कहानी : सांझ पड़े घर आना

‘‘अब सब कुछ खत्म हो गया था. मैं ने उस पर कई झूठे इलजाम लगाए, जिन से उस का बच पाना संभव नहीं था…’’

उसकी मेरे औफिस में नईनई नियुक्ति हुई थी. हमारी कंपनी का हैड औफिस बैंगलुरु में था और मैं यहां की ब्रांच मैनेजर थी. औफिस में कोई और केबिन खाली नहीं था, इसलिए मैं ने उसे अपने कमरे के बाहर वाले केबिन में जगह दे दी. उस का नाम नीलिमा था.

क्योंकि उस का केबिन मेरे केबिन के बिलकुल बाहर था, इसलिए मैं उसे आतेजाते देख सकती थी. मैं जब भी अपने औफिस में आती, उसे हमेशा फाइलों या कंप्यूटर में उलझा पाती. उस का औफिस में सब से पहले पहुंचना और देर तक काम करते रहना मुझे और भी हैरान करने लगा.

एक दिन मेरे पूछने पर उस ने बताया कि पति और बेटा जल्दी चले जाते हैं, इसलिए वह भी जल्दी चली आती है. फिर सुबहसुबह ट्रैफिक भी ज्यादा नहीं रहता.

वह रिजर्व तो नहीं थी, पर मिलनसार भी नहीं थी. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जो आंखों को बांध लेते हैं. उस का मेकअप भी एकदम नपातुला होता. वह अधिकतर गोल गले की कुरती ही पहनती. कानों में छोटे बुंदे, मैचिंग बिंदी और नाममात्र का सिंदूर लगाती.

इधर मैं कंपनी की ब्रांच मैनेजर होने के नाते स्वयं के प्रति बहुत ही संजीदा थी. दिन में जब तक 3-4 बार वाशरूम में जा कर स्वयं को देख नहीं लेती, मुझे चैन ही नहीं पड़ता. परंतु उस की सादगी के सामने मेरा सारा वजूद कभीकभी फीका सा पड़ने लगता.

लंच ब्रेक में मैं ने अकसर उसे चाय के साथ ब्रैडबटर या और कोई हलका नाश्ता करते पाया. एक दिन मैं ने उस से पूछा तो कहने लगी, ‘‘हम लोग नाश्ता इतना हैवी कर लेते हैं कि लंच की जरूरत ही महसूस नहीं होती. पर कभीकभी मैं लंच भी करती हूं. शायद आप ने ध्यान नहीं दिया होगा. वैसे भी मेरे पति उमेश और बेटे मयंक को तरहतरह के व्यंजन खाने पसंद हैं.’’


‘‘वाह,’’ कह कर मैं ने उसे बैठने का इशारा किया, ‘‘फिर कभी हमें भी तो खिलाइए कुछ नया.’’

इसी बीच मेरा फोन बज उठा तो मैं अपने केबिन में आ गई.

एक दिन वह सचमुच बड़ा सा टिफिन ले कर आ गई. भरवां कचौरी, आलू की सब्जी और बूंदी का रायता. न केवल मेरे लिए बल्कि सारे स्टाफ के लिए.

इतना कुछ देख कर मैं ने कहा, ‘‘लगता है कल शाम से ही इस की तैयारी में लग गई होगी.’’

वह मुसकराने लगी. फिर बोली, ‘‘मुझे खाना बनाने और खिलाने का बहुत शौक है. यहां तक कि हमारी कालोनी में कोई भी पार्टी होती है तो सारी डिशेज मैं ही बनाती हूं.’’

नीलिमा को हमारी कंपनी में काम करते हुए 6 महीने हो गए थे. न कभी वह लेट हुई और न जाने की जल्दी करती. घर से तरहतरह का खाना या नाश्ता लाने का सिलसिला भी निरंतर चलता रहा. कई बार मैं ने उसे औफिस के बाद भी काम करते देखा. यहां तक कि वह अपने आधीन काम करने वालों की मीटिंग भी शाम 6 बजे के बाद ही करती. उस का मानना था कि औफिस के बाद मन भी थोड़ा शांत रहता है और बाहर से फोन भी नहीं आते.

