कहानी: सत्य असत्य
‘‘रोना भी तो जीवन का एक अनिवार्य अंग है. गीता, अगर हंसना चाहती हो तो रोने का अर्थ भी समझो. अगर मीठा पसंद है तो कड़वाहट को भी सदा याद रखो. जीत की खुशी से मन भरा पड़ा है तो यह मत भूलो, हारने वाला भी कम महत्त्व नहीं रखता.
कर्ण के एक असत्य ने सब के लिए परेशानी खड़ी कर दी. जहां इसी की वजह से हुई निशा के पिता की मौत ने उसे झकझोर कर रख दिया, वहीं खुद कर्ण पछतावे की आग में सुलगता रहा. पर निशा से क्या उसे कभी माफी मिल सकी?
घर की तामीर चाहे जैसी हो, इस में रोने की कुछ जगह रखना.’ कागज पर लिखी चंद पंक्तियां निशा के हाथ में देख मैं हंस पड़ी, ‘‘घर में रोने की जगह क्यों चाहिए?’’
‘‘तो क्या रोने के लिए घर से बाहर जाना चाहिए?’’ निशा ने हंस कर कहा.
‘‘अरे भई, क्या बिना रोए जीवन नहीं काटा जा सकता?’’
‘‘रोना भी तो जीवन का एक अनिवार्य अंग है. गीता, अगर हंसना चाहती हो तो रोने का अर्थ भी समझो. अगर मीठा पसंद है तो कड़वाहट को भी सदा याद रखो. जीत की खुशी से मन भरा पड़ा है तो यह मत भूलो, हारने वाला भी कम महत्त्व नहीं रखता. वह अगर हारता नहीं तो दूसरा जीतता कैसे?’’
निशा के सांवले चेहरे पर बड़ीबड़ी आंखें मुझे सदा ही भाती रही हैं, और उस से भी ज्यादा प्यारी लगती रही हैं मुझे उस की बातें. हलके रंग के कपड़े उस पर बहुत सजते हैं.
वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘ये मशहूर शायर निदा फाजली के विचार हैं और मैं इन से पूरी तरह सहमत हूं. गीता, यह सच है, घर में एक ऐसा कोना जरूर होना चाहिए जहां इंसान जी भर कर रो सके.’’
‘‘तुम्हारा मतलब है, जैसे घर में रसोईघर, सोने का कमरा, अतिथि कक्ष, क्या वैसा ही? मगर इतनी महंगाई में कैसे होगा यह सब? सुना है, राजामहाराजा रानियों के लिए कोपभवन बनवाते थे. क्या तुम भी वैसा ही कोई कक्ष चाहती हो?’’
शायद मेरी बात में छिपा व्यंग्य उसे चुभ गया. उस ने किताबें संभालीं और उठ कर चल दी.
मैं ने उसे रोकना चाहा, मगर वह रुकी नहीं. पलभर को मुझे बुरा लगा, लेकिन जल्द ही नौर्मल हो गई.
मैं एमए के बाद बीएड कर रही थी. इसी सिलसिले में निशा से मुलाकात हो गई थी. पहली ही बार जब वह मिली, तभी इतनी अच्छी लगी थी कि कहीं गहरे मन में समा सी गई थी. पिता के सिवा उस का और कोईर् न था. पिता ही उस के सब थे. मैं उन से मिली नहीं थी, परंतु उन के बारे मैं इतना कुछ जान लिया था, मानो बहुतकुछ देखापरखा हो.
निशा के पिता विज्ञान के प्राध्यापक थे. लगभग 6 माह पहले ही उन का दिल्ली स्थानांतरण हुआ था.
‘‘आप इस से पहले कहां थीं?’’ एक दिन मैं ने पूछा तो वह बोली, ‘‘जम्मू.’’
‘‘बड़ी सुंदर जगह है न जम्मू. कश्मीर भी तो एक सुंदर जगह है. वहां तो तुम लोग जाती ही रहती होगी?’’
‘‘हां, बहुत सुंदर. कश्मीर तो अकसर जाते रहते हैं.’’
‘‘मगर तुम तो कश्मीरी नहीं लगतीं?’’
‘‘जानती हूं, दक्षिण भारतीय लगती हूं न, सभी हंसते हैं, पता नहीं क्यों. शायद मेरी मां सांवली होंगी. मगर मेरे पिता तो बहुत सुंदर हैं, कश्मीरी हैं न.’’
‘‘तुम्हारे भाईबहन?’’
‘‘कोई नहीं है. मैं और मेरे पिता, बस.’’
मां की कमी उसे खलती हो, ऐसा मुझे कभी नहीं लगा. वह मस्तभाव से हर बात करती थी.
एक दिन मेरे बड़े भैया ने मुझ से कहा, ‘‘कभी उसे घर लाना न, निशा कैसी है, जरा हम भी तो देखें.’’
‘‘अच्छा, लाऊंगी, मगर तुम इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हो?’’ भाई को तनिक छेड़ा तो पिताजी ने कहा, ‘‘अरे भई, दिलचस्पी लेने की यही तो उम्र है.’’
कहकहों के बीच एक भीनी सी इच्छा ने भी जन्म ले लिया था कि क्यों न मैं उसे अपनी भाभी ही बना लूं. वैसे है तो सांवली, लेकिन हो सकता है, भैया को पसंद आ जाए. हां, मां का पता नहीं, उन का गोरीचिट्टी बहू का सपना है, क्या पता वे इस लोभ से ऊपर न उठ पाएं.
उसी दिन से मैं उसे दूसरी ही नजर से देखने लगी थी. कल्पना में ही उसे भैया की बगल में बिठा कर दोनों की जोड़ी कैसी लगेगी. गुलाबी जोड़े में कैसी सजेगी निशा, कैसी प्यारी लगेगी.
‘गीता, क्या देखती रहती हो?’ अकसर निशा के टोकने पर ही मेरी तंद्रा भंग होती थी.
‘कुछ भी तो नहीं,’ मैं हौले से कह उठती.
एक दिन मैं ने उस से कहा, ‘‘हमारे घर चलोगी? तुम्हें सब से मिलाना चाहती हूं. चलो, मेरे साथ.’’
‘‘नहीं गीता, पिताजी को अच्छा नहीं लगता. फिर इस शहर में हम नए हैं न, किसी से इतनी जानपहचान कहां है, जो…’’
‘‘क्या मेरे साथ भी जानपहचान नहीं है?’’
‘‘कभी पिताजी के साथ ही आऊंगी, उन के बिना मैं कहीं नहीं जाती.’’
एक दिन मैं उस के साथ उस के घर चली गई. वे विश्वविद्यालय की ओर से मिले आवास में रहते थे.
