कहानी- राहुल का ख़त

राहुल मेरे बनाये भोजन की खुले दिल से प्रशंसा करता और प्रशंसा की भूखी मैं उसकी पसन्द का विशेष ख़याल रखने लगी थी. डाइनिंग टेबल पर भी मेरा अधिक ध्यान उसी के ऊपर केन्द्रित रहता था.

कभी-कभी मैं विचारती कि कहीं मैं विकास की उपेक्षा तो नहीं कर रही हूं, पर इसे अपना भ्रम समझ इस विचार को परे झटक देती थी.

लॉन में कोई पौधा रोपित करना हो या घर के किसी कोने में कोई शो पीस रखना हो… कहीं घूमने जाना हो या घर में कुछ नया लाना हो… हर बात में राहुल का सहयोग या कहें दखलअंदाज़ी होने लगी थी. वह भी अपने अधिकतर कार्यों की सलाह मुझसे ही लिया करता था. उसकी अधिकतर शॉपिंग भी मेरे साथ ही होती थी.

राहुल का ख़त मेरे हाथ में फड़फड़ा रहा था, पढ़ने के बाद से ही विचित्र झंझावात मेरे मन-मस्तिष्क में द्वंद्व मचाये हुए था. पत्र में लिखे शब्दों पर मैं यक़ीन नहीं कर पा रही थी.

मेरे अपनत्व और देखभाल का ये परिणाम भी हो सकता है, ये मेरी कल्पना से बाहर था. ख़त को हाथ में दबाये मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सी सोफे में धंस गयी थी और साल भर पहले की घटनाएं चलचित्र की तरह मेरी आंखों में तैरने लगी थीं.

दरवाज़े पर लगी कॉलबेल अपनी मधुर आवाज़ में गुनगुना उठी और हाथ की पत्रिका रख मुझे उठना पड़ा था.

दरवाज़ा खोला तो सामने एक नौजवान खड़ा था. “नमस्कार दीदी.” दोनों हाथ जोड़ वह बोला. मैं उसके अभिवादन का उत्तर देती, इससे पूर्व ही उसने मेरे चरण स्पर्श भी कर लिये थे. एक अनजान व्यक्ति से मिले इस सम्मान से मैं थोड़ी अचकचा गयी थी. प्रश्‍नवाचक निगाहों से देखते हुए मैंने कहा, “मैं तुम्हें पहचान नहीं पा रही हूं.”

“हां दीदी, आप मुझे बहुत दिनों बाद देख रही हैं न इसलिये. मैं राहुल हूं- आपकी मीना मौसी का बेटा.”

अचानक ख़ुशी से मेरा चेहरा खिल उठा, “ओह! तुम राहुल हो, कितना बदल गये हो, आओ अन्दर आओ… आज इतने दिनों बाद तुम्हें अपनी दीदी की याद आयी.” शिकायती लहज़े में मैं बोली थी. “यहां पर एक प्राइवेट फर्म में मुझे असिस्टेन्ट मैनेजर के पद पर नियुक्ति मिली है. आने से पहले मम्मी ने आपका पता दे दिया था, कहा था ज़रूर मिलकर आना.”

“अच्छा, तो जनाब मम्मी के कहने पर आये हैं.” आत्मीयता भरे स्वर में मैंने कहा था.

“नहीं दीदी, ऐसी बात नहीं है, आप तो मुझे बराबर याद रहती हैं, बस मिलना ही नहीं हो पाया.” हंसते हुए उसने मेरी शिकायत दूर करनी चाही थी.

“मैं चाय बनाकर लाती हूं, फिर बैठकर आराम से बातें करेंगे.”

राहुल मेरी मम्मी की चचेरी बहन मीना मौसी का बेटा था. बचपन से ही मैं मौसी के काफ़ी क़रीब थी और जब भी राहुल को लेकर मौसी हमारे घर आती थीं, मैं पूरे दिन उसे गोदी में लिए घूमती रहती थी.

व़क़्त धीरे-धीरे इसी तरह बीतता गया. मेरे विवाह के अवसर पर राहुल क़रीब 12-13 वर्ष का था, मेरी विदाई के समय भी वह फूट-फूट कर रोया था.

मैं अपनी गृहस्थी में रच-बस गयी. दो साल बाद ही मेरी गोद में प्रियांशु आ गया था. जब वह स्कूल जाने के लायक हुआ तो मेरा मायके जाना बस उसकी छुट्टियों तक ही सीमित हो गया था.

