कहानी - अटूट बंधन


कैसा था त्रिशा और आजाद का प्यार का बंधन
प्रेम तो एकदूसरे की भावनाओं से बंधा होता है, ऐसे में एकदूसरे को न देख पाना कोई बाधा नहीं. डा. आजाद और त्रिशा का प्रेम भी कुछ ऐसा ही था. नेत्रहीनता के बावजूद एकदूसरे से बंधे त्रिशा और आजाद के प्रेम के आगे नतमस्तक प्रकाश ने भी ऐसी ही लड़की का हाथ थामा था.

बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. आधे घंटे से लगातार हो रही थी. 1 घंटा पहले जब वे दोनों रैस्टोरैंट में आए थे, तब तो मौसम बिलकुल साफ था. फिर यह अचानक बिन मौसम की बरसात कैसी? खैर, यह इस शहर के लिए कोई नई बात तो नहीं थी परंतु फिर भी आज की बारिश में कुछ ऐसी बात थी, जो उन दोनों के बोझिल मन को भिगो रही थी. दोनों के हलक तक कुछ शब्द आते, लेकिन होंठों तक आने का साहस न जुटा पा रहे थे. घंटे भर से एकाध आवश्यक संवाद के अलावा और कोई बात संभव नहीं हो पाई थी.

कौफी पहले ही खत्म हो चुकी थी. वेटर प्याले और दूसरे बरतन ले जा चुका था. परंतु उन्होंने अभी तक बिल नहीं मंगवाया था. मौन इतना गहरा था कि दोनों सहमे हुए स्कूली बच्चों की तरह उसे तोड़ने से डर रहे थे. प्रकाश त्रिशा के बुझे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश करता पर अगले ही पल सहम कर अपनी पलकें झुका लेता. कितनी बड़ीबड़ी और गहरी आंखें थीं त्रिशा की. त्रिशा कुछ कहे न कहे, उस की आंखें सब कह देती थीं.

इतनी उदासी आज से पहले प्रकाश ने इन आंखों में कभी नहीं देखी थी. ‘क्या सचमुच मैं ने इतनी बड़ी गलती कर दी, पर इस में आखिर गलत क्या है?’ प्रकाश का मन इस उधेड़बुन में लगा हुआ था.

‘होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है…’ दोनों की पसंदीदा यह गजल धीमी आवाज में चल रही थी. कोई दिन होता तो दोनों इस के साथसाथ गुनगुनाना शुरू कर देते पर आज…

आखिरकार त्रिशा ने ही बात शुरू करनी चाही. उस के होंठ कुछ फड़फड़ाए, ‘‘तुम…’’

‘‘तुम कुछ पूछना चाहती हो?’’ प्रकाश ने पूछ ही लिया.

‘‘हां, कल तुम्हारा टैक्स्ट मैसेज पढ़ कर मैं बहुत हैरान हुई.’’

‘‘जानता हूं पर इस में हैरानी की क्या बात है?’’

‘‘पर सबकुछ जानते हुए भी तुम यह सब कैसे सोच सकते हो, प्रकाश?’’ इस बार त्रिशा की आवाज पहले से ज्यादा ऊंची थी.प्रकाश बिना कुछ जवाब दिए फर्श की तरफ देखने लगा.

‘‘देखो, मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए. क्या है यह सब?’’ त्रिशा ने उखड़ी हुई आवाज से पूछा.

‘‘जो मैं महसूस करने लगा हूं और जो मेरे दिल में है, उसे मैं ने जाहिर कर दिया और कुछ नहीं. अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो मुझे माफ कर दो, लेकिन मैं ने जो कहा है उस पर गौर करो.’’ प्रकाश रुकरुक कर बोल रहा था, लेकिन वह यह भी जानता था कि त्रिशा अपने फैसले पर अटल रहने वाली लड़की है.

पिछले 3 वर्षों से जानता है उसे वह, फिर भी न जाने कैसे साहस कर बैठा. पर शायद प्रकाश उस का मन बदल पाए.