उन लोगों के पास 2 चाबियां थीं. घर पहुंचने पर द्वार उसे खुद ही खोलना पड़ा, क्योंकि उस के पिता अभी नहीं आए थे. पर सुंदर, व्यवस्थित घर में मैं ने उन का चित्र जरूर देख लिया. सचमुच वे बहुत सुंदर थे. किसी भी कोने से वे मुझे उस के पिता नहीं लगे, मगर बालों की सफेदी के कारण विश्वास करना ही पड़ा.
उस ने कहा, ‘‘पिताजी को फोन कर के बुला लूं. आज तुम पहली बार आई हो?’’
‘‘नहीं निशा, क्या यह अच्छा लगेगा कि मेरी वजह से वे काम छोड़ कर चले आएं? मैं फिर कभी अपने पिताजी के साथ आ जाऊंगी. दोनों में दोस्ती हो गई तो तुम्हें हमारे घर आने से नहीं रोकेंगे न.’’
‘घर में रोने को एक कोना उसे क्यों चाहिए? क्या उस के पिता ने किसी वजह से डांट दिया?’ घर आ कर भी मैं देर तक यह सोचती रही.
एक शाम भैया को
घर में प्रवेश करते
देखा तो कह दिया, ‘‘मेरे साथ निशा के घर चलो भैया, आज वह बहुत उदास थी. पता नहीं उसे क्या हो गया है.’’
‘‘तुम गौर से सुन लो, आइंदा उस से कभी मत मिलना. वह अच्छे चरित्र की लड़की नहीं है.’’
‘‘भैया,’’ मैं चीख उठी.
‘‘तुम उस के बहुत गुणगान करती थीं. अपने बाप के बिना वह कहीं जाती नहीं. अरे, दस बार तो मैं उसे एक लड़के के साथ देख चुका हूं.’’
‘‘लेकिन,’’ मैं भाई के कथन पर अवाक रह गई. फिर सोचते हुए पूछा, ‘‘आप ने निशा को कब देखा? जानते भी हो उसे?’’
‘‘जब से घर में उस के गुण गा रही हो, तभी से उसे देख रहा हूं.’’
‘‘कहां?’’
‘‘वहीं कालेज के बाहर. जब वह अपने घर जाती है, तब.’’
‘‘क्यों देखते रहे उसे?’’
‘‘झक मारता रहा, बस. और क्या कहूं,’’ भैया पैर पटक कर भीतर चले गए.
घर में मां और पिताजी नहीं थे, इसीलिए तमतमाई सी पीछे जा पहुंची, ‘‘आप सड़कछाप लड़कों की तरह उस का पीछा करते रहे? क्या आप अच्छे चरित्र के मालिक हैं? वाह भैया, वाह.’’
‘‘तुम ने ही कहा था न कि वह जहां जाती है, अपने पिता के साथ जाती है. यहां तक कि यहां तुम्हारे साथ भी नहीं आई.’’
‘‘हां, मैं ने कहा था, लेकिन यह तो नहीं कहा था कि…लेकिन आप इतने गंभीर क्यों हो रहे हैं? क्या वह किसी के साथ आजा नहीं सकती. भैया, आखिर उसे चरित्रहीन कहने का आप को क्या हक है?’’
‘‘हक क्यों नहीं है. मैं…मैं उसे पसंद करने लगा था. वह मुझे भी उतनी ही अच्छी लगती रही है, जितनी कि तुम्हें. पिछले कई हफ्तों से मैं उस पर नजर रख रहा हूं. वह लड़का उस के घर उस से मिलने भी जाता है. मैं ने कई जगह दोनों को देखा है.’’
पहली बार लगा, मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई. अगर उस का किसी के साथ प्रेम है भी, तो मुझे बताया क्यों नहीं.
मैं ने तनिक गुस्से में कहा, ‘‘भैया, अपने शब्द वापस लो. प्रेम करने और चरित्रहीन होने में जमीनआसमान का अंतर है. वह चरित्रहीन नहीं है.’’
‘‘कैसे नहीं है? तुम ने कहा था न.’’
‘‘मेरी बात छोड़ो. मैं तो यह भी कह रही हूं कि वह अच्छी लड़की है. मात्र मेरी बातों का सहारा मत लो. अपनी जलन को कीचड़ बना कर उस के चरित्र पर मत उछालो.’’
इतना सुनते ही भैया खामोश हो गए.
मैं निशा को ले कर बराबर विचलित रही. 2-3 दिन बीत गए, पर वह कालेज नहीं आई. मैं ने बहुत चाहा कि उस के घर जा कर उस युवक के विषय में पूछूं, पर हिम्मत ही न हुई.
?एक रात फोन की घंटी घनघना उठी.
?फोन निशा का था और वह
अस्पताल से बोल रही थी. उस के पिता को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा था. भैया मेरे साथ उसी समय अस्पताल गए.
निशा के पिता आपातकक्ष में थे. हम उन्हें देखने भीतर नहीं जा सकते थे. मुझे देखते ही वह जोरजोर से रोने लगी. उन के पड़ोसी प्रोफैसर सुदीप चुपचाप पास खड़े थे.
दूसरे दिन सुबह भैया ने कहा था कि मैं निशा को अपने साथ घर ले जाऊं. पर वह हड़बड़ा गई, ‘‘नहीं गीता, मैं पिताजी को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’
निशा के मना करने पर भैया ऊंची आवाज में बोले, ‘‘यहां बैठ कर रोनेधोने से क्या वे जल्दी अच्छे हो जाएंगे? जाओ, घर जा कर कुछ खापी लो. मैं यहीं हूं. पिताजी से कह देना, आज छुट्टी ले लें. जाओ, तुम दोनों घर चली जाओ.’’
वह मेरे साथ घर आईर् तो पिताजी ने कहा, ‘‘घबराना नहीं बेटी, यह मत सोचना कि तुम इस शहर में अकेली हो. हम हैं न तुम्हारे…’’
मेरे मन में बारबार प्रश्न उठता रहा कि आखिर इस संकट की घड़ी में निशा का वह मित्र कहां गायब हो गया? क्या वह मात्र सुख का साथी था?
निशा ने नहा कर मेरी गुलाबी साड़ी पहन ली. मेरा मन भर आया कि काश, निशा मेरी भाभी बन पाती.
मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं? मुझे भैया की आंखों में बसी पीड़ा याद आने लगी.
बरामदे से मां का बिस्तर साफ दिख रहा था. सर्दी में निशा सिकुड़ी सी सोई थी. भीतर जा कर मैं ने उस के ऊपर लिहाफ ओढ़ा दिया.
