कहानी - दादी अम्मा

दादी अम्मा कहीं चली गई थीं. कहां गई थीं, किसी को पता नहीं चला. रातदिन की उपेक्षा और दुर्दशा के कारण एक न एक दिन यह होना ही था. पहले कभीकभी अकेलेपन से दिल घबराने या तबीयत खराब होने पर वे पासपड़ोस के घरों में या महल्ले के हकीम साहब से माजून लेने चली जाती थीं. लेकिन 2-3 घंटे या फिर देर हुई तो शाम तक घर वापस आ जाती थीं. इस बार जब वे देर रात तक नहीं लौटीं तो तीनों बेटों को चिंता सताने लगी. तमाम रिश्तेदारों में पूछताछ की, लेकिन उन का कहीं पता नहीं चला.

‘‘पता नहीं कहां चली गईं अम्मा, दिल फटा जा रहा है, चचा. 1 महीने से ज्यादा वक्त हो गया है, न जाने किस हाल में होंगी,’’ बड़े बेटे रेहान ने मायूसी भरे लहजे में हाजी फुरकान से कहा.

हाजी फुरकान पूरे महल्ले के मुंहबोले चचा थे. रेहान के घर पर उन का कुछ ज्यादा ही आनाजाना था. वे दादी अम्मा के बारे में ही पूछने आए थे.

‘‘बेटा, दुखी मत हो. सब्र से काम लो,’’ हाजी फुरकान ने दिलासा दिया.

‘‘चचा, दुख तो इस बात का है कि हम तीनों भाइयों ने उन की कोई खिदमत नहीं की. अब कैसे प्रायश्चित्त करें कि दिल को सुकून मिले. हम उन की खिदमत न कर पाने से तो दुखी हैं ही, उस से भी बड़ी परेशानी यह है कि अम्मा की कई ख्वाहिशें अधूरी रह गई हैं. न वे कुछ मनचाहा खापी सकीं और न ही पहनओढ़ सकीं. इस के पछतावे में हम सब का दिल बैठा जा रहा है.’’

तभी आंगन के दूसरी ओर बने कमरे में से उस का छोटा भाई जुबैर अपनी बीवीबच्चों के साथ आ गया.

‘‘जुबैर बेटा, अपने भाई को समझाओ, ज्यादा आंसू न बहाए, सबकुछ ठीक हो जाएगा,’’ हाजी फुरकान ने जुबैर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा. थोड़ी देर बाद उन्होंने दोनों भाइयों से पूछा, ‘‘फैजान कहां है? उसे भी जरा बुलाओ. कुछ खास बात करनी है तुम सब भाइयों के साथ.’’

जुबैर मकान के सामने के हिस्से के ऊपर बने कमरों में से एक कमरे का परदा हटा कर उस में घुस गया. थोड़ी देर बाद वह फैजान को ले कर नीचे आ गया. हाजी फुरकान तीनों भाइयों को ले कर घर की बैठक में चले गए.

‘‘बेटा, परेशान और पशेमान होने की कोई जरूरत नहीं है. अली मियां की मजार पर बैठने वाले मुजाविर गफूर मियां को तुम जानते ही हो. हर मर्ज का इलाज है उन के पास. वे और उन के साथी जाबिर मियां तुम्हें सभी दुखों से नजात दिला देंगे. जनाब जाबिर मियां तो तावीजगंडों और झाड़फूंक में माहिर हैं, माहिर, समझे. अपनी रूहानी ताकतों से अम्मा का पता लगा लेंगे. अगर जिंदा हुईं तो उन्हें घर आने पर मजबूर कर देंगे और यदि मर गई होंगी तो उन की रूह को सुकून दिला देंगे,’’ हाजी फुरकान ने ऐसी शान से कहा जैसे उन्होंने रेहान और उस के भाइयों के दुख दूर करने का ठेका ले रखा हो.

‘‘चचाजान, गफूर मियां और जाबिर मियां से जल्दी मिला दीजिए,’’ जुबैर तपाक से बोला.

‘‘जब तुम सब ने मुझ पर भरोसा किया है तो समझ लो कि तुम्हारी सारी परेशानियों का खात्मा हो गया. मैं कल ही गफूर मियां और जाबिर मियां को बुला लाऊंगा,’’ भरोसा दे कर हाजी फुरकान चले गए.

