कहानी: कोयला भई न राख
दुलहिन देखो ये तुम्हारे चचिया ससुर हैं, इनके पैर छुओ.”
“ये सबसे बड़ी वाली ननद हैं, ये मंझलीवाली हैं और देखो ये रमेस की दुलहिन है.”
“अरे-अरे इसके पैर क्यूं छू रही हो? ये तो रिस्ते में तुम्हारी देवरानी हुई न!”
नव ब्याहता मैं, घूंघट की आड़ लिए निर्देशानुसार पैर छूने का कार्य मशीन बनी किए जा रही थी कि बीच में सबको हंसने का मौक़ा मिल गया. लगभग सभी से मेरा परिचय करा दिया गया.
“चलो हटो सब जरा दुलहिन को आराम तो करने दो, थकी-हारी होगी,’’ कहते हुए मुझे एक सजे-धजे कमरे में पहुंचा दिया.
अगले दिन रसोई छुआने की रस्म थी, वे मुझे अब हलुआ और खीर बनाने में मदद कर रही थीं. सुबह मंडप में भी वही कुछ रस्में करवा रही थीं. अब मुझे टेबल पर परोसने में मदद कर रही थीं.
“देखो दुलहिन, अब घूंघट किए रहोगी तो किसी को ठीक से देख नहीं सकोगी और हो सकता है गिर भी जाओ. यहां वैसे भी घूंघट का रिवाज नहीं है. घूंघट का रिवाज तो मेरे ससुराल में था, अपनी शादी के बाद मैं तीन दिन रही और किसी का चेहरा नहीं पहचान पाई थी. तुम्हारा नाम सुधा है ना? मैं तुम्हें नाम से ही बोलूंगी...,’’ वे बोलती जा रही थीं और लगातार कुछ न कुछ काम भी कर रही थीं.
घूंघट के गिरते ही मैं सबसे पहले उन्हें ही ग़ौर से देखने लगी थी. दुबली-पतली लम्बी छरहरी, खिलता रंग. कमर से नीचे तक बल खाती-सी लम्बी चोटी. चेहरे की मासूमियत और सलोनापन उम्र का अंदाज़ा लगाने में बाधक हो रहे थे. कनपट्टी के सफ़ेद बाल अलबत्ता कुछ बताने को उत्सुक हो रहे थे. शादीवाले घर के अनुरूप सुनहरी बॉर्डर वाली हरे रंग की सिल्क साड़ी व कुछ जेवर उनके तन की शोभा बढ़ा रहे थे. माथे पर सिन्दूर की रेखा मुझ दुल्हन से कोई कम नहीं थी. कुल मिलाकर बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व लगा. कल से आज तक में मैं उनको ही सबसे ज़्यादा काम करते या करवाते देख रही थी. बाक़ी लोग या तो थकान उतराने की मुद्रा में थे या वापसी की तैयारियों में व्यस्त. वे सबके लिए रास्ते का खाना पैक करा रही थीं, जो शादी निपटने पर जाने की तैयारियों में मगन थे. उस बीच मेरी सास मेरे मायके से आए हुए उपहारों को ठिकाने लगा रही थीं.
“भाभी मैंने पूजा घर को समेट दिया है, देखिए भण्डार में ये खराब हो जाएगा... इसे बाहर रख देती हूं. अरे कोई हलवाई को सब्जी का थैला पहुंचा दो... इस डब्बे को किसने यहां रख दिया है, कोई गिर जाएगा तो... भैया कहां हो तुमसे मिलने कोई आए हैं...”
उनकी आवाज़ और उपस्थिति हर जगह मालूम हो रही थी.
बाद में मैंने अपने नए नवेले पतिदेव से जब पूछा,“वे कौन हैं? सबसे तो परिचय हुआ पर उनसे नहीं.”
“कौन वो? अरे वो तो कम्मो बुआ हैं,’’ उन्होंने बहुत लापरवाही से कहा और उसके बाद ये, ये जा वो जा.