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इस बीच मौसी और राहुल से एक-दो बार ही मिलना हो पाया था. बाद में तो मम्मी से फ़ोन पर ही सभी रिश्तेदारों के हालचाल पूछे जाने लगे थे. आज इतने दिनों बाद राहुल को देखा तो पहचान नहीं पायी थी, बहुत सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व पाया है उसने.

चाय कपों में डालकर मैं ड्रॉइंगरूम में आकर बैठ गयी. “तुम यहां आये कब और कहां रुके हो?” चाय का कप पकड़ाते हुए मैंने प्रश्‍न किया.

“कल ही आया हूं, यहां वैशाली होटल में रुका हूं, कल वापस जाकर अपना सामान भी लाना है और उससे पहले रहने के लिये कोई कमरा भी खोजना है.” चाय की चुस्की लेते हुए वह बोला.

“रहने के लिये कमरा? अरे, खोजने की ज़रूरत क्या है, हमारा ऊपरवाला वन रूम सेट खाली पड़ा है, तुम आराम से यहां रह सकते हो.” मैंने उसे सुझाव दिया था.

“पर दीदी, मेरा यहां रहना ठीक होगा?” असमंजस की स्थिति में उसने पूछा.

“इसमें सही और ग़लत की क्या बात है? तुम किरायेदार की तरह ही रह लेना.” मैंने उसकी दुविधा दूर करने का प्रयास किया था.

मेरे काफ़ी ज़ोर देने के बाद अंतत: वह हमारे यहां रहने को तैयार हो गया और ह़फ़्ते भर बाद अपने सामान के साथ आने को कहकर चला गया.

शाम को विकास के ऑफ़िस से लौटने पर सबसे पहले मैंने उन्हें दिनभर का वाक्या ज्यों का त्यों सुना दिया था. मेरे यह बताने पर कि मैंने उसे ऊपर के कमरे में रहने के लिए कह दिया है, विकास मेरी ओर व्यंग्यात्मक नज़रों से देखने लगे थे.

मैं उन नज़रों का आशय तुरन्त ही समझ गयी थी, क्योंकि कुछ महीने पहले जब विकास की बुआजी के लड़के को कमरा देने की बात उठी थी तो मैंने अपने इस तर्क से कि रिश्तेदारों से दूर ही रहना चाहिए, उसे खारिज़ कर दिया था.

अक्सर मैं अपने तर्कों से विकास को निरुत्तर कर दिया करती थी. विकास बहुत ही शांत स्वभाव के थे, इसलिए वह कभी मुझसे बहस जैसे पचड़ों में नहीं पड़ते थे और उनके चुप रहने या मेरी बात मान लेने की आदत को मैं अपनी जीत समझ कर ख़ुश होती रहती थी. हालांकि मैं सच्चाई से वाक़िफ थी, पर स्वयं को भुलावे में रखना शायद मेरी नियति बन गयी थी. और इस बार भी ऐसा ही हुआ, “जैसा तुम ठीक समझो.” कहकर विकास अपनी फाइल में उलझ गये थे. उनका काम में उलझे रहना कभी-कभी मुझे बहुत खलता था, जबकि मैं जानती थी कि वह जो कुछ कर रहे हैं मेरे लिए ही कर रहे हैं. पर फिर भी दिल चाहता था कि कभी-कभी वे इत्मीनान से मेरे पास बैठें, कुछ प्यार भरी बातें करें… मेरी तारीफ़ में कुछ शब्द कहें- पर ये सब तो शायद अब गुज़रे ज़माने की बातें हो गयी थीं.

मैं अपनी घर-गृहस्थी में लगी रहती और वह अपने बिज़नेस में… दिन यूं ही कट जाता था. संक्षेप में कहें तो ज़िन्दगी कुछ-कुछ नीरसता के मार्ग पर बढ़ती जा रही थी, पर इस रूटीन में राहुल के आगमन से कुछ परिवर्तन हुआ था.

ह़फ़्ते भर बाद राहुल अपने छोटे-मोटे सामान के साथ आकर ऊपरवाले कमरे में व्यवस्थित हो गया था. उसके आने से अब घर भरा-भरा लगने लगा था.

ऑफ़िस से लौटने के बाद वह अपना अधिकतर समय हम लोगों के साथ ही व्यतीत करता था. प्रियांशु को उससे ख़ासा लगाव हो गया था. बात-बात पर जोक्स सुनाने की उसकी कला हमें हंसाती ही रहती थी.