अपने अब्बू और चाचाओं की ये सारी बातें रेहान की बड़ी बेटी आरजू भी सुन रही थी. 12वीं कक्षा में पढ़ रही आरजू अपनी दादी अम्मा से काफी घुलीमिली थी. एक तरह से वह उन्हें ही अपनी मां समझती थी. वह अपनी दादी को बहुत चाहती थी और दादी अम्मा कह कर पुकारती थी. दादी अम्मा के चले जाने से सब से अधिक दुख उसी को था. अब्बू और चाचाओं के दोहरे व्यवहार को देख कर उस का कलेजा फटा जा रहा था. जब से उस ने होश संभाला था तब से घर में दादी अम्मा की उपेक्षा और दुर्दशा देख रही थी.

जब तक अम्मा घर पर थीं तो बेटों ने उन की महत्ता नहीं समझी. अब उन्हें उन की कमी दुख दे रही थी. अलग रहते हुए भी अम्मा पूरे घरबार के टब्बर को कैसे समेटे रहती थीं. शादीब्याह और दूसरे कार्यक्रमों में जब बेटे अपनी बीवियों के साथ कुछ दिनों के लिए चले जाते तो अम्मा ही उन के बच्चों को ऐसे संभालतीं जैसे मुरगी अपने चूजों को परों के नीचे सुरक्षा देती है. घर के कार्यक्रमों में भी उन की मौजूदगी से सब निश्चिंत से हो जाते.

कई बार हलकीफुलकी बीमारी में तो बच्चे दादी अम्मा की गरम गोद, उन की कड़वे तेल की मालिश और घरेलू नुस्खों से ही ठीक हो जाते थे. अब उन के चले जाने से घर का भारीपन कहीं खो गया था. लगा, जैसे घर की छत उड़ गई हो और दीवारें नंगी हो गई हों. बेटेबहुएं पछता रही थीं कि काश, वे घर के बुजुर्ग का मूल्य समझ पाते. दादी अम्मा के साए में घर और बच्चों को सुरक्षित समझते हुए बेटे और बहुएं अपनेआप में मगन थे. लेकिन अब सुरक्षा का आवरण कहीं नहीं था. घर के सूनेपन और बच्चों के पीले चेहरों ने बेटों और बहुओं को झकझोर कर रख दिया था. उन्हें पछतावा हो रहा था कि जो अम्मा अकेले पूरे घर को समेटे हुए थीं, उन्हें पूरे घर के लोग मिल कर भी क्यों नहीं समेटे रख सके. पूरा घर आह भर रहा था, काश, दादी अम्मा वापस आ जाएं.

अम्मा का चरित्र कुछ इस तरह आंखों के सामने चित्रित होने लगा: दादी अम्मा जब इस घर में आई थीं तो उस समय उन की उम्र यही कोई 19 वर्ष की रही होगी. मांबाप ने उन का प्यारा सा नाम रखा था, सकीना. पिछड़े घराने से ताल्लुक रखने के कारण वे बस 5 दरजा तक ही पढ़ सकी थीं, लेकिन सुंदरता, गुणवत्ता और गुरुत्वता उन में कूटकूट कर भरी थी. मांबाप ने उन का विवाह महल्ले के 10वीं पास सुलेमान बेग से कर दिया था.

सुलेमान बेग युवावस्था में रोजगार पाने की गरज से अपनी बीवी सकीना बेगम को ले कर इस शहर में आ गए थे. उस समय उन के पास एक संदूकिया और पुराना बिस्तर था. उन का पुश्तैनी घराना निर्धन था. यही मजबूरी उन्हें यहां ले आई थी. किसी मिलने वाले ने सुझाव दिया था कि यहां साहबों के बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर गुजरबसर कर सकते हैं. साहब खुश हो गए तो नौकरी भी मिल सकती है.

उस की बात सही निकली. सुलेमान बेग की मेहनत, लगन और सहयोगी व्यवहार से प्रभावित हो कर एक साहब ने 1 साल बीततेबीतते उन की तहसील में तीसरे दरजे की नौकरी भी लगवा दी. कुछ दिनों में सरकारी क्वार्टर भी मिल गया.