नहा कर और नाश्ता कर के मैं भी अपने कमरे में जा लेटी. भैया अभी तक घर नहीं लौटे थे. थोड़ी देर बार मेरी पलकें मुंदने लगीं. परंतु शीघ्र ही ऐसा लगा, जैसे कोई मुझे पुकार रहा है, ‘गीता…गीता…उठो न.’’
सहसा मेरी नींद खुल गई. लेकिन मेरी हड़बड़ाहट की सीमा न रही. वास्तव में जो सामने था, वह अविश्वसनीय था. सामने द्वार पर भैया पगलाए से खड़े थे और मेरी पीठ के पीछे निशा छिपने का प्रयास कर रही थी. फिर किसी तरह बोली, ‘‘मेरे पैर पकड़ रहे हैं तुम्हारे भैया. कहते हैं, वे मेरे दोषी हैं. पर मैं ने तो इन्हें पहले कभी नहीं देखा.’’
‘‘गीता, मुझ से घोर ‘पाप’ हो गया. मुझे माफ कर दो, गीता,’’ भैया ने डबडबाई आंखों से मेरी ओर देखा.
सहमी सी निशा कभी मुझे और कभी उन्हें देख रही थी. उस ने हिम्मत कर के पूछा, ‘‘आप ने मेरा क्या बिगाड़ा है जो इस तरह क्षमायाचना…मेरे पिताजी को कुछ हो तो नहीं गया?’’
भैया गरदन नहीं उठा पाए. निशा के पिता का निधन हो चुका था. कैसे कहूं, क्याक्या बीत गया उन 3 दिनों में. मेरे पिता और भाई शव के साथ जम्मू चले गए. वहीं उन के नातेरिश्तेदार थे. पत्थर सी निशा भी साथ गई. एक अध्याय जैसे समाप्त हो गया.
कई दिनों तक घर का माहौल बोझल बना रहा. फिर धीरेधीरे सब सामान्य हो गया. परंतु भैया सामान्य नहीं हो पाए. कई बार मैं सोचती, उन से पूछूं कि उन्होंने खुद को निशा का दोषी क्यों कहा था?
लगभग 15-20 दिन बीत गए थे. एक शाम आंगन में भैया का बदलाबदला स्वर सुनाई दिया, ‘‘अरे निशा, आओ…आओ…’’
हाथ में अटैची पकड़े सामने निशा ही तो खड़ी थी. मां और पिताजी ने प्रश्नसूचक भाव से पहले मेरा मुंह देखा और फिर एकदूसरे का. मैं बढ़ कर उस का स्वागत करती, इस से पहले ही भैया ने उस के हाथ से अटैची ले ली.
‘‘आओ निशा, कैसी हो?’’ मैं ने पूछा तो वह मेरे गले से लग कर फूटफूट कर रो पड़ी.
मां और पिताजी ने उसे बड़े स्नेह से दुलारा.
थोड़ी देर बाद निशा आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘गीता, मेरे पिताजी को किसी ने मुझ से अलग कर दिया. पता नहीं कौन उन्हें फोन कर के यह कहता रहा कि मैं उन से छिप कर किसी से मिलती हूं. भला किसी को मुझ से क्या दुश्मनी होगी? मैं ने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा. मुझे किस अपराध की सजा मिली?’’
रोतेरोते उस की हिचकी बंध गई. सहसा मेरे मन में एक सवाल उठा कि कौन था वह जिस के साथ भैया ने उसे देखा था? किसी तरह मां ने उसे शांत किया. मैं चाय, नाश्ता ले आई. भैया गुमसुम से सामने बैठ रहे.
निशा को बीएड की परीक्षाएं तो देनी ही थीं, उसी संदर्भ में उस ने पूछा, ‘‘क्या मैं कुछ दिन पेइंगगैस्ट के रूप में आप के पास रह सकती हूं? बीएड के बाद नौकरी कर लूंगी, फिर अपने घर चली जाऊंगी.’’
‘‘अरे, यह क्या कह रही हो बेटी, यह भी तुम्हारा ही घर है. पेइंगगैस्ट नहीं, मालकिन बन कर रहो,’’ पिताजी ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.
निशा के रहने की व्यवस्था मेरे कमरे में हो गई. हमारा दिनरात का साथ हो गया. वह गृहकार्य में भी दक्ष थी, सो, मां का हाथ भी बंटाती. उस का सांवला रूप मुझे लुभालुभा जाता. परंतु एक जरा सा सत्य मुझे, बस, पीड़ा पर पीड़ा देता रहता.
अपने भाई के लिए भी मैं परेशान रहती. जब से निशा आईर् थी, वे अपने कमरे में ही कैद हो गए थे. चाय, नाश्ता सब खुद ही आ कर भीतर ले जाते. हमारे बीच बैठ कर बातचीत किए जैसे उन्हें सदियां बीत गई थीं. निशा उन की तरफ से तटस्थ थी.
मैं हैरान थी, 4-5 महीने बीतने पर भी निशा ने अपने मित्र का उल्लेख एक बार भी नहीं किया था. मैं सोचती, वह भला कब और किस वक्त उस से मिलती होगी, क्योंकि हमारा तो हर पल का साथ था. कभीकभी भैया एकटक निशा को ही निहारते रहते.
बीएड की परीक्षा हो गईर् और परीक्षाफल आतेआते एक विचित्र घटना घटी. भैया अपने एक परम मित्र से निशा की शादी करवाना चाहते थे. वे बोले, ‘‘निशा, वह कल आएगा, तुम उसे देख लेना. बहुत अच्छा इंसान है. मेरे साथ ही है, बैंक में काम करता है.’’
‘‘लेकिन कर्ण भैया,’’ पहली बार निशा ने मेरे भाई को पुकारा था.
‘‘तुम्हारे पिता के अंतिम शब्द यही थे कि वे तुम्हारी सुखी गृहस्थी नहीं देख पाए. तब यह जिम्मेदारी मैं ने अपने सिर पर ली थी. विजय मेरे साथ कालेज के दिनों से है. वह उतना ही अच्छा है, जितनी अच्छी तुम हो,’’ भैया ने गंभीर स्वर में कहा.
‘‘जी,’’ अवरुद्ध कंठ से वह इतना ही कह पाई.
‘‘तुम अगर उसे पसंद कर…’’ भैया ने आगे कहना चाहा, मगर वह बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘उस की जरूरत नहीं है. आप सब पिताजी जैसे ही माननीय हैं. आप जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे.’’