एक दिन मैं ने उसे दोपहर के बाद अपने केबिन में बुलाया. मेरे लिए फुरसत से बात करने का समय दोपहर के बाद ही होता था. सुबह मैं सब को काम बांट देती थी. हमारी कंपनी बाहर से प्लास्टिक के खिलौने आयात करती और डिस्ट्रीब्यूटर्स को भेज देती थी. हमारी ब्रांच का काम और्डर ले कर हैड औफिस को भेजने तक ही सीमित था.

नीलिमा ने बड़ी शालीनता से मेरे केबिन का दरवाजा खटखटा भीतर आने की इजाजत मांगी. मैं कुछ पुरानी फाइलें देख रही थी. उसे बुलाया और सामने वाली कुरसी पर बैठने का इशारा किया. मैं ने फाइलें बंद कीं और चपरासी को बुला कर किसी के अंदर न आने की हिदायत दे दी.

नीलिमा आप को हमारे यहां काम करते हुए 6 महीने से ज्यादा का समय हो गया. कंपनी के नियमानुसार आप का प्रोबेशन पीरियड समाप्त हो चुका है. यहां आप को कोई परेशानी तो नहीं? काम तो आपने ठीक से समझ ही लिया है. स्टाफ से किसी प्रकार की कोई शिकायत हो तो बताओ.

‘‘मैम, न मुझे यहां कोई परेशानी है और न ही किसी से कोई शिकायत. यदि आप को मेरे व्यवहार में कोई कमी लगे तो बता दीजिए. मैं खुद को सुधार लूंगी… मैं आप के जितना पढ़ीलिखी तो नहीं पर इतना जरूर विश्वास दिलाती हूं कि मैं अपने काम के प्रति समर्पित रहूंगी. यदि पिछली कंपनी बंद न हुई होती तो पूरे 10 साल एक ही कंपनी में काम करते हो जाते,’’ कह कर वह खामोश हो गई. उस की बातों में बड़ा ठहराव और विनम्रता थी.

‘‘जो भी हो, तुम्हें अपने परिवार की भी सपोर्ट है. तभी तो मन लगा कर काम कर सकती हो. ऐसा सभी के साथ नहीं होता है.’’ मैं ने थोड़े रोंआसे स्वर में कहा.

वह मुझे देखती रही जैसे चेहरे के भाव पढ़ रही हो. मैं ने बात बदल कर कहा, ‘‘अच्छा मैं ने आप को यहां इसलिए बुलाया है कि अगला पूरा हफ्ता मैं छुट्टी पर रहूंगी. हो सकता है


1-2 दिन ज्यादा भी लग जाएं. मुझे उम्मीद है आप को कोई ज्यादा परेशानी नहीं होगी. मेरा मोबाइल चालू रहेगा.’’

‘‘कहीं बाहर जा रही हैं आप?’’

उस ने ऐसे पूछा जैसे मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. मैं ने कहा, ‘‘नहीं, रहूंगी तो यहीं… कोर्ट की आखिरी तारीख है. शायद मेरा तलाक मंजूर हो जाए. फिर मैं कुछ दिन सुकून से रहना चाहती हूं.’’

‘‘तलाक?’’ कह जैसे वह अपनी सीट से उछली हो.

‘‘हां.’’

‘‘इस उम्र में तलाक?’’ वह कहने लगी, ‘‘सौरी मैम मुझे पूछना तो नहीं चाहिए पर…’’

‘‘तलाक की भी कोई उम्र होती है? सदियों से मैं रिश्ता ढोती आई

हूं. बेटी यूके में पढ़ने गई तो वहीं की हो कर रह गई. मेरे पति और मेरी कभी बनी ही नहीं और अब तो बात यहां तक आ गई है कि खाना भी बाहर से ही आता है. मैं थक गई यह सब निभातेनिभाते… और जब से बेटी ने वहीं रहने का निर्णय लिया है, हमारे बीच का वह पुल भी टूट गया,’’ कहतेकहते मेरी आंखों में आंसू आ गए.

