कहानी - खुदगर्ज मां

शादी जीवन को एक लय देती है. जैसे बिना साज के आवाज अधूरी है वैसे ही बिन शादी के जीवन अधूरा. जीवनसाथी का साथ अकेलेपन को दूर करता है.

‘‘मां, अब दोनों की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है. वैसे भी लड़के के आ जाने के बाद दोनों बेटियों के प्रति मेरा मोह भी कम हो गया है,’’ मां को नानी से यह कहते जब सुना तो मेरी आंखें भर आईं. मां का खत मिला. फोन पर तो लगभग मैं ने उन से बात ही करना बंद कर दिया था. सो, मेरी सहेली अनुराधा के हाथों उन्होंने खत भिजवाया. खत में वही पुरानी गुजारिश थी, ‘‘गीता, शादी कर लो वरना मैं चैन से मर नहीं पाऊंगी.’’ मैं मन ही मन सोचती कि मां तो हम बहनों के लिए उसी दिन मर चुकी थीं जिस दिन उन्होंने हम दोनों को अकेले छोड़ कर शादी रचा ली थी. अब अचानक उन के दिल में मेरी शादी को ले कर ममता कैसे जाग गई. मेहमान भी आ कर एक बार खबर ले लेता है मगर मां तो जैसे हमें भूल ही गई थीं. साल में एकदो बार ही उन का फोन आता. मैं करती तो भी यही कहती बिलावजह फोन कर के मुझे परेशान मत करो, गीता. अब तुम बड़ी हो गई हो. तुम्हें वहां कोई कमी नहीं है. अब उन्हें कैसे समझाती कि सब से बड़ी कमी तो उन की थी हम बहनों को. क्या कोई मां की जगह ले सकता है?

खत पढ़ कर मैं तिलमिला गई. अचानक मन अतीत के पन्नों में उलझ गया. वैसे शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब अतीत को याद कर के मेरे आंसू न बहे हों. मगर मां जब कभी शादी का जिक्र करतीं तो अतीत का जख्म नासूर बन कर रिसने लगता. तब मैं 14 साल की थी. वहीं, मुझ से 2 साल छोटी थी मेरी बहन. उसे सभी छोटी कह कर बुलाते थे. मां ने तभी हमारा साथ छोड़ कर दूसरी शादी कर ली थी. पहले जब मैं मां के लिए रोती तो नानी यही कहतीं कि तेरी मां नौकरी के लिए दिल्ली गई है, आ जाएगी. पर मुझे क्या मालूम था कि कैसे मां और नानी ने मुझ से छल किया.

‘क्यों गई हैं?’ मेरा बालमन पूछता, ‘क्या कमी थी यहां? मामा हम सभी लोगों का खयाल रखते हैं.’ तब नानी बड़े प्यार से मुझे समझातीं, ‘बेटा, तेरे पिता कुछ करतेधरते नहीं. तभी तो तेरी मां यहां रहती है. जरा सोच, तेरे मामा भले ही कुछ नहीं कहते हों मगर तेरी मां को यह बात सालती रहती है कि वह हम पर बोझ है, इसीलिए नौकरी कर के इस बोझ को हलका करना चाहती है.’

‘वे कब आएंगी?’

‘बीचबीच में आती रहेगी. रही बात बातचीत करते रहने की, तो उस के लिए फोन है ही. तुम जब चाहो उस से बात कर सकती हो.’ सुन कर मुझे तसल्ली हुई. मैं ने आंसू पोंछे. तभी मां का फोन आया. मैं ने रोते हुए मां से शिकायत की, ‘क्यों हमें छोड़ कर चली गईं. क्या हम साथ नहीं रह सकते?’

मां ने ढांढ़स बंधाया, नानी का वास्ता दिया, ‘तुम लोगों को कोई तकलीफ नहीं होगी.’

मैं ने कहा, ‘छोटी हमेशा तुम्हारे बारे में पूछती रहती है.’

‘उसे किसी तरह संभालो. देखो, सब ठीक हो जाएगा,’ कह कर मां ने फोन काट दिया. मेरे गालों पर आंसुओं की बूंदें ढुलक आईं. बिस्तर पर पड़ कर मैं सुबकने लगी.

