कहानी: एक प्रेम कहानी का अंत
डा. सान्याल के नर्सिंग होम के आईसीयू में बिस्तर पर सिरहाना ऊंचा किए अधखुली आंखों में रुकी हुई आंसू की बड़ी सी बूंद. आज बेसुध है प्रियंवदा. गंभीर संकट में है जीवन उस का. जिसे भी पता चल रहा है वह भागा चला आ रहा है उसे देखने. आसपास कितने लोग जुट आए हैं, जो एकएक कर उसे देखने आईसीयू के अंदर आजा रहे हैं, पर वह किसी को नहीं देख रही, कुछ भी नहीं बोल रही. कभी किसी की निंदा तो कभी किसी की प्रशंसा में पंचमुख होने वाली, कभी मौन न बैठने वाली, लड़तीझगड़ती व हंसतीखिलखिलाती प्रियम आज बड़े कष्ट से सांस ले पा रही है. बाहर शेखर दौड़ रहे हैं, सुंदर, सुदर्शन पति, बूढ़े होने पर भी न सजधज में कमी न सौंदर्य में. और आज तो कुछ अधिक ही सुंदर लग रहे हैं. इतनी परेशान स्थिति में भी. मां कहती थीं कि ऐसे समय में यदि सुंदरता चढ़ती है तो सुहाग ले कर ही उतरती है. तो क्या प्रियम बचेगी नहीं? संजना के मन में धक से हुआ और ठक से वह दिन याद हो आया जब प्रियंवदा और शेखर का विवाह हुआ था आज से ठीक 10 वर्ष, 2 माह और 4 दिन पूर्व. पर उन की प्रेम कहानी तो इस से भी कई वर्ष पुरानी है.
पहली बार वे दोनों किसी इंटरव्यू के दौरान मिले. संयोग से उसी औफिस में दोनों की नियुक्ति हुई, साथसाथ ट्रेनिंग भी हुई और पोस्ंिटग भी एक ही विंग में हो गई. फिर क्या, वे एकसाथ लंच करते. जहां जाते, साथ ही जाते. प्रियम तो शेखर को देखते ही रीझ गई. उस गौरवर्ण, सुंदर नैननक्श और गुलाब से खिले व्यक्तित्व के स्वामी को उसी क्षण उस ने अपना बनाने की ठान ली. ‘कहां वह और कहां तू? उस पर से वह दूसरी जातिधर्म का है, उसे कैसे अपने वश में कर लेगी,’ अपनी सखियों के ऐसे प्रश्नों पर प्रियम कहती, ‘अरे, कोशिश करने में क्या जाता है.’
वे दोनों एक ऐसे बेमेल जोड़े के रूप में जाने जाते जिस में कहीं कोई समानता नहीं. लड़का अत्यंत सुंदर और आकर्षक जबकि लड़की सामान्य रंगरूप के लिए भी मुहताज. लड़का सुरुचिसंपन्न और शौकीन स्वभाव का, लड़की लटरसटर बनी रहती, मेकअप करती तो भी शेखर के पार्श्व में बदसूरत ही दिखती. प्रियम का सांवला, रूखा चेहरा, बड़ीबड़ी आंखों के सर्द भाव, खुले अधरों से बाहर झांकते हुए ऊंचे दांत देख लोग उन की उपमा कौए और हंस से दिया करते. राह चलते उस पर छींटाकशी होती, गीत गाए जाते. प्रियम के ऊपर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. ‘मैया मैं तो चंद्र खिलौना लेहौं’ जैसा उस का हठ देख सब मुंह फेर कर हंसते. सोचते कि इतने अच्छे घर का शेखर, जो नाक पर मक्खी तक नहीं बैठने देता, प्रियम को कैसे अपनी जीवनसंगिनी बनाएगा? पर असंभव कुछ नहीं है. कहते ही हैं : ‘रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान.’