वह धीरे से अपनी सीट से उठी और मेरी साड़ी के पल्लू से मेरे आंसू पोंछने लगी.

फिर सामने पड़े गिलास से मुझे पानी पिलाया और मेरी पीठ पर स्नेह भरा हाथ रख दिया.

बहुत देर तक वह यों ही खड़ी रही. अचानक गमगीन होते माहौल को सामान्य करने के लिए मैं ने 2-3 लंबी सांसें लीं और फिर अपनी थर्मस से चाय ले कर 2 कपों में डाल दी.

उस ने चाय का घूंट भरते हुए धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘मैम, मैं तो आप से बहुत छोटी हूं. मैं आप के बारे में न कुछ जानती हूं और न ही जानना चाहती हूं. पर इतना जरूर कह सकती हूं कि कुछ गलतियां आप की भी रही होंगी… पर हमें अपनी गलती का एहसास नहीं होता. हमारा अहं जो सामने आ जाता है. हो सकता है आप को तलाक मिल भी जाए… आप स्वतंत्रता चाहती हैं, वह भी मिल जाएगी, पर फिर क्या करेंगी आप?’’

‘‘सुकून तो मिलेगा न… जिंदगी अपने ढंग से जिऊंगी.’’

‘‘अपने ढंग से जिंदगी तो आज भी जी रही हैं आप… इंडिपैंडैंट हैं अपना काम करने के लिए… एक प्रतिष्ठित कंपनी की बौस हैं… फिर…’’ कह कर वह चुप हो गई. उस की भाषा तल्ख पर शिष्ट थी. मैं एकदम सकपका गई. वह बेबाक बोलती जा रही थी.


मैं ने झल्ला कर तेज स्वर में पूछा, ‘‘मैं समझ नहीं पा रही हूं तुम मेरी वकालत कर रही हो, मुझ से तर्कवितर्क कर रही हो, मेरा हौंसला बढ़ा रही हो या पुन: नर्क में धकेल रही हो.’’

‘‘मैम,’’ वह धीरे से पुन: शिष्ट भाषा में बोली, ‘‘एक अकेली औरत के लिए, वह भी तलाकशुदा के लिए अकेले जिंदगी काटना कितना मुश्किल होता है, यह कैसे बताऊं आप को…’’ ‘‘पहले आप के पास पति से खुशियां बांटने का मकसद रहा होगा, फिर बेटी और उस की पढ़ाई का मकसद. फिर लड़ कर अलग होने का

मकसद और अब जब सब झंझटों से मुक्ति मिल जाएगी तो क्या मकसद रह जाएगा? आगे एक अकेली वीरान जिंदगी रह जाएगी…’’ कह कर

वह चुप हो गई और प्रश्नसूचक निगाहों से मुझे देखती रही.

फिर बोली, ‘‘मैम, आप कल सुबह यह सोच कर उठना कि आप स्वतंत्र हो गई हैं पर आप के आसपास कोई नहीं है. न सुख बांटने को न दुख बांटने को. न कोई लड़ने के लिए न झगड़ने के लिए. फिर आप देखना सब सुखसुविधाओं के बाद भी आप अपनेआप को अकेला ही पाएंगी.’’

मैं समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहना चाहती है. मेरे चेहरे पर कई रंग आ रहे थे, परंतु एक बात तो ठीक थी कि तलाक के बाद अगला कदम क्या होगा. यह मैं ने कभी ठीक से सोचा न था.

‘‘मैम, मैं अब चलती हूं. बाहर कई लोग मेरा इंतजार कर रहे हैं… जाने से पहले एक बार फिर से सलाह दूंगी कि इस तलाक को बचा लीजिए,’’ कह वह वहां से चली गई.

उस के जाने के बाद पुन: उस की बातों ने सोचने पर मजबूर कर दिया. मेरी सोच का दायरा अभी तक केवल तलाक तक सीमित था…उस के बाद व्हाट नैक्स्ट?