पहले कुछ दिन उसने खाना बाहर होटल में ही खाया, फिर मैं ही उसका खाना भी बनाने लगी थी. वह कहता, “दीदी, आप क्यों परेशान होती हैं? मैं बाहर ही खा लूंगा.”

“अच्छा, घर होते हुए तुम बाहर खाना खाओगे, जाने कैसा होता है, कहीं बीमार पड़ गए तो मौसी कहेंगी कि मेरे बेटे का ख़्याल भी नहीं रखा.” कहते हुए मैं उसकी प्लेट में और सब्ज़ी रख देती थी.

राहुल मेरे बनाये भोजन की खुले दिल से प्रशंसा करता और प्रशंसा की भूखी मैं उसकी पसन्द का विशेष ख़याल रखने लगी थी. डाइनिंग टेबल पर भी मेरा अधिक ध्यान उसी के ऊपर केन्द्रित रहता था.

कभी-कभी मैं विचारती कि कहीं मैं विकास की उपेक्षा तो नहीं कर रही हूं, पर इसे अपना भ्रम समझ इस विचार को परे झटक देती थी.

लॉन में कोई पौधा रोपित करना हो या घर के किसी कोने में कोई शो पीस रखना हो… कहीं घूमने जाना हो या घर में कुछ नया लाना हो… हर बात में राहुल का सहयोग या कहें दखलअंदाज़ी होने लगी थी. वह भी अपने अधिकतर कार्यों की सलाह मुझसे ही लिया करता था. उसकी अधिकतर शॉपिंग भी मेरे साथ ही होती थी.

एक दिन सुबह का नाश्ता मैं टेबल पर लगा चुकी थी, पर राहुल अभी तक अपने कमरे से निकलकर नहीं आया था. मैंने एक-दो बार उसे पुकारा भी, परन्तु उसकी तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया न पाकर मैं और विकास दोनों ही ऊपर पहुंचे थे.

कमरे का दरवाज़ा खोलकर देखा, वह पलंग पर लेटा कराह रहा था. मैंने उसका माथा छूकर देखा- वह तेज़ बुखार से तप रहा था.

“अरे, तुम्हें तो तेज़ बुख़ार है, तुमने बताया भी नहीं.” चिंतित होते हुए मैं बोली. मैंने तुरन्त ही विकास को डॉक्टर ले आने को भेज दिया था.

डॉक्टर के आने तक मैं उसके सिरहाने बैठकर उसका माथा सहलाती रही और वह मेरा एक हाथ पकड़ आंखें बन्द किए चुपचाप लेटा रहा. डॉक्टर ने बताया कोई ख़ास चिन्ता की बात नहीं है, मलेरिया है, जल्द ही ठीक हो जायेगा.

अब उसकी देखभाल पूरी तरह मुझे ही करनी थी. बार-बार ऊपर-नीचे की भागदौड़ से बचने के लिए मैंने नीचे ही उसे गेस्ट रूम में बुला लिया था.

सुबह से शाम दो-तीन दिन मैं काफ़ी व्यस्त रही. कभी चाय, कभी दूध-ब्रेड तो कभी दवाई आदि में ही पूरा दिन व्यतीत हो जाता था. इस बीच विकास और प्रियांशु की ओर भी मैं अधिक ध्यान नहीं दे पा रही थी.

चौथे दिन राहुल स्वयं को थोड़ा बेहतर महसूस कर रहा था, हालांकि चार दिन के बुखार से उसका चेहरा कुम्हला गया था.

“दीदी, अब मैं ऊपर कमरे में ही चला जाता हूं, इतने दिन से आपको परेशान कर रहा हूं.” कहते हुए वह जैसे ही उठा कि अचानक लड़खड़ा गया. मैं पास ही खड़ी थी, आगे बढ़ मैंने उसे जल्दी से थाम लिया था. फिर आगे सहारा देते हुए वापस पलंग पर बैठाया.

“अभी तुम यहीं आराम करो, जब पूरी तरह ठीक हो जाओ तब चले जाना.” मैंने प्यार से समझाते हुए कहा.

अजीब-सी नज़रों से देखते हुए राहुल ने मेरे हाथों को अपने से अलग करते हुए मद्धिम स्वर में कहा, “नहीं, मैं ठीक हूं.” फिर मेरी ओर देखे बिना वह सीधे ऊपर अपने कमरे में चला गया.

उसका व्यवहार मुझे कुछ अचंभित कर रहा था, पर मैंने सोचा शायद बीमारी की वजह से वह थोड़ा डिस्टर्ब होगा, तबीयत सुधरेगी तो ठीक हो जायेगा. अत: मैं अपने काम में लग गयी थी.