नौकरी और क्वार्टर मिलने की खुशी सुलेमान बेग से संभाली नहीं जा रही थी. पहले दिन क्वार्टर में घुसते ही सकीना बेगम को उन्होंने सीने से लगा लिया, ‘बेगम, मेरी जिंदगी में तुम्हारे कदम क्या पड़े, कामयाबी का पेड़ लग गया.’

‘यह सब आप की मेहनत का फल है. मैं तो यही चाहती हूं कि आप सलामत रहें. मेरी उम्र भी आप को लग जाए,’ भावावेश में सकीना बेगम की आंखों में आंसू छलक आए.

‘ऐसा न कहो, तुम हो तो यह घर है. नहीं तो कुछ भी नहीं होता,’ कहते हुए सुलेमान बेग ने उन का माथा चूम लिया.

सुलेमान बेग के 4 बच्चे हुए. 1 बेटी और उस के बाद 3 बेटे. वेतन कम होने से घर का खर्च बमुश्किल चल पाता था. दोनों पतिपत्नी ने अपना पेट काट कर बच्चों की परवरिश की थी. अपने शौकों को दबा कर बच्चों की ख्वाहिशें पूरी करने में लगे रहे. तबादले होते रहने की स्थिति में एक स्थायी निवास के लिए सुलेमान बेग ने जोड़तोड़ कर के 4 कमरों का घर बना लिया.

सुलेमान बेग का तबादला इधरउधर होता रहा. बच्चों के लिए घर पैसे भेजने के वास्ते किराए के एक कमरे में रहते, मलयेशिया के बने सस्ते कपड़े पहनते और स्वयं तवे पर दो रोटी डाल कर गुजरबसर करते. लेकिन इस का बुरा असर यह हुआ कि वे जबतब बीमार रहने लगे थे.

उन की अनुपस्थिति में सकीना बेगम ही बच्चों को बटोरे रहतीं. वे स्वयं ही घर का सारा कामकाज करतीं. चूल्हे पर सब का खाना बनातीं. कपड़े और बरतन धोतीं. पौ फटते ही उठ जातीं, गाय की सानी करतीं फिर साफसफाई करने के बाद बच्चों को रोटी और साग खिला कर स्कूल भेजतीं. कम वेतन में भी उन के त्याग ने घर को खुशियों से भर रखा था. कुछ बातें वे खुद ही सह लेतीं, पति और बच्चों पर जाहिर नहीं होने देतीं.

एक बार ईद के मौके पर पैसे की कुछ ज्यादा ही तंगी थी. लेकिन बच्चे इस से बेखबर नए कपड़ों की जिद करने लगे, ‘अम्मा, सभी संगीसाथी नएनए कपड़ों की शेखी बघार रहे हैं. हम उन से कम थोड़े ही हैं, ऐसे कपड़े बनवाएंगे कि सब देखते रह जाएंगे. है न अम्मीजान.’

सकीना बेगम को काटो तो खून नहीं. पिछले दिनों लाल गेहूं के पैसे भी कहां दिए थे दुकानदार को. बाद में कुछ और किराने का सामान भी उधार ही आया था. पति की बीमारी, बच्चों की पढ़ाई से आर्थिक तंगी और बढ़ चली थी. नकद सामान आता भी कहां से. बड़ी खुशामद के बाद किराने वाले ने मुंह बिगाड़ते हुए 1 किलो सेंवइयां दी थीं. ऐसे में कपड़ों के बारे में तो वे सोच भी नहीं सकती थीं. सोचा था, नील डाल कर कपड़े फींच देंगी, बच्चे गौर नहीं करेंगे, ऐसे ही टल जाएगी ईद. लेकिन...

बच्चों की बात सुन कर अपने को संयत कर उन्होंने दिलासा दी, ‘क्यों नहीं, हम क्या किसी से कम हैं. सब के कपड़े बनेंगे, आखिर सालभर में एक ही बार तो मीठी ईद आती है.’ बड़ी मुश्किल से उन्होंने बेटी के विवाह के लिए अपनी शादी में चढ़े चांदी के 2 जेवर बचा कर रखे थे. बिना किसी को बताए वे उन्हें गिरवीं रख कर स्वयं को छोड़ सब के कपड़े खरीद लाईं. सुलेमान बेग ने जब उन के कपड़ों के बारे में पूछा तो हंसती हुई बोलीं, ‘अरे, मैं तो घर में ही रहती हूं, मुझे किसी को दिखाना थोड़े ही है.’