निरंतर शेखर के आगेपीछे घूमती प्रियम ने शेखर पर अपना अधिकार जताते हुए उस की दीवानियों को लड़लड़ कर पीछे ठेल दिया. वह कभी उस के लिए चिकन तो कभी बिरयानी बना कर लाती. उसे रंगबिरंगी शर्ट्स या बहुमूल्य परफ्यूम्स इत्यादि गिफ्ट्स दिया करती. तो कभी उस के अत्यंत समीप आ बैठती. वह उसे वश में करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती. प्रियम का ऊंचा मनोबल, अपने प्यार पर दृढ़ विश्वास और शेखर के पीछे सतत पड़े रहना रंग लाया. धीरेधीरे उन में प्रगाढ़ता बढ़ती गई. जीवन के रंगों व उमंगों से भरे गोपन रहस्य परत दर परत खुलने लगे तो ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की पृष्ठभूमि वाले शेखर की सारी सुप्त कामनाएं जाग उठीं. एक दिन लोगों ने घोर आश्चर्य से शेखर को अपने सात्विक घर के सारे नियमसंयम को धता बताते हुए प्रियम के आगेपीछे घूमते हुए, लट्टू सा नाचते हुए देखा. फिर तो लोग उन की बातें करने लगे, दूरदूर तक उन के चर्चे होने लगे.
शेखर भरपूर प्यार तो करता प्रियम से, पर उसे मारता भी खूब अच्छी तरह. अचरज तो इस बात पर होता कि विवाह होने से पहले भी शेखर ने उस पर कई बार हाथ उठाया, उस पर चिल्लाया भी. फिर भी प्रियम अपने निश्चय से डिगी नहीं. यह सब देख कर उस की परमप्रिय सखी संजना ने कहा भी, ‘अपने पापा के बताए लड़के से विवाह कर ले, खुश रहेगी,’ पर प्रियम को या तो शेखर की मार भी अच्छी लगती रही होगी या वह अपने दिल के हाथों इतनी विवश थी कि संजना की बात मानने के बजाय वह उस से ही रूठ गई.
शेखर की मां ने बड़ेबड़े सपने संजोए थे कि वह अपने राजा बेटे के लिए परियों की राजकुमारी लाएगी. अपने गुड्डे के लिए प्यारी सी गुडि़या लाएगी. पिता तो जबतब अपने कुलदीपक के विवाह में होने वाले मानसम्मान की परिकल्पनाएं कर और मिलने वाले साजसामान की गणना कर मन ही मन पुलकित हुआ करते. पर उन लोगों के सारे सपने धूलधूसरित हो गए. एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे थे शेखर के लिए. पर उसे प्रियंवदा इतनी अधिक पसंद आ गई थी कि वह किसी और से विवाह करने हेतु किसी भी दशा में तैयार न था. मांपिता ने हर तरह से शेखर को समझाने की चेष्टा की, पर उस ने इतना बवंडर मचाया कि उन्हें कलेजे पर पत्थर रख कर आखिरकार झुकना ही पड़ा.
शेखर ने मांपिता, कुल परंपरा, रिश्तेनाते किसी की चिंतापरवा किए बिना आगे बढ़ कर प्रियम का हाथ थाम लिया. प्रियम वधू बन कर पिया के घर आ गई. ऐसी बेमेल जोड़ी को जो देखता, उसे धक्का लगता. यदि मांपिता ने ऐसी लड़की ढूंढ़ी होती तो लोग यही कहते कि दहेज के लालच में लड़के को बलि चढ़ा दिया, पर जब लड़का ही इसे स्वयं पसंद कर के लाया है तो इस पर क्या कहे कोई? प्रेम अंधा होता है और दिल को जो भाए वही सुंदर. कहते हैं न, ‘ब्यूटी लाइज इन द आईज औफ बिहोल्डर.’ रूपगुण से शून्य प्रियंवदा की वाणी भी कर्कश थी. फिर भी उस का इतना दबदबा था कि कोई भी व्यक्ति उस का तिरस्कार या अवहेलना नहीं कर सकता, उस से ऊंचा भी नहीं बोल सकता. शेखर के सामने तो क्या, उस के पीठ पीछे भी नहीं.