अब फूफाजी किधर हैं या कौन हैं ये अनुत्तरित रह गया. शाम तक शायद वो भी चली गईं. पर चार-पांच दिनों के बाद जब पगफेरों के लिए मैं भाई संग जा रही थी तो बुआजी फिर दिखाई दे गईं. कभी मुझे देने के लिए लड्डू का दऊरा बांध रही थीं तो कभी मेरे भाई को बिदाई दे रही थीं. एक बात मैं आज ग़ौर कर रही थी कि शायद वे मुझे कुछ कहना चाह रही थीं. हर थोड़ी देर पर मेरे पास आतीं, मेरी हथेलियों को थाम कहतीं,“सुधा...”
फिर इधर-उधर देख चुप हो जातीं. उनकी आंखों की बेचैन पुतलियां भी कुछ कहने-पूछने का आमंत्रण दे रही थीं. मैं भी लौटने की हड़बड़ी में थी उनको ज़्यादा तवज्जो दे नहीं पाई. मायके लौटने के कुछ दिनों के बाद मैं अपने पतिदेव संग उनकी पोस्टिंग पर चली गई. वहीं मेरी सासू मां भी आईं, एक दिन मन में बुआजी का कीड़ा कुलबुलाया तो मैंने उनसे पूछा,“बुआ जी कहां रहती हैं? शादी वाले एल्बम में फूफा जी कौन से हैं? वो कितना काम करती हैं...”
मैंने देखा कि सासू मां मुझे अनसुनी कर इधर-उधर हो गईं. फिर मैं ध्यान देने लगी कि बुआ जी की चर्चा करने पर घर में कोई कुछ बताना नहीं चाहता है. एक तरह से समझ में आने लगा कि उनकी चर्चा पर सब कतराने लगते हैं. बहरहाल जीवन में इतना कुछ घटित हो रहा था कि बुआ जी जल्द ही नेपथ्य में चली गईं; जिज्ञासाओं के मंच से. ज़िंदगी की व्यस्तताएं यूं करवट लेने लगीं कि बुआजी जैसे बहुत से लोग स्मृति वन में अपने पदचाप सहित गुम हो गए. ससुर जी की भी दूसरे शहर में पोस्टिंग थी. सो पुश्तैनी घर जाने का मौक़ा एकाध वर्ष नहीं लगा. उस वक़्त मोबाइल फ़ोन अस्तित्व में आया भी नहीं था अन्यथा रिश्ते रिसने से पूर्व संपर्क में आते ही. मैं नौकरी के साथ-साथ अपनी गृहस्थी में भी पूरी तरह रम चुकी थी.
हां, बुआ जी सबकी बातचीत में हवा के झोंके की तरह कभी-कभी आती-जाती रहतीं. एक बार मेरी तलाक़शुदा दुर्वासा सदृश्य बड़ी ननद की बातों में कम्मो बुआ मेरे लिए फिर जीवंत हो उठीं जब उन्होंने कहा,“मुझे तुम लोग कम्मो बुआ मत समझना. अच्छा हुआ जो मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली, वरना तुम सब मुझे भी कम्मो बुआ बना कर ही छोड़ देते.’’
उस दिन दीदी ने स्मृति वन से बुआजी को खींचकर बाहर ला ही दिया. मन में घुमड़ने लगा जाने वे क्या कहना चाहती थीं उस दिन. दरअस्ल, बात हो रही थी मेरे साथ किसी महिला की रहने की क्योंकि मेरी गर्भावस्था का अंतिम चरण था. ननद रानी को किसी ने कहा भी नहीं था पर वे यूं ही सेल्फ़ प्रोटेक्शन में शब्द बाण छोड़ रही थीं.