‘‘लेकिन भैया,’’ मैं ने हौले से कहा, ‘‘निशा की भी अपनी कुछ पसंद होगी. हो सकता है उसे कोई और पसंद हो. आप अपना फैसला इस तरह इस पर क्यों थोप रहे हैं?’’
‘‘हांहां, बेटे, इस की पसंद भी तो पूछो. शादीब्याह जबरदस्ती का नहीं, प्यार का नाता होता है,’’ मेरे पिताजी बोले.
सहसा निशा रो पड़ी. फिर कुछ क्षणों के बाद बोली, ‘‘मेरी कोई पसंद नहीं है.’’
तभी मेरे मन में विचार आया कि हो सकता है, निशा ने उस पुरुषमित्र को छोड़ दिया हो. सच ही तो है, जो कभी उस का सुखदुख पूछने भी नहीं आया, वह भला कैसा प्रेमी? तब इस अवस्था में वह मेरी भाभी क्यों नहीं बन सकती.
उस रात बड़ी देर तक मुझे नींद नहीं आई. मैं ने निशा की तरफ करवट बदली, तो देखा, वह तकिए में मुंह छिपाए सुबकसुबक कर रो रही थी. पास जा कर उसे हिलाया, उस के हाथपैर काफी ठंडे थे. मैं ने घबरा कर भाई को बुलाया. हम दोनों कितनी देर तक उस के हाथपैर रगड़ते रहे. भैया ने लिहाफ ओढ़ा कर उसे बिठाया तो वह उन की छाती में मुंह छिपा कर बेतहाशा रोने लगी, ‘‘मैं ने अपने पिताजी से कभी कुछ नहीं छिपाया था. मुझे कभी कहीं भी अकेले नहीं जाने देते थे. फिर मुझे अकेली क्यों छोड़ गए? मैं सच कह रही हूं, मैं ने उन से कभी…’’
‘‘मैं जानता हूं निशा, मैं सब जानता हूं,’’ भैया ने अपने कुरते की बांह से उस की आंखें पोंछीं.
थोड़ी देर बाद बोले, ‘‘तुम निर्दोष हो निशा, तुम्हारे पिता तुम से नाराज नहीं थे. वह तो बस, यही कहते रहे कि जहां निशा चाहे, वहीं उसे…’’
‘‘मगर मैं ने चाहा ही क्या था? कुछ भी तो नहीं चाहा था…’’
रातभर भैया हमारे ही कमरे में रहे. मैं हैरान थी कि जिस निशा को वे चरित्रहीन घोषित कर चुके थे, उस पर इतना स्नेह लुटाने का क्या मतलब?
‘‘भैया, निशा के उस मित्र का पता क्यों नहीं करते?’’ मौका पाते ही मैं ने कह दिया.
भैया ने एक बार मेरी ओर देखा अवश्य, पर बोले कुछ नहीं.,
‘‘जिस इंसान के लिए उस ने अपने पिता को खो दिया, कम से कम उसे निशा से मिलने तो आना चाहिए था न?’’
उस समय भैया नाश्ता कर रहे थे. शायद कौर गले में अटक गया था, क्योंकि उसी क्षण उन्होंने मुझ से पानी मांगा.
उस दिन निशा अपने घर गई हुईर् थी. मां बोलीं, ‘‘इस लड़की ने तो मुझे अपाहिज बना दिया है, किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने देती. इस के जाने के बाद मैं घर का कामकाज कैसे करूंगी.’’
पिताजी बोले, ‘‘उसे यहीं रख लो, मुझे भी बहुत प्यारी लगती है.’’
तभी अनायास मैं बोल उठी, ‘‘वह किसी और को पसंद करती है. उस का ब्याह वहीं होना चाहिए, जहां वह चाहे, यह बिना सिरपैर की इच्छा उस से मत बांधो.’’
‘‘किसी और को, पर किसे? उस ने हमें तो कुछ नहीं बताया.’’
‘‘बताया तो उस ने अपने पिता को भी नहीं था. मुझे भी नहीं बताया. परंतु उस से क्या होता है. सत्य तो सत्य ही है न.’’
‘‘तुम ने उसे किसी के साथ देखा है क्या?’’ हाथ का काम छोड़ मां समीप चली आईं. वे सचमुच उसे बहू बनाने को आतुर थीं.
‘‘भैया ने देखा है. और मैं इसे बुरा भी नहीं मानती. निशा वहीं जाएगी, जहां वह चाहेगी.’’
उस समय भैया के चेहरे पर कई रंग आजा रहे थे.
‘‘ऐसी बात है तो मैं आज ही निशा से बात करता हूं,’’ पिताजी बोले.
‘‘नहीं, उस से बात मत कीजिए. वैसे, विजय भी अच्छा लड़का है.’’
‘‘अगर विजय अच्छा लड़का है तो आप कौन से बुरे हैं. आप क्यों नहीं? साफसाफ बताइए भैया, वह लड़का कौन है, जिस के साथ आप ने उसे
देखा था?’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर
में पूछा.
‘‘बोलो कर्ण, कुछ तो बताओ?’’ पिताजी ने भी उन का कंधा हिलाया.
‘‘गीता, कैसी बेकार की बात करती हो. वह मुझे ‘भैया’ कह के पुकारती है. और…’’
‘‘कुछ तो कहेगी न. जब उसे पता चलेगा कि आप उस से प्रेम करते हैं तो हो सकता है, ‘भैया’ न कहे. फिलहाल यह बताइए कि वह लड़का कौन था, जिसे आप ने…’’
‘‘चुप भी करो गीता, क्यों इस के पीछे पड़ी हो,’’ मां ने मुझे टोक दिया.
‘‘मैं ने कहा न, विजय उस के लिए…’’ भैया बोले तो मैं ने उन की बात काटते हुए कहा, ‘‘आप यह निर्णय करने वाले कौन होते हैं? मैं आज खुद निशा से पूरी बात खोलूंगी, चाहे उसे बुरा ही लगे.’’
‘‘नहीं, उस से कुछ मत पूछना,’’ भैया ने रोका और पिताजी बुरी तरह चीख उठे, ‘‘इस का मतलब है, तुम झूठ बोलते हो. उसे किसी के साथ जरूर देखा था. कहीं तुम्हीं तो उस के पिता को फोन नहीं करते रहे?’’ पिताजी के होंठों से निकला एकएक शब्द सच निकलेगा, मैं ने कभी सोचा नहीं था.
तभी पिताजी ने भैया की गाल पर जोरदार थप्पड़ दे मारा, ‘‘तुझे उस मासूम लड़की पर दोष लगाते शर्म नहीं आई. अरे, हमारी भी बेटी है. यही सब हमारे साथ हो तो तुझे कैसा लगेगा?’’
