कहानी - मिलन
जयंत आंगन में खड़े हो कर जोरजोर से पुकारने लगे, ‘‘मां, ओ मां, आप कहां हैं?’’
‘‘कौन? अरे, जयंत बेटे, तुम कब आए? इस तरह अचानक, सब खैरियत तो है?’’ अंदर से आती हुई महिला ने जयंत को अविश्वसनीय दृष्टि से देखते हुए पूछा.
‘‘जी, मांजी, सब ठीक है,’’ जयंत ने आगे बढ़ कर महिला के पैर छूते हुए कहा तो उन्होंने उस के सिर पर प्यार से हाथ रख दिया.
‘‘मां, जानती हैं, इस बार मैं अकेला नहीं आया. देखिए तो, मेरे साथ कौन है, आप की बहू, जयति,’’ कहते हुए जयंत ने मेरी ओर इशारा कर दिया.
‘‘क्या? तुम ने शादी कर ली?’’ मां हैरानी से मेरा मुआयना करते हुए बोलीं. और फिर ‘‘तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आई,’’ कह कर अंदर चली गईं.
‘तो ये हैं, जय की मांजी,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठी. मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी. घबरा कर जयंत की ओर देखा. वे मेरी तरफ ही देख रहे थे. उन्होंने मुसकरा कर मुझे आश्वस्त किया. तभी हाथ में थाली लिए मांजी आ गईं.
‘‘भई, मेरे घर बहू आई है…पहले इस का स्वागत तो कर लूं,’’ कहते हुए मांजी मेरे पास आ गईं और थाली को चारों तरफ घुमाने लगीं. मैं उन के पांव छूने को झुकी ही थी कि उन्होंने मुझे अपनी बांहों में थाम लिया और माथे को चूमने लगीं. क्षणभर पहले मेरे मन में जो शंका थी, वह अब दूर हो चुकी थी. वे हम दोनों को सामने वाले कमरे में ले गईं. कमरा बहुत साधारण था. सामने एक दीवान लगा था. एक तरफ 2 कुरसियां, एक मेज और दूसरी तरफ लोहे की अलमारी रखी थी. मांजी ने हमें दीवान पर बैठाया और बीच में स्वयं बैठ गईं. फिर मुझे प्यार से निहारते हुए बोलीं, ‘‘जय बेटा, कहां से ढूंढ़ लाया यह खूबसूरत हीरा? मैं तो दीपक ले कर तलाशती, फिर भी ऐसी बहू न ला पाती.’’
‘‘मांजी, मुझे माफ कर दीजिए. मुझे आप को बिना बताए यह शादी करनी पड़ी,’’ जयंत रुके, मेरी तरफ देखा, मानो आगे बात कहने के लिए शब्द तलाश रहे हों. फिर बोले, ‘‘दरअसल, जयति के पिताजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा और डाक्टर ने बताया कि उन का अंतिम समय निकट है. इसलिए उन का मन रखने के लिए हमें तुरंत शादी करनी पड़ी.’’ मैं जानती थी, जयंत अपराधबोध से ग्रस्त हैं. वे मां के कदमों के पास जा बैठे और उन की गोद में सिर रख कर बोले, ‘‘आप ने मेरी शादी को ले कर बहुत से सपने देखे होंगे…पर मैं ने सभी एकसाथ तोड़ दिए. मैं ने आप को बहुत दुख दिया है, मुझे माफ कर दीजिए,’’ कहते हुए वे रोने लगे.
‘‘पगला कहीं का…अभी भी बच्चे की तरह रोता है. चल अब उठ, बहू क्या सोचेगी. तू मुंह धो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ उन्होंने प्यार से इन्हें उठाते हुए कहा. मांजी के साथ मेरी यही मुलाकात थी. जयंत ने ठीक ही कहा था. मांजी सब से निराली हैं. उन के चेहरे पर तेज है और वाणी में मिठास है. वे तो सौंदर्य, सादगी व ममता की प्रतिमा हैं. शीघ्र ही मेरे मन में उन की एक अलग जगह बन गई. हमें मांजी के पास आए लगभग एक सप्ताह हो गया था. हमारी छुट्टियां समाप्त हो रही थीं. जयंत एक बड़ी फर्म में व्यवसाय प्रबंधक थे और मैं अर्थशास्त्र की व्याख्याता थी. हम दोनों ही चाहते थे कि मांजी हमारे साथ मुंबई चलें. जयंत अनेक बार प्रयत्न भी कर चुके थे, पर वे कतई तैयार न थीं. एक दिन चाय पीते हुए मैं ने ही बात प्रारंभ की, ‘‘मांजी, हम चाहते हैं कि आप हमारे साथ चलें.’’