“दीदी क्या हुआ था कम्मो बुआ को, आपने जो ऐसा कहा?’’ बुआ के बारे में अपनी समस्त उत्सुकताओं को मन की डिबिया में दबाए मैंने यथासंभव एक नन्हा-सा प्रश्न उछाला था ननद रानी की ओर. उनकी तुनुकमिज़ाजी और ग़ुस्सैल स्वभाव का परिचय सूत्र मुझे पूर्व में अनुभव हो चुका था. बोलकर मैं स्वयं उधर से मुख मोड़ चुकी थी, क्योंकि मैं खानदान के इस व्यवहार से परिचित हो चुकी थी कि बुआ के बारे में कुछ पूछा जाए तो झट उलटे दिशा में मुड़ जाना है. परन्तु इस बार तो सिर्फ़ बोल ही नहीं फूटे, बल्कि ज्ञानवर्धन भी हुआ, दीदी ने उस रहस्यमयी परदे को अनावृत कर ही दिया उस दिन, जाने किस मूड में थीं.
बुआ चौदह साल की थीं, जब उनकी शादी हुई. उनके पति तब उन्नीस-बीस साल के रहे होंगे. इनके रूप की चर्चा बचपन से ही थी. घर की बाक़ी बहनें ईर्ष्या करतीं इनकी सुंदरता पर. एक विवाह समारोह में देखकर उनकी सास ने वहीं हाथ में अपने कंगन खोल पहनाकर लड़की छेक लिया था कि कोई और न इसे अपनी बहू बना ले. दूसरी बहनों के वरसंधान में जहां दादा ससुर की एड़ियां घिस गई थीं, वहीं सबसे छोटी कमला को बैठे-बिठाए इतने बड़े घर से रिश्ता मिल गया था. इन सबके बीच उनकी कम उम्र को ले किसी को भी कोई फ़िक्र नहीं हुई थी. बहनों की आंखों का कांटा बन गया कम्मो का सौभाग्य. शादी में अभी कुछ महीने थे पर भावी ससुराल से आए दिन कोई न कोई आता, उनसे मिलता और कुछ नेग पकड़ाकर ही जाता. भावी सास भी दो-तीन बार चक्कर लगा गई और जब आतीं कम्मो के लिए महंगी साड़ियां, गहने और उपहार ले कर आतीं और अपने हाथों उन्हें सजा संवारकर निहाल होतीं. नहीं आए तो बस उनके भावी पति. चौदह वर्ष की बालिका अपने नए गहनों-कपड़ों में ही मगन थी कि शादी का दिन क़रीब आ गया.
शादी बहुत धूमधाम से हुई थी, घर खानदान में वैसी वैभवशाली बारात नहीं आई थी. दादा ससुर जी ने भी दिल खोलकर स्वागत सत्कार किया था. सबसे छोटी बेटी की विदाई जो थी. बारात तीन दिनों तक रखी गई थी. हर दिन चारों वक़्त अलग-अलग मेन्यू और मिष्ठान की व्यवस्था की गई थी. कम्मो बुआ के पति जब दरवाज़े पर आए तो एक साथ कितनों के दिलों पर सांप लोट गया. कमला बुआ से पहले वाली बहन के मुंह से निकल भी पड़ा था,“बाबूजी को मेरे वक़्त इस लड़के का पता क्यूं नहीं चला?”
दूल्हे को परीछते वक़्त दिए की लौ से पान पत्ते को कुछ अधिक ही सेंक लिया था; जिसने नवेले दूल्हे के गोरे मुखड़े पर जलने के लक्षण उभारने में कोई कसर नहीं छोड़ा और अपनी दिल की भावना को उसके गाल पर परिलक्षित कर ही दिया. दर्द से तिलमिला सहम कर उसने भरे नैनों से उन्हें देखा था. एक विद्रूप-सी हंसी के साथ मझली बुआ ने आरती परिछावन का थाल किसी और को पकड़ा दिया था अपनी चमड़ी और दिल के रंग को अपनी करनी से चरितार्थ करते हुए. जयमाल का रिवाज न था. फेरों के वक़्त भारी साड़ी और उस पर जड़ाऊ चादर के तले दबी-सिमटी बुआ कपड़े गहने संभालती ही दुहरी हुई जा रही थीं. किनके संग फेरे लिए, किसने मांग भरी उसका मुखड़ा तब तक नहीं ही देख पाई थीं. विवाह समाप्त होते-होते भोर हो गई, विदाई का मुहूर्त सूर्योदय से पहले का ही था. सो कोहबर की रस्मों को जल्दी निपटाकर, खोइंचा भर उनकी विदाई कर दी गई. तीन दिनों से मेहमान बने उनींदे से सारे बाराती झटपट पहले से तैयार बस में जा बैठे थे.