उस क्षण मां ने बेटे की तरफ नफरत से देखा.
‘‘पिताजी, मैं ने झूठ नहीं बोला था,’’ भैया ने शायद सारी शक्ति बटोरते हुए कहा, ‘‘जो देखा, वह सच था, लेकिन.’’
‘‘लेकिन क्या. अब कुछ बकोगे भी?’’
‘‘जी…जो…जो समझा, वह झूठ था. उस रात अस्पताल में निशा के पिता को देखा तो पता चला कि उस के साथ सदा वही होते थे. वे इतने कम उम्र लगते थे कि मैं धोखा…’’
यह सुनते ही मां ने माथे पर जोर से हाथ मारा, ‘‘सच, तुम्हारी तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई.’’
उस पल हम चारों के लिए वक्त जैसे थम गया. सचाई जाने बिना उस के पिता को फोन कर के शिकायत करने की भला क्या आवश्यकता थी? आंखों देखा भी गलत हो सकता है और इतना घातक भी, यह मैं ने पहली बार देखासुना था.
पिताजी दुखी स्वर में बोले, ‘‘कैसा जमाना आ गया है. पितापुत्री साथसाथ कहीं आजा भी नहीं सकते. पता नहीं इस नई पीढ़ी ने आंखों पर कैसी पट्टी बांध ली है.’’
उस दिन भैया अपने कार्यालय नहीं जा सके, अपने कमरे में ऐसे बंद हुए कि शाम को ही बाहर निकले.
निशा तब तक नहीं लौटी थी, इसलिए सभी परेशान थे. भैया मोटरसाइकिल निकाल कर बाहर निकल गए और पिताजी खामोशी से उन्हें जाते हुए देखते रहे.
उस दिन हमारे घर में खाना भी नहीं बना. एक शर्म ने सब की भूख मार रखी थी. सहसा पिताजी बोले, ‘‘दोष तुम्हारा भी तो है. कम से कम निशा से साफसाफ पूछतीं तो सही, सारा दोष कर्ण को कैसे दे दूं. तुम भी बराबर की दोषी हो.’’
लगभग डेढ़ घंटे बाद भैया हड़बड़ाए से लौटे और बोले, ‘‘प्रोफैसर सुरेंद्र की पत्नी ने बताया कि वह तो दोपहर को ही चली गई थी.’’
‘‘वह कहां गई होगी?’’ पिताजी ने मेरी ओर देखा.
‘‘चलो भैया, वहीं दोबारा चलते हैं,’’ मैं उन के साथ निशा के घर गई. द्वारा खोला, घर साफसुथरा था, यानी वह सुबह यहां आई थी. पूरा घर छान मारा, पर निशा दिखाई न दी.
अचानक भैया बोले, ‘‘उसे कुछ हो गया तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा. मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, ऐसा अपराध कर बैठूंगा. अब मैं कहां जाऊं?’’
सामने मेज पर एक सुंदर पुरुष की तसवीर पर ताजे फूलों का हार चढ़ा था. मैं तसवीर के नजदीक जा कर सोचने लगी कि निशा ने सच ही कहा था कि उस के पिता बहुत सुंदर थे. भैया को गलतफहमी हो गई होगी, शायद मुझे भी हो जाती.
‘‘अब क्या होगा गीता, तुम्हीं कुछ सोचो?’’ तभी भैया भी उस के पिता की तसवीर के पास आ कर बोले, ‘‘यह देखो गीता, यही तो थे.’’
मैं कुछ और ही सोचने लगी थी. चंद क्षणों बाद बोली, ‘‘भैया, निशा से शादी कर लो. यह तो सत्य ही है कि आप उस से बेहद प्यार करते हैं.’’
‘‘क्या उसे सचाई न बताऊं?’’
‘‘और कितना दुख दोगे उसे? क्या उस से बात और नहीं बिगड़ जाएगी?’’
‘‘क्या निशा के साथ एक झूठा जीवन जी पाऊंगा?’’
‘‘जीवन तो सच्चा ही होगा भैया, परंतु यह जरा सा सत्य हम चारों को सदा छिपाना पड़ेगा, क्योंकि हम उसे और किसी तरह भी अब सुख नहीं दे सकते.’’
भारी मन में हम घर लौट आए. मगर सामने ही बरामदे में निशा को देख हैरान रह गए. एक लंबे समय के बाद मैं ने उसे हंसते देखा था. सामने मेज पर कितने ही पैकेट पड़े थे. डबडबाई आंखें लिए पिताजी उसे एकटक निहार रहे थे. वह उतावले स्वर में बोली, ‘‘गीता, मुझे नौकरी मिल गई.’’
‘‘वह तो ठीक है, मगर तुम बिना हम से कुछ कहे…पता भी है, 3 घंटे से भटक रहा हूं. तुम कहां चली गई थीं?’’ भैया की डूबती सांसों में फिर से संजीवनी का संचार हो गया था.
निशा ने बताया, ‘‘12 बजे घर से निकली तो सोचा, पिताजी के विभाग से होती जाऊं. वहां पता चला कि मेरी नियुक्ति कन्या विद्यालय में हो चुकी है.’’
‘‘लेकिन अब तक तुम थीं कहां?’’ इस बार मैं ने पूछा.
‘‘बता तो रही हूं, मैं विद्यालय देखने चली गई. आज ही उन्होंने मुझे रख भी लिया. 4 बजे वहां से निकली, तब यह सामान खरीदने चली गई. यह देखो. तुम सब के लिए स्वेटर लाई हूं.’’
‘‘तुम्हारे पास इतने पैसे थे?’’ मैं हैरान रह गई.
‘‘आज घर की सफाई की तो पिताजी के कपड़ों से 10 हजार रुपए मिले. उसी दिन वेतन लाए थे न.’’
उस के समीप जा कर मैं ने उस का हाथ पकड़ा, ‘‘पिताजी की आखिरी तनख्वाह इस तरह उड़ा दी.’’
‘‘मेरे पिताजी कहीं नहीं गए. वे यहीं तो हैं,’’ उस ने मेरे पिता की ओर इशारा किया, ‘‘इस घर में मुझे सब मिल गया है. आज जब मैं देर से आई तो इन्होंने मुझे बहुत डांटा. मेरी नौकरी की बात सुन रोए भी और हंसे भी. पिताजी होते तो वे भी ऐसा ही करते न.’’
‘‘हां,’’ स्नेह से मैं ने उस का माथा चूम लिया.