शाम को राहुल का खाना मैं ऊपर कमरे में ही ले गयी. खिड़की के पास बैठा राहुल चुपचाप बाहर ताक रहा था. चेहरे पर उलझन के भाव स्पष्ट दृष्टिगोचर थे. मैं कुछ देर चुपचाप खड़ी रही, ये सोचकर कि उसे मेरी उपस्थिति का एहसास हो, पर वह ऐसे ही निर्विघ्न बैठा रहा.

खाना टेबल पर रखकर मैं उसके पीछे खड़ी हो गयी. “राहुल, अब कैसे हो?” अचानक मेरी आवाज़ सुन वह हड़बड़ा गया था, जैसे नींद से जागा हो.

“मैं खाना लाई हूं.”

“आप रख दीजिए, मैं खा लूंगा.” बोलकर वह फिर खिड़की से बाहर देखने लगा.

अपनी उपेक्षा मेरी समझ में नहीं आ रही थी, मैं चुपचाप वापस आ गयी थी. उस रात मैं ठीक से सो भी न सकी. बार-बार करवट बदलने से विकास को लगा शायद मैं कुछ उलझन में हूं.

“क्या बात है? नींद नहीं आ रही? कुछ परेशानी है?” विकास के पूछने पर मैं बोली, “नहीं, बस ऐसे ही, शायद थकान के कारण है.” इस पर विकास मेरा सर सहलाने लगे. उनके प्यार भरे स्पर्श से मैं जल्द ही नींद के आगोश में समा गयी थी.

इसके बाद राहुल का व्यवहार दिन पर दिन रूखा होता जा रहा था. सुबह वह जल्दी निकल जाता और देर रात  लौट कर सीधे अपने कमरे में चला जाता. हम लोगों के साथ उसका उठना-बैठना, खाना, हंसना, बोलना लगभग बन्द हो गया था.

मैं जब भी इस विषय में उससे बात करना चाहती, वह तुरन्त बात को टाल कर सामने से हट जाता था. उसके ऐसे व्यवहार से मैं दिनभर तनाव में रहने लगी थी.

एक दिन मैंने विकास से कहा, “विकास, ये राहुल को क्या हो गया है, हम लोगों से इतना दूर-दूर क्यों रहने लगा है?”

“होगी कोई बात, हो सकता है उसकी कोई पर्सनल प्रॉब्लम हो, तुम इतना परेशान क्यों होती हो.”

“आप राहुल से बात करके देखिये, मुझसे तो वह अब ठीक से बात ही नहीं करता, कहां दीदी-दीदी कहते थकता नहीं था.” मैंने अनुनय करते हुए विकास से कहा.

“तुम नाहक ही परेशान हो रही हो.” विकास ने इस बात को हल्के तौर पर लिया था, परन्तु मैं अपने अन्तर्द्वंद्व से विक्षिप्त-सी स्थिति में थी. कारण को जानने की जिज्ञासा से मैं आत्मावलोकन में व्यस्त हो गयी थी कि आख़िर कब और कहां ऐसा कुछ हुआ है, जिसने राहुल की दिनचर्या और व्यक्तित्व दोनों को अव्यवस्थित कर दिया है.

मैं व्यतीत हुई घटनाओं का मंथन कर कोई निष्कर्ष निकाल पाती, इससे पहले ही मुझे विस्मित करनेवाली घटना मेरे सामने थी.

राहुल अपना सामान बांधकर नीचे ले आया था, ऊपर के कमरे को उसने खाली कर दिया था. बाहर खड़े ऑटो में सामान लगाकर वह वापस अन्दर आया, मैं जड़वत् खड़ी देख रही थी कि यह हो क्या रहा है.

“मैं जा रहा हूं, आपको अब और परेशान नहीं करूंगा.” उसके शब्दों से मेरी आंखें छलक आयी थीं. मैंने उसके चेहरे को पढ़ना चाहा था, न जाने क्यूं उसकी आंखों में मुझे आत्मपीड़ा के भाव दिखे थे.

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“पर क्यूं राहुल, तुम हम सबको छोड़कर क्यों जा रहे हो? हमसे ऐसी क्या ग़लती हो गयी है, जिससे तुम इतने नाराज़ हो?” भरे गले से मैंने उससे पूछा था.

“ग़लती आपसे नहीं, मुझसे हुई है.”

“तुमसे?”

“हां मुझसे.” कहते हुए उसने एक लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ में पकड़ा दिया.