सुलेमान बेग की नौकरी के चलते घर में न रहने और वेतन बहुत कम होने के बीच बड़ी कक्षाओं में आने पर 2 बड़े लड़के दूसरे शहर में ट्रेन से जा कर पढ़ने लगे तो उन पर और भार पड़ गया. बच्चों के बड़े होने पर जैसेतैसे जोड़गांठ कर जब उन्होंने बेटी का विवाह कर दिया तो कुछ चैन की सांस ली. तीनों बेटे भी बड़े थे, लेकिन धन के अभाव में उन के लिए रोटियां सेंकनी पड़तीं. चूल्हे में जब वे लोहे की फूंकनी से कंडों को सुलगाने के लिए फूंकतीं तो उन की सांस तो फूल ही जाती, साथ में धुएं और राख से आंखें भी लाल हो जातीं.

वैसे तो वे सहती रहतीं लेकिन उन का सब्र उस समय जवाब दे जाता जब गीली लकडि़यां सुलगने में बहुत देर लगातीं और फूंकनी फूंकतेफूंकते उन की जान कलेजे को आ जाती. ‘पता नहीं कब मुझे आराम नसीब होगा. लगता है मर कर ही चैन मिलेगा,’ कहते हुए वे देर तक बड़बड़ाती रहतीं.

बेटे उच्च शिक्षा तो नहीं ले पाए फिर भी सुलेमान बेग ने 2 बड़े बेटों को शहर में ही तृतीय श्रेणी की नौकरियों पर लगवा दिया और छोटे लड़के को मैडिकल स्टोर खुलवा दिया. आर्थिक स्थिति कुछ सुधरने पर जैसेतैसे जब बड़े बेटे रेहान की शादी हुई तो सकीना बेगम को लगा कि अब उन्हें रातदिन कोल्हू के बैल जैसी जिंदगी से छुटकारा मिल जाएगा. लेकिन जैसा सोचा था वैसा हुआ नहीं.

शादी के कुछ दिनों बाद से ही बहू का मुंह फूलना शुरू हो गया. फिर एक दिन उस ने रेहान से साफतौर पर कह दिया, ‘मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती, ऊपर से पूरे कुनबे की नौकरानी बना कर रख छोड़ा है. अब मुझ से और नहीं होगा.’

एक साल बीततेबीतते उस ने मनमुटाव कर के अपने शौहर से घर में अपने हिस्से में दीवारें खिंचवा लीं. नतीजा यह हुआ कि सकीना बेगम जिस चूल्हाचक्की से निकलने की आस लगाए बैठी थीं, दोबारा फिर उसी में जा फंसीं. रेहान की बड़ी बेटी आरजू उस के अपने हिस्से में ही पैदा हुई. उस के जन्म लेते ही सकीना बेगम दादी अम्मा बन गईं.

अब आस थी दूसरे बेटों की बहुओं से. लेकिन यह आस भी जल्द ही टूट गई. जब जुबैर और फिर फैजान का विवाह हुआ तो नई आई दोनों बहुएं भी बड़ी के नक्शेकदम पर चल पड़ीं. बड़ी ने छोटियों के भी ऐसे कान भरे कि उन्होंने भी अपनेअपने शौहरों को अपने कब्जे में कर उस संयुक्त घर में ही अपनेअपने घर बना डाले. अपने हिस्से में रह गए सुलेमान बेग और दादी अम्मा. बदलती परिस्थितियों में उन की बेगम अकेली न रहें, इसलिए सुलेमान बेग ने समय से 2 साल पहले ही रिटायरमैंट ले लिया. लेकिन फिर भी वे अपनी बेगम का साथ ज्यादा दिन तक नहीं निभा सके. रिटायरमैंट के कोई डेढ़ साल बाद सुलेमान बेग हाई ब्लडप्रैशर के झटके को झेल नहीं पाए और दादी अम्मा को अकेला छोड़ गए.

दादी अम्मा शौहर की मौत के सदमे से दिनोंदिन और कमजोर होती गईं. बीमारियों ने भी घेर लिया, सो अलग. पति की पैंशन से ही रोजीरोटी और दवा का खर्चा चल रहा था.

बेटी बहुत दूर ब्याही थी, इसलिए कभीकभार ही वह 2-3 दिन के लिए आ पाती थी.