‘‘बहुत भूख लगी है, दोपहर को क्या बनाया था?’’ निशा के प्रश्न पर मैं कुछ कहती, इस से पहले ही पिताजी बोल पड़े, ‘‘आज तुम नहीं थीं तो कुछ नहीं बना, सब भूखे रहे. जाओ, देखो, रसोई में. देखोदेखो जा कर.’’
निशा रसोई की तरफ लपकी. जब वहां कुछ नहीं मिला तो हड़बड़ाई सी बाहर चली आई, ‘‘क्या आज सचमुच सभी भूखे रहे? मेरी वजह से इतने परेशान रहे?’’
‘‘जाओ, अब दोनों मिल कर कुछ बना लो और इस नालायक को भी खिलाओ. इस ने भी कुछ नहीं खाया.’’
निशा ने गहरी नजरों से भैया की ओर देखा.
उस रात हम चारों ही सोच में डूबे थे. खाने की मेज पर एक वही थी, जो चहक रही थी.
‘‘बेटे, तुम्हारे उपहार हमें बहुत पसंद आए,’’ सहसा पिताजी बोले, ‘‘परंतु हम बड़े, हैं न. बच्ची से इतना सब कैसे ले लें. बदले में कुछ दे दें, तभी हमारा मन शांत होगा न.’’
‘‘जी, यह घर मेरा ही तो है. आप सब मेरे ही तो हैं.’’
‘‘वह तो सच है बेटी, फिर भी तुम्हें कुछ देना चाहते हैं.’’
‘‘मैं सिरआंखों पर लूंगी.’’
‘‘मैं चाहता हूं, तुम्हारी शादी हो जाए. मैं ने विजय के पिता से बात कर ली है. वह अच्छा लड़का है.’’
‘‘जी,’’ निशा ने गरदन झुका ली.
हम सब हैरानी से पिताजी की ओर देख रहे थे कि तभी वे बोल उठे, ‘‘झूठ नहीं कहूंगा बेटी, सोचा था तुम्हें अपनी बहू बनाऊंगा, परंतु मेरा बेटा तुम्हारे लायक नहीं है. मैं हीरे को पत्थर से नहीं जोड़ सकता. परंतु कन्यादान कर के तुम्हें विदा जरूर करना चाहता हूं. मेरी बेटी बनोगी न?’’
‘‘जी,’’ निशा का स्वर रुंध गया.
‘‘बस, अब आराम से खाना खाओ और सो जाओ,’’ मुंह पोंछ पिताजी उठ गए और पीछे रह गई प्लेट पर चम्मच चलने की आवाज.
उस के बाद कई दिन बीत गए. भैया की भूल की वजह से मां और पिताजी ने उन से बात करना लगभग छोड़ रखा था. निशा विद्यालय जाने लगी थी. शाम के समय हम सब चाय पीने साथसाथ बैठते.
एक शाम पिताजी ने फिर से सब को चौंका दिया, ‘‘निशा, कल विजय आने वाला है. आज मैं उस से मिला था. तुम कल जल्दी आ जाना.’’
तभी भैया बोल उठे, ‘‘विजय आज मुझ से भी मिला था, लेकिन उस ने तो नहीं बताया कि आप उस से मिले थे?’’
‘‘तो इस में मैं क्या करूं?’’ पिताजी का स्वर रूखा था, ‘‘मैं पिछले कई दिनों से उस से मिल रहा हूं. निशा के विषय में उस से पूरी बात की है. उस ने तुम से क्यों बात नहीं की, यह तुम जानो.’’
‘फिर भी उसे मुझ से बात तो करनी चाहिए थी, मुझे भी तो वह हर रोज मिलता है.’’
‘‘चलो, उस ने नहीं की, अब तुम्हीं कर लेना. और अपने साथ ही लेते आना.’’
‘‘मैं क्यों उस से बात करूं? हमारा बचपन का साथ है, क्या उसे अपनी शादी की बात मुझ से नहीं करनी चाहिए थी. क्या उस का यह फर्ज नहीं था?’’
‘‘फर्जों की दुहाई मत दो कर्ण, फर्ज तो उस से पूछने का तुम्हारा भी था. निशा कोई पराई नहीं है. कम से कम तुम भी तो आगे बढ़ते.’’
‘‘लेकिन पिताजी, उस ने एक बार भी निशा का नाम नहीं लिया, दोस्ती में इतना परदा तो नहीं होता.’’
दोस्ती के अर्थ जानते भी हो, जो इस की दुहाई देने लगे हो. फर्ज और दोस्ती बहुत गहरे शब्द हैं, जिन का तुम ने अभी मतलब ही नहीं समझा. सदा अपना ही सुख देखते हो, तुम्हें क्या करना चाहिए, बस, यही सोचते हो. तुम्हें क्या नहीं मिला, हमेशा उस का रोना रोते हो. यह नहीं सोचते कि तुम्हें क्या करना चाहिए था. उस ने बात नहीं की, तो तुम ही पूछ सकते थे. अपनेआप को इतना ज्यादा महत्त्व देना बंद करो.’’
उसी रात मैं ने आखिरी प्रयास किया. निशा से पहली बार पूछा, ‘‘क्या तुम इस रिश्ते से खुश हो?’’
परंतु कुछ न बोल वह खामोश रही.
‘‘निशा, बोलो, क्या इस रिश्ते से तुम खुश हो?’’
उस की चुप्पी से मैं परेशान हो गई.
‘‘भैया पसंद नहीं हैं क्या? मैं तो यही चाहती हूं कि तुम यहीं रहो, इसी घर में. कहीं मत जाओ. भैया तुम से बहुतबहुत प्यार करते हैं,’’ कहते हुए मैं ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा. फिर जल्दी से बत्ती जलाई. उस की सूजी आंखों में आंसू भरे हुए थे.
सुबह पिताजी के कमरे से भैया की आवाज आई, ‘‘निशा इसी घर में रहेगी.’’
‘‘क्या उस की शादी नहीं होने दोगे? विजय का नाम तुम ने ही सुझाया था न, आज क्या हो गया?’’
‘‘मैं…मैं तब बड़ी उलझन में था, आत्मग्लानि ने मुझे तोड़ रखा था. मैं खुद को उस के काबिल नहीं पा रहा था.’’
‘‘काबिल तो तुम आज भी नहीं हो. जिस से जीवनभर का नाता जोड़ना चाहते हो, क्या उस के प्रति ईमानदार हो? तुम ने उस का कितना बड़ा नुकसान किया है, क्या उसे यह बात बता सकते हो?’’
अब भैया खामोश हो गए.
निशा सामान्य भाव से अपने बाल संवारती रही. फिर उस ने जल्दी से पर्स उठाया. मैं असमंजस में थी कि क्या उस ने पिताजी की बात नहीं सुनी? उस ने मेज पर लगा अपना नाश्ता खाया और बाहर निकल गई.
