ख़राब है. आप लेटी रहिए. मैं सबके लिए चाय बना लाती हूं.” थोड़ी देर में मीना चाय और पकौड़े बना लाई. पकौड़े देख रजत चहका, “अरे वाह, आपको कैसे पता, मेरी पकौड़े खाने की इच्छा हो रही थी.”

“बच्चों के दिल की बात हम मांएं नहीं समझेंगी तो कौन समझेगा, क्यों संध्याजी.” मीना ने संध्या की ओर देख मुस्कुराकर कहा. संध्या ने बेमन से गर्दन हिला दी. तभी रिचा और अनु भी आ गए. पकौड़े देख अनु ने फ़रमाइश की, “जीजू, पकौड़ों के साथ जलेबी का कॉम्बीनेशन कैसा रहेगा?”

“अभी लो.” रजत लपकता हुआ मार्केट गया और जलेबी ले आया. रात में सब को गर्म खाना खिलाकर मीना और अनु अपने घर चले गए, तो संध्या नवीन से बोली, “मां-बेटी को बिल्कुल शर्म नहीं है. लगता ही नहीं, अपने दामाद के घर बैठी हैं.”

“जब अपना ही सिक्का खोटा हो, तो किसी का क्या दोष?”

“देखा नहीं इन लोगों के आने पर रजत भी कितना प्रसन्न रहता है.”

“मेरा ख़्याल है, हमें रजत को बताना चाहिए कि इस तरह रोज़ का आना-जाना हमें पसंद नहीं है.”


“सोच लो, कहीं वह बुरा न मान जाए.” नवीन ने आशंका जताई.

“मानने दो. जब हमें यहां बुलाया है, तो हमारी इच्छाओं का भी ध्यान रखना चाहिए.” अगली सुबह अनु खाने का टिफिन लेकर आई, तो संध्या बोली, “अब मैं बिल्कुल ठीक हूं. मम्मी से कहना, शाम का भोजन बनाने की तकलीफ़ न करें.”

एक दिन मौक़ा देख उसने रजत से कहा, “तुम्हारी दीदी का फोन आया था. वह हमें अहमदाबाद बुला रही है, किंतु मैंने इंकार कर दिया.”

“मम्मी, कुछ दिनों के लिए चली जाइए. आपको चेंज मिल जाएगा.”

“छह माह पूर्व हम उसके पास गए थे. इतनी जल्दी जाने का क्या तुक है?” रिचा उसका व्यंग्य समझ गई. वह तुनककर बोली, “मां, मैं समझ गई हूं, आपका इशारा किस ओर है. रजत, मैंने तुमसे कहा था न कि मां को मम्मी और अनु का यहां आना पसंद नहीं है. अब तुम स्वयं देख लो.” रजत ख़ामोश रहा.

रिचा बोली, “मां, मैंने रजत से शादी से पहले ही कह दिया था कि मैं सदैव अपनी मम्मी और बहन का ध्यान रखूंगी. जिस तरह आप लोगों के प्रति हमारा फ़र्ज़ है, उसी तरह उन दोनों की देखभाल करना भी हमारा दायित्व है.” रिचा ग़ुस्से में कमरे से बाहर चली गई. रजत भी उसके पीछे-पीछे चल दिया. उस दिन से घर में तनाव रहने लगा.

रिचा का अपने घरवालों के साथ आना-जाना तो कम नहीं हुआ, हां, संध्या व नवीन के प्रति उसके व्यवहार में बदलाव अवश्य आ गया. पहले मीना और अनु घर पर आते, तो रिचा चाहती कि सब लोग इकट्ठे बैठें, हंसे-बोलें, खाएं-पीएं. लेकिन अब उसने ऐसा प्रयास छोड़ दिया था. एक दिन संध्या ने नवीन से कहा, “इससे तो हम दिल्ली में रहते, तो अच्छा होता.”