‘‘नहीं बहू, मैं अभी नहीं चल सकती. मुझे यहां ढेरों काम हैं,’’ उन्होंने टालते हुए कहा.
‘‘ठीक है, आप अपने जरूरी काम निबटा लीजिए, तब तक मैं यहीं हूं. जयंत चले जाएंगे,’’ मैं ने चाय की चुसकी लेते हुए बात जारी रखी.
‘‘लेकिन जयति,’’ उन्होंने कहना चाहा, पर मैं ने बात काट कर बीच में ही कहा, ‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, आप को हमारे साथ मुंबई चलना ही होगा.’’ मैं दृढ़ता से, बिना उन्हें कुछ कहने का मौका दिए कहती गई, ‘‘मांजी, मेरी माताजी बचपन में ही चल बसीं. उन के बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं. मुझे कभी मां का प्यार नहीं मिला. अब जब मुझे मेरी मांजी मिली हैं तो मैं किसी भी कीमत पर उन्हें खो नहीं सकती.
‘‘जय ने मुझे बताया कि आप मुंबई इसलिए नहीं जाना चाहतीं, क्योंकि वहां पिताजी रहते हैं,’’ मैं ने क्षणभर रुक कर जयंत को देखा. उन के चेहरे पर विषाद स्पष्ट देखा जा सकता था. पर मैं ने इसे नजरअंदाज करते हुए कहना जारी रखा, ‘‘मांजी, आप अतीत से भाग नहीं सकतीं. कभी न कभी तो उस का सामना करना ही पड़ेगा. खैर, कोई बात नहीं, यदि आप मुंबई न जाना चाहें तो जयंत कहीं और नौकरी देख लेंगे. लेकिन तब तक मैं आप के पास यहीं रहूंगी.’’ मैं ने उन के दिल पर भावनात्मक प्रहार कर डाला. मैं जानती थी कि उन को यह बरदाश्त नहीं होगा कि मैं जयंत से अलग रहूं. मांजी तड़प उठीं. मानो मैं ने उन की दुखती रग छेड़ दी हो. वे बोलीं, ‘‘जयति, मैं ने सदा तुम्हारे ससुर का बिछोह झेला है. जयंत 5 वर्ष का था, जब इस के पिता ने किसी दूसरी स्त्री की खातिर मुझे घर से निकाल दिया. तब से इस छोटे से शहर में अध्यापिका की नौकरी करते हुए न जाने कितनी कठिनाइयां उठा कर इसे पाला है. जो दर्द मैं ने 20 बरसों तक झेला है, उसे इतनी जल्दी नहीं भूल सकती. कभी भी अपने पति से दूर मत होना. मैं यहीं ठीक हूं,’’ उन के शब्दों में असीम पीड़ा व आंखों में आंसू थे.
‘‘यदि आप हम दोनों को खुश देखना चाहती हैं तो आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने उन की आंखों में झांकते हुए दृढ़ता से कहा. उस दिन मेरी जिद के आगे मांजी को झुकना ही पड़ा. वे हमारे साथ मुंबई आ गईं. यहां आते ही सारे घर की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली. वे हमारी छोटी से छोटी जरूरत का भी ध्यान रखतीं. जयंत और मैं सुबह साथसाथ ही निकलते. मेरा कालेज रास्ते में पड़ता था, सो जयंत मुझे कालेज छोड़ कर अपने दफ्तर चले जाते. मेरी कक्षाएं 3 बजे तक चलती थीं. साढ़े 3 बजे तक मैं घर लौट आती. जयंत को आतेआते 8 बज जाते. अब मेरा अधिकांश समय मांजी के साथ ही गुजरता. हमें एकदूसरे का साथ बहुत भाता. मैं ने महसूस किया कि हालांकि मांजी मेरी हर बात में दिलचस्पी लेती हैं, लेकिन वे उदास रहतीं. बातें करतेकरते न जाने कहां खो जातीं. उन की उदासी मुझे बहुत खलती. उन्हें खुश रखने का मैं भरसक प्रयत्न करती और वे भी ऊपर से खुश ही लगतीं लेकिन मैं समझती थी कि उन का खुश दिखना सिर्फ दिखावा है.
एक रात मैं ने जयंत से इस बात का जिक्र भी किया. वे व्यथित हो गए और कहने लगे, ‘‘मां को सभी दुख उसी इंसान ने दिए हैं, जिसे दुनिया मेरा बाप कहती है. मेरा बस चले तो मैं उस से इस दुनिया में रहने का अधिकार छीन लूं. नहीं जयति, नहीं, मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकता. उस का नाम सुनते ही मेरा खून खौलने लगता है.’’ जयंत का चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा. मैं अंदर तक कांप गई. क्योंकि मैं ने उन का यह रूप पहली बार देखा था.
फिर कुछ संयत हो कर जयंत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और भावुक हो कर कहा, ‘‘जयति, वादा करो कि तुम मां को इतनी खुशियां दोगी कि वे पिछले सभी गम भूल जाएं.’’ मैं ने जयंत से वादा तो किया लेकिन पूरी रात सो न पाई, कभी मां का तो कभी जयंत का चेहरा आंखों के आगे तैरने लगता. लेकिन उसी रात से मेरा दिमाग नई दिशा में घूमने लगा. अब मैं जब भी मांजी के साथ अकेली होती तो अपने ससुर के बारे में ही बातें करती, उन के बारे में ढेरों प्रश्न पूछती. शुरूशुरू में तो मांजी कुछ कतराती रहीं लेकिन फिर मुझ से खुल गईं. उन्हें मेरी बातें अच्छी लगने लगीं. एक दिन बातों ही बातों में मैं ने जाना कि लगभग 7 वर्ष पहले वह दूसरी औरत कुछ गहने व नकदी ले कर किसी दूसरे प्रेमी के साथ भाग गई थी. पिताजी कई महीनों तक इस सदमे से उबर नहीं पाए. कुछ संभलने पर उन्हें अपने किए पर पछतावा हुआ. वे पत्नी यानी मांजी के पास आए और उन से लौट चलने को कहा. लेकिन जयंत ने उन का चेहरा देखने से भी इनकार कर दिया. उन के शर्मिंदा होने व बारबार माफी मांगने पर जयंत ने इतना ही कहा कि वह उन के साथ कभी कोई संबंध नहीं रखेगा. हां, मांजी चाहें तो उन के साथ जा सकती हैं. लेकिन तब पिताजी को खाली लौटना पड़ा था. मैं जान गई कि यदि उस वक्त जयंत अपनी जिद पर न अड़े होते तो मांजी अवश्य ही पति को माफ कर देतीं, क्योंकि वे अकसर कहा करती थीं, ‘इंसान तो गलतियों का पुतला है. यदि वह अपनी गलती सुधार ले तो उसे माफ कर देना चाहिए.’
मैं ने मांजी से यह भी मालूम कर लिया कि पिताजी की मुंबई में ही प्लास्टिक के डब्बे बनाने की फैक्टरी है. अब मैं ने उन से मिलने की ठानी. इस के लिए मैं ने टैलीफोन डायरैक्ट्री में जितने भी उमाकांत नाम से फोन नंबर थे, सभी लिख लिए. अपनी एक सहेली के घर से सभी नंबर मिलामिला कर देखने लगी. आखिरकार मुझे पिताजी का पता मालूम हो ही गया. दूसरे रोज मैं उन से मिलने उन के बंगले पर गई. मुझे उन से मिल कर बहुत अच्छा लगा. लेकिन यह देख कर दुख भी हुआ कि इतने ऐशोआराम के साधन होते हुए भी वे नितांत अकेले हैं. उस के बाद मैं जबतब पिताजी से मिलने चली जाती, घंटों उन से बातें करती. मुझ से बात कर के वे खुद को हलका महसूस करते क्योंकि मैं उन के एकाकी जीवन की नीरसता को कुछ पलों के लिए दूर कर देती. पिताजी मुझे बहुत भोले व भले लगते. उन के चेहरे पर मासूमियत व दर्द था तो आंखों में सूनापन व चिरप्रतीक्षा. वे मां व जयंत के बारे में छोटी से छोटी बात जानना चाहते थे. मैं मानती थी कि पिताजी ने बहुत बड़ी भूल की है और उस भूल की सजा निर्दोष मां व जयंत भुगत रहे हैं. पर अब मुझे लगने लगा था कि उन्हें प्रायश्चित्त का मौका न दे कर जयंत पिताजी, मां व खुद पर अत्याचार कर रहे हैं.
शीघ्र ही मैं ने एक कदम और उठाया. शाम को मैं मां के साथ पार्क में घूमने जाती थी. पार्क के सामने ही एक दुकान थी. एक दिन मैं कुछ जरूरी सामान लेने के बहाने वहां चली गई और मां वहीं बैंच पर बैठी रहीं.
‘‘विजया, विजया, तुम? तुम यहां कैसे?’’ तभी किसी ने मां को पुकारा. अपना नाम सुन कर मांजी एकदम चौंक उठीं. नजरें उठा कर देखा तो सामने पति खड़े थे. कुछ पल तो शायद उन्हें विश्वास नहीं हुआ, लेकिन फिर घबरा कर उठ खड़ी हुईं.
‘‘जयंत की पत्नी जयति के साथ आई हूं. वह सामने कुछ सामान लेने गई है,’’ वे बड़ी कठिनाई से इतना ही कह पाईं.
‘‘कब से यहां हो? तुम खड़ी क्यों हो गईं?’’ उन को जैसे कुछ याद आया, फिर अपनी ही धुन में कहने लगे, ‘‘इस लायक तो नहीं कि तुम मुझ से कुछ पल भी बात करो. मैं ने तुम पर क्याक्या जुल्म नहीं किए. कौन सा ऐसा दर्द है जो मैं ने तुम्हें नहीं दिया. प्रकृति ने तो मुझे नायाब हीरा दिया था, पर मैं ने ही उसे कांच का टुकड़ा जान कर ठुकरा दिया.’’ क्षणभर रुक कर आगे कहने लगे, ‘‘आज मेरे पास सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं है. नितांत एकाकी हूं. लेकिन यह जाल तो खुद मैं ने ही अपने लिए बुना है.’’ पुराने घाव फिर ताजा हो गए थे. आंखों में दर्द का सागर हिलोरें ले रहा था. दोनों एक ही मंजिल के मुसाफिर थे. तभी मां ने सामने से मुझे आता देख कर उन्हें भेज दिया. उस दिन के बाद मैं किसी न किसी बहाने से पार्क जाना टाल जाती. लेकिन मां को स्वास्थ्य का वास्ता दे कर जरूर भेज देती.
इसी तरह दिन निकलने लगे. मांजी रोज छिपछिप कर पति से मिलतीं. पिताजी ने कभी यह जाहिर नहीं किया कि वे मुझे जानते हैं. लेकिन मुझे अब आगे का रास्ता नहीं सूझ रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? जब काफी सोचने पर भी उपाय न सूझा तो मैं ने सबकुछ वक्त पर छोड़ने का निश्चय कर डाला. लेकिन एक दिन पड़ोसिन नेहा ने टोका, ‘‘क्या बात है जयति, तुम आजकल पार्क नहीं आतीं. तुम्हारी सास भी किसी अजनबी के साथ अकसर बैठी रहती हैं.’’
‘‘बस नेहा, आजकल कालेज का काम कुछ ज्यादा है, इसलिए मांजी चाचाजी के साथ चली जाती हैं,’’ मैं ने जल्दी से बात संभाली. लेकिन नेहा की बात मुझे अंदर तक हिला गई. अब इसे टालना संभव नहीं था. इस तरह तो कभी न कभी जयंत के सामने बात आती ही और वे तूफान मचा देते. मैं ने निश्चय किया कि यह खेल मैं ने ही शुरू किया है, इसलिए मुझे ही खत्म भी करना होगा. लेकिन कैसे? यह मुझे समझ नहीं आ रहा था. उस रात मैं ठीक से सो न सकी. सुबह अनमनी सी कालेज चल दी. रास्ते में जयंत ने मेरी सुस्ती का कारण जानना चाहा तो मैं ने ‘कुछ खास नहीं’ कह कर टाल दिया. लेकिन मैं अंदर से विचलित थी. कालेज में पढ़ाने में मन न लगा तो अपने औफिस में चली आई. फिर न जाने मुझे क्या सूझा. मैं ने कागज, कलम उठाया और लिखने लगी…
‘‘प्रिय जय,
‘‘मेरा इस तरह अचानक पत्र लिखना शायद तुम्हें असमंजस में डाल रहा होगा याद है, एक बार पहले भी मैं ने तुम्हें प्रेमपत्र लिखा था, जिस में पहली बार अपने प्यार का इजहार किया था. उस दिन मैं असमंजस में थी कि तुम्हें मेरा प्यार कुबूल होगा या नहीं. ‘‘आज फिर मैं असमंजस में हूं कि तुम मेरे जज्बातों से इंसाफ कर पाओगे या नहीं. ‘‘जय, मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं लेकिन मैं मांजी से भी बहुत प्यार करने लगी हूं. यदि उन से न मिली होती तो शायद मेरे जीवन में कुछ अधूरापन रह जाता. ‘‘मांजी की उदासी मुझ से देखी नहीं गई, इसलिए पिताजी की खोजबीन करनी शुरू कर दी. अपने इस प्रयास में मैं सफल भी रही. मैं पार्क में उन की मुलाकातें करवाने लगी. लेकिन मां को मेरी भूमिका का जरा भी भान नहीं था.
‘‘अब वे दोनों बहुत खुश हैं. मांजी बेसब्री से शाम होने की प्रतीक्षा करती हैं. वे तो शायद उन मुलाकातों के सहारे जिंदगी भी काट देंगी. लेकिन तुम्हें याद है, जब 2 महीने पहले मैं सेमिनार में भाग लेने बेंगलुरु गई थी तब एक सप्ताह बाद लौटने पर तुम ने कितनी बेताबी से कहा था, ‘जयति, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, तुम मुझे फिर कभी इस तरह छोड़ कर मत जाना. तुम्हारी उपस्थिति मेरा संबल है.’ ‘‘तब मैं ने मजाक में कहा था, ‘मांजी तो यहां ही थीं. वे तुम्हारा मुझ से ज्यादा खयाल रखती हैं.’ ‘‘‘वह तो ठीक है जयति, मांजी मेरे लिए पूजनीय हैं, लेकिन तुम मेरी पूजा हो,’ तुम भावुकता से कहते गए थे. ‘‘याद है न सब? फिर तुम यह क्यों भूल जाते हो किमांजी की जिंदगी में हम दोनों में से कोई भी पिताजी की जगह नहीं ले सकता. क्या पिताजी उन की पूजा नहीं, उन की धड़कन नहीं? ‘‘जब मांजी को उन से कोई शिकवा नहीं तो फिर तुम उन्हें माफ करने वाले या न करने वाले कौन होते हो? यह तो किसी समस्या का हल नहीं कि यदि आप के घाव न भरें तो आप दूसरों के घावों को भी हरा रखने की कोशिश करें. ‘‘जय, तुम यदि पिताजी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो कर सकते हो कि उन से नफरत न करो. मांजी तो सदैव तुम्हारे लिए जीती रहीं, हंसती रहीं, रोती रहीं. तुम सिर्फ एक बार, सिर्फ एक बार अपनी जयति की खातिर उन के साथ हंस लो. फिर देखना, जिंदगी कितनी सरल और हसीन हो जाएगी. ‘‘मेरे दिल की कोई बात तुम से छिपी नहीं. जिंदगी में पहली बार तुम से कुछ छिपाने की गुस्ताखी की. इस के लिए माफी चाहती हूं.
‘‘तुम जो भी फैसला करोगे, जो भी सजा दोगे, मुझे मंजूर होगी.
‘‘तुम्हारी हमदम,
जयति.’’
पत्र को दोबारा पढ़ा और फिर चपरासी के हाथों जयंत के दफ्तर भिजवा दिया. उस दिन मैं कालेज से सीधी अपनी सहेली के घर चली गई. शायद सचाई का सामना करने की हिम्मत मुझ में नहीं थी. रात को घर पहुंचतेपहुंचते 10 बज गए. घर पहुंच कर मैं दंग रह गई, क्योंकि वहां अंधकार छाया हुआ था. मेरा दिल बैठने लगा. मैं समझ गई कि भीतर जाते ही विस्फोट होगा, जो मुझे जला कर खाक कर देगा. मैं ने डरतेडरते भीतर कदम रखा ही था कि सभी बत्तियां एकसाथ जल उठीं. इस से पहले कि मैं कुछ समझ पाती, सामने सोफे पर जयंत को मातापिता के साथ बैठा देख कर चौंक गई. मुझे अपनी निगाहों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही जयंत बोल उठे, ‘‘तो श्रीमती जयतिजी, आप ने हमें व मांजी को अब तक अंधेरे में रखा…इसलिए दंड भुगतने को तैयार हो जाओ.’’
‘‘क्या?’’
‘‘तुम पैकिंग शुरू करो.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘भई, जाना है.’’
‘‘कहां?’’
‘‘हमारे साथ मसूरी,’’ जयंत ने नाटकीय अंदाज से कहा तो सभी हंस पड़े.
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