दादी अम्मा सारा दिन अपने कमरे और बरामदे में अकेली पड़ी रहतीं और हिलते सिर के साथ कंपकंपाते हाथों से जैसेतैसे अपनी दो जून की रोटी सेंक लेतीं. सामने बेटों के घरों से पकवानों की खुशबू तो आती लेकिन पकवान नहीं. वे तरस कर रह जातीं. ठंड में पुराने गरम कपड़ों, जिन के रोंए खत्म हो चुके थे, के बीच ठिठुरती रहतीं. 3 बेटों और बहुओं के होते हुए भी वे अकेली थीं. वे कभीकभार ही दादी अम्मा वाले हिस्से में आते, वह भी बहुत कम समय के लिए. आते भी तो खटिया से थोड़ी दूर पर ही बैठते. दादी अम्मा के पास आना उन्हें एक बोझ सा लगता. बस, बच्चे ही उन के साथी थे. वे ‘दादी अम्मा, दादी अम्मा’ कहते हुए आते, उन की गोदी में घुस जाते और कभी उन का खाना खा जाते. इस में भी दादी अम्मा को खुशी हासिल होती, जैसेतैसे वे फिर कुछ बनातीं. बच्चों में आरजू दादी अम्मा के पास ज्यादा आयाजाया करती थी और उन की मदद करती रहती थी. सही माने में आरजू ही उन के दुखदर्द की सच्ची साथी थी.

पिछली सर्दियों में हाड़ गला देने वाली ठंड पड़ी तो लगा कि कहीं दादी अम्मा भी दुनिया न छोड़ दें. किसी बड़े चिकित्सालय के बजाय बेटे महल्ले के झोलाछाप डाक्टर से उन का इलाज करवा रहे थे. इस से रोग और बढ़ता गया. एक दिन जब तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो बेटे और बहुएं उन की चारपाई के आसपास बैठ गए. पता चलने पर दादी अम्मा के दूर के रिश्ते का भतीजा साजिद भी अपनी पत्नी मेहनाज के साथ आ गया. दोनों शिक्षित थे और दकियानूसी विचारों से दूर थे. दोनों सरकारी नौकरी पर थे और अवकाश ले कर अम्मा का हाल जानने आए थे.

आरजू के अलावा यही दोनों थे जो दूर रह कर भी उन का हालचाल पूछते रहते थे और मदद भी करते रहते थे.

‘बड़ी मुश्किल में हैं अम्मा. जान अटकी है. समझ में नहीं आता क्या करें,’ रेहान का गला भर आया.

‘सच्ची, अम्मा का दुख देखा नहीं जाता. इस से तो बेहतर है कि छुटकारा मिल जाए,’ बड़ी बहू ने अपने पति की हां में हां मिलाई.

‘अम्मा के मरने की बात कर रहे हैं, आप लोग. यह नहीं कि किसी अच्छे डाक्टर को दिखाया जाए,’ जब रहा नहीं गया तो साजिद जोर से बोल पड़ा.

बेटेबहुओं ने कुछ कहा तो नहीं, लेकिन नाकभौं चढ़ा लिए.

साजिद और मेहनाज ने समय गंवाना उचित नहीं समझा. वे दादी  अम्मा को अपनी कार से उच्चस्तरीय नर्सिंग होम में ले गए और भरती करा दिया. बेटे दादी अम्मा के भरती होने तक नर्सिंग होम में रहे, फिर वापस आ गए, भरती होने में खर्चे को ले कर भी तीनों बेटे एकदूसरे को देखने लगे. रेहान बोला, ‘इस वक्त तो मेरा हाथ तंग है. बाद में दे दूंगा.’

‘मेरे घर में पैर भारी हैं, परेशानी में चल रहा हूं,’ कहते हुए जुबैर भी पीछे हट गया.

फैजान ने चुप्पी साधते हुए ही अपनी मौन अस्वीकृति दे डाली.

‘आप लोग परेशान न हों, हम हैं तो. सब हो जाएगा,’ मेहनाज ने सब को तसल्ली दे दी.