शेखर के सीधेसरल मांपिता अधिक दिन नहीं जिए. इस आघात को मन में छिपाए, सिर झुकाए वे संसार से प्रस्थान कर गए. अपने घर का दुलारा शेखर व्यवहार में बड़ा सौम्य, शांत और सज्जन प्रतीत होता था. पर था वह प्रारंभ से ही उच्छृंखल और क्रोधी स्वभाव का. आत्ममुग्ध मनोवृत्ति थी उस की. घंटों दर्पण के सामने खड़ा रहता वह. ड्रैसिंग टेबल पुरुषों के सौंदर्यप्रसाधनों से लदी रहती. प्रियम का तो दर्पण देखने का कभी मन ही नहीं करता. अपने किंचित केश भी यों ही समेट कर रबरबैंड लगा लिया करती. दर्पण में झांक कर वह कभीकभार अपनी बिंदी या लिपस्टिक ठीक कर लेती, बस इतना ही. धीरेधीरे दिन बीतते गए. वक्त के साथसाथ उन की भी स्थितियांपरिस्थितियां बदलती गईं. आपसी अंतर्विरोध उभरने लगे. एकदूसरे को पाने हेतु जो भी त्यागा था वह उन के मन की अधूरी अचेतन गुफा से बाहर निकल आया. तूफानी प्रेमविवाह था उन का. जो चाहा था वह पा लिया था, पर इस पाने पर प्रसन्न होने के बजाय अब वे यह दंभ जताते हुए झगड़ने लगे थे, ‘उन्हें किसी अच्छे की कमी थोड़े न थी.’
प्रेम ओझल हो चुका था, रिश्ते बोझ बन गए थे. प्रियम को पता ही नहीं चला, कब शेखर को कोई और भा गई. जिस पति को इतनी कठिनता से पाया, इतना सहेजसंभाल कर रखा, उसे कोई और आकृष्ट कर ले, उस के स्वत्वसुख में सेंध लगा दे, इस का भयानक दुख था उसे. ऊपर से मुसकान ओढ़े भीतरभीतर वह असह्य यंत्रणा से गुजर रही थी. किसी काम में मन नहीं लगता उस का. प्रतिपल मन में आंधियां, भांतिभांति की अनर्गल बातें चलती रहतीं. पति में आए परिवर्तन को देखदेख रोया करती. अब उन्हें सजते देख कर मुग्ध होने के बजाय जलभुन कर राख हो जाती. कभी उस के लिए दुनिया में उथलपुथल मचा दी थी शेखर ने, किसी सपने जैसा लगता वह कालखंड उसे. अब प्रेम सूख गया था, कीचड़ बचा था, जिस में दोनों मेढ़क की तरह हरदम टर्राया करते ऊंचे कर्कश स्वर में :
‘शेखर, तुम सुनते क्यों नहीं? मेरी बात का कोई असर क्यों नहीं होता?’
‘तुम्हारे पास एक ही राग है, जब देखो वही बजाया करती हो.’
‘तो सुधर जाओ न, क्यों करते हो ये सब.’
‘तुम सुधर जाओ वरना एक दिन बहुत पछताओगी,’ शेखर तमतमा जाते, क्रोध से पांव पटकते और फिर जो व्यंग्य बुझे तीर चलते और भयानक गृह युद्ध आरंभ होता वह समाप्त होने को न आता.
अब थकीहारी, टूटी प्रियम ने यही मान लिया कि निश्चय ही उस कलमुंही ने शेखर पर कोई वशीकरण किया होगा. वे इसे सब को बताती फिरतीं, सरेआम किसी को कोसा करतीं. पता नहीं कितनी सच थीं उन की बातें. कुछ कण बोए हुए और पालेपोसे हुए भी थे जिन से उबर पाना अब उन के वश में न रहा. संबंधों की चादर में इतने छेद हो चुके थे कि पैबंद लगाने का स्थान भी शेष न था. एक दिन जब वह संजना के पास आई थी, बड़ी परेशान सी थी. आते ही बिना किसी भूमिका के वह कंपित स्वर में बोली:
‘तू ठीक कहती थी संजू. तेरी बात मान लेती तो आज मेरा यह हाल न होता.’
‘मति मारी गई थी मेरी और क्या? अब तो लगता है कि कोई किसी से प्यार न करे, प्यार करे भी तो उस से विवाह न करे.’