पूरा एक महीना हुआ मां को दिल्ली गए. ऐसे में उन को देखने की तीव्र इच्छा हो रही थी. नानी की तरफ से सिवा सांत्वना के कुछ नहीं मिलता. पूछने पर वे यही कहतीं, ‘नईनई नौकरी है, छुट्टी जल्दी नहीं मिलती. जैसे ही मिलेगी, वह तुम सब से मिलने जरूर आएगी,’ मेरे पास सिवा सुबकने के कोई हथियार नहीं था. मेरी देखादेखी छोटी भी रोने लगती. मुझ से उस की रुलाई देखी नहीं जाती थी. उसे अपनी बांहों में भर कर सहलाने का प्रयास करती ताकि उसे मां की कमी न लगे.

मां के जाने के बाद छोटी मेरे ही पास सोती. एक तरह से मैं उस की मां की भूमिका में आ गई थी. अपनी हर छोटीमोटी जरूरतों के लिए वह मेरे पास आती. एक भावनात्मक शून्यता के साथ 2 साल गुजर गए. जब भी फोन करती, मां यही कहतीं बहुत जल्द मैं तुम लोगों से मिलने बनारस आ रही हूं. मगर आती नहीं थीं. हमारा इंतजार महज भ्रम साबित हुआ. आहिस्ताआहिस्ता हम दोनों बहनें बिन मां के रहने के आदी हो गईं. मैं बीए में पहुंच गई कि एक दिन शाम को जब स्कूल से घर लौटी तो देखा मां आई हुई हैं. देख कर मेरी खुशी की सीमा न रही. मां से बिछोह की पीड़ा ने मेरे सब्र का बांध तोड़ डाला और बह निकला मेरे आंखों से आंसुओं का सैलाब जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. नानी ने संभाला.

‘अब तुम कहीं नहीं जाओगी,’ सिसकियों के बीच में मैं बोली. वे चुप रहीं. उन की चुप्पी मुझे खल गई. जहां मेरे आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे वहीं मां का तटस्थ भाव अनेक सवालों को जन्म दे रहा था. क्या यहां आ कर उन्हें अच्छा नहीं लगा? 2 साल बाद एक मां को अपने बच्चों से मिलने की जो तड़प होती है उस का मैं ने मां में अभाव देखा. शायद नानी मेरे मन में उठने वाले भावों को भांप गईं. वे मुझे बड़े प्यार से दूसरे कमरे में यह कहती हुई ले गईं कि तुम्हारी मां लंबी यात्रा कर के आई है, उसे आराम करने की जरूरत है. जो बातें करनी हों, कल कर लेना. ऐसा मैं ने पहली बार सुना. अपनी औलादों को देख कर मांबाप की सारी थकान दूर हो जाती है, यहां तो उलटा हो रहा था. मां ने न हमारा हालचाल पूछा न ही मेरी पढ़ाई लिखाई के बारे में कुछ जानने की कोशिश की.

उन्होंने एक बार यह भी नहीं कहा कि बेटे, मेरी गैरमौजूदगी में तुम लोगों को जो कष्ट हुआ उस के लिए मुझे माफ कर दो. छोटी भी लगभग उपेक्षित सी मां के पास बैठी थी. मां के व्यवहार में आए इस अप्रत्याशित परिवर्तन को ले कर मैं परेशान हो गई. बहरहाल, मैं अपने कमरे में बिस्तर पर लेट गई. वैसे भी मां के बगैर रहने की आदत हो गई थी. लेटेलेटे मन मां के ही इर्दगिर्द घूमता रहा. 2 साल बाद मिले भी तो मांबेटी अलगअलग कमरों में लेटे हुए थे. सिर्फ छोटी जिद कर के मां के पास बैठी रही.

अचानक एक छोटे से बच्चे के रोने की आवाज मेरे कानों में पड़ी. मुझे अचरज हुआ. उठ कर नानी के पास आई. ‘नानी, किस का बच्चा रो रहा है?’ नानी कुछ नहीं बोलीं. मानो वे मुझ से कुछ छिपाना चाहती हों. कोई जवाब न पा कर मैं मां के कमरे में आई. देखा, मां एक बच्चे को गोद में ले कर दूध पिला रही थीं. मेरे चेहरे पर शिकन पड़ गई.
  