दादी अम्मा करीब 10 दिन भरती रहीं. बेटे वादा तो कर के गए थे बीचबीच में आने का, लेकिन ऐसे गए कि पलटे ही नहीं. बेटों ने अपने पास रहते हुए जब दादी अम्मा की खबर नहीं ली तो दूर जाने पर तो उन्होंने उन्हें बिलकुल ही भुला दिया. साजिद और मेहनाज ही उन के साथ रहे और एक दिन के लिए भी उन्हें छोड़ कर नहीं गए. दोनों पतिपत्नी ने अपनेअपने विभागों से छुट्टी ले ली थी. सही चिकित्सा और सेवा सुश्रूषा से दादी अम्मा की हालत काफी हद तक ठीक हो गई.

जब नर्सिंग होम से डिस्चार्ज होने का समय आया तो दादी अम्मा ने दोनों से कहा, ‘बेटा, अब मुझे घर छोड़ आओ और तुम भी अपना घर देखो. तुम ने मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है.’

‘यह क्या कह रही हैं, अम्मा. हम दोनों के मांबाप तो रहे नहीं. आप की खिदमत से लगा जैसे उन की कमी दूर हो गई,’ मेहनाज ने कहा.

अम्मा उस के सिर पर हाथ फिराने लगीं. लेकिन अम्मा को आरजू और पोतेपोतियों की याद सता रही थी. इसलिए साजिद और मेहनाज को आगे कभी उन के साथ रहने की तसल्ली दे कर अपने घर आ गईं. उन के आने पर कुछ दिन तक तो बेटेबहुएं उन के आसपास रहे, लेकिन फिर उन का रवैया पहले जैसा हो गया, अम्मा के प्रति उपेक्षित व्यवहार. वे फिर अपनी मौजमस्ती में डूब गए.

कुछ समय बीता तो दादी अम्मा की तबीयत फिर बिगड़ने लगी. अब कौन उन की देखभाल करेगा. वे जबरदस्ती अपने बेटों पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं. एक दिन दादी अम्मा ने घर छोड़ दिया. किसी को बता कर नहीं गईं कि कहां जा रही हैं.

आज उन्हें घर छोड़े हुए 1 महीने से ऊपर हो चला था. सभी रिश्तेदारों के बीच खोजा, लेकिन कहीं पता नहीं चला. जब पूरा घर सूना और उजड़ा सा लगा तो बेटों को उन की अहमियत का पता चला. अब वे चाह रहे थे कि किसी भी तरह अम्मा घर वापस आ जाएं. इसीलिए हाजी फुरकान के आगे वे दुखड़ा रो रहे थे.

दूसरे दिन हाजी फुरकान, गफूर मियां, जाबिर मियां और मजहबी कार्यक्रमों के नाम पर चंदा उगाहने वाले रशीद अली को ले कर रेहान के घर पर पहुंच गए. आंगन में दरी बिछा कर उस पर कालीन डाल दी गई और बीच में हुक्का व पानदान रख दिया गया.

‘‘बताओ मियां, क्या परेशानी है?’’ थोड़ी देर हुक्का गुड़गुड़ाने के बाद राशिद अली ने पूछा.

‘‘अम्मा का कुछ पता नहीं चल रहा है. पता नहीं किस हाल में हैं. दुनिया में हैं भी या नहीं?’’ रेहान ने बुझी आवाज में कहा.

‘‘देखो मियां, घबराओ नहीं, हम अपने इलम से अभी पता लगा लेते हैं,’’ जाबिर मियां ने तसल्ली दी, फिर सब से बोले, ‘‘सब लोग खामोश रहें. हमें अपना काम करने दें.’’

वे कुछ देर तक आंखें बंद कर के मुंह ऊपर उठा कर बुदबुदाते रहे. फिर धीरे से बोले, ‘‘बेटा, सब्र से काम लेना. हम ने पता लगा लिया है. तुम्हारी अम्मा अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’

‘‘आप ने कैसे पता लगाया?’’ जुबैर ने जिज्ञासावश पूछना चाहा कि गफूर मियां ने उसे बीच में ही झिड़क दिया, ‘‘देखो बेटे, या तो हम पर यकीन करो या फिर हमें बुलाते ही नहीं.’’ फिर हाजी फुरकान पर बिगड़ते हुए बोले, ‘‘मियां, कैसे दीन से फिरे हुए लोगों के घर ले आए हमें. चलो, जाबिर मियां. यहां रुकना अब ठीक नहीं है.’’

इस पर हाजी फुरकान ने जुबैर को डांटना शुरू कर दिया, ‘‘तुम लोग क्या जाबिर मियां को ऐसावैसा समझ रहे हो. बड़े पहुंचे हुए हैं. अपने कब्जे में की हुई रूहानी ताकतों से वे सात समंदर पार की खबर निकाल लेते हैं, यह तो फिर भी यहीं का मामला है. और सुनो, मेरे कहने से तो आ भी गए, वरना ऐसीवैसी जगह तो वैसे भी ये लोग हाथ नहीं डालते हैं,’’ फिर गफूर मियां और जाबिर मियां को समझाते हुए बोले, ‘‘बच्चा है, गलती से पूछ बैठा. आप कहीं मत जाइए, आप की जो खिदमत करनी होगी, उस के लिए ये लोग तैयार हैं. मैं गारंटी लेता हूं.’’

थोड़ी देर तक नाकभौं सिकोड़ने के बाद जाबिर मियां दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए रेहान से बोले, ‘‘देखो बेटे, आप की वालिदा को तो कोई वापस ला नहीं सकता, अलबत्ता उन को शांति मिले, इस के लिए काफी कुछ किया जा सकता है.’’

‘‘वह कैसे?’’ रेहान ने पूछा.

‘‘उन के जीतेजी जो ख्वाहिशें अधूरी रह गई हैं उन्हें पूरा कर के उन को सुकून मिल सकता है. बताओ, क्याक्या ख्वाहिशें थीं उन की? फिर हम ऐसे उपाय बताएंगे कि अम्मा को शांति मिल जाएगी और आप लोगों का प्रायश्चित्त भी हो जाएगा,’ जाबिर मियां उगलदान में पान की पीक थूकने के बाद बोले.

‘‘चचाजान, अम्मा को खीर, पान, रसगुल्ले, फल और मुरब्बे बहुत पसंद थे. बिरयानी भी चाव से खाती थीं,’’ फैजान ने बताया.

‘‘अजी मियां, ये दोचार बातें क्या बता रहे हो, हम ने अपने इलम से पता लगा लिया है कि उन्हें क्याक्या पसंद था,’’ जाबिर मियां हुक्का गुड़गुड़ाने के बाद बोले, ‘‘देखो बेटे, तुम्हारी अम्मा को जो पसंद था, उस की लिस्ट हम दे देते हैं. ये सारा सामान ले आओ, जब तक हम और साथियों को बुला लेते हैं.’’

रेहान ने जब लिस्ट देखी तो उस के होश उड़ गए. उस में 40 मुल्लाओं को धार्मिक अनुष्ठान के मौके पर मुर्गमुसल्लम, पुलाव, खीर, फल और मिठाई मिला कर 25 व्यंजन खिलाने और कपड़े दिए जाने के अलावा गफूर मियां और रशीद अली को अलग से 11-11 हजार रुपए दिए जाने की हिदायत दे डाली थी जाबिर मियां ने.

इन कठमुल्लों के फरमान को टालना तीनों भाइयों के बस की बात नहीं थी. फिर भी थोड़ी देर के लिए वे सोच में पड़ गए.

उन्हें चुप देख कर हाजी फुरकान ने व्यंग्यात्मक शब्दों की तोप दागी, ‘‘मियां, ये लोग तो समझो मुफ्त में परेशानी दूर कर रहे हैं, वरना इस नेक काम के तो लाखों लेते हैं. और यह भी समझो कि अगर इन से आप लोगों का रिश्ता बना रहा तो अपनी रूहानी ताकत और तावीजगंडों से आगे भी इस घर को बुरी हवा से बचाए रखेंगे.’’

इस से आगे बढ़ कर गफूर मियां ने और डरा दिया, ‘‘बेटा, सोच लो, अगर मजहब की परंपराओं को भुला दिया तो इस घर को बरबाद होने से कोई नहीं बचा सकेगा, समझे. हमारा क्या, यहां नहीं तो दूसरों के दुखदर्द दूर करेंगे.’’

‘‘आप नाराज मत होइए. कल अम्मा का चालीसवां है. हम सारा इंतजाम कर देंगे. बस, आप दुआएं देते रहें, आप ही सहारा हैं,’’ रेहान उन के आगे गिड़गिड़ाने लगा.

दूसरे दिन सुबह से ही रेहान, जुबैर और फैजान व उन की पत्नियां चालीसवें के धार्मिक अनुष्ठान की तैयारी में जुट गए. घर के आंगन में बड़ी सी दरी बिछ गई, भट्ठियों पर देगें चढ़ा दी गईं और कठमुल्लों के प्रवचनों के लिए छत के कोनों पर लाउडस्पीकर लगा दिए गए.

दोपहर होतेहोते कठमुल्लों की भीड़ आंगन में इकट्ठी हो गई. जाबिर मियां के आदेश पर दरी के बीच में अम्मा की पसंद का नाम ले कर तरहतरह के पकवान सजा दिए गए. आरजू यह सब देख कर दुखी हो रही थी. वह खुले विचारों की थी और रूढि़यों व मजहब के नाम पर धंधेबाजों से उसे नफरत थी.

वह सोच रही थी कि मुसलिम समाज में कितना ढकोसला है. जब दादी अम्मा जीवित थीं तो ये बेटे उन को 2 रोटी और 1 कटोरी दालसब्जी नहीं देते थे और अब उन की मृत्यु हो जाने पर कितने पकवान उन के नाम पर बना रहे हैं, जिन्हें वे स्वयं ही खाएंगे. उसे जब इस ढकोसले से चिढ़ होने लगी तो कमरे में चली गई.

थोड़ी देर बाद जाबिर मियां ने प्रवचन शुरू किया. उन्होंने संबोधन के कुछ शब्द ही बोले थे कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. कमरे से निकल कर आरजू ने जब दरवाजा खोला तो सामने दादी अम्मा खड़ी थीं, साथ में साजिद और मेहनाज भी थे.

कुछ पल के लिए आरजू चौंकी, फिर ‘दादी अम्मा’ कहते हुए उन से लिपट कर रोने लगी. जब दादी अम्मा आंगन में आईं तो उन्हें जिंदा देख कर अफरातफरी मच गई. तीनों बेटे और बहुएं उन्हें भय व आश्चर्य से देखने लगे.

‘‘घबराओ नहीं, अम्मा जिंदा हैं. लेकिन तुम लोगों ने तो इन्हें जीतेजी मार ही दिया था. जब इन्हें रोटी और कपड़ों की जरूरत थी तो पूछा नहीं और अब पकवानों व कपड़ों के ढेर लगा रहे हो. और ये लोग प्रवचन कर रहे हैं, इन की झूठी मौत का बहाना बना कर कमाई कर रहे हैं,’’ साजिद ने अपने दिल की भड़ास निकाल डाली.

आंगन में सन्नाटा सा छा गया. हाजी फुरकान और उन के साथ आए कठमुल्लों की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उन्होंने वहां से खिसकने में ही भलाई समझी. कठमुल्लों के जाने के बाद सारे बच्चे अम्मा से लिपट गए.

‘‘कहां चली गई थीं, दादी अम्मा, मुझे छोड़ कर?’’ आरजू ने आंसू पोंछते हुए पूछा.

‘‘मैं बताता हूं,’’ साजिद ने कहा. और फिर साजिद ने जो बताया उसे सुन कर बेटे और बहुएं शर्म से गड़ गए.

दरअसल, पिछली बार जब दादी अम्मा बीमार पड़ीं तो वे लापरवाह बेटों व बहुओं पर बोझ बनने और अपनी देखभाल न हो पाने के दुख से बचने के लिए दूसरे शहर में बुजुर्गों की देखभाल करने वाले संस्थान में चली गईं, ताकि बाकी जिंदगी वहीं काट सकें. वे साजिद और मेहनाज के पास भी यह सोच कर नहीं गईं कि जब सगे बेटेबहुएं अपने नहीं हुए तो दूर के रिश्तेदार पर बोझ क्यों बना जाए. इस की जानकारी होने पर साजिद और मेहनाज ने तमाम दौड़धूप के बाद उन का पता लगाया और किसी तरह उन्हें वापस घर आने के लिए राजी किया.

‘‘अम्मा, हमें माफ कर दो. हम से बड़ी भूल हो गई. अब हम कभी ऐसा नहीं करेंगे. हमें एक मौका दे दो,’’ कहते हुए तीनों बेटे और बहुएं दादी अम्मा के पास आ गए. उन्होंने एकएक कर के सब को गले लगाया. ऐसा करते उन की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए.

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.