उस पूरी रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. सुबहसुबह कामवाली बालकनी में चाय रख

कर चली गई. मैं ने सामने वाली कुरसी खींच

कर टांगें पसारीं और फिर भूत के गर्भ में चली गई. किसी ने ठीक ही कहा था कि या तो हम

भूत में जीते हैं या फिर भविष्य में. वर्तमान में जीने के लिए मैं तब घर वालों से लड़ती रही

और आज उस से अलग होने के लिए. पापा को मनाने के लिए इस के बारे में झूठसच का सहारा लेती रही, उस की जौब और शिक्षा के बारे में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करती रही और आज उस पर उलटेसीधे लांछन लगा कर तलाक ले रही हूं.


तब उस का तेजतर्रार स्वभाव और खुल कर बोलना मुझे प्रभावित करता था और अब वही चुभने लगा है. तब उस का साधारण कपड़े पहनना और सादगी से रहना मेरे मन को भाता था और अब वही सब मेरी सोसाइटी में मुझे नीचा दिखाने की चाल नजर आता है. तब भी उस की जौब और वेतन मुझ से कम थी और आज भी है.

‘‘ऐसा भी नहीं है कि पिछले 25 साल हमने लड़तेझगड़ते गुजारे हों. कुछ सुकून और प्यारभरे पल भी साथसाथ जरूर गुजारे होंगे. पहाड़ों, नदियों और समुद्री किनारों के बीच हम ने गृहस्थ की नींव भी रखी होगी. अपनी बेटी को बड़े होते भी देखा होगा और उस के भविष्य के सपने भी संजोए होंगे. फिर आखिर गलती हुई कहां?’’ मैं सोचती रही गई.

अपनी भूलीबिसरी यादों के अंधेरे गलियारों में मुझे इस तनाव का सिरा पकड़ में

नहीं आ रहा था. जहां तक मुझे याद आता है मैं बेटी को 12वीं कक्षा के बाद यूके भेजना चाहती थी और मेरे पति यहीं भारत में पढ़ाना चाहते थे. शायद उन की यह मंशा थी कि बेटी नजरों के सामने रहेगी. मगर मैं उस का भविष्य विदेशी धरती पर खोज रही थी? और अंतत: मैं ने उसे अपने पैसों और रुतबे के दम पर बाहर भेज दिया. बेटी का मन भी बाहर जाने का नहीं था. पर मैं जो ठान लेती करती. इस से मेरे पति को कहीं भीतर तक चोट लगी और वह और भी उग्र हो गए. फिर कई दिनों तक हमारे बीच अबोला पसर गया.

हमारे बीच की खाई फैलती गई. कभी वह देर से आता तो कभी नहीं भी आता. मैं ने कभी इस बात की परवाह नहीं की और अंत में वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. बेटी विदेश क्या गई बस वहीं की हो गई. फिर वहीं पर एक विदेशी लड़के से शादी कर ली. कोई इजाजत नहीं बस निर्णय… मेरी तरह.

उस रात हमारा जम कर झगड़ा हुआ. उस का गुस्सा जायज था. मैं झुकना नहीं जानती थी. न जीवन में झुकी हूं और न ही झुकूंगी…वही सब मेरी बेटी ने भी सीखा और किया. नतीजा तलाक पर आ गया. मैं ने ताना दिया था कि इस घर के लिए तुम ने किया ही क्या है. तुम्हारी तनख्वाह से तो घर का किराया भी नहीं दिया जाता… तुम्हारे भरोसे रहती तो जीवन घुटघुट कर जीना पड़ता. और इतना सुनना था कि वह गुस्से में घर छोड़ कर चला गया.

अब सब कुछ खत्म हो गया था. मैं ने उस पर कई झूठे इलजाम लगाए, जिन से उस का बच पाना संभव नहीं था. मैं ने एक लंबी लड़ाई लड़ी थी और अब उस का अंतिम फैसला कल आना था. उस के बाद सब कुछ खत्म. परंतु नीलिमा ने इस बीच एक नया प्रश्न खड़ा कर दिया जो मेरे कलेजे में बर्फ बन कर जम गया.