त्रिशा अचानक खड़ी हो गई. ‘‘हमें चलना चाहिए. तुम बिल मंगवा लो.’’

बिल अदा कर के प्रकाश ने त्रिशा का हाथ पकड़ा और दोनों बाहर चले आए. बारिश धीमी हो चुकी थी. बूंदाबांदी भर हो रही थी. प्रकाश बड़ी सावधानी से त्रिशा को कीचड़ से बचाते हुए गाड़ी तक ले आया.

त्रिशा और प्रकाश पिछले 3 वर्ष से बेंगलरु की एक प्रतिष्ठित मल्टीनैशनल कंपनी में कार्य करते थे. त्रिशा की आंखों की रोशनी बचपन से ही जाती रही थी. अब वह बिलकुल नहीं देख सकती थी. यही वजह थी कि उसे पढ़नेलिखने व नौकरी हासिल करने में हमेशा बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था. पर यहां प्रकाश और दूसरे कई सहकर्मियों व दोस्तों को पा कर वह खुद को पूरा महसूस करने लगी थी. वह तो भूल ही गई थी कि उस में कोई कमी है. वैसे भी उस को देख कर कोई यह अनुमान ही नहीं लगा सकता था कि वह देख नहीं सकती. उस का व्यक्तित्व जितना आकर्षक था, स्वभाव भी उतना ही अच्छा था. वह बेहद हंसमुख और मिलनसार लड़की थी. वह मूलतया दिल्ली की रहने वाली थी. बेंगलुरु में वह एक वर्किंग वुमेन होस्टल में रह रही थी. प्रकाश अपने 2 दोस्तों के साथ शेयरिंग वाले किराए के फ्लैट में रहता था. प्रकाश का फ्लैट त्रिशा के होस्टल से आधे किलोमीटर की दूरी पर ही था.
  

रोजाना त्रिशा जब होस्टल लौटती तो प्रकाश कुछ न कुछ ऐसी हंसीमजाक की बात कर देता, जिस कारण त्रिशा होस्टल आ कर भी उस बात को याद करकर के देर तक हंसती रहती. परंतु आज जब प्रकाश उसे होस्टल छोड़ने आया तो दोनों में से किसी ने भी कोई बात नहीं की. होस्टल आते ही त्रिशा चुपचाप उतर गई. उस का सिर दर्द से फटा जा रहा था. तबीयत कुछ ठीक नहीं मालूम होती थी.

डिनर के वक्त उस की सहेलियों ने महसूस किया कि आज वह कुछ अनमनी सी है. सो, डिनर के बाद उस की रूममेट और सब से अच्छी सहेली शालिनी ने पूछा, ‘‘क्या बात है त्रिशा, आज तुम्हें आने में देरी क्यों हो गई? सब ठीक तो है न.’’

‘‘हां, बिलकुल ठीक है. बस, आज औफिस में काम कुछ ज्यादा था,’’ त्रिशा ने जवाब तो दिया पर आज उस के बात करने में रोज जैसी आत्मीयता नहीं थी.

शालिनी को ऐसा लगा जैसे त्रिशा उस से कुछ छिपा रही थी. फिर भी त्रिशा को छेड़ने के लिए गुदगुदाते हुए उस ने कहा, ‘‘अब इतनी भी उदास मत हो जाओ, उन को याद कर के. जानती हूं भई, याद तो आती है, पर अब कुछ ही दिन तो बाकी हैं न.’’

त्रिशा अपनी आदत के अनुसार मुसकरा उठी. शालिनी को जरा परे धकेलते हुए बोली, ‘‘जाओ, मैं नहीं करती तुम से बात. जब देखो एक ही रट.’’

तभी अचानक त्रिशा का मोबाइल बज उठा. ‘‘उफ, कितनी लंबी उम्र है उन की. नाम लिया और फोन हाजिर,’’ शालिनी उछल पड़ी. ‘‘खूब इत्मीनान से जी हलका कर लो. मैं तो चली,’’ कहती हुई शालिनी कमरे से बाहर निकल गई.

दरअसल, बात यह थी कि कुछ ही दिनों में त्रिशा का प्रेमविवाह होने वाला था. डा. आजाद, जिन से जल्द ही त्रिशा का विवाह होने वाला था, लखनऊ विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक थे. त्रिशा और आजाद ने दिल्ली के एक स्पैशल स्कूल से साथसाथ ही पढ़ाई पूरी की थी. उस के बाद आजाद अपने घर लखनऊ वापस आ गए थे. वहीं से उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की और फिर अपनी रिसर्च भी पूरी की. रिसर्च पूरी करने के कुछ ही दिनों बाद उन्हें यूनिवर्सिटी में ही जौब मिल गई. ऐसा लगता था कि त्रिशा और आजाद एकदूसरे के लिए ही बने थे.

स्कूल में लगातार पनपने वाला लगाव  और आकर्षण एकदूसरे से दूर हो कर प्यार में कब बदल गया, पता ही नहीं चला. शीघ्र ही दोनों ने विवाह के अटूट बंधन में बंधने का फैसला कर लिया. दोनों के न देख पाने के कारण जाहिर है परिवार वालों को स्वीकृति देने में कुछ समय तो लगा, पर उन दोनों के आत्मविश्वास और निश्छल प्रेम के आगे एकएक कर सब को झुकना ही पड़ा.

त्रिशा के बेंगलुरु आने के बाद आजाद बहुत खुश थे. ‘‘चलो अच्छा है, वहां तुम्हें इतने अच्छे दोस्त मिल गए हैं. अब मुझे तुम्हारी इतनी चिंता नहीं करनी पड़ेगी.’’

‘‘अच्छी बात तो है, पर इस बेफिक्री का यह मतलब नहीं कि आप हमें भूल जाएं,’’ त्रिशा आजाद को परेशान करने के लिए यह कहती तो आजाद का जवाब हमेशा यही होता, ‘‘खुद को भी कोई भूल सकता है क्या.’’

आज जब त्रिशा आजाद से बात कर रही थी तो आजाद को समझते देर न लगी कि त्रिशा आज उन से कुछ छिपा रही है, ‘‘क्या बात है, आज तुम कुछ परेशान हो?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘त्रिशा, इंसान अगर खुद से ही कुछ छिपाना चाहे तो नहीं छिपा सकता,’’ आजाद की आवाज में कुछ ऐसा था, जिसे सुन कर त्रिशा की आंखें डबडबा आईं. ‘‘मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है. मैं आप से कल बात करती हूं,’’ यह कह कर त्रिशा ने फोन डिसकनैक्ट कर दिया.

अगले दिन त्रिशा और प्रकाश के बीच औफिस में भी कोई बात नहीं हुई. ऐसा पहली बार ही हुआ था. प्रकाश का मिजाज आज एकदम उखड़ाउखड़ा था.

‘‘चलो,’’ शाम को उस ने त्रिशा के पास आ कर कहा. रास्तेभर दोनों ने कोई बात नहीं की. होस्टल आने ही वाला था कि त्रिशा ने खीझ कर कहा, ‘‘तुम कुछ बोलोगे भी कि नहीं?’’
  
‘‘मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए.’’

कितनी डूबती हुई आवाज थी प्रकाश की. 3 साल में त्रिशा ने प्रकाश को इतना खोया हुआ कभी नहीं देखा था. पिछले 2 दिन में प्रकाश में जो बदलाव आए थे, उन पर गौर कर के त्रिशा सहम गई. ‘क्या वाकई प्रकाश… क्या प्रकाश… नहीं, ऐसा नहीं हो सकता,’ त्रिशा का मन विचलित हो उठा. ‘मुझे तुम से कल बात करनी है. कल छुट्टी भी है. कल सुबह 11 बजे मिलते हैं. गुडनाइट,’’ कहते हुए त्रिशा गाड़ी से उतर गई.

जैसा तय था, अगले दिन दोनों 11 बजे मिले. बिना कुछ कहेसुने दोनों के कदम अनायास ही पार्क की ओर बढ़ते चले गए. त्रिशा के होस्टल से एक किलोमीटर की दूरी पर ही शहर का सब से बड़ा व खूबसूरत पार्क था. ऐसे ही छुट्टी के दिनों में न जाने कितनी ही बार वे दोनों यहां आ चुके थे. पार्क के भीतरी गेट पर पहुंच कर दोनों को ऐसा लगा जैसे आज असाधारण भीड़ उमड़ पड़ी हो.

भीड़भाड़ और चहलपहल तो हमेशा ही रहती है यहां, पर आज की भीड़ में कुछ खास था. सैकड़ों जोड़े एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले अंदर चले जा रहे थे. बहुतों के हाथ में गुलाब का फूल, किसी के पास चौकलेट तो किसी के 
हाथ में गिफ्ट पैक. पर प्रकाश का मन इतना अशांत था कि वह कुछ समझ ही नहीं सका.

हवा जोरों से चलने लगी थी. बादलों की गड़गड़ाहट सुन कर ऐसा मालूम होता था कि किसी भी पल बरस पड़ेंगे. मौसम की तरह प्रकाश का मन भी आशंकाओं से घिर आया था. त्रिशा को लगा, शायद आज यहां नहीं आना चाहिए था. तभी अचानक उस का मोबाइल बज उठा. ‘‘हैप्पी वैलेंटाइंस डे, मैडम,’’ आजाद की आवाज थी.

‘‘ओह, मैं तो बिलकुल भूल ही गई थी,’’ त्रिशा बोली.

‘‘आजकल आप भूलती बहुत हैं. कोई बात नहीं. अब आप का गिफ्ट नहीं मिलेगा, बस, इतनी सी सजा है,’’ आजाद ने आगे कहा, ‘‘अच्छा, अभी हम थोड़ा जल्दी में हैं. शाम को बात करते हैं.’’

आज बैंच खाली मिलने का तो सवाल नहीं था. सो, साफसुथरी जगह देख दोनों घास पर ही बैठ गए. त्रिशा अकस्मात पूछ बैठी, ‘‘क्या तुम वाकई सीरियस हो?’’

‘‘तुम समझती हो कि मैं मजाक कर रहा हूं?’’ प्रकाश का स्वर रोंआसा हो उठा.

त्रिशा ने रुकरुक कर बोलना शुरू किया, ‘‘देखो, 3 वर्ष में हम एकदूसरे को पूरी तरह जानने लगे हैं. मेरा तो कोई काम तुम्हारे बगैर नहीं होता. सच तो यह है, इस शहर में आ कर मैं तो अपनी जिम्मेदारियां ही भुला बैठी हूं. मैं ने तो अभी सोचा भी नहीं कि यहां से जाने के बाद मैं कैसे मैनेज करूंगी. पर प्रकाश, आजाद को मैं ने अपने जीवनसाथी के रूप में देखा है. उन के सिवा मैं किसी और के बारे में सोच भी कैसे…’’

प्रकाश बीच में ही बोल उठा, ‘‘मैं सब जानता हूं, लेकिन जिंदगी इतनी आसान भी नहीं होती, जितना तुम लोग सोच रहे हो. मुझे तुम्हारी फिक्र सताती है. पैसे खर्च कर के ही क्या सबकुछ मिल सकता है? इन सब बातों से अलग, सच तो यह भी है कि मेरे दिल में तुम्हारे लिए चाहत कब पैदा हो गई, मुझे पता ही नहीं चला. मैं तुम्हें ऐसे अकेले नहीं छोड़ सकता. प्लीज, मेरी बात समझने की कोशिश करो, त्रिशा.’’

अगले कुछ पल रुक कर त्रिशा ने कहा, ‘‘मैं अच्छी तरह जानती हूं, तुम मेरी कितनी फिक्र करते हो लेकिन जो प्रस्ताव तुम्हारा है, उस के बारे में सोचने का मेरे लिए सवाल ही पैदा नहीं होता. मैं ने हमेशा यही चाहा था कि मैं जिस कमी के साथ जी रही हूं, जीवनसाथी भी वैसा ही चुनूंगी ताकि हम एकदूसरे की ताकत बन कर कदमकदम पर हौसलाअफजाई कर सकें और आत्मनिर्भर हो कर जी सकें. फिर, आजाद तो मेरे जीवन में एक अलग ही खुशी ले कर आए हैं.

मैं यकीन के साथ कह सकती हूं, उन की खूबियां और जीवन के प्रति उन का पौजिटिव रुख ही हमारे घर को खुशियों से भर देगा. जानती हूं, जीवन के हर मोड़ पर चुनौतियां होंगी, लेकिन हम दोनों का एकदूसरे के प्रति विश्वास, सम्मान और प्यार ही हमें उन चुनौतियों से उबरने की ताकत देगा. रही बात तुम्हारी, तो मैं अपने इतने अच्छे दोस्त को कभी खोना नहीं चाहती. मेरे लिए, प्लीज, मेरे लिए मुझे मेरा सब से अच्छा दोस्त वापस दे दो. अगले महीने मेरी इंगेजमैंट है. अगर तुम इसी तरह परेशान रहोगे तो क्या मुझे तकलीफ नहीं होगी?’’ इतने दिनों का सैलाब अब प्रकाश की आंखों से बह चला.

त्रिशा की जिद और कोशिशों के चलते प्रकाश धीरेधीरे नौर्मल होने लगा. त्रिशा की इंगेजमैंट हुई और फिर शादी के दिन भी करीब आ गए. त्रिशा ने आधी से ज्यादा शौपिंग प्रकाश और शालिनी के साथ ही कर ली थी.

एक शाम त्रिशा के पास प्रकाश के मम्मीपापा का फोन आया. लंबी बातचीत के बाद प्रकाश के पापा ने त्रिशा से कहा, ‘‘बेटा, प्रकाश को शादी के लिए तुम ही तैयार कर सकती हो. हो सके तो उसे समझाओ, इतनी देर करना भी अच्छी बात नहीं. हमारी तो बात ही टाल देता है.’’

त्रिशा हंस पड़ी, ‘‘बस, इतनी सी बात है, अंकल. आप बिलकुल चिंता मत कीजिए. मैं उसे राजी कर लूंगी.’’

यों तो त्रिशा ने पहले भी उस से शादी का जिक्र छेड़ा था, पर हर बार वह उस की बात अनसुनी कर देता था. एक दिन प्रकाश ने त्रिशा से पूछा, ‘‘अच्छा बताओ, तुम्हें शादी पर क्या गिफ्ट दूं?’’

त्रिशा का उत्तर था, ‘‘तुम मुझे जो चाहे गिफ्ट दे देना, पर तुम्हारी शादी के लिए तुम्हारी हां मेरे लिए सब से कीमती गिफ्ट होगा.’’

प्रकाश उस दिन खामोश रहा. त्रिशा की शादी की तैयारियों में प्रकाश ने खुद को इतना उलझा लिया कि उसे अपनी सुध ही नहीं रही. हफ्तेभर पहले छुट्टी ले कर प्रकाश भी त्रिशा के साथ दिल्ली चला आया. यहां आ कर शादी की लगभग सभी जिम्मेदारियां प्रकाश ने संभाल लीं. मेहंदी, हलदी, कोर्ट मैरिज और फिर ग्रैंड रिसैप्शन पार्टी.

यह तय था कि शादी के बाद आजाद भी कुछ दिनों के लिए बेंगलुरु घूम आएंगे. त्रिशा की कंपनी का औफिस लखनऊ में नहीं था, इसलिए बेंगलुरु आ कर त्रिशा ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. उस ने सोच रखा था कि लखनऊ जा कर कुछ दिन घरगृहस्थी ठीकठाक कर के थोड़ा उस शहर के बारे में समझने के बाद वहीं किसी दूसरी नौकरी की तलाश करेगी.

‘‘भई, हम जानते हैं, आप बहुत थक गए हैं, पर हमें बेंगलुरु तो आप ही घुमाएंगे,’’ आजाद ने प्रकाश से कहा तो प्रकाश बोला, ‘‘सोच लीजिए, बदले में आप को हमें लखनऊ की सैर करवानी पड़ेगी.’’

‘‘कब आ रहे हैं आप?’’

‘‘बहुत जल्द, अपनी शादी के बाद.’’

‘‘अच्छा, तो जनाब ने शादी का फैसला कर लिया और हमें खबर तक नहीं हुई. सुन रही हो त्रिशा.’’

त्रिशा को भी यह सुन कर तसल्ली हुई, ‘‘फैसला तो नहीं किया पर…’’ प्रकाश बोलतेबोलते रुक गया और फिर उस ने बात बदल दी. बेंगलुरु में वह हफ्ता तो जैसे चुटकियों में कट गया.

प्रकाश ने त्रिशा और आजाद को गाड़ी में बैठा कर उन का सारा सामान व्यवस्थित करवा दिया. गाड़ी यहीं से बन कर चलती थी, इसलिए लेट होने का तो सवाल ही नहीं था. जैसे ही गाड़ी प्लेटफौर्म छोड़ने लगी, सभी का मन 
भारी हो गया. प्रकाश शायद बिना कुछ बोले ही चला गया था. त्रिशा की आंखें भी नम हो आईं.

तभी अचानक सामने बैठे पैसेंजर ने आजाद का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आप का छोटा बैग मैं इस साइड टेबल पर रख देता हूं. मैं भी लखनऊ जा रहा हूं. आप के सामने की लोअर बर्थ मेरी ही है. कोई भी जरूरत हो तो आप लोग बेझिझक मुझे आवाज दे दीजिएगा. मेरा नाम प्रकाश है.’’ अनजाने ही त्रिशा के होंठों पर मुसकान छा गई.

अगली सुबह घर पहुंचने के कुछ ही देर बाद उन्हें एक कूरियर मिला. यह त्रिशा के नाम का कूरियर था. ‘‘हैप्पी बर्थडे त्रिशा. तुम्हारा सब से कीमती तोहफा भेज रहा हूं,’’ प्रकाश ने लिखा था. उस में त्रिशा के लिए खूबसूरत सी ब्रेल घड़ी थी और एक शादी का कार्ड.

त्रिशा उछल पड़ी, ‘‘वाह, इतना बड़ा सरप्राइज. इतनी जल्दी कैसे होगा सब? महीनेभर बाद की ही तो तारीख है.’’

शादी से 2 दिन पहले आजाद और त्रिशा भोपाल पहुंचे तो प्रकाश ने रचना से उन का परिचय करवाया. ‘‘इतने कम समय में प्रकाश को तो कुछ बताने की फुरसत ही नहीं मिली. अब तुम ही कुछ बताओ न रचना अपने बारे में?’’ त्रिशा ने उत्सुकतावश पूछा.

‘‘बस, अभी आई. पहले जरा मुंह तो मीठा कीजिए, फिर बैठ कर ढेर सारी बातें करते हैं,’’ कहते हुए रचना उठी तो दाहिनी तरफ के सोफे पर बैठे आजाद से टकरातेटकराते बची. अचानक लगने वाले धक्के से आजाद के हाथ से मोबाइल छूट कर फर्श पर गिर पड़ा.

‘‘अरे, आराम से,’’ कहते हुए प्रकाश आजाद का मोबाइल उठाने के लिए झुका. अपनी गलती पर अफसोस जताते हुए अनायास ही रचना के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘ओह, माफी चाहती हूं, डाक्टर साहब. दरअसल, मैं देख नहीं सकती.’’

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