निशा के जाने के बाद पिताजी बोले, ‘‘देखो कर्ण, जिस से प्यार करते हो, जिस से दोस्ती होने का दम भरते हो, कम से कम उस के प्रति तो ईमानदार रहो. प्यार करते हो तो आगे बढ़ कर उस से कहो. दोस्त से दोस्ती निभाना चाहते हो तो अपने अहं को थोड़ा सा अलग रखना सीखो. मन में कुछ मैल आ गया है, कुछ गलत देखसुन लिया है तो झट से कह कर सचाई की तह तक जाओ. मन ही मन किसी कहानी को जन्म मत दो. अब विजय की बात ही सुन लो. मैं उस से एक बार भी नहीं मिला. तुम से झूठ ही कहता रहा और तुम उस पर क्रोध करते हुए उस से नाराज भी हो गए. अगर खुद ही बात कर ली होती तो मेरा झूठ कब का खुल गया होता. मगर नहीं, तुम तो अपनी ही अकड़ में रहे न.’’
‘‘जी,’’ भैया के साथसाथ मैं भी हैरान रह गई.
‘‘निशा से प्यार करते हो तो उसे साफसाफ सब बता दो.’’
करीब 4 बजे निशा आई. मुंहहाथ धो कर रसोई में जाने लगी, तभी पिताजी ने पूरी कहानी निशा को सुना दी, जिसे वह चुपचाप सुनती रही. हम सांस रोके उस की प्रतिक्रिया का इंतजार करते रहे. शायद सुबह उस ने सुना न हो, मैं यह खुशफहमी पाले बैठी थी.
‘‘बेटी, क्या तुम यह सब जानती थीं?’’ पिताजी उस की तटस्थता पर हैरान रह गए.
निशा ने ‘हां’ में गरदन हिला दी.
‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ पिताजी उठ कर उस के पास गए तो निशा एकाएक रो पड़ी, फिर संभलते हुए बोली, ‘‘उस दिन जब मैं घर की सफाई कर के लौटी थी…’’ इतना कह कर वह रोने लगी तो पिताजी उठ कर बाहर चले गए. उस के बाद किसी ने उस से कोई बात न की.
थोड़ी देर बाद मुझे निशा की आवाज सुनाई दी, ‘‘गीता, मैं सुबह अपने घर चली जाऊं?’’
मैं ने चौंक कर उस की ओर देखा तो वह बोली, ‘‘अब नौकरी मिल गई है न. और फिर जब जीना है तो अकेले रहने की आदत तो डालनी ही होगी. यहां कब तक रहूंगी?’’
शीघ्र ही उस ने अटैची और बैग तैयार कर लिया और बोली, ‘‘मैं जाती हूं. चाचाजी से मिल कर जाने की हिम्मत नहीं है. वे आएं तो बता देना.’’
मैं ने भैया को पुकारना चाहा कि उसे वे जा कर छोड़ आएं, परंतु निशा ने मना कर दिया. शायद वह भैया की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी. रोते हुए उस ने अटैची उठाई और भारी बैग कंधे पर लादे चुपचाप चली गई. अवरुद्ध कंठ से मैं कुछ भी न कह पाई.
निशा के जाने के बाद पिताजी उदास से रहने लगे थे. मगर जो हालात बन गए थे, उन में वे कुछ नहीं कर सकते थे. उस रात मुझे नींद नहीं आई. अलमारी सहेजने लगी तो निशा के घर की दूसरी चाबी हाथ लग गई.
मैं ने वह चाबी भैया के सामने रख दी और कहा, ‘‘अभी तक सोए नहीं?’’
वे सूनीसूनी आंखों से मुझे निहारते रहे.
‘‘जाओ, निशा को ले आओ. अधिकार से हाथ पकड़ कर, क्षमा मांग कर. जैसे भी आप को अच्छा लगे. यह उस के घर की चाबी है.’’
‘‘क्या पागल हो गई हो?’’
‘‘मैं भी साथ चलती हूं. उस से क्षमा मांग लेना. उसे अपने प्यार का विश्वास दिलाना.’’
‘‘बस गीता, बस. अब और नहीं,’’ भैया ने डबडबाई आंखों से मेरी ओर देखा.
इसी तरह 3 हफ्ते बीत गए. एक शाम मां ने भैया से कहा, ‘‘कर्ण, कहीं तुम्हारी शादी की बात चलाएं?’’
‘‘नहीं, मैं शादी नहीं करूंगा.’’
तभी पिताजी बोल उठे, ‘‘अच्छी बात है, मत करना शादी, मगर मेरा एक काम जरूर करना. अगर मुझे कुछ हो गया तो कम से कम अपनी बहन का ब्याह जरूर कर देना.’’
रात को मां की आवाज सुनाई दी. ‘‘निशा कैसी रूखी है, जब से गई है, एक बार फोन तक भी नहीं किया.’’
‘‘तो क्या तुम उस से मिलने गईं? इन दोनों में से कोई एक भी गया उसे देखने?’’ पिताजी ऊंची आवाज में बोले, ‘‘किसी दूसरे से अपेक्षा करना बहुत आसान है, कभी अपना दायित्व भी सोचा है तुम लोगों ने?’’
सुबहसुबह पिताजी के स्वर ने मुझे चौंका दिया, ‘‘गीता, कर्ण कहां है? उस की मोटरसाइकिल भी नहीं है. कहीं गया है क्या?’’
‘‘मैं हड़बड़ा कर उठी. लपक कर देखा, अलमारी में वह चाबी भी नहीं थी. मन एक आशंका से कांप उठा कि भैया कहीं निशा का कुछ अनिष्ट न कर बैठें.’’
पिताजी ने चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘वह कहां गया है. तुम से कुछ कहा?’’
‘‘कहा तो नहीं, पर हो सकता है, निशा के पास…,’’ मैं ने उन से पूरी बात कह दी.
औटो से हम निशा के घर पहुंचे. वहां भैया की मोटरसाइकिल भी दिखाई न दी. धड़कते दिल से द्वार की घंटी बजा दी. हम कितनी ही देर खड़े रहे, पर द्वार नहीं खुला. पड़ोसी सुरेंद्र साहब का द्वार खटखटाया तो उन्होंने जो सुनाया, वह अप्रत्याशित था, ‘‘निशा तो महीनाभर हुआ सबकुछ छोड़छाड़़ कर चली भी गई. उस के चाचा उसे लेने आए थे.’’
हम पितापुत्री चिंतित खड़े रह गए. फौरन घर वापस चले आए. भैया लुटेपिटे से सामने ही बैठे थे.