पर अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ था, होने वाला था. बस मेरे कोर्ट में हाजिरी लगाने भर की देरी थी. मेरे पास आज भी 2 रास्ते खुले थे. एक रास्ता कोर्ट जाता था और दूसरा उस के घर की तरफ, जहां वह मुझ से अलग हो कर चला गया था. कोर्ट जाना आसान था और उस के घर की तरफ जाने का साहस शायद मुझ में नहीं था. मैं ने कोर्ट में उसे इतना बेईज्जत किया, ऐसेऐसे लांछन लगाए कि वह शायद ही मुझे माफ करता. मैं अब भी ठीक से निर्णय नहीं ले पा रही थी.

हार कर मैं ने पुन: नीलिमा से मिलने का फैसला किया जिस ने मेरे शांत होते जीवन में पुन: उथलपुथल मचा दी थी. मैं उस दोराहे से अब निकलना चाहती थी. मैं ने कई बार उसे आज फोन किया, परंतु उस का फोन लगातार बंद मिलता रहा.

आज रविवार था. अत: सुबहसुबह वह घर पर मिल ही जाएगी, सोच मैं उसे

मिलने चली गई. मेरे पास स्टाफ के घर का पता और मोबाइल नंबर हमेशा रहता था ताकि किसी आपातकालीन समय में उन से संपर्क कर सकूं. वह एक तीनमंजिला मकान में रहती थी.

‘‘मैम, आप?’’ मुझे देखते ही वह एकदम सकपका गई? ‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘सब कुछ ठीक नहीं है,’’ मैं बड़ी उदासी से बोली. वह मेरे चेहरे पर परेशानी के भाव देख रही थी.

मैं बिफर कर बोली, ‘‘तुम्हारी कल की बातों ने मुझे भीतर तक झकझोर कर रख दिया है.’’

वह हतप्रभ सी मेरे चेहरे की तरफ

देखती रही.

‘‘क्या मैं कुछ देर के लिए अंदर आ

सकती हूं?’’

‘‘हां मैम,’’ कह कर वह दरवाजे के सामने से हट गई, ‘‘आइए न.’’

‘‘सौरी, मैं तुम्हें बिना बताए आ गई. मैं क्या करती. लगातार तुम्हारा फोन ट्राई कर रही थी पर स्विचऔफ आता रहा. मुझ से रहा नहीं गया तो मैं आ गई,’’ कहतेकहते मैं बैठ गई.

ड्राइंगरूम के नाम पर केवल 4 कुरसियां और एक राउंड टेबल, कोने में अलमारी और कंप्यूटर रखा था. घर में एकदम खामोशी थी.

वह मुझे वहां बैठा कर बोली, ‘‘मैं चेंज कर के आती हूं.’’

थोड़ी देर में वह एक ट्रे में चाय और थोड़ा नमकीन रख कर ले आई और सामने की कुरसी पर बैठ गई. हम दोनों ही शांत बैठी रहीं. मुझे

बात करने का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था. चुप्पी तोड़ते हुए मैं ने कहा, ‘‘मैं ने सुबहसुबह आप लोगों को डिस्टर्ब किया. सौरी… आप का पति और बेटा कहीं बाहर गए हैं क्या? बड़ी खामोशी है.’’

वह मुझे ऐसे देखने लगी जैसे मैं ने कोई गलत बात पूछ ली हो. फिर नजरें नीची कर के बोली, ‘‘मैम, न मेरा कोई पति है न बेटा. मुझे पता नहीं था कि मेरा यह राज इतनी जल्दी खुल जाएगा,’’ कह कर वह मायूस हो गई. मैं हैरानी

से उस की तरफ देखने लगी. मेरे पास शब्द नहीं थे कि अगला सवाल क्या पूछूं. मैं तो अपनी समस्या का हल ढूंढ़ने आई थी और यहां तो… फिर भी हिम्मत कर के पूछा, तो क्या तुम्हारी शादी नहीं हुई?


‘‘हुई थी मगर 6 महीने बाद ही मेरे पति एक हादसे में गुजर गए. एक मध्यवर्गीय लड़की, जिस के भाई ने बड़ी कठिनाई से विदा किया हो और ससुराल ने निकाल दिया हो, उस का वजूद क्या हो सकता है,’’ कहतेकहते उस की आवाज टूट गई. चेहरा पीला पड़ गया मानो वही इस हालात की दोषी हो.

‘‘जवान अकेली लड़की का होना कितना कष्टदायी होता है, यह मुझ से बेहतर और कौन जान सकता है… हर समय घूरती नजरों का सामना करना पड़ता है…’’

‘‘तो फिर तुम ने दोबारा शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘कोशिश तो की थी पर कोई मन का नहीं मिला. अपनी जिंदगी के फैसले हम खुद नहीं करते, बल्कि बहुत सी स्थितियां करती हैं.

‘‘अकेली लड़की को न कोई घर देने को तैयार है न पेइंग गैस्ट रखना चाहता है. मेरी जिंदगी के हालात बहुत बुरे हो चुके थे. हार कर मैं ने ‘मिसेज खन्ना’ लिबास ओढ़ लिया. कोई पूछता है तो कह देती हूं पति दूसरे शहर में काम करते हैं. हर साल 2 साल में घर बदलना पड़ता है. और कभीकभी तो 6 महीने में ही, क्योंकि पति नाम की वस्तु मैं खरीद कर तो ला नहीं सकती. आप से भी मैं ने झूठ बोला था. पार्टियां, कचौरियां, बच्चे सब झूठ था. अब आप चाहे रखें चाहे निकालें…’’ कह कर वह नजरें झुकाए रोने लगी. मेरे पास कोई शब्द नहीं था.

‘‘बड़ा मुश्किल है मैडम अकेले रहना… यह इतना आसान नहीं है जितना

आप समझती हैं… भले ही आप कितनी भी सामर्थ्यवान हों, कितना भी पढ़ीलिखी हों, समाज में कैसा भी रुतबा क्यों न हो… आप दुनिया से तो लड़ सकती हैं पर अपनेआप से नहीं. तभी तो मैं ने कहा था कि आप अपनी जिंदगी से समझौता कर लीजिए.’’

मेरा तो सारा वजूद ही डगमगाने लगा. मुझे जहां से जिंदगी शुरू करनी थी, वह सच तो मेरे सामने खड़ा था. अब इस के बाद मेरे लिए निर्णय लेना और भी आसान हो गया. मेरे लिए यहां बैठने का अब कोई औचित्य भी नहीं था. जब आगे का रास्ता मालूम न हो तो पीछे लौटना ही पड़ता है.

मैं भरे मन से उठ कर जाने लगी तो नीलिमा ने पूछा, ‘‘मैम, आप ने बताया नहीं आप क्यों

आई थीं.’’

‘‘नहीं बस यों ही,’’ मैं ने डबडबाती आंखों से उसे देखा

वह बुझे मन से पूछने लगी, ‘‘आप ने बताया नहीं मैं कल से काम पर आऊं या…’’ और हाथ जोड़ दिए.

पता नहीं उस एक लमहे में क्या हुआ कि

मैं उस की सादगी और मजबूरी पर बुरी तरह रो पड़ी. न मेरे पास कोई शब्द सहानुभूति का था और न ही सांत्वना का. इन शब्दों से ऊपर भी शब्द होते तो आज कम पड़ जाते. एक क्षण के लिए काठ की मूर्ति की तरह मेरे कदम जड़ हो गए.

मैं अपने घर आ कर बहुत रोई. पता नहीं उस के लिए या अपने अहं के लिए… और कितनी बार रोई. शाम होतेहोते मैं ने बेहद विनम्रता से अपने पति को फोन किया और साथ रहने की प्रार्थना की. बहुत अनुनयविनय की. शायद मेरे ऐसे व्यवहार पर पति को तरस आ गया और वह मान गए.

और हां, जिस ने मुझे तबाही से बचा

लिया, उसे मैं ने एक अलग फ्लैट ले कर दे

दिया. अब वह ‘मिसेज खन्ना’ का लिबास नहीं ओढ़ती. नीलिमा और सिर्फ नीलिमा. उस के मुझ पर बहुत एहसान हैं. चुका तो सकती नहीं पर भूलूंगी भी नहीं.

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