इतना बताने के बाद मेरी ननद अब बिलकुल गंभीर मुखमुद्रा अख़्तियार कर किसी सोच में डूब चुप हो गईं. उनकी भाव भंगिमा देख मुझपर एक भय-सा तारी हो गया. मैं चुप हो इंतज़ार करने लगी कि स्वत: ही उनकी अन्मयस्कता दूर हो. तलाक़शुदा अपनी इस प्रोफ़ेसर ननद के कड़क व्यवहार से मैं क्या सब डरते थे घर पर. पर मैंने महसूस किया था कि जब से मैं गर्भवती हुई थी, इनका व्यवहार मेरे प्रति दिनोंदिन नरम होते जा रहा था. आए दिन वे अपने शहर से इधर का चक्कर लगाने लगी थीं. उसी मुलायमियत का ही नतीजा था जो मैं बैठी उनसे बुआ जी के विगत को जान रही थी.
“देखो सुधा, अब तुमसे क्या छुपाना, अब तो तुम इसी घर की हो,’’ दीदी की आवाज़ कहीं दूर से आती प्रतीत हुई.
“हम सबने भी तो सुना ही है बस. घर पर कोई ज़िक्र नहीं करता है उस घटना के बारे में.”
उनके चेहरे पर उगती जा रही ग़मगीन लकीरें मुझे किसी बहुत बड़े रहस्योद्घाटन का संकेत देने लगी थीं. बारात विदा कर सब इधर उधर लेटे-बैठे थकान उतारने लगे. अधिकतर लोगों को जिधर जगह मिली पैर फैला सोने का उपक्रम करने लगे. हलवाई ने दिन चढ़े कढ़ाई चढ़ा नाश्ते का प्रबंध शुरू किया.
‘अब तक कमला अपने ससुराल पहुंच गई होगी, मंगलाचार स्वागत गीत हो रहे होंगे...’
‘यहां से रांची कितनी देर लगती होगी?’
‘ओरमांझी घाटी में जाम न मिले तो भी सात-आठ घंटे तो लग ही जाएंगे.’
घर में बातें चल रही थीं कि किसी मोटरसाइकिल वाले के रुकने की आवाज़ आई. बड़े ज़ोरों की धम से गिरने की भी आवाज़ आई अचानक. इतना बताकर ननद कुछ क्षणों के लिए चुप हो गईं, मुझे अनिष्ट का भान हो गया.
“उस दिन बारातियों से भरी बस घाटी में पलट गई थी और बारातीगण वापस रांची पहुंचे ही नहीं.”
दीदी की बातों को सुन मन ऐसा विचलित हो गया कि कुछ और सुनने की उत्सुकता ही नहीं बची. दीदी की आंखों से भी अविरल आंसू बहते रहें. घर-परिवार यही होता है ना, सब एक दूजे से जुड़े हुए; दुख-सुख के साथी भागीदार.