‘‘निशा हम से मिल कर तो जाती,’’ मां के होंठों से निकले इन शब्दों पर पिताजी चीख उठे, ‘‘वह मिल कर जाती, पर क्यों? क्या तुम्हारे बच्चों की कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अरे, उस मासूम को रोक तो लेते. वह अकेली अपना सामान बांधे चली गई और कोई उसे घर तक छोड़ने नहीं गया. क्या वह लावारिस थी?’’
भैया बोले, ‘‘मुझे हमेशा डर सताता रहा कि कहीं सचाई जानने के बाद वह मुझ से नफरत न करने लगे.’’
‘‘अब क्या करोेगे? कहीं और शादी को तैयार हो, तो बात करूं?’’ पिताजी ने थकीहारी आवाज में कहा.
‘‘नहीं, शादी तो अब कभी नहीं होगी.’’
‘‘तो क्या तुम्हारी मां तुम्हें जीवनभर पकापका कर खिलाएगी? निशा के चाचा कहां रहते हैं. कुछ जानते हो?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘अच्छी बात है, अब जो जी में आए, वही करो.’’
एक शाम भैया बोले, ‘‘गीता, क्या ऐसा नहीं लगता कि शरीर का कोई हिस्सा ही साथ नहीं दे रहा? मैं तो अपंग सा हो गया हूं.’’
मैं मुंहबाए उन्हें निहारती रह गई, क्या जवाब दूं, सोच ही न पाई.
एक दिन शाम को पिताजी ने चौंका दिया, ‘‘आज शाम कोई आ रहा है, नाश्ते का प्रबंध कर लेना.’’
‘‘कौन आ रहा है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘कहा न कोई है,’’ पिताजी खीझ उठे.
शाम को हम सब निशा को देख कर हैरान रह गए. पिताजी ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया, ‘‘आओ बेटी, आओ,’’ पिताजी ने निशा को सोफे पर बैठाया.
‘‘बेटी, तुम्हारा पत्र मिल गया था. तुम्हारे पिताजी की बीमे की पौलिसी संभाल कर रखी है.’’
वह निशा को उस के पिता की भविष्य निधि और दूसरे सरकारी प्रमाणपत्रों के विषय में बताते रहे और वह चुपचाप बैठी सुनती रही.
‘‘बस, तुम्हारे हस्ताक्षर ही चाहिए थे, वरना मैं तुम्हें कभी आने को न कहता. सब हो जाएगा बेटी, कम से कम यहां दिल्ली के सब काम तो मैं निबटा ही दूंगा.’’
निशा ने कुछ न कहा.
मैं ने उस के सामने नाश्ता परोसा तो पिताजी ने टोक दिया, ‘‘पहले इसे हाथमुंह तो धो लेने दो. सुबह से गाड़ी में बैठी है. उठो बेटी, जाओ.’’
एक तरफ रखे बैग में से तौलिया निकाल निशा बाथरूम में चली गई. जब वह बाहर आई तो उसी पल भैया ने घर में प्रवेश किया. उन्होंने चौंकते हुए कहा, ‘‘निशा, तुम कैसी हो?’’
निशा ने कुछ न कहा. हम सब खामोश थे. निशा सिर झुकाए चुपचाप खड़ी थी. पिताजी ने उसे बुलाया तो भैया की तंद्रा भंग हुई.
चाय सब ने इकट्ठे पी. मगर हम औपचारिक बातें भी नहीं कर पा रहे थे.
रात को खाने के बाद वह मेरी बगल में सो गई. मेरे लिए जैसे वक्त थम गया था. आधी रात होने को आई, पर नींद मेरी आंखों में नहीं थी. सहसा ऐसा लगा, जैसे हमारे कमरे में कोई है. मैं
ने भैया को पहचान लिया. वह सीधा निशा की ओर बढ़ रहे थे. मैं सहम गई. फिर देखा, भैया उस के पैरों की तरफ बैठे हैं.
फिर वे हौले से बोले, ‘‘निशा, निशा, उठो. तुम से कुछ बात करनी है.’’
भैया ने कई बार पुकारा, पर उस ने कोई जवाब न दिया. तब भैया ने उसे छुआ तो एहसास हुआ कि निशा को तेज ज्वर है. भैया फौरन डाक्टर को लेने चले गए.
डाक्टर की दवा ने अपना असर दिखाया. सुबह तक निशा की तबीयत में काफी सुधार हो गया था.
मैं चाय ले कर उस के पास गई, ‘‘थोड़ी सी चाय ले लो,’’ फिर भैया से कहा, ‘‘आप भी आ जाइए.’’
‘‘मन नहीं है,’’ निशा ने मना कर दिया.
‘‘क्यों निशा, मन क्यों नहीं है? थोड़ी सी तो पी लो,’’ मैं ने आग्रह किया.
लेकिन वह रो पड़ी. भैया उठ कर पास आ गए. उन्होंने धीरे से उस का हाथ पकड़ा और फिर झुक कर उस का मस्तक चूम लिया, ‘‘सजा ही देना चाहती हो तो मुझे दो, अपनेआप को क्यों जला रही हो? अपराध तो मैं ने किया था.’’
सहसा निशा फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘कर्ण, मैं किसकिस को सजा दूं, अपने पिता को. आप को या गीता को? किसी ने भी मेरे मन की नहीं पूछी, सब एकतरफा निर्णय लेते रहे. सच क्या है किसी ने भी तो नहीं जानना चाहा. मैं क्या करूं?’’
फिर थोड़ा रुक कर, खुद को संभाल कर वह आगे बोली, ‘‘मेरी वजह से सब को पीड़ा ही मिली, लेकिन यह सब मैं ने नहीं चाहा था.’’
‘‘जानता हूं निशा, सब जानता हूं. लेकिन अब वैसा कुछ नहीं होगा, मुझ पर यकीन करो.’’
मां और पिताजी दरवाजे पर खड़े थे. मां ने उस का मस्तक चूमते हुए कहा, ‘‘बस बेटी, अब चुप हो जाओ.’’
सांवली, प्यारी सी निशा इस तरह लौट आएगी, यह तो मैं ने कभी सोचा भी न था. पूरी कथा में एक सत्य अवश्य सामने आया था कि सत्य वह नहीं जिसे आंखें देखें, सत्य वह भी नहीं जिसे कान सुनें, सत्य तो मात्र वह है जिस में सोचसमझ, परख, प्रेम व विश्वास सब का योगदान हो. वास्तविक सत्य तो वही है, बाकी मिथ्या है.
कोई टिप्पणी नहीं: