कहानी - नशा

‘‘अम्माजी, ऐसा कभी नहीं हो सकता. आप मेरी मां हैं, मैं आप की बात पर विश्वास करूंगा. किंतु लगता है आप को गलतफहमी हुई है. रेखा शराब पीने लगी है, यह कैसे मान लूं, मैं.’’

‘‘बेटा, तेरे घर में तूफान आया है. और मैं तेरी मां हूं. यदि तेरे घर को तबाह करने वाले तूफान की आहट न पा सकूं तो मुझ से बढ़ कर मूंढ़ कौन होगा. बस, मैं तो यही कहती हूं, जल्दी से जल्दी इंडिया आ जा और तूफान से होने वाली तबाही को रोक ले.’’

बेटे देवेश से बात कर के अम्माजी ने फोन रख दिया था. ‘देवेश आज यहां नहीं है, तो मेरा तो कर्तव्य है कि उस के घर के तिनके बिखरने से पहले उन्हें बचा लूं,’ सोचतेसोचते अम्माजी वहीं सोफे पर लेट गई थीं. बड़े आश्चर्य की बात है कि रेखा पीती है, वे जानती न थीं. वह तो सोसायटी के गेट पर बैठे चौकीदार ने सुबह बताया था, ‘माताजी, देवेश बाबू एक शरीफ और समझदार व्यक्ति हैं.

2 साल पहले जब वे विदेश जा रहे थे तो कहा था कि घर तुम पर छोड़ कर जा रहा हूं, मुझे यह भी याद है कि उन्होंने आप का फोन नंबर भी दिया था, कहा था कि जरूरत पड़े तो अम्माजी को सूचित कर देना. इसीलिए बता रहा हूं, मैम का देर से घर आना ठीक नहीं लगता. आप तो बुजुर्ग हैं. मैम आप की बहू हैं, कहते शर्म आती है. अच्छा हुआ जो आप आ गई हैं संभाल लेंगी.’ सुन कर अम्माजी सन्न रह गई थीं. चुपचाप फ्लैट पर आ गई थीं.

सुबह का समय था, रेखा घर में नहीं थी. ‘‘मैम तो सुबह निकल जाती हैं. देररात तक वापस आती हैं. मैं तो नौकरानी हूं, क्या कहूं? अच्छा हुआ आप आ गई हैं. अम्माजी, मैं अब यहां नहीं रहूंगी. आप ही ने मुझे यहां भेजा था, आप से ही छुट्टी चाहती हूं. बस, यह नशे की लत है ही बुरी. छोटा मुंह बड़ी बात. यदि झूठ बोलूं तो फूफी को सौ जूती मार लो…’’ नौकरानी फूफी ने भी जब चौकीदार की बात को दोहराया तो उन्हें लगा कि यहां हालात सचमुच ठीक नहीं हैं.

नौकरानी फूफी आगे बोली, ‘‘अम्माजी, बैठो, खाना तैयार है. मूली के परांठे बनाए हैं.’’ अम्माजी बड़ी अनमनी सी बोलीं, ‘‘छोड़ो फूफी, मन नहीं कर रहा. अभी तो बहू का इंतजार कर रही हूं. आज तो शनिवार है, जल्दी आ जाएगी.’’ वे सोफे पर बैठ गईं और अतीत में खो गईं.

देवेश और राकेश अम्माजी के 2 बेटे हैं. जब उन के पति की मृत्यु हुई थी तो दोनों की उम्र 12 वर्ष और 10 वर्ष थी. अम्माजी का वैसे तो नाम अल्पना है पर उन की समझदारी और सोच को देख पूरा महल्ला उन्हें अम्माजी कहता था. पति के न रहने पर उन्होंने बड़ी मुसीबतों में दिन काटे हैं. सब याद है उन्हें.

हरियाणा के छोटे से गांव में स्कूल की छोटी सी नौकरी थी. उसी में सारा गुजारा करना होता था. सो, बच्चों को भी कंजूसी से चलने की आदत थी.

अम्माजी ने दोनों बच्चों को इंजीनियर बनाया था. कितनी परेशानी से वे पढ़े थे, अम्माजी से ज्यादा कौन जानता था. फिर दोनों का विवाह भी किया था उन्होंने ही. ‘‘अम्माजी, खाना टेबल पर लगा दिया है,’’ नौकरानी की आवाज सुन कर वे वर्तमान में लौटीं.

अम्माजी 60 की होने वाली थीं. रिटायर होने के बाद देवेश के साथ रहने की सोच रही थीं. देवेश की शादी को 2 वर्ष बीते तो उसे कंपनी की तरफ से एक प्रोजैक्ट के लिए जरमनी जाना पड़ गया. 3 वर्षों का कौन्ट्रैक्ट था. पैसे भी अच्छे मिल रहे थे. ऐसे सुअवसर को देवेश छोड़ना नहीं चाहता था. देवेश के जाने के कुछ दिनों पहले रेखा ने भी एक नौकरी जौइन कर ली थी. औफिस, उस के घर से काफी दूर था.

एक दिन उस के एक सहयोगी ने कहा, ‘‘रेखा, यहीं औफिस के करीब सोसायटी फ्लैट है, चाहो तो किराए पर ले सकती हो. इतनी दूर आनंद विहार से द्वारका आनाजाना आसान नहीं है. आनंद विहार के फ्लैट सुंदर व सस्ते भी थे. कम किराए में सुंदर फ्लैट. अम्माजी, देवेश और रेखा तीनों को अच्छा लगा.

देवेश के जरमनी जाने से पहले घर बदल भी लिया था. एक रोज देवेश ने रेखा से कहा, ‘यह फ्लैट छोटा है पर गुजारे लायक है. जरमनी से लौटूंगा तो मैं काफी पैसा बचा लूंगा. 50 लाख रुपए के लगभग मेरे पास होंगे, तब मैं अपना फ्लैट खरीद लूंगा.’ ‘ठीक कहते हैं आप, दिल्ली में हमारा अपना मकान होगा. लोगों का यह सपना होता है. हमारा भी यह सपना है,’ रेखा बोली थी.

दरअसल, देवेश ने इस प्रोजैक्ट के लिए हामी भरी ही इसलिए थी. वह बरसों पहले देखा ‘अपना घर’ का सपना पूरा करना चाहता था. इसलिए एकएक पैसा इकट्ठा कर रहा था. बेशक, 3 वर्षों के लिए पत्नी से दूर होना पड़े, पर यही एक रास्ता था. यह बात रेखा भी जानती थी.

देवेश जरमनी चला गया. शुरू में रेखा को खालीपन लगता था. अकसर अम्माजी आ जाती थीं. पर उन की उम्र ढल रही थी. सो, आनाजाना आसान न था. महीनों गुजर जाते. बस, फोन पर सासबहू एकदूसरे का हाल ले लेतीं. रेखा एक समझदार लड़की है. आज तक सासबहू में तूतूमैंमैं कभी नहीं हुई. अम्माजी यहां आ कर पैर फैला कर सोती हैं. इस पर फूफी नौकरानी हमेशा कहती, ‘अच्छी बहू मिली है, अम्माजी.’ उसी फूफी के मुंह से यह सब सुन कर उन का मन खिन्न हो गया. तभी दरवाजे की घंटी बजी. अम्माजी ने समय देखा कि रात में पूरे 12 बजे थे. दिमाग घूम गया.

‘‘अरे फूफी, देखो, लगता है रेखा आ गई है.’’

‘‘हां, वही है.’’

अम्माजी को ड्राइंगरूम में बैठा देख वह सहम गई. ‘‘अम्माजी, आप?’’ उस ने खुद ही महसूस किया कि उस की आवाज लड़खड़ा रही है.

‘‘बहू, इतनी देर?’’

‘‘वह, मेरी सहेली की बेटी का जन्मदिन था. सो, लेट हो गई.’’ उस ने झूठ बोला था. अम्माजी जानती थीं. पर कुछ भी न कहा सिवा इस के, ‘‘अच्छा, हाथमुंह धो ले, मैं तेरे इंतजार में भूखी बैठी हूं.’’

वह हड़बड़ा कर बाथरूम में घुस गई थी. शावर लेते हुए वह सोचने लगी, कुछ देर पहले नशे में धुत्त थी. टैक्सी में बैठी बार वाली उस घटना पर हंस रही थी- नंदिनी और एक शराबी कैसे दोनों लिपटे हुए एकदूसरे को चूमचाट रहे थे. बाकी लोग तालियां बजा कर तमाशा देख रहे थे.

एक शराबी उस को खींच कर नाचने के डांस?फ्लोर पर ले आया. वह शर्म से पानीपानी हो गई थी. मौका ताड़ कर वह भाग कर बार से बाहर आ गई. नशा उतर रहा था, जो टैक्सी मिली, बैठ कर घर आ गई. अच्छा हुआ जो निकल आई, पता नहीं, शायद अम्माजी को शक हो गया है या उसे यों ही लग रहा है. और वह सोसायटी के गेट पर बैठा मुच्छड़ चौकीदार, गेट खोलते समय ऐसे घूर रहा था, जैसे कह रहा हो, ‘मैडमजी, आज तो बड़ी जल्दी घर लौट आईं.’

नहाधो कर वह काफी हलका महसूस कर रही थी. टेबल पर अम्माजी उस का इंतजार कर रही थीं.

‘‘बेटा, देवेश का फोन आया था. बता रहा था प्रोजैक्ट 6 महीने पहले खत्म हो रहा है. वह शायद इसी साल के दिसंबर में आएगा. और मैं भी दिसंबर में रिटायर हो कर तुम लोगों के पास रहूंगी.’’

‘देवेश जल्दी आ रहे हैं’ सुन कर रेखा के मन में खुशी की तरंग दौड़ गई. पर, अम्माजी हमारे साथ हेंगी, यह तो कभी सोचा भी न था.

‘‘अभी मैं 15 दिनों की छुट्टी ले कर आई हूं,’’ अम्माजी ने बरतन समेटते हुए सूचना दी थी. यानी 15 दिन अभी रहेंगी. उस के बाद रिटायर हो कर भी यहीं हमारे पास रहेंगी. इस का मतलब वह इन 15 दिनों तक डिं्रक से दूर रहेगी. और जब अम्मा यहां रहने आ जाएंगी तो फिर उस के पीने का क्या होगा? यही सब सोच रही थी रेखा.

वह डाइनिंग टेबल से उठ कर बिस्तर पर लेट गई और सोचने लगी, यह उसे क्या हो गया है ? उस की हर बात ड्रिंक से जुड़ी होती है. पीने के अलावा वह कुछ सोचती ही नहीं. अगर अम्माजी को पता लग गया, मैं क्लब जाती हूं, पीती हूं, तो क्या होगा? यह कैसा शौक पाल बैठी मैं?

बड़ा अजीब सा संयोग था जब दीपा ने उसे औफर दिया था, ‘तुम अकेली हो, तुम्हारे पति बाहर हैं, कैसे वक्त काटती हो?’

‘फिर क्या करूं खाली समय में?’ उस ने अचकचा कर दीपा से पूछा था.

‘अरे, मेरे साथ चलो, भूल जाओगी अकेलापन.’

‘कहां जाना होगा मुझे?’ मासूम सा प्रश्न किया रेखा ने.

‘चलोगी तो जान जाओगी,’ दीपा ने उस के साथ शाम का समय फिक्स किया था.

क्लब का अंदर का दृश्य देख कर वह दंग रह गई थी. रंगीन जोड़े फर्श पर थिरक रहे थे. लोग जाम पर जाम लगा रहे थे यानी शराब पी रहे थे. सब नशे में चूर थे. ऐसा तो उस ने फिल्मों में ही देखा था. वह एकटक सब देख रही थी. दीपा के कहने पर उस ने शराब पी थी और वह भी पहली दफा. फिर तो हर दिन उस का औफिस में बीतता, तो शाम क्लब में बीतती.

दीपा शुरू में तो उस को अपने पैसे से पिलाती थी, बाद में उसी के पैसे से पीती थी. शनिवार और इतवार को वे दोनों रेखा के घर में ही पीतीं. रेखा जानती है कि वह गलत कर रही है, वहीं वह यह भी जानती है कि उस को अपने को रोक पाना अब उस के वश में नहीं है. शाम होते ही हलक सूखने लगता है उस का.

कई बार फूफी कह चुकी है- ‘इस दीपा का अपना घरबार नहीं है, यह दूसरों का घर बरबाद कर के ही दम लेगी. अरे, रेखा बीबी, इस औरत का साथ छोड़ो. बड़ी बुरी लत है शराब की. मेरा पति तो शराब पीपी के दूसरी दुनिया में चला गया. तभी तो मुझ फूफी ने इस घर में उम्र गुजार दी. बड़ी बुरी चीज है शराब और शराबी से दोस्ती.’

फूफी के ताने रेखा को न भाते. जी करता धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दे. लेकिन नहीं कर सकती ऐसा. यह चली गई तो घर कौन संभालेगा.

आज उसे घबराहट हो रही है, जब से अम्माजी ने सब बताया कि वे रिटायर होने वाली हैं. व्याकुल मन के साथ बड़ी देर तक बिस्तर पर करवटें बदलती रही. न जाने कब सोई, पता ही नहीं लगा. उधर, देवेश को जब से रेखा के बारे में पता लगा है, उस की व्याकुलता का अंत नहीं है. वहां जरमनी में स्त्रीपुरुष सब शराब पीते हैं, ठंडा मुल्क है. पर हिंदुस्तान में लोग इसे शौकिया पीते हैं. स्त्रियों का यों क्लबरैस्त्रां में पीना दुश्चरित्र माना जाता है.

देवेश को अम्मा ने जब से रेखा के बारे में बताया है, जरमनी में हर स्त्री उसे रेखा सी दिखती है. वह रैस्त्रां के आगे से गुजरता है तो लगता है, रेखा इस रैस्त्रां में शराब पी रही होगी. दूसरे ही क्षण सोचता- यहां रेखा कैसे आ सकती है?

औफिस में भी देवेश बेचैन रहता है. दिनरात सोतेजागते ‘रेखा शराबी’ का खयाल उस से जुड़ा रहता है. देवेश का जी करता है, अभी इंडिया के लिए फ्लाइट पकड़े और पत्नी के पास पहुंच जाए, बांहों में भर कर पूछे, ‘रेखा, तुम्हें जीवन में कौन सा दुख है जो शराब का सहारा ले लिया.’ देवेश कितनी खुशियां ले कर आया था जरमनी में. इंडिया में घर खरीदेंगे, मियांबीवी ठाट से रहेंगे. फिर बच्चे के बारे में सोचेंगे. मां भी साथ रहेंगी. किंतु क्यों? ये सब क्या हुआ, कैसे हुआ? किस से पूछे वह? जरमनी में तो उस का अपना कोई सगा नहीं है जिस से मन की बात कह भी सके.

वह इतना मजबूर है कि न तो रेखा से कुछ पूछ सकता है और न ही अम्मा से. बस, मन की घायल दशा से फड़फड़ा कर रह जाता है. उसे लग रहा है कि वह डिप्रैशन में जा रहा है. दोस्तों ने उस की शारीरिक अस्वस्थता देख उसे अस्पताल में भरती करा दिया था.

कुछ स्वस्थ हुआ तो हर समय उसे पत्नी का लड़खड़ाता अक्स ही दिखाई देता. घबरा कर आंखें बंद कर लेता. और, अम्माजी, उस दिन बेटे से बात करने के बाद ऊपर से तो सामान्य सी दिख रही थीं किंतु अंदर से उन को पता था वे कितनी दुखी हैं. पूरी रात सो न सकी थीं. बेचारी क्या करतीं. आज सुबह वे हमेशा की तरह जल्दी न उठीं.

रेखा जब औफिस चली गई तो बेमन से उठीं और स्टोर में घुस गईं. स्टोर कबाड़ से अटा पड़ा था. किताबें, कौपियां, न्यूजपेपर्स और न जाने क्याक्या पुराना सामान था. कबाड़ी को बुला कर सारा सामान बेच दिया सिर्फ एक बंडल को छोड़ कर. इसे फुरसत में देखूंगी क्या है.

सब काम खत्म कर के बंडल को झाड़झूड़ कर खोला. उन्हें लगता था किसी ने हाथ से कविताएं लिखी हैं. शायद यह रेखा की राइटिंग है. कविताएं ही थीं. देखा एक नहीं, 30-35 कविताएं थीं. उन्हें पढ़ कर वे स्तब्ध थीं.

सुंदर शब्दों के साथ ज्वलंत विषयों पर लिखी कविताएं अद्वितीय थीं. यानी, बहू कविताएं भी लिखती है. इस बंडल मे 2-3 पुस्तकें भी थीं. सभी रेखा की कृतियों का संग्रह थीं. अम्माजी कभी कविता संग्रह पढ़तीं, तो कभी हस्तलिखित रचनाओं को. इतनी गुणी है उन की बहू और वे इस से अब तक अनजान रहीं.

झाड़पोंछ कर उन्हें कोने में टेबल पर रख दिया. सोचा, शाम को बात करूंगी. क्यों बहू ने इस गुण की बात हम से छिपाई? कभीकभी हम अपने टेलैंट को छोड़ कर इधरउधर भटकते हैं. दुर्गुणों में फंस कर जीवन को दुश्वार बना लेते हैं.

रेखा के घर आने से पहले उन्होंने कई जगह फोन किए. दोपहर को बेटे देवेश का फोन आ गया, ‘‘कैसी हो 
अम्मा?’’

‘‘ठीक हूं.’’

‘‘और रेखा?’’

‘‘वह अभी औफिस से लौटने वाली है. आएगी तो बता दूंगी. तू परेशान है उस को ले कर, यह मैं जानती हूं.’’

‘‘नहीं अम्मा, मैं ठीक हूं. बस, आने के दिन गिन रहा हूं.’’

‘‘नहीं, मैं जानती हूं, तू झूठ बोल रहा है. पर वादा करती हूं तेरे आने तक घर को संभालने की पूरी कोशिश करूंगी.’’ अम्मा की आंखों में आंसू आ गए थे.

‘‘अम्मा, ऐसा तो मैं ने कभी नहीं सोचा था कि धन कमाने की होड़ में परिवार को ही खो बैठूंगा.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा मत सोचो, सब ठीक हो जाएगा, धीरज रखो.’’ इस से आगे बात करना संभव न था. अम्माजी का गला आवेग से भर्रा गया था.

काम से रेखा लौट आई थी. चेहरे पर चिंता व परेशानी झलक रही थी. अम्माजी को रेखा की चिंता का विषयकारण पता था. अम्माजी ने बड़ी हिम्मत कर के कहा, ‘‘आज बहुत थक गई हो, काम ज्यादा था क्या?’’

‘‘नहीं अम्माजी, बस, वैसे ही थोड़ा सिरदर्द था. आराम करूंगी, ठीक हो जाएगा.’’

ऐसे में वे भला कैसे कहतीं कि आज इरा खन्ना से उन्होंने समय लिया है. वे हमारी राह देख रही होंगी.

‘‘अम्माजी, आप कहीं जाने के लिए तैयार हो रही हैं?’’

‘‘रेखा, आज मैं एक सहेली के पास जा रही थी, चाहती थी कि तुम भी साथ चलो.’’

‘‘नहीं, फिर कभी.’’

‘‘ठीक है जब तुम्हारा मन करे. पर वे तुम से ही मिलना चाहती थीं.’’

‘‘अच्छा? आप ने बताया होगा मेरे बारे में, तभी?’’

‘‘हां, मैं ने यही कहा था कि मेरी बहू लाखों में एक है. नेक, समझदार व दूसरों को सम्मान देने वाली स्त्री है. मेरी बहू से मिलोगी तो सब भूल जाओगी. है न बहू?’’ वह सास की बात पर मुसकरा रही थी, मन ही मन कहने लगी, यानी, अम्माजी को पता नहीं कि मैं दुश्चरित्रा हूं, मैं शराब पीती हूं, बुरी स्त्री हूं. यदि वे जान गईं तो घर से निकाल सकती हैं.

वैसे जो बात अभी अम्माजी ने अपनी सहेली से की थी, सुन कर उसे बहुत अच्छा लगा. मैं जरूर उन से मिलूंगी. पता नहीं, कब वह सो गई और अम्माजी, सोफे पर उसे सोया देख सोच रही थीं कि ये उठे तो मैं इस को साथ ले चलूं. फिर वे भी अंदर जा कर लेट गईं.

‘‘एक कप चाय बना दो, फूफी. सिरदर्द से फटा जा रहा है,’’ रेखा सोफे पर बैठी सोच रह थी कि उस की नजर कोने की मेज पर रखे एक बंडल पर पड़ी. बिजली सी चमक की तरह वह उछली, ‘‘फूफी, यह बंडल यहां क्यों रखा है? इसे मैं ने स्टोर में डाला था, क्यों निकाला?’’ वह लगभग चीख पड़ी.

‘‘क्या हुआ, बेटा? यह बंडल स्टोर में था. मैं ने आज स्टोर की सफाई की तो निकाल कर देखा, इस में कविताएं व कुछ और भी था…सारा झाड़कबाड़ बेच दिया, इस को फेंकने का मन न किया. सोचा, तुम आओगी तो तुम से पूछ कर ही कुछ सोचूंगी.’’

‘‘पूछना क्या है, इसे भी कबाड़ में फेंक देतीं. क्या करूंगी इन सब का? अब सब खत्म हो गया.’’

उस के स्वर में वितृष्ण से अम्माजी को समझते देर न लगी कि इस बंडल से जुड़ा कोई हादसा अवश्य है जिसे मैं नहीं जानती, पर जानना जरूरी है.

‘‘बेटा, बोलो, क्या बात है जो इतनी सुंदर रचनाओं को तुम ने रद्दी में फेंक दिया?’’ अम्मा ने फिर पुलिंदा मेज पर ला रखा.

‘‘छोड़ो अम्माजी, इस पुलिंदे को ले कर आप क्यों परेशान हैं? छोड़ो ये सब रचनावचना,’’ कहतेकहते उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘बेटा, मैं तेरी सासूमां हूं. क्या बात है जो तू इतनी दुखी है और मुझे कुछ भी नहीं पता? क्या सबकुछ खुल कर नहीं बताओगी?’’

‘‘क्या कहूं अम्माजी. आप को यह तो पता ही है कि मेरे पापा बहुत बड़े साहित्यकार थे. परिवार में साहित्यिक माहौल था. मुझे पढ़ने व लिखने का जनून था. कितने ही साहित्यकारों से मेरे पिता व रचनाओं के जरिए परिचय था. मेरी शादी से पहले मेरे 3 कविता संग्रह व एक कहानी संग्रह छप चुके थे. मेरे काम को काफी सराहा गया था. एक पुस्तक पर मुझे अकादमी पुरस्कार भी मिला था. बहुत खुश थी मैं.’’

रेखा ने बात जारी रखी, ‘‘सोचती थी देवेश को दिखाऊंगी तो गर्व करेंगे पत्नी पर. शादी के बाद जब मैं ने अपनी रचनाओं तथा पुस्तकों का उन से जिक्र किया तो वे बोले, ‘छोड़ो ये सब, मुझे तो तुम में रुचि है. ये आंखें, ये गुलाबी कपोल, खूबसूरत देह मेरे लिए यही कुदरत की रचना है.’

‘‘‘छोड़ो सब बेकार के काम, तुम्हारे लिए एक अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ता हूं. समय भी कट जाएगा और बैंक बैलेंस भी बढ़ेगा.’

‘‘मैं समझ गई कि देवेश की सोच का दायरा बहुत सीमित है. उस वक्त मैं चुप रह गई. हालांकि उन की बात मेरे लिए बहुत बड़ा आघात थी. लेकिन अपने को रोक पाना मेरे लिए मुश्किल था. मेरा अंदर का लेखक तड़पता था.
‘‘छिपछिप कर कुछ रचनाएं लिखीं, भेजीं और छपी भी थीं. छपी हुई रचनाएं जब देवेश को दिखाईं तो वे मुझी पर बरस पड़े, ‘यह क्या पूरी लाइब्रेरी बनाई हुई है. लो, अब पढ़ोलिखो…’ इन्होंने मेरी किताबों को आग के हवाले कर दिया.

‘‘मेरी आंखों में खून उतर आया लेकिन चुप रही. आप बताइए जो व्यक्ति जनून की हद तक किसी टेलैंट को प्यार करता हो, उस का जीवनसाथी ऐसा व्यवहार करे तो परिणाम क्या होगा?

‘‘सपना था मेरा प्रथम श्रेणी की लेखिका बनने का, पर वह बिखर गया. हताश हो मैं ने इस बंडल को इस स्टोर में डाल फेंका.

‘‘पति के जरमनी जाने के बाद कई बार सोचा कि फिर से शुरू करूं, अकेलापन दूर करने का यही एक साधन था मेरे पास. लेकिन इसी बीच दीपा से मेरा संपर्क हुआ. और मैं नशे में डूबती चली गई. अब तो पढ़नेलिखने का जी ही नहीं करता. अम्माजी, यह है इस बंडल की कहानी.’’ रेखा की आंखें डबडबा गई थीं.

अम्माजी को लगा कि आज पहली बार उस ने नशे की बात को स्वीकारा है. निश्चय ही जो यह कह रही है, वह सच है. जरा भी मिलावट नहीं है. और बेटे देवेश के लिए जो इस ने कहा, वह भी सच ही होगा. सुन कर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि शुरू से देवेश को सिर्फ पैसे से प्यार है. पैसे के अभाव में उस ने मुश्किल के दिन देखे हैं, सो, उस के जीवन का मकसद सिर्फ पैसा कमाना है.

इस के अलावा यह हो सकता है कि आघात पाने के बाद, रेखा ने सोचा हो, शराब में अपने को डुबो कर वह पति से बदला लेगी. या शायद अकेलेपन से घबरा कर उस ने यह रास्ता अपनाया हो.

यह तो अम्माजी को पता था कि एक बार बच्चे को ले कर दोनों में काफी खींचातानी हुई थी. देवेश बच्चा नहीं चाहता था, ‘जब तक घर अपना नहीं होगा मैं बच्चा नहीं चाहता.’ जबकि रेखा का कहना था, ‘बच्चा घर में होगा तो मैं व्यस्त रहूंगी, खालीपन मुझे काटने को दौड़ता है.’ जो भी हो, इस वक्त तो कोई रास्ता निकालना ही पड़ेगा कि जिस से रेखा के पीने की आदत पर रोक लग सके.

यहां मैं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पति की उस के टेलैंट के प्रति उपेक्षा सब से बड़ा कारण है. उत्साह व बढ़ावा देने की जगह देवेश ने उस की मानसिक जरूरत पर ध्यान नहीं दिया है, बस उसी का परिणाम ‘पीना’ लगता है. यह सोचतेसोचते अम्माजी ने एक बार फिर बड़े प्यार से उस से कहा, ‘‘बेटा, तुम मेरे साथ इरा के घर चलोगी? बड़ी समझदार महिला हैं, साथ ही मेरी बचपन की सहेली भी. वे तुम से मिलने को उत्सुक हैं.’’

‘‘ठीक है, चलती हूं.’’

कुछ देर बाद दोनों इरा के सामने थीं. वह इरा को देख कर अवाक थी. ये तो इतनी जबरदस्त लेखिका हैं, इन से तो लोग मिलने के लिए लाइन लगा कर खड़े होते हैं. ये मुझ से मिलना चाहती थीं. लोग अपनी पुस्तक के लिए इन से दो लाइनें लिखाने को घंटों इंतजार करते हैं. अम्माजी ने रेखा का परिचय कराया तो रेखा कहे बिना न रह सकी, ‘‘इराजी को कौन नहीं जानता, सारे साहित्य जगत में इन के लेखन की धूम है.’’ तभी अम्माजी ने वह बंडल इरा की मेज पर रखा, ‘‘इरा, मैं ने तुझे बताया था कि मेरी बहू भी लिखती है.’’

‘‘हां, बताया था.’’

‘‘ये हैं इस की कुछ रचनाएं और कुछ पुस्तकें.’’

रेखा लगातार इरा को देख रही थी. इरा रेखा की रचनाओं को पढ़ रही थीं. पढ़ने के बाद मुसकरा कर बोलीं, ‘‘अद्भुत. मैं हैरान हूं इतनी सी उम्र में, इतना सुंदर शब्द चयन, विषय चयन, और प्रस्तुति. मैं ने तो कितनी ही किताबें छपवाई हैं पर ऐसी रचनाएं… वाह.

‘‘बेटा, इस को आप मेरे पास छोड़ जाओ. कल तुम्हें फोन पर डिटेल बताऊंगी. फिर भी अल्पना, मैं यह भविष्यवाणी करती हूं कि ऐसे ही ये लिखती रही तो एक दिन ये उभरती हुई रचनाकारों की श्रेणी में उच्चतम स्तर पर होगी.’’

इरा से मुलाकात के बाद सासूमां के साथ रेखा लौट आई. रेखा को रास्ते भर यही लगा कि इराजी अभी भी वही वाक्य दोहरा रही हैं, ‘ऐसे ही ये लिखती रही…’

घर पहुंच कर वह अपने मन को टटोलती रही थी. यह कैसी भविष्यवाणी थी जिस ने उस के मन में खुशियां और उत्साह के फूल बरसाए थे. इतनी बड़ी लेखिका के मुंह से ऐसी तारीफ. सपने में भी वह आज की मुलाकात के मीठे सपने देखती रही थी.

सुबहसवेरे, आज उस ने अटैची में रखी कुछ और रचनाओं को निकाला था. उन्हें भी ठीकठाक कर के मेज पर छोड़ा था. तभी फोन की घंटी बज उठी-

‘‘मैं इरा बोल रही हूं. कल आप जिन रचनाओं को छोड़ गई थीं उन्हें मैं ने एक पुस्तक के रूप में सुनियोजित करने को दे दी हैं. पुस्तक का नाम मैं अपने अनुसार रखूं तो आप को आपत्ति तो नहीं होगी?’’

‘‘नहीं मैम, नहीं, कभी नहीं.’’

‘‘हां, एक बात और, साहित्यकार मीनल राज और प्रिया से इन कविताओं के लिए दो शब्द लिखवाने का निश्चय हम ने किया है. बाकी मिलोगी, तो बताऊंगी.’’

उसे लगा वह सपना देख रही है- मीनल राज और प्रिया, इतने दिग्गज लेखक हैं दोनों. खुशी उस के अंगअंग से फूट रही थी. वह बैठेबैठे मुसकरा रही थी.

‘‘अरे, क्या हुआ? किस का फोन था?’’ अम्माजी ने पूछ ही लिया, ‘‘इतनी क्यों खुश है?’’

‘‘वो, इरा मैम का फोन था. वे कह रही थीं…’’ उस ने सारी बात सासूमां को बताई.

उस के चेहरे पर थिरकती प्रसन्नता इस बात का सुबूत थी कि वह इसी की तलाश में थी. और उस ने रास्ता पा लिया है अपने खोए जनून और टेलैंट के लिए.

इस के बाद वह कई बार इरा मैम के पास गई. कभीकभी सारा दिन उन की लाइब्रेरी में पढ़ती रहती. पुस्तकों व रचनाओं को ले कर इरा मैम से विचारविमर्श करती.

इस बीच, दीपा कई बार उस के घर आई पर रेखा की सासू मां ने कहा, ‘‘बेटा, वह अब तुम्हारे चंगुल में कभी नहीं फंसेगी, जाओ…’’

2 महीने बाद, रेखा को एक लिफाफा मिला. उस में 20 हजार रुपए का एक ड्राफ्ट था और एक पत्र भी. पत्र में लिखा था-

‘‘प्रिय रेखा,
‘‘तुम्हारी 2 पुस्तकों के प्रकाशन कौपीराइट की कीमत है, स्वीकार लो. अगले महीने हम और तुम जयपुर पुस्तक मेले में जा रहे हैं.
‘‘एक और खुशखबरी है, समीक्षा हेतु तुम्हारी दोनों
पुस्तकों को कुछ पत्रपत्रिकाओं में भेजी है. ये पत्रिकाएं भी तुम्हारे पास जल्द ही पहुंचेंगी.

‘‘शुभकामनाओं सहित

इरा.’’

ड्राफ्ट देख उस की बाछें खिल गईं. ‘अम्माजी के हाथ में दूंगी, यह उन की मेहनत का फल है.’ यह सोच कर रेखा पीछे मुड़ी तो पाया, उस के हाथ में ड्राफ्ट देख अम्माजी मुसकरा रही थीं, ‘‘मिल गया ड्राफ्ट?’’

‘‘आप को कैसे पता?’’

‘‘कल शाम को इरा का फोन आया था. उस ने मुझे इस ड्राफ्ट के बारे में बताया था.’’

वे अभी भी मुसकरा रही थीं, शायद अपनी जीत पर.

‘‘लेट्स सैलीब्रेट, अम्माजी,’’ रेखा की खुशी देखते ही बनती थी.

‘‘अरे, आज तो खुल जाए बोतल,’’ अम्माजी ने चुटकी ली.

‘‘छोड़ो अम्माजी, जितना नशा मुझे आज चढ़ा है इस ड्राफ्ट से, उतना बोतल में कहां? आज हम दोनों डिनर बाहर करेंगे, आप की प्रिय मक्की की रोटी और सरसों का साग. साथ में…’’ वह अम्माजी की ओर देख रही थी. ‘‘मक्खन मार के लस्सी…’’ अम्माजी ने उस की बात पूरी की और खुशी से बहू को सीने से लगा लिया.

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