कुछ ही दिनों में मैं एक शरीर से दो हुई और तब तक बुआ जी भी आ ही गई थीं. अब इतने दिनों में ये समझ आ गया था कि उनके बिना यहां कोई प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता है. फिर धीरे-धीरे सब अपनी नौकरियों पर लौट गए. बुआजी रह गईं मेरी और बच्चे की देखभाल के लिए. उसी बीच में हरियाली तीज पड़ी. बुआजी को पूरे नेम धर्म से व्रत पूजा और साज श्रृंगार करते देख आश्चर्य लग रहा था. किसके लिए ये सुहागिनों वाला पर्व कर रहीं, किसके नाम की मेहंदी रचाई है इन्होंने. फिर मन ने कहा अब जिसमें ख़ुशी मिले, करनी चाहिए. उस दिन गौरी पूजा कर शाम को वे मेरे बगल में लेटी हुई थीं.
“सुधा, मुझे लगभग चालीस साल हो गए तीज करते हुए, जाने उस जन्म में क्या गलती की थी... अब कम से कम अगले जन्म में सब ठीक हो...,’’ ये कहते उनका गला भर आया. कुछ इंतज़ार के बाद बुआ जी ने उठकर बैठते हुए पूछा,“सुधा तुम तो रांची से हो ना?”
“जी बुआजी,’’ अचानक मुझे याद आया दीदी ने बताया था कि बुआ जी की शादी रांची में हुई थी.
“कभी जनप्रिय भण्डार गई हो? जो एमजी रोड पर है?”
आंखों के सामने दुकान तैर गया, मम्मी तो महीने का समान वर्षों से वहीं से लेती थीं. दरअस्ल, दुकान मालिक से पापा-मम्मी का दोस्ताना व्यवहार भी था.
“जब से जानी थी कि तुम रांची से हो, मुझे बहुत उत्कंठा थी तुमसे जानने कि वो कैसे हैं,’’ उपवास के बाद क्लांत चेहरे पर एक स्पष्ट लज्जा की किरण परिलक्षित थी.
“कौन बुआ जी?’’ आश्चर्य अपनी सीमाओं को अतिक्रमित करने को आतुर था.
“जो उसके मालिक हैं, वही तो तुमलोग के फूफा जी हैं.”
“क्या फूफा जी...?” पर दीदी ने कहा था...
“तुम्हें तो पता ही होगा कि अपनी शादी में मैं साक्षात यमराज ही साबित हुई थी. ससुराल की देहरी पर पांव धरने के पूर्व ही मेरी सास, ननदों और जेठानी की मांग उजड़ चुकी थी. सच मैं पूरे बारातियों के लिए मौत का सामान ही साबित हुई, उंघते उनींदे ड्राइवर की गलती की सजा मुझे ताउम्र भोगनी है. पर अपने पति के लिए तो सावित्री साबित हुई ना, उन चार छोटे बच्चों के लिए भी; तो मुझे जीवनदायनी समझनी चाहिए, जो मेरे साथ कार में थे और सकुशल घर तक पहुंच गए.”
...और मैं अब तक समझ रही थी कि फूफा जी भी...
“इसी से करती हूं तीज, पहने रहती हूं मंगलसूत्र और सिन्दूर, ताकि जिनके साथ फेरे लिए थे वो सकुशल रहें. मैं तो उन्हीं लाल कपड़ों में गठरी बनी बैठी रह गई उस आंगन में क्षत विक्षत शरीरों और क्रंदन के बीच. गुनाहगारों की तरह हर आंसू की छड़ी से पिटती रही, हर प्रत्यापित दोष से हथेलियों की मेहंदी रगड़ती सुनती रही.
‘‘चौथे दिन मुझ घोषित ठुकराई हुई अशगुनी को तीनों भाई उठाकर लेते आए. बाबूजी तो उस दिन खबर को सुन जो गिरे फिर उनकी अर्थी ही उठी. भाइयों ने न सिर्फ अपनी गृहस्थी में मुझे जगह दी, बल्कि जायजाद में भी हिस्सेदारी दी. दुनिया के लिए मैं अपशकुनी हुई होगी, पर मेरे भाई-भाभियों ने हमेशा सब शुभ कार्य मुझसे ही करवाए. कभी किसी ने मेरे समक्ष चर्चा तक नहीं किया, पर मैं भूली ही कब थी.
“न कभी कोई विदा कराने आया; न कभी किसी ने मेरी फिर विदाई की सोची. चाबियों के गुच्छों के कमर बदल गए, घर के मालिकों के चेहरे बदल गए. पर मैं तो जस की तस रही, न कुंवारी रही न ब्याहता. सांसें चलती रहीं जिंदगी रुकी रही. लकड़ी जल कोयला भई, कोयला भई राख. मैं पापन ऐसी जली कोयला भई न राख...
‘‘सुधा, बता न लोकप्रिय भण्डार के मालिक को देखा है? कैसे हैं वो?” बुआजी निर्विकार भाव से बार-बार पूछ रही थीं.
...और मेरी आंखों के समक्ष तैर गया जनप्रिय भण्डार के मालिक का सुंदर गौर वर्ण, लंबा ऊंचा क़द मुस्कुराता सौम्य चेहरा, जिन्हें मैंने सैकड़ों बार बचपन से देखा होगा. मन ही मन मैं जोड़ने लगी इन दोनों को. एक सपना बनने-बिगड़ने लगा, बुआ-फूफा जी को साथ कर देने की स्वप्निल बदरियां तैरने लगीं इन पगले नैनों में. पर, घर के लोग जब इस विषय पर तटस्थ रहते हैं तो मैं क्यों चालीस वर्ष पूर्व के गड़े मुर्दे को उखाड़ने का काम करूं?
“नहीं बुआजी मैंने तो नहीं देखी ऐसी कोई दुकान,’’ मेरे इस सपाट पटाक्षेप पर उन्होंने अविश्वसनीय दृष्टि से मुझे ताका. मैंने पारिवारिक परम्परा को निभाते हुए मुंह घुमा लिया. देर तक अपनी पीठ पर उनके प्रश्नवाचक नयनों के तीर को महसूसती रही. अलबत्ता अपनी मम्मी से उनके बारे में अवश्य बातें करती रहती. मम्मी ने ही बताया कि फूफाजी ने दुबारा शादी नहीं की थी और सारी ज़िंदगी भाभी, बहनों और दूसरों के बच्चों को पालने में होम किया, मानो कोई प्रायश्चित करते रहे. अब अकेलेपन की ज़िंदगानी काट रहे हैं.
एक बात मम्मी ने और की थी, बरसों से सुप्त पड़ी चिंगारी हो हवा देना आरम्भ कर दिया था. यदा-कदा उनकी पत्नी यानी हमारी बुआ सास का ज़िक्र छेड़ उनकी वियोग गाथा भी सुना डालती. जो होता है वह संयोगवश नहीं बल्कि किसी कारण से ही घटित होता है और मेरी शादी भी शायद अकारण नहीं हुई होगी इस घर में. इधर कुछ दिनों से मम्मी ने फूफाजी की बीमारी और अकेलेपन की बातें मुझे सुनानी शुरू कर दिया था. जिन रिश्तेदारों के लिए उन्होंने अपनी पत्नी को त्याग दिया था, वे आज उन्हें त्याग चुके थे. लोग तो आजकल मां-बाप के नहीं होते हैं तो फिर ये तो किसी के मामा थे तो किसी के चाचा. समय के साथ सबके घाव भर गए, सब ज़िंदगी में आगे बढ़ गए, केवल रुकीं यहां बुआजी और वहां फूफाजी की ज़िंदगानियां.
मैंने ऑफ़िस जाना शुरू कर दिया था. मैंने बुआजी को वहां पुश्तैनी मकान में वापस नहीं जाने दिया था, आख़िर अकेले ही तो रहना होगा उन्हें वहां. हर कोई इतने बरस से उनसे स्वार्थ ही तो साधता रहा था परिवार में, मैं भी अपवाद नहीं थी, नहीं कहूंगी कि मैंने नि:स्वार्थ ही रोका था.