संजना अचरज से प्रियम को देखती रह गई थी. शेखर से विवाह करने के लिए जब मना किया था, रोका था तो उस से रूठ गई थी प्रियम. इतने वर्षों बाद आज वह अपना हितअनहित जान रही है, पर अब तो बड़ी देर हो गई. जीवन में पीछे नहीं लौटा जा सकता. प्रियम की आंखों से अविरल अश्रुधारा बहे जा रही है. देह पर कीमती परिधान और आभूषण धारण किए, अकूत चलअचल संपत्ति की स्वामिनी होने पर भी प्रियम को आज कुछ भी अपना नहीं लग रहा है. अपनी ही रची विपत्ति के तूफान के भीतर से गुजरती हुई छटपटा रही प्रियम डरी हुई है. बारबार वह एक ही बात दोहरा रही है :
‘मुझे मार डालेंगे वे, तुम देख लेना एक दिन.’
‘ऐसा क्यों कह रही हो? शेखर तो कितना प्यार करते हैं तुम्हें. सारे बंधन तोड़ दिए तुम्हारे लिए. याद है जब तुम एक दिन औफिस नहीं आई थीं, तब क्या किया था उन्होंने…’
बात बीच में रोकते हुए प्रियम ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘वह कोई और ही शेखर थे संजू. अब तो बहुत तकलीफ देते हैं वे. मुझे देखना भी नहीं चाहते वे.’
उसे दुख हो रहा था कि जीवन जिस रूप में आया उसे सुंदर न बना सकी, हाथ में आए चांद को रोक नहीं पा रही. अपनी असमर्थता का बोझ उस ने सदा की भांति दूसरों के कंधों पर रख देना चाहा. कहने लगी, ‘संजू, तुम समझाओ न शेखर को. हो सकता है तुम्हारी बात मान जाए.’
‘ना बाबा ना, ऐसा मैं कैसे कर सकती हूं? एक बार तुम्हें समझाया तो था, उस दिन के बाद आज मिली हो और वैसे भी पतिपत्नी के मध्य तो कभी बोलना भी नहीं चाहिए,’ कान पकड़ते हुए संजना ने कहा. यह भी कहा, ‘तुम स्वयं इन बातों का समाधान तलाशो. बीती कड़वी बातें भुला कर नवजीवन आरंभ करो.’
तब ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ प्रियम को विदा करते समय संजना ने यह कहां सोचा था कि प्रियम को इस रूप में देखेगी वह. सांझ अपनी किरणें समेट रही थी. प्रियम भी अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी, लगा जैसे सांसें अभी थम जाएंगी. और एक झटके से प्रियम की सांसों की डोर टूट गई. संजना विह्वल हो कर रो पड़ी, पर जैसे ही उस ने अश्रुपूरित दृष्टि से शेखर की ओर देखा, उस की रुलाई कंठ में ही अटक गई. चिरवियोग की इस कठिन घड़ी में शेखर के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, दुख की मद्धम सी भी छाया नहीं. एकबारगी तो ऐसा लगा जैसे उस ने छुटकारा पा कर चैन की सांस ली हो. धिक्कार है, कुत्ताबिल्ली भी पालो तो उस का बिछोह सहन नहीं होता और यहां इतने बरसों का साथ छूटने का कोई गम नहीं. यदि प्रियम ने न बताया होता तो वह उस की ऐसी दशा को सामान्य ही समझती. पर अब उसे सब गड़बड़ लग रहा है. डाक्टर भी यही कह रहे थे, यह सामान्य मृत्यु नहीं थी. तो क्या थी? राह से हटाने का कुचक्र? पर ऐसे चालाक लोगों का झूठ तो मशीन भी नहीं पकड़ पाती है और सच बोलने वाले झूठे सिद्ध हो जाते हैं.
शायद ही कभी कोई जान पाए कि प्रियम के साथ क्या घटा था. जो हुआ अच्छा तो नहीं हुआ, पर कोई कर भी क्या सकता है. संजना का हृदय भर आया. कितना क्षणभंगुर है यह जीवन. कुछ भी स्थायी नहीं यहां. फिर भी न जाने किस बात का मानअभिमान करते हैं हम? आज प्रियम नहीं रही और उसी शेखर की आंखों में आंसू की एक बूंद तक नहीं.
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