“शायद आपके सामने मैं अपनी ग़लती को स्वर नहीं दे पाऊंगा, इसलिए मैंने इसे शब्दों का रूप दे लिख दिया है. आप इसे मेरे जाने के बाद खोलिएगा और हो सके तो इस नादान राहुल को माफ़ कर दीजिए.”

उसके मुख से निकला एक-एक शब्द मेरी उलझन को बढ़ाता जा रहा था. इससे पहले कि मैं कुछ और प्रश्‍न करती, वह जा चुका था. उत्सुकता की चरम सीमा के साथ मैंने ख़त को खोलकर पढ़ना आरम्भ किया था-

पिछले कुछ दिनों से आप मेरे व्यवहार को लेकर बेहद चिंतित और परेशान हैं, पर उससे अधिक मैं अपने अन्दर आये परिवर्तन से व्यथित हूं. मालूम नहीं, ये मेरी उम्र के पुरुषों की प्रवृत्ति है या मेरे मन की विकृति, मैं समझ नहीं पा रहा हूं.

आपके पवित्र प्यार और अपनत्व जैसी भावनाओं के ऊपर मेरे विरूप मनोभाव हावी होने लगे हैं. आपकी अधिक नज़दीकी तथा अपनेपन के कारण मेरी नज़रें अब आपको दूसरी तरह देखने लगी हैं.

मैं स्वयं को जितना समझाता हूं उतना ही उलझता जाता हूं. ये मन भी कितना अजीब है, चींटे की मानिंद बारम्बार उसी दिशा में दौड़ता है, जिस ओर से इसे हटाया जाता है.

शायद आपने कभी ये महसूस नहीं किया होगा, क्योंकि आपने मुझे अपने बेटे और भाई के समान स्नेह दिया है, परन्तु मेरे पुरुष शरीर ने जाने-अनजाने आपके हाथों के स्पर्श भर से स्वयं को रोमांचित पाया है.

मेरा मन सारी वर्जनाओं को तोड़ समय-बेसमय आपके सामीप्य के लिए आतुर हो उठता है. उस पल स्वयं को रोकना मेरे लिए कितना दुष्कर होता है, इसका एहसास आपको लेशमात्र भी नहीं हो सकता.

एक स्त्री के सामीप्य ने मेरे अन्दर के पुरुष को सिहरा दिया है, जो उम्र और रिश्ते के बन्धन और मर्यादा की सीमारेखा से पार जाना चाहता है.

किन्तु मेरी परवरिश के साथ मुझे जो संस्कार मिले हैं, संभवत: उन्हीं के कारण अब तक इतने दिनों मैं कुछ अप्रिय घटित होने के पाप से बचा रहा. परन्तु इसकी सीमा रेखायें टूट जायें, उससे पहले इसे रोकना होगा, इसकी उच्छृंखल होती भावनाओं पर विराम लगाना ही होगा. मुझे यहां से जाना ही होगा. इसीलिए मैं जा रहा हूं. हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजियेगा. यदि मैं स्वयं को माफ़ कर सका तो जीवन में एक बार फिर आपसे अवश्य मिलूंगा.

राहुल

तेज़ हवा के झोंके से ख़त एक बार फिर फड़फड़ा उठा था और मैं बीते कल की स्मृतियों से निकल वर्तमान के कठोर धरातल पर खड़ी थी. दिल में घुमड़ते तेज़ तूफ़ान के बीच मैंने एक बार फिर से पूरा ख़त पढ़ डाला.

राहुल के ख़त ने मेरे पूरे अस्तित्व को झकझोर दिया. न जाने कितने अनुत्तरित प्रश्‍न मेरे सामने मुंह फैलाए खड़े थे जो पल-पल मेरी बेचैनी को बढ़ा रहे थे. मुझे महसूस हो रहा था मानो सारा ब्रह्मांड घूम रहा हो.

सर्वाधिक व्यथित तो मैं इस बात से थी कि किस तरह विकास को राहुल के जाने का कारण बताऊंगी. निस्तब्ध हो मैं सर थाम कर बैठ गयी.

देरे तक मंथन के बाद अंतत: मैंने निर्णय किया कि विकास को यह ख़त दिखाकर मैं उन्हें एक रिश्ते के प्रति अविश्‍वास के लिए प्रेरित नहीं करूंगी.

अपने संवेगों पर नियन्त्रण रख ये घटना मुझे अकेले ही झेलकर अपने अन्दर ही दफ़न करनी होगी.

और फिर मेरी उंगलियां राहुल के ख़त के वजूद को मिटा देने में व्यस्त हो गयीं.

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