मां के करीब आई. ‘मां, यह किस का बच्चा है?’ मां ने भी वही किया जो नानी ने. उन्होंने निगाहें चुराने की कोशिश की मगर जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो नानी ने परदाफाश किया, ‘यह तुम्हारा छोटा भाई है. तुम्हें हमेशा शिकायत रहती थी कि तुम्हारे कोई छोटा भाई नहीं है. लो, अब अपनी ख्वाहिश पूरी कर लो,’ नानी ने बच्चे को मां से ले कर मेरे हाथों में दे दिया.

एकबारगी मैं असमंजस की स्थिति में आ गई. बच्चे को गोद में लेती हुई यह पूछने से अपनेआप को न रोक पाई कि मां, यह भाई कहां से आया? मां दुविधा में पड़ गईं. वे भरसक जवाब देने से बचती रहीं. बच्चे को भाई के रूप में पा कर कुछ क्षण के लिए मैं सबकुछ भूल गई. मगर इस का मतलब यह नहीं था कि मेरे मन में सवालों की कड़ी खत्म हो गई. रात में ठीक से नींद नहीं आई. करवटें बदलते कभी मां तो कभी बच्चे पर ध्यान चला जाता. तभी नानी और मां की खुसुरफुसुर मेरे कानों में पड़ी.

‘कैसा चल रहा है? पहले से दुबली हो गई हो,’ नानी पूछ रही थीं.

‘बच्चे के आने के बाद थोड़ी परेशान हूं. ठीक हो जाएगा.’

मां बोलीं, ‘दामादजी खुश हैं?’

‘बहुत खुश हैं. खासतौर से लड़के के आने के बाद.’

‘मैं तो डर रही थी कि 2-2 बेटियों का कलंक कहीं वहां भी तेरा पीछा न करे,’ नानी बोलीं.

‘मां, भयभीत तो मैं भी थी. शुक्र है कि मैं वहां बेटियों के कलंक से बच गई. यहां दोनों कैसी हैं?’

‘ठीक हैं. शुरुआत में थोड़ा परेशान जरूर करती थीं मगर अब नहीं. दोनों को घर के छोटेमोटे कामों में उलझाए रहती हूं ताकि भूली रहें.’

‘मां, अब दोनों की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है. मैं अब शायद ही अपनी नई गृहस्थी से उबर पाऊं. वैसे भी लड़के के आ जाने के बाद दोनों के प्रति मोह भी कम हो गया है.’

‘ऐसा नहीं कहते,’ नानी ने टोका.

‘क्यों न कहूं? बाप नालायक. इन दोनों के बोझ से मुक्त होना क्या आसान होगा?’

‘सब अपनीअपनी नियति का पाते हैं, कुछ सोच कर नानी फिर बोलीं, ‘तुम ने दामादजी से बात की थी.’

‘किस सिलसिले में?’ मां के माथे पर बल पड़ गए.

‘दोनों को अपनी बेटियां बना कर रख लेते तो भरापूरा परिवार हो जाता.’

‘पागल हो गई हो मां. जिस की बेटियां हैं उसे ही फिक्र नहीं तो भला वे क्यों जहमत उठाएं?’ नानी क्षणांश गंभीर हो गईं. वे उबरीं, ‘तुम्हें बेटियों के बारे में भी सोचना चाहिए. तुम्हारा भाई अधिक से अधिक इन को पढ़ालिखा देगा. रही बात शादीब्याह की, उस का क्या होगा?’

‘तब की तब देखी जाएगी.’

दोनों का वार्त्तालाप मेरे कानों में पड़ा. सुन कर मेरी आंखें भर आईं. एक मां के लिए बेटी इतनी बोझ हो गई कि उसे अपनी दूसरी शादी की तो फिक्र है मगर अपनी बेटियों के भविष्य की नहीं. तब मैं ने मन बना लिया था कि आइंदा कभी भी मां को फोन नहीं करूंगी. उन्हें अपने बेटे से मोह है तो मुझे अपनेआप से. मैं अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखला दूंगी कि मैं किसी पर बोझ बनने वाली नहीं. एक हफ्ते रही होंगी मां हमारे साथ. उन का रहना न रहना, हमारे लिए बराबर था. उन का ज्यादातर समय अपने नवजात शिशु के लिए ही था. हम तो जैसे उन के लिए गैर हो गए थे. बहरहाल, एक दिन एक आदमी आया. जिसे मां ने पिता कह कर हम दोनों बहनों से परिचय करवाया. मुझे वह आदमी कुछ जानापहचाना लग रहा था. वह हमारा किस रिश्ते से पिता हो गया. यह मैं ने बाद में जाना. उस के साथ मां चली गईं. एक अनसुलझे सवाल का जवाब दिए बगैर मां एक रहस्यमयी व्यक्तित्व के साथ हमारी नजरों से दूर चली गईं.