उस दिन मेरे मम्मी-पापा आने वाले थे, हमसब व्यस्त थे कि डोर बेल बज उठी.
‘‘सुधा लगता है तेरे पापा-मम्मी आ गए, मैं दरवाजा खोलती हूं,’’ बुआजी ने मुन्ने को गोद में खिलाते हुए कहा.
‘‘मुन्ने की नानी आएगी, नानी खिलौने लाएगी...,’’ कहती बुआ दरवाज़ा खोलने लगीं.
‘‘सुधा देख जरा कोई आया है बाहर, मैं नहीं पहचान रही..’’ बुआजी ने रसोई में आकर धीरे से मुझे कहा. मैं रसोई से बैठक में आई तो मानों मुझे करंट लग गया. तभी पापा-मम्मी भी अंदर आ गए.
‘‘बुआ बुआ... आओ इधर,’’ मैंने कम्मो बुआ को पुकारा.
‘‘बुआ इनसे मिलो इनका रांची में जनप्रिय भण्डार नाम की दुकान है.’’
अब बुआ के चौंकने की बारी थी, वे आंखें मलती हुईं दुबारा हड़बड़ी में बैठक में आ खड़ी हो गईं.
सच में मेरे पापा-मम्मी उस दिन मेरे ससुरालवालों के लिए ख़ुशियों की चाबी ले कर आए थे.
‘‘कमला, मैं तुम्हें लेने आया हूं, जो गलती मैंने की है तुम्हारे साथ, उसकी कोई माफी तो नहीं होगी मैं जानता हूं. पर जीवनसंध्या में तुम संग होगी तो कुछ प्रायश्चित अवश्य कर सकूंगा. जवानी तो कट गई पर बुढ़ापा तन्हा काटे न कट रहा,’’ उन्होंने अपनी धीर गंभीर वाणी में कहा.
बुआ इस औचक आगत से आवाक् थीं, अविश्वसनीयता से निढाल हो वहीं एक कुर्सी पर ढेर-सी हो गईं. बस डबडबाई नयनों से सबको ताक रही थीं, जिनमें हज़ारों हज़ार सवाल आंसुओं संग सैलाब बनने को आतुर हो रहे थे.
जब तक सबने खाना-पीना किया, मैंने उनका बक्सा तैयार कर दिया, जिसमें उनके कुछ कपड़े और दवाइयां थीं. पर उनके आंसुओं को मैं कैसे समेटती, हज़ारों तन्हा रातों की बेबसी को कैसे भरती बक्से में. बक्सा तो इतना बड़ा था ही नहीं, जो उस इल्ज़ाम को पनाह दे देता, जिसकी मार वह ताउम्र झेलती रही थीं. चौदह साल की बच्ची के मानस पर छाई उस खौफ़नाक यादों का मैं क्या करती, जो उम्र के साथ प्रौढ़ नहीं हुआ था. उस आस्था और विश्वास का मैं क्या करती, जिसके चलते वो बिना पति का मुख देखे तीज करती रहीं...
फिर बुआ की आंखों का प्रश्न सबको मथने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा था कि आख़िरकार बुढ़ापे में ही क्यों याद आई? मानों न पहले मेरी अस्तित्व की कोई अहमियत थी न अब है.
मैंने बहुत जतन किया कि अपनी प्रौढ़ा बुआ सास के आंचल में ख़ुशियों का खोइंचा भरूं...
बुआ अपने घर जा रही थीं. मैं समझ नहीं पा रही थी कि वे ख़ुश हैं या नहीं! विचारों में मग्न वे फूफाजी के साथ कार में जा बैठीं. सज़ा की अवधि भले पूरी हो गई थी, पर सांसों के परिंदे तो कारावास के बाहर उड़ना भूल चुके थे. ज़िंदगीभर सबने स्वार्थसिद्धि ही की थी, अब जीवनसंध्या में कुछ पल अपने लिए जीने जा रही थीं. शायद राख में कुछ अंगारे जलने से शेष रह गए थे.
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