नवीन झुंझला उठे, “अक्सर इंसान भविष्य की चिंता में अपना वर्तमान भी बिगाड़ लेता है. यही तुमने किया है. मैंने तुमसे कहा था कि अपना शहर छोड़ना ठीक नहीं है. बच्चों के पास कुछ दिन रहो, उसी में इज़्ज़त है. आजकल के बच्चे ऐसे कहां हैं कि बड़ों की बात का मान रखें, पर तुम मेरी सुनती ही कहां हो. अपने साथ-साथ मेरी भी ज़िंदगी ख़राब कर दी.” संध्या ख़ामोश रही. अब तो उसे नवीन की बातें सुननी ही थीं.

उन दिनों से संध्या व नवीन का मन काफ़ी उचाट रहने लगा था. दिनभर घर में रहते बोर हो जाते. पहाड़-सा दिन काटे नहीं कटता था. बेटा-बहू तो दिनभर ऑफिस में रहते. घर पर होते, तब भी रिचा से कम ही बात होती थी.

एक दिन रजत का सुझाव आया, “अपनी कॉलोनी से कुछ ही दूरी पर रिटायर्ड लोगों का एक क्लब है. उसे जॉइन कर लीजिए. वहां आप दोनों को हमउम्र लोग मिलेंगे, तो दिल बहल जाएगा.” रजत का सुझाव उन्हें पसंद आया. अगले ही दिन उन्होंने क्लब जॉइन कर  लिया. क्लब में समय तो अच्छा गुज़र जाता, पर घर के तनाव से मन पर बोझ बना हुआ था.

क्लब में ही उनकी मुलाक़ात कमलनाथजी व उनकी पत्नी से हुई. दोनों को उनका स्वभाव बहुत पसंद आया. धीरे-धीरे उनकी दोस्ती बढ़ने लगी. उस दिन शनिवार था. रजत व रिचा की छुट्टी थी. संध्या ने सोचा कि आज कमलनाथ दंपति को डिनर पर बुलाएंगे, पर इससे पहले कि वह यह बात रिचा को बताती, रिचा तैयार होकर उसके कमरे में आई और बोली, “मां, मैं और रजत घर जा रहे हैं, कुछ ज़रूरी काम है. कल वापस आएंगे.” संध्या को क्रोध आ गया.

रिचा और रजत के जाने के बाद वह बड़बड़ाने लगी, “क्या काम है, माता-पिता को यह बताना भी ज़रूरी नहीं समझा. बस, मुंह उठाया और चल दिए.”

“अरे, काम-वाम कुछ नहीं, बस जाने का बहाना चाहिए. ख़ैर, हम भी घर पर बोर क्यों होएं. चलो, कमलनाथजी के घर चलते हैं.” तैयार होकर वे दोनों घर से निकल पड़े. रास्ते में रिचा का फोन आया, “मां, अनु की शादी की बात होनी है. आप दोनों घर आ जाएं. लीजिए मम्मी से बात कीजिए.” मीना की आवाज़ आई, “भाभीजी, आपका और भाईसाहब का आना ज़रूरी है. आप दोनों बड़े हैं. आपकी राय के बिना कुछ नहीं हो सकेगा.”

“हम कोशिश करेंगे.” उखड़े स्वर में संध्या ने जवाब दिया और फोन काट दिया. थोड़ी देर में वे दोनों कमलनाथजी के घर पहुंचे. कमलनाथजी अपनी पत्नी के साथ गेट पर ही मिल गए. साथ में एक सज्जन भी थे. नवीन व संध्या का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा, “इनसे मिलिए, ये हमारे समधी डॉ. ब्रजेश हैं, हमारी बहू के पिताजी.” नवीन ने उनसे हाथ मिलाया. डॉ. ब्रजेश बोले, “मैं चलता हूं कमलनाथ.”

“कल समय से आ जाना डॉक्टर व याद रखना कल तुम्हें पार्टी भी देनी है.” इस पर दोनों हंस पड़े.

डॉ. ब्रजेश के जाने पर लॉन में बैठते हुए नवीन बोले, “लगता है, अपने समधी के साथ आपके बहुत दोस्ताना संबंध हैं.”

“हां, रिश्तों को दोस्ताना बना लो, तो उन्हें निभाना सहज हो जाता है. उन्हें व मुझे दोनों को शतरंज का शौक़ है. जब भी मिलते हैं, शतरंज की बाज़ी ज़रूर जमती है.”


“आप ख़ुशक़िस्मत हैं, जो आपको इतने अच्छे समधी मिले, अन्यथा कभी-कभी तो रिश्तेदारी बोझ बन जाती है.” नवीन बुझे मन से बोले.

“इस सदंर्भ में मेरे विचार भिन्न हैं. नवीन, मेरा यह मानना है कि रिश्ते कभी बोझ नहीं होते, बस उन्हें निभाने की कला आनी चाहिए.”

“आपकी समधन नहीं आई थीं.” संध्या ने बात बदली. मिसेज़ कमलनाथ ने बताया, “आई हैं न. अभी अपनी बेटी यानी हमारी बहू के साथ मार्केट गई हुई हैं. आज रात यहीं रुकेंगी.” कमलनाथ बताने लगे, “डॉ. ब्रजेश के बेटा-बहू लंदन में हैं. पति-पत्नी यहां अकेले हैं, इसलिए अक्सर आते रहते हैं. कभी-कभी रात में रुक भी जाते हैं.”

संध्या बोली, “लगता है, आपके व हमारे घर की कहानी एक जैसी है. हमारी बहू रिचा का मायका घर से कुछ ही दूरी पर है. हर व़क्त का आना-जाना लगा रहता है. हम दोनों को बिल्कुल अच्छा नहीं लगता. एक दिन मैंने रिचा को कह ही दिया कि मायकेवालों का ज़्यादा आना-जाना ठीक नहीं लगता है. बस, उसी दिन से वह उखड़ी-उखड़ी रहती है. घर में एक तनाव-सा रहने लगा है. बेटा भी उसे समझाने के बदले उसी का पक्ष लेता है. अरे, पुराने समय में तो लोग बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते थे. आज का ज़माना बदल गया है. लोग एडवांस हो गए हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं कि सास-ससुर का कोई लिहाज़ ही न हो. जब देखो, मुंह उठाया और चले आए.”

नवीन भारी मन से बोले, “दरअसल, दिल्ली से यहां आना हम लोगों की भूल थी. रजत और रिचा अपनी दुनिया में मस्त हैं. उसमें हमारे लिए कोई जगह नहीं.”

मिसेज़ कमलनाथ चाय लेकर आई थीं. सब के हाथ में एक-एक कप पकड़ाते हुए बोलीं, “भाईसाहब, पैरेंट्स हमेशा पैरेंट्स ही होते हैं. बच्चों की ज़िंदगी में हमेशा उनकी जगह होती है. ऐसा न होता, तो वे आपको पूना क्यों बुलाते?”

“पूना बुलाकर अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया, पर हमारी भावनाओं का सम्मान तो नहीं रखा.”

“संध्या, स्पष्टवादी हूं. बुरा मत मानना, हम बड़े अपनी हर इच्छा को बच्चों पर थोपना क्यों चाहते हैं? क्यों चाहते हैं कि हम जैसा कहें, वे वैसा ही करें. सहज होकर उनके साथ क्यों नहीं रह सकते. जो बात तुम्हारे लिए छोटी है, उनके लिए बहुत बड़ी है. अंतर स़िर्फ सोच का है. नवीन का व़क्त अब बहुत आगे बढ़ गया है. न जाने कितनी पुरानी मान्यताओं को हम पीछे छोड़ चुके हैं, पर अपनी इस सोच से आज भी चिपके रहना चाहते हैं कि बहू के मायकेवालों का आना-जाना ठीक नहीं लगता. क्या तुम्हारे घर में दूसरे लोग नहीं आते? बेटे के दोस्त, रिश्तेदार, फिर बहू के मायकेवालों से ही इतना परहेज़ क्यों है?

यूं तो हम समानता की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन बात जब अपने पर आती है, तो अक्सर हमसे चूक हो जाती है. हम भूल जाते हैं कि जिस तरह हमने बेटे को पढ़ा-लिखाकर बड़ा किया है, बहू की परवरिश भी उसी तरह हुई होगी. हमें अपने बेटे से अपेक्षाएं रहती हैं, तो बहू का भी अपने माता-पिता के प्रति कुछ फ़र्ज़ बनता है.

विवाह स़िर्फ दो व्यक्तियों को ही आपस में नहीं जोड़ता है, बल्कि इससे दो परिवार भी स्नेह के सूत्र में बंधते हैं. हमारे बेटे की जब शादी हुई, तब हम दोनों ने सोच लिया था कि बहू के साथ-साथ हम उसके परिवार को भी खुले मन से स्वीकारेंगे. अपने पैंरेंट्स के लिए वह जो भी करना चाहेगी, उसमें भरपूर सहयोग देंगे. सकारात्मक होकर जब हम रिश्तों के तार दूसरों से जोड़ते हैं, तो सकारात्मक असर होता है. आपको जो भी हमारे घर का सौहार्दपूर्ण वातावरण दिखाई दे रहा है, इसकी वजह यही है कि हम बच्चों की ज़िंदगी में दख़लअंदाज़ी नहीं करते. उनसे अधिक अपेक्षाएं भी नहीं रखते, बस, एक सहयोगी की भूमिका निभाते हैं.


नवीन, यह ध्यान रखो, बेटा तुम्हारा ही है, फिर भी पराया हो चुका है. एक नए बंधन में बंध चुका है. उसकी अब एक नई दुनिया है, जिसमें बेवजह की दख़लअंदाज़ी करने से रिश्ते बिगड़ सकते हैं. बदलते समय के साथ अपने व्यवहार व सोच में परिवर्तन लाओ, ताकि बच्चे तुमसे खुलकर बात कर सकें. तुम्हारी कंपनी को एंजॉय कर सकें.” संध्या मंत्रमुग्ध-सी कमलनाथजी को सुन रही थी. उसे महसूस हुआ कि उसके मन की गांठें परत-दर-परत खुल रही हैं. अब तक बंद पड़े ज़ेहन के दरवाज़े खुल गए हैं और शीतल मंद बयार बहने लगी है. अब वह स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रही थी.

सच! यदि सकारात्मक सोच हो, तो परिस्थितियों का स्वरूप ही बदल जाता है. जिसे वह मीनाजी की अनाधिकृत कोशिश मानती थी, अब लग रहा था, वह उनका स्नेह व अपनापन था. नवीन भी कमलनाथजी के विचारों से अभिभूत थे. कह रहे थे, “मैं आपका सदैव आभारी रहूंगा, सही समय पर आपने हमारी सोच की दिशा बदल दी. हमें परिस्थितियों को देखने का एक नया नज़रिया दिया. आज हम उम्र के जिस पड़ाव पर हैं, उस पर हमें इन छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठकर कुछ उद्देश्यपूर्ण सोचना चाहिए.” कमलनाथजी ने मुस्कुराकर सहमति जताई. संध्या बोली, “अब हमें चलना चाहिए. रिचा व उसकी मम्मी हमारी प्रतीक्षा कर रही होंगी.” कमलनाथ व उनकी पत्नी से विदा लेकर संध्या व नवीन पुनः अपने रिश्ते को स्नेह के सूत्र में बांधने के लिए रिचा के मायके की ओर चल दिए.

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