इस बार मैं ने अपने आंसुओं को बहा कर जाया नहीं किया क्योंकि कुछकुछ हालात मेरी समझ में आ चुके थे. फिर भी वे हमारी मां थीं, हमें उन की जरूरत थी. जबकि मैं अच्छी तरह समझ चुकी थी कि हमारी मां अब हमारी नहीं रहीं, बल्कि  उस बच्चे की मां बन चुकी थीं जो उन की गोद में था. वह जानापहचाना व्यक्ति निश्चय ही मां का पति था. जिस के साथ उन्होंने एक अलग दुनिया बसा ली थी और हमें छोड़ दिया लावारिसों की तरह नानी के घर में पलने के लिए. सोच कर मेरी आंखें आंसुओं से लबरेज हो गईं. छोटी तो चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी. मैं ने समझाया, ‘देख, हमें मां के बगैर जीने की आदत डालनी होगी, मन को कड़ा कर ‘छोटी,’ कह कर मैं ने उसे सीने से लगा लिया.

‘दीदी, मां अब कभी नहीं आएंगी?’ छोटी के कथन पर रुलाई तो मुझे भी फूट रही थी मगर किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखा था. मां का जब तक इंतजार रहा तब तक तसल्ली रही. अब तो स्पष्ट हो गया कि वे हमारी नहीं रहीं. शायद ही कभी वे इधर का रुख करें. करेंगी भी तो 2-4 साल में एकाध बार. उन का होना न होना, बराबर था हमारे लिए. पर पता नहीं क्यों, मन मानने के लिए तैयार न था. मेरी सगी मां जिन्होंने हमें 9 महीने गर्भ में रखा, पालापोसा, अचानक इतनी निर्मोही कैसे हो सकती हैं? क्यों उन्होंने हम से विमुख हो दूसरे व्यक्ति का दामन थामा? क्या वह व्यक्ति हम से ज्यादा अहमियत रखता था मां के लिए. खून के रिश्ते क्या इतने कमजोर होते हैं कि कोई भी ऐरागैरा तोड़ दे? कोई मां कैसे अपने अबोध बच्चों को छोड़ कर दूसरी शादी कर लेती है? छोटी रोतेरोते सो गई, वहीं मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. घूमफिर कर सोच कभी मां तो कभी उस व्यक्ति पर चली जाती जिसे मैं ने कहीं देखा था.

आखिरकार मुझे याद आ ही गया. जब मां एक कौस्मैटिक की दुकान पर काम करती थीं तब मुझे वहां ले गई थीं. तब 13 साल की थी मैं. अंकल ने मुझे बड़े प्यार से मुझ से मेरी ख्वाहिशों के बारे में पूछा. मुझे पिज्जा खिलाया. आइसक्रीम दी. थोड़ी देर बाद मामा आए तब मैं उन के साथ मां को वहीं छोड़ कर घर लौट आई.

आज उम्र के 30वें पायदान पर आ कर सबकुछ ऐसे जेहन में तैरने लगा जैसे कल की बात हो. मां ने उसी व्यक्ति से शादी कर ली. मैं ने उसांस ली. जो भी हो, एक बात आज भी शूल की भांति चुभती है कि क्यों मां ने हम से ज्यादा उस व्यक्ति से शादी को अहमियत दी? क्या हमें पालपोस कर बड़ा करना उन के जीवन का मकसद नहीं हो सकता था? जब शादी कर के बच्चे ही पालने थे तो हम क्या बुरे थे? अगर इतना ही बेगानापन था हम से तो छोड़ देतीं हमें अपने पिता के पास. कामधाम नहीं करते तो क्या हुआ, कम से कम उन्हें अपने खून के रिश्ते का खयाल तो होता? हो सकता था हमें देख कर ही वे कुछ कामधाम करने लगते. अनायास पापा की याद आने लगी. 5 साल की थी, जब मां ने पापा का घर छोड़ा.

नानी कहतीं, ‘तेरे पिता गैरजिम्मेदार थे.’ बड़ी हुई तो नानी से पूछा, ‘नानी, मां की शादी हुई तब उन की उम्र मात्र 16 साल की थी और पापा की रही होगी 21 साल. यही न आप ने हम से बताया था. इतनी छोटी उम्र में न मां शादी लायक थीं, न ही पापा घरगृहस्थी संभालने लायक. आप ने तो अपना बोझ हटाया. मगर पापा को तो मौका दिया होता संभालने का. 25 साल के बाद ही आदमी कुछ करने की स्थिति में होता है. मगर आप को तो मां की शादी के साथ उन के कमाने की जल्दी थी. मां को क्या कहें, वे अपरिपक्व थीं, जो विवाह को मजाक समझा और चली आईं आप के साथ रहने. आप ने भी उन का सपोर्ट किया. क्या फायदा हुआ ऐसी शादी करने से जब लड़की मायके में ही आ कर रहने लगे.’

नानी को दंश लगा. ‘जब तू कुछ नहीं जानती तो मत बोला कर,’ वे थोड़ी रोंआसी हो गईं. मुझे अपराधबोध हुआ. भरे गले से कहने लगीं, ‘जब तेरे नाना मरे तब मेरी उम्र थी 35 साल. 3 लड़कियां और 2 लड़के छोड़ कर जब वे गुजरे तब मेरे ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. किसी तरह संभली तो दिनरात यही चिंता खाए जा रही थी कि कैसे 3 लड़कियों की शादी करूंगी?’

‘शादी करना क्या जरूरी था? इस शादी से मिला क्या?’

‘तो क्या घर पर बिठा कर चार लोगों के ताने सुनती.’ ‘भले ही बेटी की जिंदगी बरबाद हो जाए?’

‘मैं तुझ से बहस नहीं करना चाहती. जो उचित था, वह किया. रही बेटी की बात, मैं ऐसे आदमी के पास उसे नहीं छोड़ सकती जो दिनभर बैठ कर मुफ्त की रोटियां तोड़े. छोटीछोटी जरूरतों के लिए उसे सासससुर पर निर्भर रहना पड़ता. क्या वह इतना भी कमाने की स्थिति में नहीं था कि उस के लिए एक लिपस्टिक ला सके.’

‘इतना ही कमाने वाला दामाद चाहिए था तो पहले कामधाम देख कर शादी करतीं?’

‘देखी थी, बाप की किराने की अच्छीखासी दुकान थी.’

‘फिर शिकायत कैसी जब मां सासससुर से अपनी जरूरतों के लिए कहतीं.’

‘मैं तुम से बहस नहीं करना चाहती. पढ़लिख गई हो तो कुछ ज्यादा ही बुद्धि आ गई है तुम में.’

‘नानी, मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हूं कि कम उम्र में शादी कर के आप ने घोर अपरिपक्वता का परिचय दिया है. बेटियों को बोझ समझा. इस का दुष्परिणाम है जो हमें अपने मांबाप दोनों से वंचित होना पड़ा,’ कहतेकहते मेरी दोनों आंखों के कोर भीग गए. पता नहीं क्यों मुझे मां का चालढाल भी मर्यादित नहीं लगा. खासतौर से उन के पहनावे और बनावशृंगार को ले कर. तब मेरा बालपन उतना समझने में सक्षम नहीं था. परंतु उस समय की देखीसुनी चीजों का अर्थ अब समझ में आने लगा था.

माना कि मां की उम्र ज्यादा नहीं थी, फिर भी उन्हें इस का तो खयाल होना चाहिए था कि वे 2 बच्चियों की मां हैं और मायके में रह रही हैं. नानी न सही, आसपास के लोग तो जरूर कानाफूसी करते होंगे. ऐसे में उन की और भी जिम्मेदारी बनती थी कि वे मर्यादा में रहें. क्या पता नानी ने शह दी हो कि कोई दूसरा उन की जिंदगी में आए और वे दूसरी शादी कर लें. और हुआ भी वही. मां ने उस व्यक्ति से शादी की जिस के यहां वे नौकरी करती थीं. आज मेरी समझ में आ गया कि नानी ने मां के चालचलन पर कोई एतराज क्यों नहीं जताया. ठीक है, उन्होंने जो समझा, किया. मगर हम से झूठ क्यों बोला कि मां दिल्ली नौकरी करने गई हैं. हमें अंधेरे में क्यों रखा? यह सोच कर मेरा मन दुखी हो गया. पापा एकाध बार हमारे यहां आए मगर मां और नानी ने उन्हें बड़ी निर्लज्जता के साथ घर से निकाल दिया. उस के बाद वे कभी नहीं झांके. हो सकता है उन्होंने भी दूसरी शादी कर ली हो?

आहिस्ताआहिस्ता मैं और छोटी ने बिन मां के रहना सीख लिया. पहले मां का फोन आ भी जाता था मगर धीरेधीरे वह भी आना बंद हो गया. हम ने भी फोन करना बंद कर दिया. मन बना लिया कि मैं और छोटी पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होंगी.

आज हम दोनों बहनें अच्छेअच्छे ओहदों पर हैं. छोटी ने प्रेमविवाह कर लिया. मगर मैं ने नहीं. उम्र के 30वें पायदान पर आ कर भी शादी का खयाल नहीं आया. शादी से वितृष्णा हो गई थी. शादी ही तो की थी मां ने जिस के चलते हमें उन के प्यार से महरूम होना पड़ा. खून से ज्यादा अगर शादी अहमियत रखती है तो मैं ऐसी शादी को ठुकराती हूं. मेरे लिए बेटी के रूप में छोटी थी जिसे मैं ने मां सदृश पाला. आगे भी उसी की खुशी में अपनी खुशी तलाशती रहूंगी. मेरे जीवन का मकसद भी यही था कि छोटी को फलताफूलता देखूं. मां को मेरे आशय की खबर लगी तो पहले फोन किया, जब उस से सफलता नहीं मिली तो मेरी सहेली अनुराधा से खत भिजवा दिया. मैं ने अनुराधा को खूब खरीखोटी सुनाई कि क्यों लिया उन का खत? मैं उन से नफरत करती हूं. आज अचानक जिम्मेदारी का खयाल कैसे आया? हमें बेटी माना होता तो ठीक था. हमें तो लावारिस की तरह नानी के पास रख कर चली गईं गुलछर्रे उड़ाने.

‘‘तुम्हें मां के बारे में ऐसा नहीं कहना चाहिए,’’ अनुराधा ने टोका.

मुझे किंचित अफसोस हुआ, ‘‘अनुराधा, मैं किसी के चरित्र पर उंगली नहीं उठा रही हूं. मेरे कहने का आशय यही है कि उन्होंने जो किया, क्या वह ठीक था?’’

अनुराधा ने कोई जवाब नहीं दिया. क्षणांश चुप्पी के बाद वह बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि तुम एक बार अपनी मां से मिल लो.’’

‘‘मैं उन की शक्ल भी देखना नहीं चाहती.’’

‘‘तुम्हारी प्रतिक्रिया वाजिब है. तुम्हें उन के नहीं, अपने तरीके से सोचना होगा. उन की दूसरी शादी उन की तब की परिस्थिति और सोच पर निर्भर थी. जबकि तुम्हारी शादी आज की परिस्थिति पर. वे ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं थीं, तुम तो हो और अच्छी तरह जानती हो कि शादी जीवन को एक लय देती है. जैसे बिना साज के आवाज अधूरी है वैसे ही बिन शादी के जीवन अधूरा. जीवनसाथी का साथ अकेलेपन को दूर करता है. फिर सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएंगे. न मन में नफरत के भाव आएंगे और न ही व्यवहार में चिड़चिड़ापन.’’ मेरे मन पर अनुराधा की बातों का प्रभाव पड़ा. एक हद तक वह ठीक थी. औफिस से घर जाती तो मेरा अतीत मेरा पीछा नहीं छोड़ता. कब तक मां को दोष देती रहूंगी? उन्हें कोसने से मुझे अब क्या मिलने वाला है? इस से उबरने का यही तरीका था कि मैं शादी कर के एक नए नजरिए से दुनिया को देखूं.

काफी सोच कर मैं ने अपनी पसंद के एक सहकर्मी से शादी कर ली. मगर मां को नहीं बुलाया. यह मेरी चिढ़ थी या प्रतिकार. इसे जो भी कहा जाए. वे निष्ठुर हो सकती हैं तो मैं क्यों नहीं. हां, यह खबर मैं ने अनुराधा से उन तक भिजवा दी. एक बात मुझे जीवनभर सालती रहेगी कि क्या कोई मां खुदगर्ज हो सकती है.

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